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नारद भक्ति सूत्र (नारद भक्ति दर्शन)

Narad Bhakti Sutra (Narada Bhakti Sutra)

सूत्र 5 - Sutra 5

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यत्प्राप्य न किंचिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ॥ 5 ॥

5- जिसके (प्रेमस्वरूपा भक्तिके) प्राप्त होनेपर मनुष्य न किसी भी वस्तुकी इच्छा करता है, न शोक करता है, न द्वेष करता है, न किसी वस्तुमें आसक्त होता है और न उसे (विषयभोगोंकी प्राप्तिमें) उत्साह होता है।

वह प्रेमी भक्त उस परम महान् वस्तुको पा लेता है, जिसके पानेपर सारी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं। जगत्के प्रेम, ऐश्वर्य, सौन्दर्य, बल, यश, ज्ञान, वैराग्य आदि समस्त पदार्थ, जिनके लिये भोगी और त्यागी सभी मनुष्य अपनी-अपनी रुचिके अनुसार सदा ललचाते रहते हैं, भगवत्प्रेमरूपी दुर्लभ पदार्थके सामने अत्यन्त तुच्छ हैं। विश्वभरमें फैले हुए उपर्युक्त समस्त पदार्थों को एक स्थानपर एकत्रित किया जाय तो भी सब मिलकर जिस भगवानुरूपी समुद्रके एक जलकणके समान ही होते हैं, वे भगवान् स्वयं जिस प्रेमके आकर्षणसे सदा खिंचे रहते हैं, उस प्रेमके सामने संसारके पदार्थ किस गिनतीमें हैं ?

श्रीशुकदेव मुनि कहते हैं....

जो परम कल्याणके स्वामी भगवान् श्रीहरिकी भक्ति करता है वह अमृतके समुद्रमें क्रीड़ा करता है। गढ़यामें भरे हुए मामूली गन्दे जलके सदृश किसी भी भोगमें या स्वर्गादिमें उसका मन चलायमान नहीं होता।' प्रेमामृतसमुद्रमें डूबा हुआ भक्त क्यों अन्य पदार्थोंकी इच्छाकरने लगा ?

जैसे भक्त भोग, मोक्ष आदिकी इच्छा नहीं करता; वैसे ही इनके नष्ट हो जानेका शोक भी नहीं करता। भोगोंके नाशको वह परमात्माकी लीला समझता है, इससे सदा - हर हालतमें आनन्दमें ही रहता है। परन्तु भगवत्प्रेमके सेवनमें यदि सायुज्य मोक्षके साधनमें कमी आती है तो वह उसके लिये भी शोक नहीं करता; वरं सदा यही चाहता है कि मेरा भगवत्प्रेम बढ़ता रहे, चाहे जन्म कितने ही क्यों न धारण करने पड़ें।

इसी प्रकार वह किसी जीवसे या लौकिक दृष्टिसे प्रतिकूल माने जानेवाले पदार्थ या स्थितिसे कभी द्वेष नहीं करता। वह सब जीवोंमें अपने प्रभुको और सब पदार्थों और स्थितिमें प्रभुकी लीलाको देख-देखकर क्षण-क्षणमें आनन्दित होता है।

गोपियाँ उद्धवजीसे कहती हैं
ऊधौ, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयो स्याम सँग, को आराधै ईस ॥

मन अपने पास रहता ही नहीं, तब वह दूसरेमें कैसे रमे ? इसीलिये तो प्रेमियोंके भगवान्‌का नाम 'मनचोर' हैं
मधुकर स्याम हमारे चोर ।
मन हर लियो माधुरी मूरति निरख नयनकी कोर ॥

वे प्रेमी भक्तके चित्तको ऐसी चातुरीसे चुराकर अपनी सम्पत्ति बना लेते हैं कि उसपर दूसरेकी कभी नजर भी नहीं पड़ सकती। दूसरा कोई दीखे तब न कहीं उसमें आसक्ति या प्रीति हो, परन्तु जहाँ मनमें दूसरेकी कल्पनातकको स्थान नहीं मिलता, वहाँ किसमें कैसे आसक्ति या रति हो। 

प्रेममयी गोपियोंने कहा है.....

स्याम तन स्याम मन स्याम है हमारो धन,आठों जाम ऊधौ हमें स्याम ही सों काम है ॥
स्याम हिये स्याम जिये स्याम बिनु नाहिं तिये, आँधेकी-सी लाकरी अधार स्याम नाम है ॥
स्याम गति स्याम मति स्याम ही है प्रानपति, स्याम सुखदाई सों भलाई सोभाधाम है ॥
ऊधौ तुम भए बौरे पाती लैके आए दौरे, जोग कहाँ राखेँ यहाँ रोम-रोम स्याम है ॥

जब एक प्रियतम श्रीकृष्णको छोड़कर दूसरेका मनमें प्रवेश ही निषिद्ध है तब दूसरे किसीकी प्राप्तिके लिये उत्साह तो हो ही कैसे? कोई किसीको देखे, सुने, उसके लिये मनमें इच्छा उत्पन्न हो, तब न उसके लिये प्रयत्न किया जाय ? मन किसीमें रमे, तब न उसे पानेके लिये उत्साह हो। मन तो पहलेसे ही किसी एकका हो गया; उसने मनपर अपना पूरा अधिकार जमा लिया और स्वयं उसमें आकर सदाके लिये बस गया। दूसरे किसीके लिये कोई गुंजाइश ही नहीं रह गयी; यदि कोई आता भी है तो उसे दूरसे ही लौट जाना पड़ता है! क्या करें, जगह ही नहीं रही।

रोम रोम हरि रमि रहे, रही न तनि कौ ठौर ।

नेत्र बेचारे मनकी अनुमति बिना किसको देखें ? जब कोई कहीं दीखता ही नहीं, तब उसको पानेके लिये उत्साहकी बात ही नहीं रह जाती।

दूसरी बात यह है कि उत्साह होता है मनुष्यको किसी सुखकी इच्छासे। जब समस्त सुखोंका खजाना ही अपने पास है तब क्षुद्र सुखके लिये उत्साह कैसे हो? इसलिये प्रेमोत्साहके पुतले भगवत्प्रेमी पुरुषोंमें लौकिक कार्योंके प्रति-विषयोंके प्रति कोई भी उत्साह नहीं देखा जाता।

भगवान्ने स्वयं कहा है...
'जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता। है, न कामना करता है तथा जो शुभ, अशुभ सबका त्यागी है, वह भक्तिमान् पुरुष मुझको प्रिय है।'

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नारद भक्ति सूत्र को नारद भक्ति दर्शन, Narad Bhakti Sutra, Narada Bhakti Sutra, Narad Bhakti Darshan, भक्ति सूत्र, Bhakti Sutra, प्रेम सूत्र, Prem Sutra, प्रेम दर्शन और Prem Darshan आदि नामों से भी जाना जाता है।

नारद भक्ति सूत्र
Index


  1. [सूत्र 1]अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ॥ 1 ॥
  2. [सूत्र 2]सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ॥ 2 ॥
  3. [सूत्र 3]अमृतस्वरूपा च ॥ 3 ॥
  4. [सूत्र 4]यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ॥ 4 ॥
  5. [सूत्र 5]यत्प्राप्य न किंचिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ॥ 5 ॥
  6. [सूत्र 6]यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति ॥ 6 ॥
  7. [सूत्र 7]सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात् ॥ 7 ॥
  8. [सूत्र 8]निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ॥ 8 ॥
  9. [सूत्र 9]तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥ 9 ॥
  10. [सूत्र 10]अन्याश्रयाणां त्यागो ऽनन्यता ॥ 10 ॥
  11. [सूत्र 11]लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ॥ 11 ॥
  12. [सूत्र 12]भवतु निश्चयदादयदूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ॥ 12॥
  13. [सूत्र 13]अन्यथा पातित्याशंकया ॥ 13 ॥
  14. [सूत्र 14]लोकोऽपि तावदेव किन्तु भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीर धारणावधि ॥ 14 ॥
  15. [सूत्र 15]तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ॥ 15 ॥
  16. [सूत्र 16]पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः ॥ 16 ॥
  17. [सूत्र 17]कथादिष्विति गर्गः ॥ 17 ॥
  18. [सूत्र 18]आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ॥ 18 ॥
  19. [सूत्र 19]नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारिता परमव्याकुलतेति ॥ 19 ॥
  20. [सूत्र 20]अस्त्येवमेवम् ॥ 20 ॥
  21. [सूत्र 21]यथा व्रजगोपिकानाम् ॥ 21 ॥
  22. [सूत्र 22]तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ॥ 22 ॥
  23. [सूत्र 23]तद्विहीनं जाराणामिव ॥ 23 ॥
  24. [सूत्र 24]नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम् ॥ 24 ॥
  25. [सूत्र 25]सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ॥ 25 ॥
  26. [सूत्र 26]फलरूपत्वात् ॥ 26 ॥
  27. [सूत्र 27]ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ॥ 27 ॥
  28. [सूत्र 28]तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके ॥ 28 ॥
  29. [सूत्र 29]अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये ॥ 29 ॥
  30. [सूत्र 30]स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः ॥ 30 ॥
  31. [सूत्र 31]राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात् ॥ 31 ॥
  32. [सूत्र 32]न तेन राजपरितोषः क्षुधाशान्तिर्वा ॥ 32 ॥
  33. [सूत्र 33]तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ॥ 33 ॥
  34. [सूत्र 34]तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः ॥ 34 ॥
  35. [सूत्र 35]तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च ॥ 35 ॥
  36. [सूत्र 36]अव्यावृतभजनात् ॥ 36 ॥
  37. [सूत्र 37]लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्त्तनात् ॥ 37 ॥
  38. [सूत्र 38]मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा ॥ 38 ॥
  39. [सूत्र 39]महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च ॥ 39 ॥
  40. [सूत्र 40]लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव ॥ 40 ॥
  41. [सूत्र 41]तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ॥ 41 ॥
  42. [सूत्र 42]तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम् ॥ 42 ॥
  43. [सूत्र 43]दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः ॥ 43 ॥
  44. [सूत्र 44]कामक्रोधमोह स्मृतिभ्रंशबुद्धिनाश सर्वनाश कारणत्वात् ॥ 44 ॥
  45. [सूत्र 45]तरंगायिता अपीमे संगात्समुद्रायन्ति ॥ 45 ॥
  46. [सूत्र 46]कस्तरति कस्तरति मायाम्, यः संगांस्त्यजति यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति ॥ 46 ॥
  47. [सूत्र 47]यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति, निस्त्रैगुण्यो भवति, योगक्षेमं त्यजति ॥ 47 ॥
  48. [सूत्र 48]यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति ॥ 48 ॥
  49. [सूत्र 49]वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते ॥ 49 ॥
  50. [सूत्र 50]स तरति स तरति स लोकांस्तारयति ॥ 50॥
  51. [सूत्र 51]अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ॥ 51 ॥
  52. [सूत्र 52]मूकास्वादनवत् ॥ 52 ॥
  53. [सूत्र 53]प्रकाशते * क्वापि पात्रे ॥ 53 ॥
  54. [सूत्र 54]गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् ॥ 54 ॥
  55. [सूत्र 55]तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शृणोति तदेव भाषयति * तदेव चिन्तयति ॥ 55 ॥
  56. [सूत्र 56]गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा ॥ 56 ॥
  57. [सूत्र 57]उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति ॥ 57 ॥
  58. [सूत्र 58]अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ ॥ 58 ॥
  59. [सूत्र 59]प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात् ॥ 59॥
  60. [सूत्र 60]शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च ॥ 60 ॥
  61. [सूत्र 61]लोकानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ॥ 61 ॥
  62. [सूत्र 62]न तदसिद्धौर लोकव्यवहारो हेयः किन्तु फलत्यागस्तत् साधनं च कार्यमेव ॥ 62 ॥
  63. [सूत्र 63]स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ॥ 63 ॥
  64. [सूत्र 64]अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ॥ 64 ॥
  65. [सूत्र 65]तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ॥ 65 ॥
  66. [सूत्र 66]त्रिरूपभंगपूर्वकं नित्यदासनित्यकान्ताभजनात्मकं वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम् ॥ 66
  67. [सूत्र 67]भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ॥ 67 ॥
  68. [सूत्र 68]कण्ठावरोधरोमांचाश्रुभिः परस्परं लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ॥ 68 ॥
  69. [सूत्र 69]तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि ॥ 69 ॥
  70. [सूत्र 70]तन्मयाः ॥ 70 ॥
  71. [सूत्र 71]मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथा चेयं भूर्भवति ॥ 71 ॥
  72. [सूत्र 72]नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ॥ 72 ॥
  73. [सूत्र 73]यतस्तदीयाः ॥ 73 ॥
  74. [सूत्र 74]वादो नावलम्ब्यः ॥ 74 ॥
  75. [सूत्र 75]बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ॥ 75 ॥
  76. [सूत्र 76]भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्बोधककर्माण्यपि करणीयानि ॥ 76 ॥
  77. [सूत्र 77]सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपिव्यर्थं न नेयम् ॥ 77 ॥
  78. [सूत्र 78]अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारित्र्याणि परिपाल नीयानि ॥ 78 ॥
  79. [सूत्र 79]सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेव भजनीयः ॥ 79 ॥
  80. [सूत्र 80]स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च भक्तान् ॥ 80 ॥
  81. [सूत्र 81]त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी ॥ 81 ॥
  82. [सूत्र 82]गुणमाहात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति स्मरणासक्ति दास्यासक्ति सख्यासक्ति वात्सल्यसक्ति कान्तासक्ति आत्मनिवेदनासक्ति तन्मयतासक्ति परमविरहासक्ति रूपाएकधा अपि एकादशधा भवति ॥ 82 ॥
  83. [सूत्र 83]इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भयाः एकमताः कुमार व्यास शुक शाण्डिल्य गर्ग विष्णु कौण्डिण्य शेषोद्धवारुणि बलि हनुमद् विभीषणादयो भक्त्याचार्याः ॥ 83॥
  84. [सूत्र 84]य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रद्धत्ते स प्रेष्ठं लभते स प्रेष्ठं लभत इति ॥ 84 ॥