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नारद भक्ति सूत्र (नारद भक्ति दर्शन)

Narad Bhakti Sutra (Narada Bhakti Sutra)

सूत्र 77 - Sutra 77

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सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपिव्यर्थं न नेयम् ॥ 77 ॥

77 - सुख, दुःख, इच्छा, लाभ आदिका (पूर्ण) त्याग हो जाय ऐसे कालकी बाट देखते हुए आधा क्षण भी (भजन बिना) व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये ।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि भक्तिकी सिद्धि होनेपर सुख दुःख, लाभ-हानि आदि सारे द्वन्द्व स्वयमेव मिट जाते हैं। और फिर किसी पदार्थकी इच्छा नहीं रहती । परन्तु ऐसे शुभ समयकी केवल बाट ही देखी जाय और साधन कुछ भी न किया जाय तो वर्तमान हीन दशाका विनाश होकर अचानक वैसी शुभ दशा अपने-आप प्राप्त होगी ही कैसे ? फिर मनुष्यके जीवनका एक क्षणका भी पता नहीं है, न मालूम किस पलमें प्रलय हो जाय, कब मृत्यु आ जाय; इसलिये 'अमुक स्थिति हो जानेपर भगवान्‌का भजन करूँगा' ऐसी धारणाको छोड़ देना चाहिये और अभी जो जिस अवस्था में है, उसे उसी अवस्थामें भगवान्‌की कृपाका आश्रय करके साधना आरम्भ कर देनी चाहिये। आधे क्षणके लिये भी विलम्ब नहीं करना चाहिये। कबीरजी कहते हैं

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब । पलमें परलै होयगी, फेरि करैगा कब ॥ पलक मारते-मारते मृत्युके ग्रास बन जाओगे, फिर कब करोगे। यह मत समझो कि अभी छोटी उम्र है, खेलने खाने और विषय भोगनेका समय है; बड़े-बूढ़े होनेपर भजन करेंगे।' कौन कह सकता है कि तुम बड़े-बूढ़े होनेसे पहले ही नहीं मर जाओगे। मौतकी नंगी तलवार तो सदा ही सिरपर झूल रही है। इसपर एक दृष्टान्त है। एक भ्रमर था, वह कमलके अन्दर बैठा कमलका रस पी रहा था और उसकी सुगन्धसे मस्त हो रहा था; इतनेमें सन्ध्या हो आयी। सूर्यके छिपते ही कमल संकुचित हो जाता है; अतएव कमल बन्द हो गया और मोटे-मोटे शाल और शीशमके पेड़ोंको छेद डालनेकी ताकत रखनेवाला भ्रमर विषयासक्तिके कारण उसके अन्दर ही रह गया और विचार करने लगा...

'रात बीत जायगी, प्रातः काल होगा, सूर्य उदय होंगे और जब उनकी किरणोंके पड़ते ही कमल फिर खिल जायगा, तब मैं इसमेंसे निकल जाऊँगा। इतने आनन्दसे मकरन्दरसका आस्वादन करता रहूँ।'

वह यों विचार कर ही रहा था कि इतनेमें एक मतवाले हाथीने आकर कमलको उखाड़कर मुँहमें डाल लिया और कमलके साथ ही भौंरा भी हाथीके दाँतों में पिस गया। उसके मनका मनोरथ मनहीमें रह गया। अतएव इन विचारोंको तो छोड़ ही देना चाहिये कि अमुक काम होनेपर भजन करेंगे। प्रथम तो मनमानी कामनाओंकी पूर्ति होती ही नहीं और यदि होती है तो एक कामनाकी पूर्ति अनेकों नये-नये अभावोंको साथ लेकर आती है, फिर उनकी पूर्तिके प्रयत्नमें लग जाना पड़ता है। अपूर्ण और अभावमय क्षणभंगुर सांसारिक पदार्थोंसे कभी पूर्ण तृप्ति हो ही नहीं सकती। कितनी ही प्राप्ति हो जाय, रहेगा अभाव ही और अभावके दुःखसे जलते हुए ही विषयकामी मनुष्यको मर जाना पड़ेगा। इसलिये विषयोंकी पूर्ण प्राप्ति और विषयोंके भोगसे पूर्ण तृप्ति हो जाय ऐसे समयकी आशा छोड़कर पहलेसे ही भजनमें लग जाना चाहिये।

इसके सिवा एक बात और विचारणीय है कि आज अच्छे संगसे हमारे मनमें भगवान्‌को या भगवान्‌की भक्तिको प्राप्त करनेकी इच्छा हुई है और हमने क्षणभरके लिये अपने जीवनका ध्येय भगवत्प्राप्ति माना है; परन्तु हम विचार करते हैं कि अमुक स्थिति हो जानेपर इस ध्येयकी प्राप्तिके लिये साधन किया जायगा। क्या हमारा यह विचार धोखेका नहीं है? प्रथम तो यहीं निश्चय नहीं कि अमुक स्थिति प्राप्त हो और फिर यह कौन कह सकता है कि तबतक हमारा ध्येय नहीं बदल जायगा । परन्तु यदि आज हम अपने ध्येय भगवत्प्राप्तिके साधनमें लग जाते हैं तो साधनमार्गमें ज्यों-ज्यों आगे बढ़ेंगे त्यों-त्यों हमारा उसमें विशेष अनुराग होगा, लाभ भी प्रतीत होगा और अभ्यास भी दृढ़ होता जायगा। इसके विपरीत यदि हम केवल ध्येयमात्र मानकर ही चुप रह जाते हैं तो दूसरे ही क्षण, दूसरा संग मिलनेपर हमारा यह ध्येय बदल जायगा । इसलिये कालकी प्रतीक्षा न कर अभीसे भजन-साधन आरम्भ कर देना चाहिये। सत्संगसे प्राप्त सदिच्छाके सुअवसरको खो नहीं देना चाहिये। स्वास्थ्य भी सदा अच्छा रहेगा, यह भी निश्चय नहीं है। जबतक स्वास्थ्य ठीक है तभीतक साधन-भजन होता है। स्वास्थ्य बिगड़ जानेपर, इन्द्रियोंके असक्त हो जानेपर और बुढ़ापा आ जानेपर, यदि पहले पूरा अभ्यास नहीं किया गया है तो भजनमें मन ही नहीं लगेगा।

महाराजा भर्तृहरिने इसीलिये कहा है...

(वैराग्यशतक) 'जबतक शरीर स्वस्थ है, बुढ़ापा नहीं आया है, इन्द्रियोंकी शक्ति पूरी बनी हुई है, आयुके दिन शेष हैं, तभीतक बुद्धिमान् पुरुषको अपने कल्याणके लिये अच्छी तरह यत्न कर लेना चाहिये। घरमें आग लग जानेपर कुआँ खोदने से क्या होगा ?"

इसीलिये भक्तगण भगवान्‌के शरण होकर पुकारा करते हैं...

'आयु प्रतिदिन देखते-देखते नष्ट हो रही है, जवानी बीती जा
रही है, गये हुए दिन लौटकर नहीं आते, काल जगत्को खा रहा है, लक्ष्मी जलके तरंगकी भाँति चंचल है और जीवन तो बिजलीकी चमकके समान अस्थिर है; अतएव हे शरण देनेवाले प्रभु! मुझ शरणागतकी तुम अभी रक्षा करो।'

'हे कृष्ण! तुम्हारे पदकमलरूपी पिंजरेमें मेरा यह मनरूपी राजहंस आज ही प्रवेश कर जाय । प्राण निकलनेके समय जब कफ, वायु और पित्तके बढ़नेपर कण्ठ रुक जायगा, उस समय तुम्हारा स्मरण कहाँसे होगा ?'

अतएव जरा-सा भी काल भगवान्‌के भजनके बिना नहीं बिताना चाहिये। जो समय भगवद्भजनमें जाता है वहीं सार्थक है, शेष सब व्यर्थ है । समयका मूल्य समझकर एक-एक साँसको खूब सावधानीके साथ कंजूसके परिमित पैसोंकी भाँति केवल भगवच्चिन्तनमें ही लगाना उचित है। भजनहीन काल ही वास्तवमें हमारे लिये भयंकर काल है। वही सबसे बड़ी विपत्ति है।

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई ॥


सा हानिस्तन्महच्छिद्रं स मोहः स च विभ्रमः ।
यन्मुहूर्तं क्षणं वापि वासुदेवं न कीर्तयेत् ॥

'जो घड़ी या एक क्षण भी श्रीभगवान्‌के कीर्तन बिना बीत गया उसीको सबसे बड़ा नुकसान, अज्ञान और मोह जानना चाहिये।'

भगवान्‌ के भजनके लिये किसी भी सुभीते के समयकी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये। नहीं तो हमारा अमूल्य मनुष्यजीवन ही वृथा नष्ट हो जायगा। भगवान्‌का भजन ही मनुष्यजीवनका सर्वोत्तम और आदरणीय कर्म है। भजन करते-करते भगवान्‌की कृपासे एक दिन हमारे सारे सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंका अपने-आप ही नाश हो जायगा और भगवत्प्रेमकी निर्मल ज्योतिसे हमारा हृदय जगमगा उठेगा; सब दिशाएँ और सारा ब्रह्माण्ड उस निर्मल शीतल स्निग्ध ज्योतिसे भर जायगा और तब हमारे आनन्दकी कोई सीमा नहीं रहेगी।

वस्तुतः भक्तका काम तो यह सोचना भी नहीं है कि भजनका क्या परिणाम होगा; उसका काम तो केवल प्रेमपूर्वक भजन ही करना है। प्रेमके लिये ही प्रेम करना है, भजनके लिये ही भजन करना है। भजन करना उसका स्वभाव ही बन जाता है, भजन बिना उससे रहा ही नहीं जाता। वह सब कुछ सह सकता है, किन्तु भजनका वियोग उसके लिये असह्य है।

श्रीमद्भागवतमें कहा है—
'यदि भगवान्के भक्तसे कहा जाय कि तुम आधे क्षण या आधे निमेषके लिये भी भगवच्चरणोंका चिन्तन छोड़ दो और त्रिलोकीके सम्पूर्ण वैभवको ले लो, तो वह इस बातको स्वीकार नहीं करता। उसका चित्तरूपी भ्रमर तो अचंचलरूपसे भगवान्‌के उन चारु चरणकमलोंमें ही लगा रहता है, जिनको निरन्तर ध्यानपूर्वक खोजनेपर भी देवता नहीं पा सकते। ऐसा वह भक्त कुछ भी नहीं चाहता।'

वह बार-बार कातर कण्ठसे यही कहता है कि मुझे न मोक्ष चाहिये, न ज्ञान चाहिये, न वैभव चाहिये, न ऋद्धि-सिद्धि चाहिये और न महान् कीर्ति ही चाहिये। किसी भी योनिमें जाना पड़े, कुछ भी हो, इसकी भी तनिक सी चिन्ता नहीं। बस, हे मेरे प्रियतम ! तुम्हारे चरणोंमें मेरा प्रेम, बिना किसी हेतुका प्रेम, पगला प्रेम, अन्धा प्रेम, प्रेममय प्रेम, प्रियतममय प्रेम दिनोंदिन बढ़ता ही रहे।

जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन ॥


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नारद भक्ति सूत्र को नारद भक्ति दर्शन, Narad Bhakti Sutra, Narada Bhakti Sutra, Narad Bhakti Darshan, भक्ति सूत्र, Bhakti Sutra, प्रेम सूत्र, Prem Sutra, प्रेम दर्शन और Prem Darshan आदि नामों से भी जाना जाता है।

नारद भक्ति सूत्र
Index


  1. [सूत्र 1]अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ॥ 1 ॥
  2. [सूत्र 2]सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ॥ 2 ॥
  3. [सूत्र 3]अमृतस्वरूपा च ॥ 3 ॥
  4. [सूत्र 4]यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ॥ 4 ॥
  5. [सूत्र 5]यत्प्राप्य न किंचिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ॥ 5 ॥
  6. [सूत्र 6]यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति ॥ 6 ॥
  7. [सूत्र 7]सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात् ॥ 7 ॥
  8. [सूत्र 8]निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ॥ 8 ॥
  9. [सूत्र 9]तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥ 9 ॥
  10. [सूत्र 10]अन्याश्रयाणां त्यागो ऽनन्यता ॥ 10 ॥
  11. [सूत्र 11]लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ॥ 11 ॥
  12. [सूत्र 12]भवतु निश्चयदादयदूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ॥ 12॥
  13. [सूत्र 13]अन्यथा पातित्याशंकया ॥ 13 ॥
  14. [सूत्र 14]लोकोऽपि तावदेव किन्तु भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीर धारणावधि ॥ 14 ॥
  15. [सूत्र 15]तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ॥ 15 ॥
  16. [सूत्र 16]पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः ॥ 16 ॥
  17. [सूत्र 17]कथादिष्विति गर्गः ॥ 17 ॥
  18. [सूत्र 18]आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ॥ 18 ॥
  19. [सूत्र 19]नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारिता परमव्याकुलतेति ॥ 19 ॥
  20. [सूत्र 20]अस्त्येवमेवम् ॥ 20 ॥
  21. [सूत्र 21]यथा व्रजगोपिकानाम् ॥ 21 ॥
  22. [सूत्र 22]तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ॥ 22 ॥
  23. [सूत्र 23]तद्विहीनं जाराणामिव ॥ 23 ॥
  24. [सूत्र 24]नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम् ॥ 24 ॥
  25. [सूत्र 25]सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ॥ 25 ॥
  26. [सूत्र 26]फलरूपत्वात् ॥ 26 ॥
  27. [सूत्र 27]ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ॥ 27 ॥
  28. [सूत्र 28]तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके ॥ 28 ॥
  29. [सूत्र 29]अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये ॥ 29 ॥
  30. [सूत्र 30]स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः ॥ 30 ॥
  31. [सूत्र 31]राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात् ॥ 31 ॥
  32. [सूत्र 32]न तेन राजपरितोषः क्षुधाशान्तिर्वा ॥ 32 ॥
  33. [सूत्र 33]तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ॥ 33 ॥
  34. [सूत्र 34]तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः ॥ 34 ॥
  35. [सूत्र 35]तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च ॥ 35 ॥
  36. [सूत्र 36]अव्यावृतभजनात् ॥ 36 ॥
  37. [सूत्र 37]लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्त्तनात् ॥ 37 ॥
  38. [सूत्र 38]मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा ॥ 38 ॥
  39. [सूत्र 39]महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च ॥ 39 ॥
  40. [सूत्र 40]लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव ॥ 40 ॥
  41. [सूत्र 41]तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ॥ 41 ॥
  42. [सूत्र 42]तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम् ॥ 42 ॥
  43. [सूत्र 43]दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः ॥ 43 ॥
  44. [सूत्र 44]कामक्रोधमोह स्मृतिभ्रंशबुद्धिनाश सर्वनाश कारणत्वात् ॥ 44 ॥
  45. [सूत्र 45]तरंगायिता अपीमे संगात्समुद्रायन्ति ॥ 45 ॥
  46. [सूत्र 46]कस्तरति कस्तरति मायाम्, यः संगांस्त्यजति यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति ॥ 46 ॥
  47. [सूत्र 47]यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति, निस्त्रैगुण्यो भवति, योगक्षेमं त्यजति ॥ 47 ॥
  48. [सूत्र 48]यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति ॥ 48 ॥
  49. [सूत्र 49]वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते ॥ 49 ॥
  50. [सूत्र 50]स तरति स तरति स लोकांस्तारयति ॥ 50॥
  51. [सूत्र 51]अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ॥ 51 ॥
  52. [सूत्र 52]मूकास्वादनवत् ॥ 52 ॥
  53. [सूत्र 53]प्रकाशते * क्वापि पात्रे ॥ 53 ॥
  54. [सूत्र 54]गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् ॥ 54 ॥
  55. [सूत्र 55]तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शृणोति तदेव भाषयति * तदेव चिन्तयति ॥ 55 ॥
  56. [सूत्र 56]गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा ॥ 56 ॥
  57. [सूत्र 57]उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति ॥ 57 ॥
  58. [सूत्र 58]अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ ॥ 58 ॥
  59. [सूत्र 59]प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात् ॥ 59॥
  60. [सूत्र 60]शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च ॥ 60 ॥
  61. [सूत्र 61]लोकानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ॥ 61 ॥
  62. [सूत्र 62]न तदसिद्धौर लोकव्यवहारो हेयः किन्तु फलत्यागस्तत् साधनं च कार्यमेव ॥ 62 ॥
  63. [सूत्र 63]स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ॥ 63 ॥
  64. [सूत्र 64]अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ॥ 64 ॥
  65. [सूत्र 65]तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ॥ 65 ॥
  66. [सूत्र 66]त्रिरूपभंगपूर्वकं नित्यदासनित्यकान्ताभजनात्मकं वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम् ॥ 66
  67. [सूत्र 67]भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ॥ 67 ॥
  68. [सूत्र 68]कण्ठावरोधरोमांचाश्रुभिः परस्परं लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ॥ 68 ॥
  69. [सूत्र 69]तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि ॥ 69 ॥
  70. [सूत्र 70]तन्मयाः ॥ 70 ॥
  71. [सूत्र 71]मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथा चेयं भूर्भवति ॥ 71 ॥
  72. [सूत्र 72]नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ॥ 72 ॥
  73. [सूत्र 73]यतस्तदीयाः ॥ 73 ॥
  74. [सूत्र 74]वादो नावलम्ब्यः ॥ 74 ॥
  75. [सूत्र 75]बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ॥ 75 ॥
  76. [सूत्र 76]भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्बोधककर्माण्यपि करणीयानि ॥ 76 ॥
  77. [सूत्र 77]सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपिव्यर्थं न नेयम् ॥ 77 ॥
  78. [सूत्र 78]अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारित्र्याणि परिपाल नीयानि ॥ 78 ॥
  79. [सूत्र 79]सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेव भजनीयः ॥ 79 ॥
  80. [सूत्र 80]स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च भक्तान् ॥ 80 ॥
  81. [सूत्र 81]त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी ॥ 81 ॥
  82. [सूत्र 82]गुणमाहात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति स्मरणासक्ति दास्यासक्ति सख्यासक्ति वात्सल्यसक्ति कान्तासक्ति आत्मनिवेदनासक्ति तन्मयतासक्ति परमविरहासक्ति रूपाएकधा अपि एकादशधा भवति ॥ 82 ॥
  83. [सूत्र 83]इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भयाः एकमताः कुमार व्यास शुक शाण्डिल्य गर्ग विष्णु कौण्डिण्य शेषोद्धवारुणि बलि हनुमद् विभीषणादयो भक्त्याचार्याः ॥ 83॥
  84. [सूत्र 84]य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रद्धत्ते स प्रेष्ठं लभते स प्रेष्ठं लभत इति ॥ 84 ॥