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नारद भक्ति सूत्र (नारद भक्ति दर्शन)

Narad Bhakti Sutra (Narada Bhakti Sutra)

सूत्र 76 - Sutra 76

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भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्बोधककर्माण्यपि करणीयानि ॥ 76 ॥

76-(उस प्रेमाभक्तिकी प्राप्तिके लिये) भक्तिशास्त्रका मनन करते रहना चाहिये और ऐसे कर्म भी करने चाहिये जिनसे भक्तिकी वृद्धि हो ।

भक्ति चाहनेवालोंको न कोई ग्रन्थ देखना चाहिये और न कोई कर्म करना चाहिये ऐसी बात नहीं है। उनको तर्क वितर्कका त्याग करके बार-बार ऐसे ग्रन्थोंको अवश्य देखना चाहिये जिनमें भगवान्‌की भक्तिका निरूपण हो, भक्तिका माहात्म्य हो, भक्तिके साधन बतलाये गये हों, भगवान्‌के प्यारे भक्तोंके पुण्यचरित्रोंकी कथाएँ हों और भक्तिके वशमें होकर रहनेवाले भगवान्‌के प्रभाव, रहस्य और गुणोंका वर्णन हो। ऐसे भक्तिशास्त्रोंके अध्ययनसे, महात्मा भक्त सन्तोंकी वाणियोंके श्रवण और पठनसे भगवान् के प्रति प्रेमाभक्तिका उदय होता है।

हाँ, भक्ति चाहनेवाले पुरुषोंको ऐसी पुस्तकें कभी नहीं पढ़नी सुननी चाहिये जिनमें श्रीभगवान्‌का और भक्तिका खण्डन हो, उनका महत्त्व कम बतलाया गया हो और भक्तोंकी निन्दा हो, अथवा जिनमें लौकिक विषयोंकी महत्ताका ही वर्णन हो। ऐसी भक्ति पुस्तकें भी उन्हें लाभदायक नहीं होतीं जिनमें भगवान्, और भक्तोंका महत्त्व न हो। इसके सिवा राग-द्वेष, काम-क्रोध और वैर-विरोध उत्पन्न करनेवाला साहित्य तो छूना भी नहीं चाहिये। इसीलिये ऐसा कहा गया है कि यस्मिन् शास्त्रे पुराणे वा हरिभक्तिर्न दृश्यते । श्रोतव्यं नैव तच्छास्त्रं यदि ब्रह्मा स्वयं वदेत् ॥ 'जिस शास्त्र या पुराणमें भगवान्‌की भक्ति न दिखलायी दे, ब्रह्माके द्वारा कहा हुआ होनेपर भी उसको नहीं सुनना चाहिये।' साथ ही कर्म भी ऐसे करने चाहिये, जिनसे भक्तिकी जागृति और वृद्धि हो ।

भक्तिकामी पुरुषको निषिद्ध (पाप) कर्मोंका तो बिलकुल ही त्याग कर देना चाहिये। जो विषयोंकी आसक्तिवश पापकर्मोंको नहीं छोड़ना चाहता और भक्त भी कहलाना चाहता है। वह या तो स्वयं भ्रममें है या जान-बूझकर भ्रम फैलाना चाहता है।

भक्तिकी प्राप्तिमें सहायक कर्मोंमें प्रधान निम्नलिखित हैं...

1- अपने वर्ण और आश्रमके धर्मोका यथासम्भव पूरा पालन। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासीके लिये त्यागपूर्ण आचरण और गृहस्थके लिये भगवत्प्रीत्यर्थ माता-पिता, स्त्री पुत्र-परिवार आदि आश्रित जनोंका प्रेम और सत्कारपूर्वक पालन, न्याय और सत्यपूर्वक जीविकानिर्वाह एवं शास्त्रोक्त यज्ञ, दान, तप आदि ।

2- सदाचारका पालन ।

3- सत्संग और भगवद्गुणानुवादका श्रवण, चिन्तन और कीर्तन |

4- भगवन्नामका जप, स्मरण और कीर्तन ।

5–भगवत्-पूजन, स्तुति - प्रार्थना और नमस्कार

6 - सन्त-भक्तोंकी सेवा और श्रद्धापूर्वक उनकी आज्ञाका पालन ।

7- तीर्थसेवन

8-दीन प्राणियोंपर दया और यथासाध्य तन-मन-धनसे उनकी सेवा।

9 - सब कर्मोंको भगवान्‌के प्रति अर्पण ।

10 - सब प्राणियोंमें भगवान्को देखनेका अभ्यास।

श्रीभगवान् स्वयं कहते हैं...
(श्रीमद्भागवत 11 19 20 - 24 )
'मेरी अमृतके समान कल्याणमयी कथामें श्रद्धा, निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन, मेरी पूजामें पूर्ण निष्ठा, स्तोत्रोंके द्वारा मेरी स्तुति, मेरी सेवामें निरन्तर आदर, सब अंगोंसे मुझको नमस्कार, मेरे भक्तोंका विशेषरूपसे पूजन, सब प्राणियोंमें मुझे देखना, मेरे लिये ही सारे लौकिक कर्म करना, बातचीत में केवल मेरे ही गुणोंकी चर्चा करना, मनको मुझमें ही अर्पण कर देना, समस्त कामनाओंको छोड़ देना, मेरे लिये धन, भोग और सुखोंको त्याग देना और मेरे ही लिये यज्ञ, दान, होम, जप, तप और व्रतादि शास्त्रोक्त कर्मोंको करना। हे उद्धव ! आत्मनिवेदनपूर्वक इन धर्मोके द्वारा मेरी उपासना करनेसे मनुष्योंको मेरी प्रेमरूपा भक्ति प्राप्त होती है। फिर उनको कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रह जाता।'


प्रबुद्ध नामक योगीश्वरने महाराजा निमिसे प्रेमरूपा भक्तिकी प्राप्तिके साधन इस प्रकार बतलाये हैं...


 'जिसको अपना परम कल्याण जाननेकी इच्छा हो, उसे वेदके ज्ञाता और परब्रह्ममें स्थित शान्तस्वरूप गुरुकी शरण जाना चाहिये। और गुरुको ही आत्मा एवं इष्टदेव समझकर निष्कपटभावसे उनकी सेवा करके उन भागवत-धर्मोंको सीखना चाहिये, जिनसे अपने-आपको दे डालनेवाले परमात्मा हरि प्रसन्न हो जाते हैं। मनसे सब विषय-भोगोंमें वैराग्य, साधु-महात्माओंका संग, सब प्राणियोंके प्रति यथायोग्य (दीनोंके प्रति ) दया, (समान अवस्था वालोंसे) मित्रता और (बड़ोंके प्रति विनयका व्यवहार), तन मन-धनसे पवित्र रहना, कष्ट सहकर भी अपने वर्णाश्रमधर्मका पालनरूपी तप करना, शीत, उष्ण आदिको सहना, व्यर्थ बातचीतका त्याग या भगवान्‌का मनन, स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंमें समभाव, सर्वत्र सब जीवोंमें अपने आपको तथा ईश्वरको देखना, एकान्तमें रहना, घर आदिको भगवान्‌का मानना, शुद्ध साधारण वस्त्र पहनना, जो कुछ भी मिले उसीमें सन्तोष मानना, भगवान्का गुण गानेवाले शास्त्रों में श्रद्धा रखना, दूसरे शास्त्रोंकी निन्दा न करना, मन, वाणी और कर्मों का संयम, सत्यभाषण, मन और इन्द्रियोंको वशमें रखना, अद्भुत लीला करनेवाले श्रीहरिके जन्म, कर्म और गुणोंका श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना, भगवान्‌के लिये ही सब विहित कर्म करना, यज्ञ, दान, तप, जप आदि सदाचार, अपने प्रिय लगनेवाले सब पदार्थ और स्त्री, पुत्र, घर तथा प्राणोंको भी परमात्माके अर्पण कर देना, और इस प्रकार भगवान् ही जिनके आत्मा और स्वामी हैं ऐसे भक्तोंसे मित्रता करना, जड-चेतन जीवोंकी, मनुष्योंकी और उनमें भी साधुस्वभाववाले महापुरुषोंकी विशेषरूपसे सेवा करना, परस्परमें भगवान्‌के पवित्र यशका कथन करना और इस भगवद्गुणगानके द्वारा ही परस्पर प्रीति, तुष्टि और दुःखोंकी निवृत्ति करना - ये सब साधन सद्गुरुके समीप रहकर सीखने चाहिये। इस प्रकार बर्ताव करनेवाले और पापसमूहके नाशक श्रीहरिका स्वयं स्मरण करने और दूसरोंसे करानेवाले भक्तोंके हृदयमें इस साधनरूपा भक्तिके द्वारा प्रेमलक्षणा भक्ति उत्पन्न हो जाती है और उनका शरीर पुलकित हो जाता है, वह फिर प्रेममग्न हो जाते हैं।"


इस प्रकार श्रीमद्भागवत, श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीरामायण आदि भक्तिप्रधान ग्रन्थोंके श्रवण-पठनसे तथा उपर्युक्त प्रकारसे सत्संग, नाम-जप, नाम-कीर्तनादि भक्तिवर्धक सत्कार्योंके भगवत्प्रीत्यर्थ करनेसे भक्तिकी वृद्धि होती है । भक्तको सदा साधुस्वभाव और सत्कार्योंमें ही रत होना चाहिये तभी उनकी भक्ति बढ़ती है।

श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् श्रीकृष्णने अपने प्यारे भक्तोंके लक्षण बतलाते हुए कहा है...

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ॥
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिय मद्भक्तः स मे प्रियः ॥
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः च मे प्रियः ॥
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः ॥
तुल्यनिन्दास्तुतिमनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥ (12 । 13–20)

'जो किसी भी जीवसे द्वेष नहीं रखता, जो सबका मित्र और दयालु है, जो ममता और अहंकारसे रहित, सुख दुःखोंकी प्राप्तिमें समभाववाला और क्षमाशील है, जिसका चित्त निरन्तर मुझमें लगा है, जो सदा सन्तुष्ट है, मन और इन्द्रियोंको जीते हुए है, मुझमें दृढ़निश्चयी है और जिसने अपने मन-बुद्धिको मुझे सौंप रखा है वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है। जिससे किसी जीवको उद्वेग नहीं होता और जो स्वयं किसीसे उद्विग्न नहीं होता, जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगोंसे छूटा हुआ है वह भक्त मुझको प्रिय है। जिसको किसी भी वस्तुकी अपेक्षा नहीं है, जो शुद्ध, चतुर और उदासीन है, जो दुःखोंसे मुक्त है और मैं करनेवाला हूँ' इस अभिमानसे किसी कार्यका आरम्भ नहीं करता (सब कुछ भगवान्‌का ही किया मानता है) वह मेरा भक्त मुझको प्रिय है। जोन हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है और न कुछ चाहता ही है, जो शुभ और अशुभ किसी भी कर्मको आसक्ति और फलकी इच्छासे नहीं करता वह भक्तिमान् पुरुष मुझको प्रिय है। जो शत्रु-मित्रमें, मान-अपमानमें और सर्दी-गर्मी तथा सुख दुःखादि द्वन्द्वोंमें समानभाव रखता है, जिसकी (मुझको छोड़कर) किसी भी पदार्थमें आसक्ति नहीं है, जो निन्दास्तुतिको समान समझता है, जो चित्त तथा वाणीसे केवल मेरा ही मनन और कथन करता है और जो किसी भी प्रकार जीवननिर्वाह होनेमें सन्तोष रखता है, जिसका अपना कोई घर नहीं है अर्थात् जो घरमें ममत्वरहित है या जो घर-द्वार सबको भगवान्‌ के मान चुका है वह स्थिरबुद्धि भक्त पुरुष मुझको प्रिय है। जो श्रद्धावान् पुरुष मेरे ही परायण होकर उपर्युक्त धर्ममय अमृतका भलीभाँति सेवन करते हैं वे भक्त तो मुझको अत्यन्त ही प्रिय हैं।'


श्रीभगवान्के बतलाये हुए ये लक्षण सिद्ध भक्तोंमें तो स्वाभाविक होते हैं और भक्तिके साधकोंको इन्हें अपना आदर्श मानकर इनके अनुसार आचरण करनेकी चेष्टा करनी चाहिये । इस प्रकार भक्तिशास्त्रके अध्ययन-मननसे तथा भक्तिको बढ़ानेवाले साधनोंमें लगे रहनेसे भक्तको योगिजनदुर्लभ प्रेमरूपा भक्तिकी प्राप्ति होती है।

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नारद भक्ति सूत्र को नारद भक्ति दर्शन, Narad Bhakti Sutra, Narada Bhakti Sutra, Narad Bhakti Darshan, भक्ति सूत्र, Bhakti Sutra, प्रेम सूत्र, Prem Sutra, प्रेम दर्शन और Prem Darshan आदि नामों से भी जाना जाता है।

नारद भक्ति सूत्र
Index


  1. [सूत्र 1]अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ॥ 1 ॥
  2. [सूत्र 2]सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ॥ 2 ॥
  3. [सूत्र 3]अमृतस्वरूपा च ॥ 3 ॥
  4. [सूत्र 4]यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ॥ 4 ॥
  5. [सूत्र 5]यत्प्राप्य न किंचिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ॥ 5 ॥
  6. [सूत्र 6]यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति ॥ 6 ॥
  7. [सूत्र 7]सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात् ॥ 7 ॥
  8. [सूत्र 8]निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ॥ 8 ॥
  9. [सूत्र 9]तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥ 9 ॥
  10. [सूत्र 10]अन्याश्रयाणां त्यागो ऽनन्यता ॥ 10 ॥
  11. [सूत्र 11]लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ॥ 11 ॥
  12. [सूत्र 12]भवतु निश्चयदादयदूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ॥ 12॥
  13. [सूत्र 13]अन्यथा पातित्याशंकया ॥ 13 ॥
  14. [सूत्र 14]लोकोऽपि तावदेव किन्तु भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीर धारणावधि ॥ 14 ॥
  15. [सूत्र 15]तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ॥ 15 ॥
  16. [सूत्र 16]पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः ॥ 16 ॥
  17. [सूत्र 17]कथादिष्विति गर्गः ॥ 17 ॥
  18. [सूत्र 18]आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ॥ 18 ॥
  19. [सूत्र 19]नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारिता परमव्याकुलतेति ॥ 19 ॥
  20. [सूत्र 20]अस्त्येवमेवम् ॥ 20 ॥
  21. [सूत्र 21]यथा व्रजगोपिकानाम् ॥ 21 ॥
  22. [सूत्र 22]तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ॥ 22 ॥
  23. [सूत्र 23]तद्विहीनं जाराणामिव ॥ 23 ॥
  24. [सूत्र 24]नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम् ॥ 24 ॥
  25. [सूत्र 25]सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ॥ 25 ॥
  26. [सूत्र 26]फलरूपत्वात् ॥ 26 ॥
  27. [सूत्र 27]ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ॥ 27 ॥
  28. [सूत्र 28]तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके ॥ 28 ॥
  29. [सूत्र 29]अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये ॥ 29 ॥
  30. [सूत्र 30]स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः ॥ 30 ॥
  31. [सूत्र 31]राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात् ॥ 31 ॥
  32. [सूत्र 32]न तेन राजपरितोषः क्षुधाशान्तिर्वा ॥ 32 ॥
  33. [सूत्र 33]तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ॥ 33 ॥
  34. [सूत्र 34]तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः ॥ 34 ॥
  35. [सूत्र 35]तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च ॥ 35 ॥
  36. [सूत्र 36]अव्यावृतभजनात् ॥ 36 ॥
  37. [सूत्र 37]लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्त्तनात् ॥ 37 ॥
  38. [सूत्र 38]मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा ॥ 38 ॥
  39. [सूत्र 39]महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च ॥ 39 ॥
  40. [सूत्र 40]लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव ॥ 40 ॥
  41. [सूत्र 41]तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ॥ 41 ॥
  42. [सूत्र 42]तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम् ॥ 42 ॥
  43. [सूत्र 43]दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः ॥ 43 ॥
  44. [सूत्र 44]कामक्रोधमोह स्मृतिभ्रंशबुद्धिनाश सर्वनाश कारणत्वात् ॥ 44 ॥
  45. [सूत्र 45]तरंगायिता अपीमे संगात्समुद्रायन्ति ॥ 45 ॥
  46. [सूत्र 46]कस्तरति कस्तरति मायाम्, यः संगांस्त्यजति यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति ॥ 46 ॥
  47. [सूत्र 47]यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति, निस्त्रैगुण्यो भवति, योगक्षेमं त्यजति ॥ 47 ॥
  48. [सूत्र 48]यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति ॥ 48 ॥
  49. [सूत्र 49]वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते ॥ 49 ॥
  50. [सूत्र 50]स तरति स तरति स लोकांस्तारयति ॥ 50॥
  51. [सूत्र 51]अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ॥ 51 ॥
  52. [सूत्र 52]मूकास्वादनवत् ॥ 52 ॥
  53. [सूत्र 53]प्रकाशते * क्वापि पात्रे ॥ 53 ॥
  54. [सूत्र 54]गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् ॥ 54 ॥
  55. [सूत्र 55]तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शृणोति तदेव भाषयति * तदेव चिन्तयति ॥ 55 ॥
  56. [सूत्र 56]गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा ॥ 56 ॥
  57. [सूत्र 57]उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति ॥ 57 ॥
  58. [सूत्र 58]अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ ॥ 58 ॥
  59. [सूत्र 59]प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात् ॥ 59॥
  60. [सूत्र 60]शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च ॥ 60 ॥
  61. [सूत्र 61]लोकानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ॥ 61 ॥
  62. [सूत्र 62]न तदसिद्धौर लोकव्यवहारो हेयः किन्तु फलत्यागस्तत् साधनं च कार्यमेव ॥ 62 ॥
  63. [सूत्र 63]स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ॥ 63 ॥
  64. [सूत्र 64]अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ॥ 64 ॥
  65. [सूत्र 65]तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ॥ 65 ॥
  66. [सूत्र 66]त्रिरूपभंगपूर्वकं नित्यदासनित्यकान्ताभजनात्मकं वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम् ॥ 66
  67. [सूत्र 67]भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ॥ 67 ॥
  68. [सूत्र 68]कण्ठावरोधरोमांचाश्रुभिः परस्परं लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ॥ 68 ॥
  69. [सूत्र 69]तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि ॥ 69 ॥
  70. [सूत्र 70]तन्मयाः ॥ 70 ॥
  71. [सूत्र 71]मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथा चेयं भूर्भवति ॥ 71 ॥
  72. [सूत्र 72]नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ॥ 72 ॥
  73. [सूत्र 73]यतस्तदीयाः ॥ 73 ॥
  74. [सूत्र 74]वादो नावलम्ब्यः ॥ 74 ॥
  75. [सूत्र 75]बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ॥ 75 ॥
  76. [सूत्र 76]भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्बोधककर्माण्यपि करणीयानि ॥ 76 ॥
  77. [सूत्र 77]सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपिव्यर्थं न नेयम् ॥ 77 ॥
  78. [सूत्र 78]अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारित्र्याणि परिपाल नीयानि ॥ 78 ॥
  79. [सूत्र 79]सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेव भजनीयः ॥ 79 ॥
  80. [सूत्र 80]स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च भक्तान् ॥ 80 ॥
  81. [सूत्र 81]त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी ॥ 81 ॥
  82. [सूत्र 82]गुणमाहात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति स्मरणासक्ति दास्यासक्ति सख्यासक्ति वात्सल्यसक्ति कान्तासक्ति आत्मनिवेदनासक्ति तन्मयतासक्ति परमविरहासक्ति रूपाएकधा अपि एकादशधा भवति ॥ 82 ॥
  83. [सूत्र 83]इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भयाः एकमताः कुमार व्यास शुक शाण्डिल्य गर्ग विष्णु कौण्डिण्य शेषोद्धवारुणि बलि हनुमद् विभीषणादयो भक्त्याचार्याः ॥ 83॥
  84. [सूत्र 84]य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रद्धत्ते स प्रेष्ठं लभते स प्रेष्ठं लभत इति ॥ 84 ॥