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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 146 - Adhyaya 146

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वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान

ऋषियोंने पूछा- सूतनन्दन! मत्स्य भगवान्ने तारकासुरके वधरूप महान् कार्यका वर्णन किस प्रकार किया था? यह कथा किस समय कही गयी थी? मुने आपके मुखरूपी क्षीरसागर से उद्भूत हुई इस अमृतरूपिणी कथाका दोनों कानोंद्वारा पान करते हुए भी हमलोगोंको तृप्ति नहीं हो रही है। अतः महाबुद्धिमान् सूतजी! आप हमलोगोंके इस मनोऽभिलषित विषयका वर्णन कीजिये ॥ 1-2 ॥

सूतजी कहते हैं—ऋषियो! (प्राचीन कालकी बात है) राजर्षि मनुने मत्स्यरूपधारी भगवान् विष्णुसे प्रश्न किया—'विभो। षडानन स्वामिकार्तिकका जन्म सरपतके वनमें कैसे हुआ था ?' उन अमिततेजस्वी राजर्षि मनुका प्रश्न सुनकर महातेजस्वी ब्रह्मपुत्र भगवान् मत्स्य प्रसन्नतापूर्वक बोले ॥3-4 ॥

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्! (बहुत पहले) वज्राङ्ग नामका एक दैत्य उत्पन्न हुआ है, उसके पुत्रका नाम तारक था। उस महावली तारकने देवताओंको उनके नगरोंसे निकालकर खदेड़ दिया। तब भयभीत हुए वे सभी देवगण ब्रह्माके निकट गये। उन देवताओंको डरा देखकर ब्रह्माने उनसे कहा- 'देववृन्द ! भय छोड़ दो। (शीघ्र ही) भगवान् शंकरके एक औरस पुत्र हिमाचलका दौहित्र (नाती) उत्पन्न होगा, जो उस दानवका वध करेगा।' तदनन्तर किसी समय पार्वतीको देखकर शिवजीका वीर्य स्खलित हो गया, तब उन्होंने उसे किसी भावी कारणवश अग्निके मुखमें गिरा दिया। अग्निके मुखमें पड़े हुए उस वीर्यने देवताओंको तृप्त कर दिया, किंतु पच न सकनेके | कारण वह उनके उदरको फाड़कर बाहर निकल पड़ाऔर नदियोंमें श्रेष्ठ गङ्गामें जा गिरा। फिर वहाँ वह बहते हुए सरपतके वनमें जा लगा। उसीसे सूर्यके समान तेजस्वी गुह उत्पन्न हुए। उसी सात दिवसीय बालकने तारकासुरका वध किया। ऐसी अद्भुत बात सुनकर उन श्रेष्ठ ऋषियोंने पुनः सूतजीसे प्रश्न किया ॥5- 11 ॥

ऋषियोंने पूछा- सबको मान देनेवाले सूतजी ! यह कथा तो अत्यन्त आश्चर्यसे परिपूर्ण, रमणीय और पापनाशिनी है। हमलोग इसे सुनना चाहते हैं, अतः आप हमलोगोंको इसे यथार्थरूपसे विस्तारपूर्वक बतलाइये। पूर्वकालमें देवताओंका मान मर्दन करनेवाला महाबली तारक जिसका पुत्र था, वह दैत्यराज वज्राङ्ग किसके वंशमें उत्पन्न हुआ था? उस दैत्यराजके वधके लिये कौन-सा कारण निर्मित हुआ था? यह सब तथा गुहके जन्मकी कथा हमलोगों को पूर्णरूप से बतलाइये ॥ 12-14 ॥

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। ब्रह्माके मानस पुत्र प्रजापति दक्षने वीरिणीके गर्भसे साठ कन्याएँ उत्पन्न की थीं, ऐसा हमने सुना है उन ब्रह्मपुत्र सामर्थ्यशाली दक्षने उन कन्याओंमेंसे दस धर्मको, तेरह कश्यपको, सत्ताईस चन्द्रमाको चार अरिष्टनेमिको दो बाहुक पुत्रको दो अङ्गिराको तथा दो विद्वान् कृशाश्वको समर्पित कर दी थों अदिति, दिति दनु, विश्वा अरिष्टा, सुरसा सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कद्रू और मुनि- ये तेरह लोकमाताएँ कश्यपकी पत्नियाँ थीं। इन्हींसे पशुओंकी भी उत्पत्ति हुई है। इन्हींसे स्थावर-जङ्गमरूप नाना प्रकारके प्राणियोंका जन्म हुआ है। देवेन्द्र, उपेन्द्र और सूर्य आदि सभी देवता अदितिसे उत्पन्न माने जाते हैं। दितिके गर्भसे | हिरण्यकशिपु आदि दैत्यगण उत्पन्न हुए। दनुके दानवऔर गौ आदि पशु सुरभीके संतान हुए। गरुड आदि पक्षी विनताके पुत्र कहे जाते हैं। नागों तथा अन्य रेंगनेवाले जन्तुओंको कद्दूकी संतति समझना चाहिये। कुछ समय बाद हिरण्यकशिपु समस्त देवगणोंके स्वामी त्रिलोकीनाथ इन्द्रको जीतकर राज्य करने लगा। तदनन्तर कुछ समय बीतनेचर हिरण्यकशिपु आदि दैत्यगण भगवान् विष्णुके हाथों मारे गये तथा शेष दानवोंका इन्द्रने युद्धस्थलमें सफाया कर दिया। इस प्रकार जब दितिके सभी पुत्र मार डाले गये, तब उसने अपने पतिदेव महर्षि कश्यपसे युद्धमें इन्द्रका वध करनेवाले अन्य महाबली पुत्रकी याचना की। तब सामर्थ्यशाली कश्यपजीने उसे वर प्रदान करते हुए कहा- 'देवि! तुम एक हजार वर्षतक पवित्र मनसे नियमका पालन करो तो तुम्हें वैसा पुत्र प्राप्त होगा।' पतिद्वारा ऐसा कही जानेपर वह नियममें तत्पर हो गयी। जिस समय वह नियममें संलग्न थी, उस समय सहस्रनेत्रधारी इन्द्र उसके निकट आकर सावधानीपूर्वक उसकी सेवा करने लगे। यह देखकर उसने इन्द्रपर विश्वास कर लिया। जब एक सहस्र वर्षकी अवधि में दस वर्ष शेष रह गये, तब तपस्यामें निरत वरदायिनी दिति परम प्रसन्न होकर इन्द्रसे बोली ॥15- 29 ॥

दितिने कहा- पुत्र ! अब तुम ऐसा समझो कि मैंने प्रायः अपने व्रतको पूर्ण कर लिया है। पाकशासन! (व्रतको समाप्तिपर) तुम्हारे एक भाई उत्पन्न होगा। वत्स! उसके साथ तुम इस राजलक्ष्मी तथा निष्कण्टक त्रिलोकीके राज्यका इच्छानुसार उपभोग करना। ऐसा कहकर स्वयं दिति निद्राके वशीभूत हो सो गयी। उस समय भावी कार्यके गौरवके कारण वह अपने नियमसे च्युत हो गयी थी; क्योंकि (सोते समय) उसके खुले हुए बाल चरणोंसे दबे हुए थे। ऐसी त्रुटिपर अवसर पाकर देवराज इन्द्र दितिके उदरमें प्रविष्ट हो गये और अपने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर दिये। | तत्पश्चात् इन्द्रने क्रुद्ध होकर पुनः प्रत्येक टुकड़ेको काटकरसात-सात भागों में विभक्त कर दिया। इतनेमें ही दितिको निद्रा भंग हो गयी। तब वह सचेत होकर बोली- 'अरे इन्द्र ! मेरी संततिका विनाश मत कर।' यह सुनकर इन्द्र दितिके उदरसे बाहर निकल आये और अपनी उस विमाताके आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गये। फिर डरते डरते मन्द स्वरमें यह वचन बोले- ॥ 30-35 ।।

इन्द्रने कहा- माँ! आप दिनमें सो रही थी और | आपके बाल पैरोंके नीचे दबे हुए थे, इस नियम च्युतिके कारण मैंने आपके गर्भको सात भागोंमें, पुनः प्रत्येकको सात भागों में विभक्त कर दिया है। इस प्रकार मैंने आपके पुत्रोंको उनचास भागोंमें बाँट दिया है अब मैं उन्हें देवताओंद्वारा पूजित स्वर्गलोकमें स्थान प्रदान करूंगा। तब ऐसा उत्तर पानेपर देवी दितिने कहा- 'अच्छा, ऐसा ही हो।' तदनन्तर कजरारे नेत्रोंवाली दिति देवीने पुनः अपने पति महर्षि कश्यपसे याचना की 'प्रजापते! मुझे एक ऐसा ऊर्जस्वी पुत्र प्रदान कीजिये, जो इन्द्रको पराजित करनेमें समर्थ हो तथा स्वर्गवासी देवगण अपने शस्त्रास्त्रोंसे जिसका वध न कर सकें।' इस प्रकार कहे जानेपर महर्षि कश्यप अपनी उस अत्यन्त दुखिया पत्नीसे बोले-'पुत्रवत्सले दस | हजार वर्षतक तपस्या करनेके उपरान्त तुम्हें पुत्रकी प्राप्ति होगी। तुम्हारे गर्भसे वज्राङ्ग नामका पुत्र उत्पन्न होगा। उसके अङ्ग वज्रके सार तत्त्वके समान सुद्द और लौहनिर्मित शस्त्रास्त्रोंद्वारा अच्छेद्य होंगे।' इस प्रकार वरदान पाकर दिति देवी तपस्या करनेके लिये वनमें चली गयीं। वहाँ उन्होंने दस हजार वर्षोंतक घोर तप किया। तपस्या समाप्त होनेपर ऐश्वर्यवती दितिने एक ऐसे पुत्रको उत्पन्न किया, जो दुर्जय, अद्भुतकर्मा और अजेय था तथा जिसके अङ्ग वज्रद्वारा अच्छेद्य थे। वह जन्म लेते ही समस्त शस्त्रास्त्रोंका पारगामी विद्वान् हो गया। उसने भक्तिपूर्वक अपनी माता दितिसे कहा-'माँ! मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?' तब हर्षित हुई दितिने उस दैत्यराजसे कहा- 'बेटा! इन्द्रने मेरे बहुत-से पुत्रोंको मार डाला है, अतः उनका बदला लेनेके लिये तुम जाओ और इन्द्रका वध करो।' तब 'बहुत अच्छा' ऐसा | मातासे कहकर महाबली वज्राङ्ग स्वर्गलोकमें जा पहुँचा।वहाँ उसने अपने अमोघवर्चस्वी पाशसे सहस्रनेत्रधारी इन्द्रको बाँधकर माताके निकट लाकर उसी प्रकार खड़ा कर दिया, जैसे व्याघ्र छोटे-से मृगको पकड़ लेता है। इसी बीच ब्रह्मा और महातपस्वी महर्षि कश्यप- ये दोनों वहाँ आ पहुँचे, जहाँ वे दोनों माता-पुत्र निर्भय हुए स्थित थे । ll 36-48 ॥

वहाँ (इन्द्रको बँधा हुआ) देखकर ब्रह्मा और कश्यपने उस वज्राङ्गसे इस प्रकार कहा - 'पुत्र ! इन देवराजको छोड़ दे। इनको बाँधने अथवा मारनेसे तेरा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा? बेटा! सम्मानित पुरुषका अपमान ही उसकी मृत्युसे बढ़कर बतलाया गया है। हमलोगोंके कहनेसे जो बन्धनमुक्त हो रहा है, उसे तू मरा हुआ ही जान। वत्स! दूसरेके गौरवसे मुक्त हुआ मनुष्य शत्रुओंका भारवाही अर्थात् आभारी हो जाता है। उसे दिन-प्रतिदिन जीते हुए मृतक तुल्य ही समझना चाहिये। शत्रुके वशमें आ जानेपर महान् पुरुषोंका शत्रुके प्रति वैरभाव नहीं रह जाता।' यह सुनकर वज्राङ्ग विनम्र होकर कहने लगा-'देव! इन्द्रको बाँधनेसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। यह तो मैंने माताकी आज्ञाका पालन किया है। आप तो देवताओं और असुरोंके स्वामी तथा मेरे प्रपितामह हैं, अतः मैं अवश्य आपकी आज्ञाका पालन करूँगा। यह लीजिये, इन्द्र बन्धन मुक्त हो गये। देव! मेरे मनमें तपस्या करनेके लिये बड़ी लालसा है। भगवन्! वह आपकी कृपासे निर्विघ्न पूरा हो जाय।' ऐसा कहकर वह चुप हो गया। तब उस दैत्यको चुपचाप सामने स्थित देखकर ब्रह्मा इस प्रकार बोले- ॥ 49-55 ll

ब्रह्माने कहा- बेटा ! (तूने) जो मेरी आज्ञाका पालन किया है, यहाँ मानो तूने घोर तप कर लिया। इस चित्तशुद्धिसे तुझे अपने जन्मका फल प्राप्त हो गया। ऐसा कहकर पद्मयोनि भगवान् ब्रह्माने एक विशाल नेत्रोंवाली कन्याको सृष्टि की और उसे बाङ्गको पत्नीरूपमें प्रदान कर दिया। पुनः उस कन्याका वराङ्गी नाम रखकर ब्रह्मा वहाँसे चले गये। तत्पश्चात् वज्राङ्ग भी अपनी पत्नी | वराङ्गीके साथ तपस्या करनेके लिये वनमें चला गया।वहाँ महातपस्वी दैत्यराज बज्राङ्ग, जिसके नेत्र कमलदलके समान थे तथा जिसकी बुद्धि शुद्ध हो गयी थी, एक हजार वर्षतक दोनों हाथ ऊपर उठाकर तपस्या करता रहा। पुनः उसने एक हजार वर्षतक नीचे मुख किये हुए तथा एक हजार वर्षतक पञ्चाग्निके बोचमें बैठकर घोर तपस्या की। उस समय उसने भोजनका परित्याग कर दिया था। इस प्रकार वह तपस्याकी राशि जैसा हो गया था। तत्पश्चात् उसने एक हजार वर्षतक जलके भीतर बैठकर तप किया। जिस समय वह जलके भीतर प्रविष्ट होकर तप कर रहा था, उसी समय उसकी अत्यन्त सुन्दरी एवं महाव्रतपरायणा पत्नी वराङ्गी भी उसी सरोवरके तटपर मौन धारणकर तपस्या करती हुई घोर तपमें संलग्न हो गयी। उस समय वह निराहार ही रहती थी। उसके तपस्या करते समय (उसे तपसे डिगानेके निमित्त) इन्द्र तरह तरहकी विभीषिकाएँ उत्पन्न करने लगे ॥ 56-623 ॥

वे बन्दरका विशाल रूप धारणकर उसके आश्रमपर पहुँचे और वहाँके सम्पूर्ण लंबी, घट और पिटारी आदिको तितर-बितर कर दिया। फिर मेषरूपसे उसे भलीभाँति कँपाया। तत्पश्चात् सर्पका रूप बनाकर उसके दोनों चरणोंको अपने शरीरसे बाँधकर इस पृथ्वीपर घूमते हुए उसे दूरतक घसीटते रहे, किंतु वराङ्गी तपोबलसे सम्पन्न थीं, अतः इन्द्रद्वारा मारी न जा सकी। तब इन्द्रने श्रृंगालका रूप धारणकर उसके आश्रमको दूषित कर दिया। फिर उन्होंने बादल बनकर उसके आश्रमको भिगो दिया। इस प्रकार इन्द्र अनेकों प्रकारकी विभीषिकाओंको दिखाकर उसे कष्ट पहुँचाते रहे। जब इन्द्र इस प्रकारके कुकर्मसे विरत नहीं हुए, तब बज्राङ्गकी पटरानी वराङ्गो इसे पर्वतको दुष्टता मानकर उसे शाप देनेके लिये उद्यत हो गयी। इस प्रकार उसे शाप देनेके लिये उद्यत देखकर पर्वतका हृदय भयभीत हो गया। तब उसने पुरुषका शरीर धारणकर उस सुन्दरी वराङ्गीसे कहा-'बराङ्गने मैं दुष्ट नहीं हूँ। मैं तो सभी देहधारियोंके लिये सेवनीय हूँ। यह सब उपद्रव तो ये क्रुद्ध हुए इन्द्र कर रहे हैं।' इसी बीच | (जलके भीतर बैठकर तपस्या करते हुए वज्राङ्गका)एक हजार वर्ष पूरा हो गया। उस समयके पूर्ण हो जानेपर पद्मसम्भव भगवान् ब्रह्मा प्रसन्न होकर उस जलाशयके तटपर आये और वज्राङ्गसे बोले ॥ 63-71 ॥

ब्रह्माने कहा—दितिनन्दन ! उठो। मैं तुम्हें तुम्हारी सारी मनोवाञ्छित वस्तुएँ दे रहा हूँ। ऐसा कहे जानेपर तपोनिधि दैत्यराज वज्राङ्ग उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्मासे इस प्रकार कहा ।। 72 ।।

वज्राङ्गने कहा – देव! मेरे शरीरमें आसुर भावका संचार मत हो, मुझे अक्षय लोकोंकी प्राप्ति हो। तपस्यामें ही मेरी रति हो और मेरा यह शरीर वर्तमान रहे। 'एवमस्तु—ऐसा ही हो' ऐसा कहकर भगवान् ब्रह्मा अपने निवासस्थानको चले गये। वज्राङ्ग भी तपस्याके समाप्त हो जानेपर संयम-नियमसे निवृत्त हुआ। उस समय उसे भोजनकी इच्छा जाग्रत् हुई, परंतु उसे अपने आश्रम में अपनी पत्नी न दीख पड़ी। तब भूखसे पीड़ित हुआ वज्राङ्ग फल-मूल लानेके लिये उस पर्वतके वनमें प्रविष्ट हुआ। वहाँ उसने अपनी प्रिय पत्नीको देखा, जो थोड़ा मुख ढके हुए दीनभावसे रुदन कर रही थी। उसे देखकर दैत्यराज वज्राङ्ग उसे सान्त्वना देते हुए बोला ॥ 73–76 ।।

वज्राङ्गने कहा- भीरु ! यमलोकको जानेके लिये उद्यत किस व्यक्तिने तुम्हारा अपकार किया है ? अथवा मैं तुम्हारी कौन-सी कामना पूर्ण करूँ? भामिनि ! तुम मुझे शीघ्र बतलाओ ॥ 77 ॥

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मत्स्य पुराण को मत्स्यपुराण, Matsya Purana और Matsyapurana आदि नामों से भी जाना जाता है।

मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका