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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 154 - Adhyaya 154

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तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *

सूतजी कहते हैं ऋषियो! तदनन्तर स्वच्छ नीले कमल-सा वस्त्र धारण किये द्वारपाल तारकके सम्मुख उपस्थित हुआ। वह अपने हाथसे मुखको ढके हुए था। उसने घुटनोंके बल पृथ्वीपर माथा टेककर सूर्यसमूहोंके से उद्दीप्स शरीर धारण करनेवाले दैत्येश्वर तारकसे स्वल्प किंतु स्पष्ट शब्दों में निवेदन किया-'प्रभो! कालनेमि | देवताओंको बंदी बनाकर साथ लिये हुए द्वारपर खड़ा है। | वह पूछ रहा है कि इन बंदियोंको कहाँ रखा जाय।'द्वारपालके उस कथनको सुनकर दैत्यराजने कहा- 'अरे! ये स्वेच्छानुसार कहीं भी स्थित रहें, इन्हें शीघ्र ही केवल बन्धन मुक्त कर दिया जाय; क्योंकि अब तो तीनों भुवन मेरा गृह है अर्थात् पूरे विश्वपर मेरा ही अधिकार है।' इस प्रकार बन्धन मुक्त होनेके पश्चात् देवगण दुःखी चित्तसे जगद्गुरु कमलजन्मा ब्रह्माका दर्शन करनेके लिये उनको शरणमें गये। वहाँ पहुँचकर उन इन्द्र आदि देवताओंने पृथ्वीपर सिर टेककर ब्रह्माको प्रणाम किया और उनसे अपनी करुण कहानी कह सुनायी। तत्पश्चात् वे स्पष्ट अक्षरों एवं अर्थोंसे युक्त वचनोंद्वारा ब्रह्माकी स्तुति करने लगे ॥ 1-6 ॥

देवगण बोले- सत्त्वमूर्ते! आप ओंकारस्वरूप हैं। आप विश्वकी रचनाके लिये प्रकट सर्वप्रथम अङ्कुर हैं और इस अनन्त भेदोंवाले विश्वके आत्मा अर्थात् मूलस्वरूप हैं। रुद्रमूर्ते! अन्तमें इस उत्पन्न हुए विश्वका संहार भी आप ही करते हैं, आपको नमस्कार है। आपका स्वरूप अचिन्त्य है। आप अपनी महिमासे अपने शरीरको अपने ही नामसे युक्त अण्ड अर्थात् ब्रह्माण्डके रूपमें प्रकटकर उसी ब्रह्माण्डसे ऊपर एवं नीचेके दो खण्डोंद्वारा आकाश और पृथ्वीका विभाजन करते हैं। हमलोग स्पष्टरूपसे ऐसा जानते हैं कि मेरुपर्वतपर आपने जो देवादि प्राणियोंकी आयु सीमा निर्धारित की थी, वही कर्तव्यता आदि आपद्वारा निर्मित विधान अब भी प्रचलित है। देव! यह स्पष्ट है कि आप अजन्मा और अविनाशी हैं आकाश आपका मस्तक, चन्द्रमा एवं सूर्य आपके नेत्र, सर्प केश, दिशाएँ कानोंके छिद्र, पृथ्वी दोनों चरण और समुद्र नाभिछिद्र हैं। आप मायाके रचयिता तथा जगत्के कारणरूपसे प्रसिद्ध हैं। वेदोंका कहना है कि आप परमज्योतिसे युक्त एवं शान्तस्वरूप हैं ॥ 7-10 ॥ विद्वान्लोग आपको वेदार्थोंमें खोजते हैं और आपको जानकर अपने हृदयकमलके भीतरी भागमें स्थित पुराणपुरुष बतलाते हैं। योगके ज्ञाता आपको आत्मस्वरूप कहते हैं तथा सांख्यज्ञोंद्वारा जो सात सूक्ष्म मूर्तियाँ निर्मित की गयी हैं तथा उनकी हेतुभूता जो आठवीं कही गयी है, उन सभीके अन्तमें आपको हो स्थिति मानी गयी है। यह देखकर आपने ही स्थूल एवं सूक्ष्म मूर्तियोंका आविष्कार किया था। किन्हों अज्ञात कारणवश देवताओंने उन भावोंका वर्णन किया था।वे सभी आदिसृष्टिके समय आपसे ही प्रकट हुए थे और आपके संकल्पके अनुसार उन्हें पुनः वैसी-वैसी वासना प्राप्त हुई थी। आप अनन्त मायाओंद्वारा निगूढ़, अप्रमेय कालस्वरूप एवं कल्पित संख्यासे अतीत हैं।

आप भाव और अभावकी उत्पत्ति और संहारके कारण हैं। आत्मस्वरूप भगवन्! आप अनन्त विश्व-ब्रह्माण्डके कर्ता हैं। अन्यान्य जितने सूक्ष्म, स्थूल तथा उनको भी ढकनेवाले अर्थात् उनसे उत्कृष्ट भाव हैं, उनके द्वारा भी आपका गुणगान किया गया है। उनसे बढ़कर जो स्थूल एवं प्राचीन हैं, उनके द्वारा भी आप जाने गये हैं। आप उन्नतिशीलोंके भूत एवं भविष्य रूप हैं। आप प्रत्येक भावमें अनुप्रविष्ट होकर व्यक्त होते हैं और व्यक्तिभावका निरसन कर उसमें अवस्थित रहते हैं। इस प्रकार अनन्त मूर्ति धारण करनेवाले देवाधिदेव! आप हम भक्तजनोंक लिये शरणदाता, रक्षक और सहायक होइये ॥11- 15 ॥

इस प्रकार देवगण अविकारी ब्रह्माकी स्तुति करके मनमें अभीष्ट प्रयोजनकी सिद्धिके लिये प्रार्थना करते हुए खड़े रहे। देवताओंद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर ब्रह्मा परम प्रसन्न हुए और अपने वरदायक बायें हाथसे देवताओंको निर्देश करते हुए बोले ।। 16-17 ॥

ब्रह्माजीने कहा- इन्द्र ! भूषणोंसे रहित तथा मलिन मुख एवं बालोंसे युक्त तुम्हारा शरीर पतिविहीना स्त्रीकी तरह शोभा नहीं पा रहा है। हुताशन! धूमसे रहित होनेपर भी तुम्हारी शोभा नहीं हो रही है। ऐसा प्रतीत होता है मानो तुम चिरकालसे जलकर शान्त हो गये हो और राखसे ढक गये हो। यमराज! इस रोगी शरीरमें तुम्हारी शोभा नहीं हो रही है। ऐसा ज्ञात होता है, मानों तुम पग पगपर कठिनाईका अनुभव करते हुए कालदण्डके सहारे चल रहे हो। राक्षसेन्द्र निर्ऋति! तुम राक्षसोंके स्वामी होकर भी भयभीतकी तरह क्यों बोल रहे हो? अरे शत्रुसंहारक तुम तो शत्रुओं द्वारा घायल किये हुए-से दीख रहे हो। वरुण! तुम्हारा शरीर अग्निसे घिरे हुएकी तरह अत्यन्त शुष्क दीख रहा है। ऐसा लग रहा है मानो सर्पोंने तुम्हारे पाशमेंसे खून उगल दिया है। वायुदेव ! तुम हीजनों द्वारा पराजित हुएकी तरह अचेत से दीख रहे हो। कुबेर ! तुम अपने यक्षाधिपत्यको त्यागकर क्यों भयभीत हो रहे हो? रुद्रगण तुमलोग तो त्रिशूलधारी थे बताओ तो सही, तुम्हारे त्रिशूलको विशिष्ट क्षमता कहाँचली गयी? तुमलोगोंके भी उस तेजको किसने नष्ट कर दिया? मधुसूदन! आपका हाथ कर्तव्यहीन हो गया है, जिससे इसकी शोभा नहीं हो रही है। इस नीले कमलकी-सी कान्तिवाले चक्रके धारण करनेसे क्या लाभ? विश्वतोमुख! इस समय आप नेत्र बंद करके अपने उदरमें विलीन हुए भुवनोंका अवलोकन क्यों कर रहे हैं? ।। 18- 26 ।

उन वेदमूर्ति ब्रह्माद्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर देवताओंने वाणी-शक्तिके मुख्य कारण वायुको प्रेरित किया। उस समय विष्णु आदि देवताओंने वायुको भलीभांति समझा दिया, तब वे ऐश्वर्यशाली एवं चराचर प्राणियोंके गुरु ब्रह्मासे बोले- ॥ 27-28 ॥

"भगवन्! चराचर प्राणियोंके मनोंमें उत्पन्न हुए भावोंको आप न जानते हों-ऐसी बात नहीं है। आप अत्यन्त महान्, सर्वोपरि और जगत्‌के उत्पत्तिस्थान हैं। यह तो आपने केवल याचकोंके वचनोंको विस्तारपूर्वक सुननेके लिये कुतूहलका भाव प्रकट किया है। | अनन्त। आप चराचर प्राणियोंसे युक्त विभिन्न गुणवाली विश्व सृष्टि करते हैं। यद्यपि ये सम्पूर्ण देवता और असुर आपकी दृष्टिमें एक-से हैं; क्योंकि आप ही सबको उत्पन्न करनेवाले हैं, तथापि पिताके मनमें भी पुत्रोंके सगुण-निर्गुण एवं सबल निर्बलरूप पक्षको लेकर अन्तर रहता ही है। आपसे वरदान प्राप्त कर निर्भय हुआ वज्राङ्गका पुत्र महाबली धूर्त दैत्य तारक चराचर जगत्का नाश करनेके लिये क्या कर रहा है, यह आपको (भलीभाँति ) विदित है। देव! क्या आपने जगत्को स्थितिके लिये महान् एवं अद्भुत चित्र-विचित्र गुणोंसे युक्त, संतुष्ट करनेवाले एवं वाञ्छित अभिलाषाओंकी पूर्ति करनेवाले देवगणोंकी सृष्टि नहीं की थी? द्विजनायक! क्या आपके आदेशानुसार स्वर्गलोक सदा यज्ञभोजी देवताओंके अधिकारमें नहीं रहता आया है, किंतु उस दैत्यने विमानसमूहों को छीनकर उसे महान् मरुस्थल सा बना दिया है ।। 29-33 ।।जिस हिमालयको समस्त पर्वतोंका राजा होनेके कारण आपने सर्वगुण सम्पन्न बनाया, जो ऊँचाईमें आकाशतक व्याप्त था और संकेतानुसार चलनेवाला था, उसके शिखरके तटप्रान्तको उस दैत्यने वज्रसे तोड़ फोड़कर अपने निवास और विहारके उपयुक्त बना लिया है। उसको गुफाओंके रख लूट लिये गये और अब वह बहुत से दैत्योंका निवासस्थान बन गया है। उस दैत्यके भयसे वह शरीरहीन होनेपर भी इससे भी बढ़कर बुरे कामों में लगाया जा रहा है। सुरराज! कृतयुगके आदिमें आपने ही देवताओंके लिये उपयोगी समझकर जिन विशाल, चिरस्थायी अपनी निर्मल कान्तिसे दिशाओंको उद्भासित करनेवाले एवं अप्रतिहत अस्वसमूहाँका निर्माण किया था, वे अस्त्र भी उस दैत्यके शरीरपर गिरकर कायरकी बुद्धि भिन्नताको तरह सैकड़ों टुकड़ोंमें टूट-टूट कर चूर हो गये ॥34-37 ॥ देवेश! (इतना ही नहीं) उस देवद्रोहीके द्वारपर कीचड़ और धूलिसे भरे हुए अङ्गवाले हमलोग तिरस्कार पूर्वक बैठाये गये थे और बड़ी कठिनाई हमलोगोंको उसको सभामें प्रवेश करनेका अवसर मिला था। उस सभामें भी देवगण निकृष्ट आसनोंपर बैठाये गये थे। वहाँ यद्यपि हमलोग कुछ बोल नहीं रहे थे, तथापि उसके बेंतधारी भृत्योंद्वारा हमलोगोंका उपहास किया जा रहा था। वे कह रहे थे— 'देवगण! आपलोग बड़े सम्मानित एवं सभी प्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाले हैं, इसीलिये थोड़ा बोलते हैं न?' उनकी इन व्यङ्ग्यपूर्ण बातोंका उत्तर भी देवगण अनेक प्रकारकी चाटुताभरी बातोंद्वारा देते थे। 'यह दैत्यसिंह तारककी सभा है, इन्द्रकी लड़खड़ानेवाली सभा नहीं है, बोलो बोलो।' इस प्रकार उस दैत्यके परिचारकोंद्वारा हमलोगोंकी बहुत हँसी उड़ायी गयी है। यहाँ यहाँ ऋतुएँ शरीर धारणकर रात-दिन उसकी सेवामें लगी हैं। वे कोई अपराध न हो जाय इस भयसे उसे कभी नहीं छोड़तीं। सिद्ध, गन्धर्व और किंनर उसके महलोंमें निष्कपटरूपसे नित्य वीणापर तीनों लयसमेत सुन्दर राग अलापते रहते हैं।उस दैत्यका मित्र और शत्रुके प्रति भी बड़े-छोटेका विचार नहीं रह गया है। वह शरणमें आये हुएका भी त्याग कर देता है और सत्यका तो उसने व्यवहार ही छोड़ दिया है। यही सब उसकी बुराइयाँ हैं अथवा उसकी उद्दण्डता तो पूर्णरूपसे कहो ही नहीं जा सकती। उसे तो ब्रह्मा ही जानें इस प्रकार देवताओं द्वारा उस दैत्यकी कृतियोंका वर्णन किये जानेपर देवाधिदेव भगवान् ब्रह्माके मुखकमलपर मुसकराहट आ गयो, तब वे देवताओंसे बोले ॥38-46 ॥

ब्रह्माजीने कहा- देवगण! दैत्यराज तारक सभी देवताओं एवं राक्षसोंद्वारा अवध्य है जो उसका वध कर सकता है, वह पुरुष अभी त्रिभुवनमें उत्पन्न ही नहीं हुआ है। मैंने ही उस दैत्यराजको वरदान देकर त्रिलोकीको भस्म करनेवाले उस तपसे निवारण किया था। उस समय उस दैत्यने सात दिनके बालकद्वारा अपनी मृत्युका वरदान माँगा था। वह सप्तदिवसीय बालक जो शंकरजोसे उत्पन्न होगा, सूर्यके समान तेजस्वी होगा। वही तारकका वध करनेवाला होगा, किंतु इस समय सामर्थ्यशाली भगवान् शंकर पत्नी रहित हैं। इसके लिये मैंने पहले जिस देवीके विषयमें उत्तानकरताकी बात कही थी, वही देवी हिमाचलकी कन्याके रूपमें प्रकट होगी। उस देवीका वह वरदायक हाथ सदा उत्तान ही रहेगा। उस देवीके सम्पर्कसे शंकरजी अरणीमें अग्निकी तरह जिस पुत्रको उत्पन्न करेंगे, उसे सम्मुख पाकर तारक पराजित हो जायगा। मैंने भी पहलेसे ही वैसा उपाय कर रखा है, जिससे यह सब वैसा ही होगा। तदनन्तर उसका यह सारा वैभव नष्ट हो जायगा। तुमलोग निःशङ्क चित्तसे थोड़े-से कालकी और प्रतीक्षा करो।। 47-54 ॥ कमलजन्मा साक्षात् ब्रह्माद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर स्वर्गवासी देवगण उन देवेश्वरको प्रणाम करके अपने-अपने स्थानको चले गये। तदनन्तर देवताओंके चले जानेपर लोकपितामह भगवान् ब्रह्माने जिसे पहले अपने शरीरसे उत्पन्न किया था, उस निशाका स्मरण किया। तब भगवती रात्रिदेवी पितामहके निकट उपस्थित हुई उस विभावरी (रात्रि) को एकान्तमें उपस्थित देखकर ब्रह्मा बोले ॥ 55-57॥ब्रह्माजीने कहा-विभावरि (रात्रिदेवी)। इस समय देवताओंका एक बहुत बड़ा कार्य आ उपस्थित हुआ है। देवि उसे तुम्हें अवश्य पूरा करना है। अब उस कार्यका निर्णय सुनो दैत्यराज तारक देवताओंका कट्टर शत्रु है, वह अजेय है। उसका विनाश करनेके लिये भगवान् शंकर जिस पुत्रको उत्पन्न करेंगे, वही उस तारकका वध करनेवाला होगा। उधर शंकरजीकी पत्नी जो दक्षपुत्री सती थी, वह देवी किसी कारणवश कुपित होकर शरीरको भस्म कर चुकी है। वही लोकसुन्दरी देवी हिमाचलकी कन्याके रूपमें प्रकट होगी। भगवान् शंकर उसके वियोगसे तीनों लोकोंको शून्य समझकर हिमाचलकी सिद्धोंद्वारा सेवित कन्दरामें तपस्या कर रहे हैं। वे उस देवीके जन्मकी प्रतीक्षा करते हुए वहाँ कुछ | कालतक निवास करेंगे। उत्कृष्ट तप करनेवाले उन दोनों (शिव-पार्वती) से जो महाबली पुत्र उत्पन्न होगा, वही तारक दैत्यका विनाशक होगा शुभानने। वह सुन्दरी देवी जन्म लेनेके पश्चात् थोड़ा होश सँभालनेपर जब विरहसे उत्कण्ठित होकर गाढ़ रूपसे शंकरजीके समागमकी लालसासे युक्त हो जायगी तब उन दोनों घोर तपस्वियोंका संयोग होगा। उस समय उन दोनोंमें थोड़ा वाक्-कलह भी हो जायगा जिससे तारकके विनाशके प्रति पुनः संशय दिखायी पड़ने लगेगा, अतः उन दोनोंके संयुक्त होनेपर सुरतकी आसक्तिके अवसरपर तुम्हें जैसा विघ्न उपस्थित करना होगा, उसे भी सुन लो ॥ 58-67 ॥

उस समय तुम उसकी माताके गर्भस्थानमें प्रवेश करके उसपर अपने रूपकी छाप डाल दो। तब शंकरजी उसे छोड़कर विश्राम करने लगेंगे और परिहासमें उस देवीकी भर्त्सना करेंगे जिससे कुपित होकर वह पुनः तपस्या करनेके लिये चली जायगी 1 पुनः उस तपस्यासे लौटनेपर वह शंकरजीके सम्पर्क से जिस उत्कृष्ट कान्तिसे सुशोभित पुत्रको उत्पन्न करेगी, वह नि:संदेह देव शत्रुओंका संहारक होगा। देवि! तुम्हें भी इन लोकदुर्जय दानवोंका संहार करना चाहिये, किंतु जबतक तुम सतीके समागमसे उसके शरीरसे | संक्रमित हुए गुणसमूहोंसे युक्त नहीं हो जाओगी,तबतक दैत्योंका संहार करनेमें समर्थ नहीं हो सकोगी। ऐसा करनेपर जब सृष्टिका संहार करनेवाली वह देवी तपस्या करनेके पश्चात् नियमोंको समाप्त कर उमारूपसे प्रकट होगी, तब पार्वती अपने उसी रूपको प्राप्त करेंगी। साथ ही तुम्हारा जो यह प्राकृतिक शरीर है, वह भी एकानंशा नामसे प्रसिद्ध होगा और तुम उमाके रूपके अंशसे युक्त होकर उमासे प्रकट होओगी। वरदायिनि ! संसार 'एकानंशा' नामसे तुम्हारी पूजा करेगा। तुम अनेकों प्रकारके भेदोंद्वारा सर्वगामिनी एवं कामनाओंको सिद्ध करनेवाली होओगी ॥ 68-75 ॥

इसी प्रकार ब्रह्मवादी विप्रगण तुम्हें ओंकाररूप मुखवाली गायत्री और महाबाहु नृपतिवृन्द उन्नतिशीला शक्ति कहेंगे। तुम पृथ्वीरूपसे वैश्योंकी माता कहलाओगी और शूद्र 'शैवी' कहकर तुम्हारी पूजा करेंगे। तुम मुनियोंकी क्षुब्ध न की जा सकनेवाली क्षमा, नियमधारियोंकी दया, नीतिज्ञोंकी महान् उपायोंसे परिपूर्ण नीति, अर्थ-साधनाकी सीमा, समस्त प्राणियोंके हृदयमें निवास करनेवाली इच्छा, समस्त प्राणियोंकी मुक्ति, सम्पूर्ण देहधारियोंकी गति, कीर्तिमान् जनोंकी कीर्ति, अखिल देहधारियोंकी मूर्ति, अनुरागी जनोंकी रति, हर्षसे परिपूर्ण लोगोंकी प्रीति (प्रसन्नता), शृङ्गारसे सुसज्जित प्राणियोंकी कान्ति (शोभा), दुःखीजनोंक लिये शान्तिरूपा, निखिल प्राणियोंकी भ्रान्ति, यज्ञानुष्ठान करनेवालोंकी गति, समुद्रोंकी विशाल वेला (तट), विलासियोंकी लीला, पदार्थोंकी सम्भूति (उत्पत्तिस्थान), लोकोंका पालन करनेवाली स्थिति, सम्पूर्ण भुवनसमूहों को नाश करनेवाली कालरात्रि तथा प्रियतमके गलेसे लगनेपर उत्पन्न हुए आनन्दको देनेवाली रात्रिके रूपमें सम्मानित होओगी। देवि! इस प्रकार तुम संसारमें अनेक प्रकारके रूपोंद्वारा पूजित होओगी। वरदे जो लोग नियमपूर्वक तुम्हारा स्तवन-पूजन करेंगे, वे सभी मनोरथोंको प्राप्त कर लेंगे, इसमें तनिक भी संशय नहीं है ॥76-84 ॥

ब्रह्माद्वारा इस प्रकार आदेश दिये जानेपर विभावरी (रात्रि) देवी हाथ जोड़कर 'अच्छा, ऐसा ही करूंगी' यों कहकर तुरंत ही बड़े वेगसे हिमाचलके उस सुन्दर भवनकी ओर प्रस्थित हुई। यहाँ पहुँचकर उसने एक विशाल अट्टालिकापर रत्ननिर्मित दीवालके सहारे बैठी हुई मेनाको देखा। उस समय उनके मुखकमलको कान्ति कुछ पीली पड़ गयी थी। वे कुछ काले रंगवाले चूचुकोंसे युक स्तनके भारसे झुकी हुई थीं। उनके गलेमें जीवरक्षाके निमित्त एक स्वर्णनिर्मित विशाल सर्पके-से आकारवाली माला लटक रही थी, जिसमें महौषधियोंके समूह और अभिमन्त्रित मन्त्रराज बँधे हुए थे। उनका वह महल मणिनिर्मित दोपसमूहोंकी ज्योतिके उत्कट प्रकाशसे उद्भासित था वहाँ प्रयोजन सिद्धिके लिये बहुत से पदार्थ रखे हुए थे, जिससे वह कामदेवके परिवार जैसा लग रहा था। वहाँ भूतलपर शय्या बिजी थी, जिसपर शुद्ध एवं श्वेत रेशमी चद्दर बिछी हुई थी तथा सर्जकी गन्धके समान मनको लुभानेवाले धूपको सुगन्ध फैल रही थी। तदनन्तर क्रमशः दिनके व्यतीत होनेपर विभावरी मेनाके उस सुखमय विशाल गृहमें अपना प्रसार करने लगी। तत्पश्चात् जब शयनके लिये बिछी हुई शय्याओंपर पुरुषगण प्रायः कुछ निद्रामग्न से होने लगे, चाँदनो स्पष्टरूपसे बिखर गयी, रात्रिमें विचरनेवाले पक्षी निर्भय | होकर इधर-उधर घूमने लगे, चबूतरों (चौराहों) पर राक्षसों और भूत-प्रेतोंका जमघट लग गया, पति-पत्नी गारूपसे गले लगकर नींदके वशीभूत हो गये, तब मेनाके भी दोनों नेत्रकमल नोंदसे कुछ व्याकुल हो गये। ऐसा अवसर पाकर चिरकालसे स्पष्टरूपसे संगमकी इच्छा रखनेवाली रात्रि देवी जगन्माता पार्वतीको जन्मदायिनी मेनाके मुखमें प्रवेश कर गयी और उसने क्रमशः सारे उदरपर अधिकार जमा लिया। अपने प्रवेशके अनन्तर देवीका जन्म मानतो हुई विभावरी रात्रिने जंगली गुफाकी तरह उस उदरमें देवीकी कान्तिको अपने रंगसे रंग दिया ।। 85-95 ।। तदनन्तर जगत्के परिरक्षणकी हेतुभूता हिमाचलप्रिया मेनाने सुन्दर ब्राह्ममुहूर्तमें स्कन्दकी माता पार्वतीको जन्म दिया। पार्वतीके उत्पन्न होनेपर सम्पूर्ण लोकोंके निवासी एवं सभी स्थावरजङ्गम प्राणी सुखी हो गये। उस समय नरक निवासियोंको भी स्वर्गके समान महान् सुखका अनुभव हुआ। क्रूर स्वभाववाले प्राणियोंका चित्त शान्त हो गया। ज्योतिर्गणोंका तेज बढ़ गया। देवसमूहोंकी उन्नति हुई। जंगली ओषधियाँ विकसित हो गयीं और फल स्वादिष्ट हो गये। पुष्पोंमें सुगन्ध बढ़ गयी और आकाश निर्मल हो गया। सुखस्पर्शी शीतल, मंद, सुगन्ध वायु चलने लगी। दिशाएँ अत्यन्त मनोहारिणी हो गयीं। वे कुछ उत्पन्न हुए, कुछ फले हुए और कुछ पके हुए पदार्थोंके गुणोंसे युक्त होनेके कारण चमक रही थीं पृथ्वीदेवी भी धान्यसमूहोंसे व्याप्त हो गयी।निर्मल-चित्त एवं शुद्धात्मा मुनियोंकी दीर्घकालसे चली आती हुई तपस्याएँ उस समय सफल हो गयीं। भूले हुए शस्त्र पुनः प्रकट होने लगे। प्रधान प्रधान तीर्थोका प्रभाव परम पुण्यमय हो गया। उस समय महेन्द्र, विष्णु, ब्रह्मा, वायु, अग्नि आदि हजारों देवता विमानोंपर चढ़कर आकाशमें उपस्थित थे। वे उस हिमाचलपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे, प्रधान प्रधान गन्धवं गाने लगे और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं ।। 96 - 105 ।।

उस महोत्सवके अवसरपर महाबली सुमेरु आदि पर्वत शरीर धारणकर और हाथमें (उपहारके लिये) दिव्य पदार्थ लिये हुए तथा नदियों और सागरोंके दल सब ओरसे उपस्थित हुए। उस समय हिमाचल जगत्‌में सभी चराचर प्राणियोंद्वारा सेव्य तथा अभिगमन करने योग्य बन गये। वे श्रेष्ठ पर्वतके रूपमें मङ्गलरूप हो गये। तत्पश्चात् देवगण उस उत्सवका आनन्द लेकर हर्षपूर्वक अपने अपने स्थानको चले गये। इधर हिमाचलकन्या पार्वतीदेवी आलस्यरहित एवं बुद्धिमान् पुरुषोंकी लक्ष्मीकी भाँति क्रमशः दिन-प्रति-दिन बढ़ने लगीं। पार्वतीने अपने देव, गन्धर्व, नागेन्द्र, पर्वत और पृथ्वीके शीलस्वभावसे युक्त गुणों तथा रूप, सौभाग्य और ज्ञानद्वारा क्रमशः तीनों लोकोंको जीत लिया और असाधारणरूपसे विभूषित भी किया। इसी बीच इन्द्रने देवताओंके अनुकूलवर्ती एवं शीघ्र ही कार्य साधनमें जुट जानेवाले देवर्षि नारदका स्मरण किया। तब अपनेको इन्द्रद्वारा स्मरण किया गया जानकर भगवान् नारद हर्षपूर्वक महेन्द्रके निवासस्थानपर आये। उन्हें आया हुआ देखकर सहस्रनेत्रधारी इन्द्र अपने सिंहासनसे उठ खड़े हुए और उन्होंने यथायोग्य पाद्य आदिद्वारा नारदजोकी पूजा की। इन्द्रद्वारा विधिपूर्वक की गयी उस पूजाको ग्रहणकर नारदने देवराज इन्द्रसे कुशल प्रश्न किया। तब कुशल पूछे जानेपर सामर्थ्यशाली इन्द्रने इस प्रकार कहा— ll 106 - 115 ll

इन बोले- मुझे भुवन बारके लिये अर तो उत्पन्न हो गया है, किंतु उससे फलरूपी सम्पत्तिकी उत्पत्तिके निमित्त आप सावधान हो जायें। यद्यपि आप यह सब कुछ जानते हैं, तथापि कहनेवाला अपने मित्रसे अपना प्रयोजन निवेदित करके परम संतोषका अनुभव करता है।इसलिये पार्वतीदेवी जिस प्रकार शीघ्र ही शंकरजीसे संयुक्त हो जायें, वह उपाय हमारे पक्षके सभी लोगोंको करना चाहिये। तत्पश्चात् सारा प्रयोजन समझकर और इन्द्रसे सलाह करके भगवान् नारद हिमाचलके भवनकी ओर चल पड़े। थोड़ी ही देरमें वे द्विजवर चित्र-विचित्र बेंतकी लताओंसे आच्छादित भवन-द्वारपर जा पहुँचे। वहाँ पहलेसे ही भवनके बाहर निकले हुए हिमाचलने मुनिकी वन्दना की। फिर वे हिमाचलके साथ पृथ्वीके भूषणस्वरूप उनके भवनमें प्रविष्ट हुए। वहाँ अनुपम कान्तिवाले मुनिवर नारद स्वयं हिमाचलद्वारा निवेदित किये गये एक स्वर्णनिर्मित विशाल सिंहासनपर विराजमान हुए। तब शैलराजने उन्हें यथायोग्य पाद्य और अर्घ्य निवेदित किया। मुनिने विधिपूर्वक उस अर्घ्यको स्वीकार किया। उस समय शैलराजका मुख खिले हुए कमलके समान हर्षसे खिल उठा। तब उन्होंने अर्घ्य ग्रहण करनेके पश्चात् मुनिवरसे मधुर वाणीमें धीरेसे उनकी तपस्याके विषयमें कुशल पूछी। इसके बाद मुनिने भी पर्वतराजसे कुशल- समाचार पूछा ।। 116 - 124 ll

नारदजी बोले - महाचल! तुम्हारे इस भवनको देखकर आश्चर्य होता है। तुमने इस भवनमें सभी पदार्थोंको संगृहीत कर रखा है। पर्वतराज! तुम्हारी कन्दराओंकी पृथुता तो मनके समान गम्भीर है। तुम्हारे अन्यान्य गुणसमूहों की गुरुता अन्य स्थावरोंसे कहीं बढ़-चढ़कर है। तुम्हारे जलकी निर्मलता मनसे भी अधिक है। शैलराज ! मैं ऐसी कोई वस्तु नहीं देख रहा हूँ, जो तुम्हारी कन्दराओंके भीतर वर्तमान न हो। स्वर्गमें कहीं भी तुमसे बढ़कर क्ष्मी नहीं है। तुम अपनी गुफाओंमें निवास करनेवाले नाना प्रकारकी तपस्याओंमें निरत, अग्नि एवं सूर्यको सी कान्तिवाले पावन मुनियोंद्वारा नित्य पवित्र होते रहते हो देवता, गन्धर्व और किन्नरवृन्द स्वर्गवाससे विरक्त हो विमानको अवहेलना कर पिता की तरह तुम्हारे यहाँ निवास कर रहे हैं। अहो ! शैलेन्द्र ! तुम धन्य हो; क्योंकि तुम्हारी कन्दरामें लोकपति शंकर भी समाधिमें लीन होकर निवास कर रहे हैं। देवर्षि नारद इस प्रकार आदरपूर्ण वाणी बोल ही रहे थे कि उसी समय पर्वतराज हिमाचलकी पटरानी मेना अपनी कन्याके साथ मुनिका दर्शन करनेके लिये वहाँ आयीं। उनके साथ कुछ सखियाँ और सेविकाएँ भी थीं। उन्होंने | लज्जा और प्रेमसे विनम्र हो उस भवनमें प्रवेश किया,जहाँ जितेन्द्रिय मुनिवर भारद हिमाचल के साथ बैठे हुए थे। तब हिमाचल-पत्नी मेनाने तेजके पुञ्जभूत मुनिको देखकर लखावत मुखको छिपाये हुए करकमलोंकी अञ्जलि बाँधकर मुनिको वन्दना की ॥ 125-133 ॥ अमित कान्तिसम्यान एवं महान् भाग्यशाली महो नारदने तब मेनाको देखकर अमृतके उद्गारस्वरूप आशीर्वचनोंद्वारा उनको शुभकामना की। हिमाचलकी पुत्री पार्वतीदेवी यह देखकर आश्चर्यचकित हो गयीं। वे अद्भुत रूपवाले नारदमुनिकी ओर एकटक देख रही थीं। उस समय देवर्षि नारदने 'बेटी! आओ' ऐसी स्नेहपूर्ण वाणीसे पुकारा भी, किंतु वे पिताके गलेको पकड़कर उनकी गोदमें छिपकर बैठ गयीं। यह देखकर माता मेनाने पार्वती देवीसे कहा- 'बेटी! भगवान् नारदको प्रणाम करो, इससे तुम अपने मनके अनुकूल योग्य पति प्राप्त करोगी।' माताद्वारा इस प्रकार कही जानेपर पार्वतीने वस्त्रके छोरसे अपने मुखको ढक लिया और मस्तकको थोड़ा झुका दिया, परंतु मुखसे कुछ नहीं कहा। तत्पश्चात् माताने पुनः अपनी कन्यासे इस प्रकार कहा- 'बेटी! यदि तुम देवर्षि नारदको प्रणाम कर लो तो मैं तुम्हें बड़ी सुन्दर वस्तु दूँगी। मैं तुम्हें यह सुन्दर रत्ननिर्मित खिलौना दूंगी, जिसे मैंने बहुत दिनोंसे छिपाकर रखा है।' इस प्रकार कही जानेपर पार्वतीने शीघ्र ही अपने कमल-मुकुल-सदृश दोनों हाथोंसे मुनिके दोनों चरणोंको उठाकर मस्तकपर रख कर प्रणाम किया ।। 134- 141 ll

पार्वतीके प्रणाम कर लेनेके पश्चात् माता मेनाने कुतूहलवश कन्याके सौभाग्यसूचक शरीर-लक्षणोंकी जानकारी प्राप्त करनेके लिये धीरेसे सखीद्वारा मुनिसे अनुरोध किया; क्योंकि स्त्री स्वभाववश उनके हृदयमें कन्याविषयिणी चिन्ता उठ खड़ी हुई थी। पर्वतराज अपनी पत्नीके उस संकेतको जानकर मनमें परम प्रसन्न हुए कि यह तो बड़ा सुन्दर विषय उपस्थित हुआ। इसमें उन्हें कोई हानि नहीं दीख पड़ी, अतः वे स्वयं कुछ न बोले तब हिमाचल-पत्नीकी सखीद्वारा अनुरोध किये जानेपर महाभाग मुनिवर नारद मुसकराते हुए इस प्रकार बोले-'भद्रे इसका पति तो अभी जगतमें पैदा ही नहीं हुआ है। यह सभी शुभ लक्षणोंसे रहित है। इसको हथेली सदा उत्तान ही रहती है तथा चरण भी कुलक्षणोंसे युक्त हैं। यह अपनी छायाके साथ अर्थात् अकेली ही | रहेगी। इसके विषयमें और अधिक क्या कहा जाय।'यह सुनकर पर्वतराज हिमाचल व्याकुल हो गये। उनका सारा धैर्य जाता रहा। तब वे अश्रुगद्गद कण्ठसे नारदजीसे बोले ॥ 142 – 147 ॥

हिमवान्ने कहा- देवर्षे ! इस अत्यन्त दोषपूर्ण संस्तरको गति दुर्विज्ञेय है। इस अवश्यम्भाविनी सृष्टि किसी कर्ता महापुरुषद्वारा जो मर्यादा स्थापित की गयी है, वह संसारी जीवोंके लिये स्थिर है। जो जिसके बीजसे उत्पन्न होता है, वह उस पैदा करनेवालेके लिये निरर्थक होता है, उसी प्रकार पैदा करनेवाला भी पैदा हुएका कोई नहीं है- यह तो स्पष्ट है; क्योंकि प्राणियोंकी अनेकों जातियाँ अपने-अपने कर्मोंके अनुसार ही उत्पन्न होती हैं। एक ही जीव अण्डजके सम्पर्कसे अण्डजयोनिमें पैदा होता है और यही पुनः मनुष्यके संयोगसे मानव योनिमें उत्पन्न होता है। फिर मानव-योनिसे भी उलटकर सर्प आदि रेंगनेवाली योनियोंमें जन्म लेता है। यहाँ भी धर्मको उत्कृष्टतासे उत्तम जातिमें जन्म होता है। शेष जो अधार्मिक प्राणी होते हैं, वे पुत्रहीन होते हैं। उनमें गृहस्थधर्मका सुचारु रूपसे पालन न करनेवाले मानवोंको पुत्रकी प्राप्ति नहीं होती। इन आश्रमोंकी प्रप्ति उसी कर्तकी व्यवस्थासे, जिसने संसारकी वृद्धि की है, क्रमशः ब्रह्मचर्य व्रतके बाद होती है। यदि सभी प्राणी आश्रमधर्मका त्याग कर दें तो संसारकी वृद्धि कैसे हो सकती है। इसीलिये सृष्टिकर्ताने शास्त्रोंमें नरकसे त्राण करनेका लोभ दिखाकर प्राणियोंको मोहित करनेके लिये पुत्रप्रातिकी प्रशंसा की है; परंतु प्राणियोंको सृष्टि खोके बिना हो नहीं सकती और वह |स्वी जाति स्वभावसे ही दयनीय और दीनतापूर्वक बोलनेवाली होती है। इसीलिये ब्रह्माने उन स्त्रियोंको शास्त्रालोचनकी शक्ति नहीं दी है ।। 148 - 156 ॥

इसी प्रकार शास्त्रोंमें अनेकों बार निश्चितरूपसे इस महान् फलका वर्णन किया गया है कि जो कन्या शील सदाचारसे रहित न हो, वह दस पुत्रोंके समान मानी गयी है; किंतु यह वाक्य निष्फल है और पुरुषके लिये अत्यन्त ग्लानि उत्पन्न करनेवाला है; क्योंकि जो कन्या पति, पुत्र, धन आदि सभी सुख-साधनोंसे पूर्ण सम्पन्न होनेपर भी जब कृपण, शोचनीय और पिताके दुःखको बढ़ानेवाली होती है, तब जो पति, पुत्र, धन आदिसे हीन अभागिनी हो तो उसके विषयमें क्या कहना है। नारदजी! आपने मेरी कन्याके शरीरमें तो दोष समूहका ही वर्णन किया है, इसी कारण मैं मोहमें पड़ा हूँ, मेरा शरीर सूखा जा रहाहै, मनमें ग्लानि हो रही है और कष्ट पा रहा हूँ। मुने! | इस समय मुझपर अनुग्रह करके (कन्याके कष्ट निवारक उपाय) यदि अयुक्त अथवा दुष्प्राप्य भी हो तो बतलाइये और मेरे कन्यविषयक दुःखको दूर कीजिये क्योंकि निःसंदेहरूपसे कार्य सिद्धिकी सम्भावना होनेपर भी फलके लोभमें आसक्त एवं कार्य साधनमें निपुण अशुभ तृष्णा मेरे परिभवयुक्त मनको ठग रही है। स्त्रियोंके लिये उत्तम पतिको प्राप्ति ही उनके सौभाग्यशाली जन्मकी सूचक है तथा वह पितृकुल एवं पतिकुल—दोनों कुलोंके लिये इहलोक और परलोकमें सुखका साधन बतलायी गयी है। इस प्रकार स्त्रियोंके लिये उत्तम पतिका मिलना तो दुर्लभ है ही, परंतु गुणहीन पति भी नारीको पुण्यके बिना कभी नहीं प्राप्त होता; क्योंकि नारीको साधनरहित धर्म, प्रचुर मात्रामें कामवासनाकी प्राप्ति और जीवन निर्वाहके लिये धन पतिके द्वारा ही प्राप्त होते हैं ।। 157 165 ॥

पति निर्धन, अभागा, मूर्ख और सभी शुभ लक्षणोंसे रहित क्यों न हो, किंतु वह नारीके लिये सदैव परम देवता कहा गया है। देवर्षे! आपने कहा है कि मेरी पुत्रीका पति पैदा ही नहीं हुआ है, यह तो इसका अतुलनीय एवं बहुत बड़ा दुःसह दुर्भाग्य है। मुने! आप जो ऐसा कह रहे हैं कि चराचर प्राणियोंकी सृष्टिमें वह अभीतक उत्पन्न ही नहीं हुआ है, इससे मेरा मन व्याकुल हो गया है। मनुष्यों एवं देवजातियोंके शुभाशुभसूचक लक्षण हाथों एवं पैरोंमें चिह्नित लक्षणोंद्वारा जाने जाते हैं। मुनिश्रेष्ठ! इस विषयमें भी आपने इसे उत्तानहस्ता बतलाया है। यह उत्तानहस्ता सदा याचकोंकी ही कही गयी है, किंतु जो सौभाग्यशाली धन्यवादके पात्र और दानी होते हैं, उनके हाथ कभी उत्तान नहीं रहते। मुने! आपने यह भी कहा है कि इसके चरण अपनी छायासे युक्त होनेके कारण दोषी हैं, अतः इस विषयमें भी हमें कल्याणकारिणी आशा नहीं प्रतीत हो रही है। शरीरके अन्यान्य लक्षण | पृथक्-पृथक् फल सूचित करते हैं। उनमें जो सौभाग्य, धन, पुत्र, आयु और पति-प्राप्तिके सूचक होते हैं, उन सभी लक्षणोंसे मेरी यह कन्या होन है—ऐसा आप कह रहे हैं। मुनिश्रेष्ठ! आप मेरी सारी मनोगत अभिलाषाओंको जानते है। मुनिशार्दूल आप सत्यवादी है, इसी कारण (आपको बात सुनकर ) मैं मोहित हो रहा हूँ और मेरा हृदयफटा-सा जा रहा है। ऐसा कहकर हिमाचल उस महान् दुःखको कल्पनासे विरत हो गये उस शैलराजके मुखकमलसे निकली हुई ये सारी बातें सुनकर देवपूजित नारदजी मुसकराते हुए इस प्रकार बोले ।। 166 - 175 ।। नारदजीने कहा- गिरिराज! आप तो महान् हर्षका अवसर उपस्थित होनेपर भी दुःखकी गाथा गा रहे हैं और मेरे अस्पष्ट वाक्यके अर्थको समझे बिना मोहको प्राप्त हो रहे हैं। शैलराज इस रहस्यपूर्ण वाणीका तात्पर्य मुझसे सुनिये और मेरे द्वारा कही हुई बातपर सावधानीपूर्वक विचार कीजिये। हिमाचल! मैंने जो यह कहा है कि इस देवीका पति उत्पन्न ही नहीं हुआ है, इसका अभिप्राय यह है कि जो भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों में वर्तमान रहनेवाले, जीवोंके शरणदाता, अविनाशी, नियामक, कल्याणकर्ता और परमेश्वर हैं, वे महादेव उत्पन्न नहीं हुए हैं अर्थात् वे अनादि हैं, उनका जन्म नहीं होता। पर्वतराज ! ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, मुनि आदि जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थासे ग्रस्त हैं। ये सभी उस परमेश्वरके खिलौनेमात्र हैं। उन्होंकी इच्छासे त्रिभुवनके स्वामी ब्रह्मा प्रकट हुए हैं और विष्णु प्रत्येक युगमें विशाल शरीर धारण करके नाना प्रकारकी जातियोंमें उत्पन्न होते हैं। पर्वतराज! प्रत्येक युगमें मायाका आश्रय लेकर उत्पन्न हुए विष्णुको तो तुम भी मानते ही हो। स्थावर योनिमें जन्म लेनेपर भी शरीरान्त होनेपर आत्माका विनाश नहीं होता। संसारमें उत्पन्न होकर मृत्युको प्राप्त हुए प्राणीका शरीरमात्र नष्ट होता है, आत्माका नाश नहीं कहा जाता। ब्रह्मासे लेकर स्थावरपर्यन्त जो यह संसार कहा जाता है, उसमें उत्पन्न हुए प्राणी जन्म-मृत्युके दुःखसे पीड़ित होकर पराधीन रहते हैं, किंतु महादेव स्थाणुकी भाँति अचल हैं। वे वृद्धावस्थासे रहित तथा सबको उत्पन्न करनेवाले हैं, किंतु स्वयं किसीसे उत्पन्न नहीं होते थे ही निर्दोष जगदीश्वर शङ्कर इस कन्याके पति होंगे ।।176- 184 ॥

साथ ही मैंने तुमसे जो यह कहा था कि यह देवी लक्षणोंसे रहित है, उस वाक्यका अभिप्राय भी सम्यक् रूपसे सुनो। पर्वतराज ! शरीरके अवयवोंमें अङ्कित लक्षण दैविक चिह्न होता है। यह सभीके आयु, धन | और सौभाग्यके परिणामको प्रकट करनेवाला होता है,किंतु इसके शरीरमें इस अनन्त एवं अप्रमेय सौभाग्यके किसी लक्षणाकार चिह्नका संविधान नहीं किया गया है, | इसीलिये मैंने कहा है कि इसके शरीरमें लक्षण नहीं है। महाबुद्धिमान् हिमाचल ! जो मैंने इसकी सदा उत्तानकरताका कथन किया था, उसका तात्पर्य यह है कि इस देवीका यह वरदायक हाथ सदा उत्तान ही रहेगा, जिससे यह सुर, अमुर और मुनिसमूहके लिये वरदायिनी होगी। पर्वत श्रेष्ठ उस समय मैंने जो ऐसा कहा था कि इसके चरण अपनी छायामें रहनेके कारण दोषी हैं, इस विषयमें भी तुम मेरे वचनोंकी युक्ति सुनो। इसके कमल सदृश चरण स्वच्छ उज्ज्वल नखोंसे सुशोभित हैं। जब वे नमस्कार करनेवाले सुरों एवं असुरोंके किरीटोमें जड़ी हुई मणियोंकी विचित्र वर्णको कान्तिसे उद्भासित होंगे, तब अपनी छापासे प्रतिबिम्बित कहलायेंगे। महीधर! आपकी यह कन्या जगद्गुरु वृषभध्वज शङ्करकी भार्या, लोकधर्मकी जननी, प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाली, कल्याणस्वरूपा और अग्निके समान कान्तिमती है। यह तुम्हारे क्षेत्रमें तुम्हें पावन करनेके लिये प्रकट हुई है। इसलिये श्रेष्ठ पर्वतराज जिस प्रकार यह शीघ्र से शीघ्र पिनाकधारी शङ्करजी के साथ संयुक्त हो जाय, तुम्हें विधिपूर्वक वैसा ही विधान करना चाहिये। हिमाचल ! इससे देवताओंका अत्यन्त महान् कार्य सिद्ध हो जायगा ।। 185 - 194 ॥

सूतजी कहते हैं-ऋषियो नारदजीके मुखसे ये सारी बातें सुनकर उस समय मेनाके प्राणपति शैलराज अपनेको पुनः उत्पन्न हुआ-सा अनुभव करने लगे। तत्पश्चात् हर्षसे फूले हुए हिमाचल भी उत्कृष्ट बुद्धिसम्पन्न देवाधिदेव वृषभध्वजको नमस्कार करके नारदजीसे बोले ॥ 195-196 ।। हिमवान्ने कहा- मुने! आपने तो मुझे घोर दुस्तर नरकसे उबार लिया है और पाताललोकसे निकालकर सातों लोकोंका अधिपति बना दिया है। मुनिवर ! इस समय आपने हिमाचलपर जो अचल गुणवाली समृद्धि उत्पन्न कर दी है, इससे मैं सचमुच हिमाचल नामसे विख्यात कर दिया गया हूँ। मुने! इस समय मेरा हृदय आनन्दमय दिनका अनुभव कर रहा है, जिससे यह आपके कृत्योंका विभागपूर्वक विचार करनेमें सक्षम नहीं "हो रहा है। यदि मैं वाणीके अधीश्वर बृहस्पति हो जाऊँ तो भी आपके गुर्गेका विचार करनेमें समर्थ नहीं हो सकता।मुने! आप जैसे महर्षियोंका दर्शन निश्चय ही अमोघ होता है महामुने। हमलोगों के प्रति आपकी अस्थिरता तो मुझे स्पष्टरूपसे ज्ञात है। आप लोगोंद्वारा ही मैं | आत्मस्वरूप मुनियों एवं देवताओंके निवास-योग्य बनाया गया हूँ। यद्यपि मैं स्वयं भी पाप करनेवाला हूँ, तथापि किसी एक वस्तुके लिये मुझे आज्ञा प्रदान कीजिये। उस समय हर्षसे भरे हुए शैलराजके इस प्रकार कहनेपर नारदजीने कहा 'प्रभो! तुमने सब कुछ कर लिया। (अब मुझे यही कहना है कि) देवताओंके कार्यका जो प्रयोजन है, वह तुम्हारे लिये भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होगा।' ऐसा कहकर नारदजी शीघ्र ही स्वर्गलोकको चले गये। वहाँ इन्द्रके भवनमें जाकर वे देवराज इन्द्रसे मिले। जब वे एक सुन्दर सिंहासनपर आसीन हो गये, तब इन्द्रने उनसे जिज्ञासा प्रकट की। फिर तो वे पार्वती सम्बन्धी कथाका वर्णन करने लगे ॥ 197 - 206 ॥

नारदजी बोले - देवराज! संगठित होकर सबके द्वारा जो काम किया जाना चाहिये, उसे तो मैंने अकेले ही कर दिया; किंतु इस अवसरपर अब कामदेवकी आवश्यकता आ पड़ी है। कार्यदर्शी नारद मुनिद्वारा इस | प्रकार कहे जानेपर देवराज भगवान् इन्द्रने आमके बौरके अङ्करको अस्वरूपमें धारण करनेवाले कामदेवका स्मरण किया। सहस्रनेत्रधारी बुद्धिमान् इन्द्रद्वारा स्मरण किये जानेपर झषकेतु कामदेव अपनी पत्नी रतिके साथ विलासपूर्वक शीघ्र ही उपस्थित हुआ। उसे उपस्थित देखकर इन्द्रने आदरपूर्वक उससे कहा ।। 207-209 ।।

इन्द्र बोले- मनोभव! तुम तो अजेय हो और मनसे ही उत्पन्न होते हो, अतः सभी प्राणियोंके मनोगत भावोंको भलीभाँति जानते हो। ऐसी दशामें तुम्हारे प्रति अधिक उपदेश करनेसे क्या लाभ? मैं तुमसे एक प्रिय बात कह रहा हूँ। तुम स्वर्गवासियोंके उस प्रिय कार्यको अवश्य पूर्ण करो (वह यह है कि) तुम चैत्रमास और ऋतुराज वसन्तको साथ लेकर शङ्करजीका गिरिराजकुमारी पार्वतीके साथ शीघ्र ही संयोग स्थापित करा दो। अपनी स्वार्थसिद्धिके निमित्त इन्द्रद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर पञ्चवाण कामदेव भयभीत होकर इन्द्रसे इस प्रकार बोला ॥ 210- 212 ॥कामदेवने कहा- जगन्नाथ! क्या आप यह नहीं जानते कि मुनियों और दानवोंको भयभीत करनेवाली इस देवसामग्रीसे देवाधिदेव शङ्करको वशमें कर लेना सहज नहीं है। उन महादेवकी इन्द्रियाँ विकाररहित हैं, इसका भी ज्ञान तो आपको है ही साथ ही महापुरुषोंकी प्रसन्नता और क्रोध भी महान् होता है। इस समय आप जो सम्पूर्ण उपभोगोंकी सारभूता स्वर्गमें उत्पन्न होनेवाली सुन्दरी अप्सराओं तथा बिना चेष्टा किये ही प्राप्त होनेवाले सुखदायक पदार्थोंका उपभोग कर रहे हैं, वह शङ्करजीके प्रति प्रमाद करनेसे नष्ट हो जायगा। थोड़ा इसपर भी विचार कर लीजिये क्योंकि सामान्य प्राणियोंको भी कार्यफलकी सम्भावना पहलेसे ही दीखने लगती है। इन्द्रदेव! जो लोग सामान्यको छोड़कर विशेषकी आकाक्षा करते हैं, उनका सामान्यसे पतन हो जाना ही फल है। (विशेष तो अप्राप्त है ही।) कामदेवके इस कथनको सुनकर देवताओंसे घिरे हुए इन्द्रने उससे कहा ॥213- 217 ॥

इन्द्र बोले- रतिवल्लभ तुम्हारे इस कथन के लिये हमलोग प्रमाण हैं। तुम्हारे कथनमें कोई संदेह नहीं है, किंतु ( निर्मित वस्तुके) आकार-प्रकारके बिना लोहार अथवा कारीगरकी शक्तिका पता नहीं चलता तथा किसीकी भी शक्ति किसी विशेष विषयमें ही सफलरूपसे देखी जाती है, सर्वत्र नहीं। इन्द्रद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर रतिसहित कामदेव सहायकरूपमें अपने मित्र मधुमास (अथवा वसन्त) - को साथ लेकर प्रस्थित हुआ और शीघ्र ही हिमाचलके शिखरपर जा पहुँचा। यहाँ जाकर वह कार्यकी सिद्धिके लिये उपायपूर्वक चिन्ता करने लगा। उसने सोचा कि जो लोग महान् लक्ष्यसे युक्त और अटल निश्चयवालें हैं, उनके मनको जीतना अत्यन्त कठिन है। अतः सर्वप्रथम उसीको ही संक्षुब्ध कर निश्चयरूपसे विजय प्राप्त की जा सकती है; क्योंकि पूर्वकालमें मनको शुद्ध करके ही लोगोंने उत्तम सिद्धि प्राप्त की है। किंतु कठिनाई तो यह है कि सूरतर प्राणियोंके सङ्गसे अनेकों प्रकारके भावोंद्वारा द्वेषका अनुगमन किये बिना क्रोध कैसे उत्पन्न हो सकता है? इसके लिये मैं भयंकर ईर्ष्या नामकी महासखीको चपलताके मस्तकपर स्थापित करूँगा, तत्पश्चात् के प्रवाहको विध्वस्त करनेवाली, महान् बलवती मनकी उस उत्कृष्ट विकृतिको सङ्करजीपर विनियुक्त करूंगा।वहाँ धैर्यके द्वारोंको बंद कर तथा संतोषको दूर हटाकर कोई भी ऐसा उत्कृष्ट विद्वान् नहीं है, जो मुझे जानने में समर्थ हो सके। किसी भी कार्यके आरम्भमें विकल्पमात्रका विचार करनेसे मनकी विरूपता उत्पन्न हो जाती है, जिससे आगे चलकर मूल कार्यके आरम्भ होनेपर गम्भीर आपत्तियोंकी लहरें उठने लगती हैं और कार्य दुस्तर हो जाता है। अतः अब मैं रमणीय साधनोंके संविधानसे उन स्थिरात्मा शङ्करजीके इन्द्रियसमूहको ढककर उनकी तपस्याको भङ्ग करूँगा ll 218-226 ll

इस प्रकार सोच-विचारकर कामदेव प्राणियोंके पालक शङ्करजीके उस आश्रमपर गया, जो पृथ्वीका सारभूत था । वहाँ आपके वृक्ष उगे हुए थे, जिनकी छायामें वेदिकाएँ बनी थीं। वह शान्त स्वभाववाले जीवोंसे व्याप्त तथा पर्वतीय जीवोंसे भरा हुआ था। वहीं नाना प्रकारके पुष्पोंकी लताएँ फैली हुई थीं। ऊपर आकाशमण्डलमें गणेश्वर विराजमान थे। वहीं एक ओर नीली घासके ऊपर वृषभराज नन्दीश्वर निश्चितभावसे बैठे हुए थे यहाँ कामदेव ने शरीके निकट किसी दूसरे सुन्दर पुरुषको देखा। उसका नाम वीरक था। वह जगत्के वीरोंमें प्रधान था। उसकी शरीर कान्ति शङ्करजीके समान थी उसकी जटाएँ और पद्मकेसरके उनके समान पीली थीं उसके हाथमें त | शोभा पा रहा था। वह विषैले सर्पक आभूषणोंसे विभूषित हो निश्चिन्त भावसे बैठा हुआ था। तदनन्तर कामदेवकी दृष्टि क्रमशः धीरे-धीरे निकट प्राप्त हुए शङ्करजीपर पड़ी, जिनके कमल दलके सदृरा नेत्र अधखुले थे जो अपने सुन्दर नेत्रद्वारा सीधे नासिकाके अग्रभागको देख रहे थे। उनके कंधेपर सिंहके चमड़ेका ऐसा लम्बा उत्तरीय लटक रहा था, जिससे रक्त टपक रहा था। कानोंमें कुण्डलरूपमें पहने हुए सर्पोंके मुखसे निकलती हुई निःश्वासाग्निसे उनका शरीर पीला दीख रहा था। उनकी लम्बी जटाएँ खप्पर और तुम्बीतक हिलती हुई शोभा पा रही थीं। वे वासुकि नागकी शय्या बनाकर उसके नाभिमूलपर बैठे हुए थे उनकी ब्रह्माञ्जलिमें भूषणरूपसे धारण किये गये सर्पकी पूँछका अग्रभाग स्थित था। तत्पश्चात् शङ्करजी जिस वृक्षके नीचे बैठे हुए थे, उसकी चोटीपर भ्रमरोंकी गुंजार गूँज उठी। उसी समय कामदेव शङ्करजीके श्रोत्रमार्गसे मनमें प्रविष्ट हुआ ॥227 - 2353 ॥भ्रमरोंकी उस मधुर झंकारको सुनकर शङ्करजीका मन कामदेवके प्रभावसे अनुरक्त हो गया। तब उन्होंने अपनी प्रिया दक्षकन्या सतीका स्मरण किया। उस समय उनकी वह लक्ष्यको प्रत्यक्षरूपमें प्रकट करनेवाली अत्यन्त निर्मल समाधिभावना धीरे-धीरे तिरोहित हो गयी ये विघ्नोंद्वारा लक्ष्यके अवरुद्ध हो जानेसे सतीकी तन्मयताको प्राप्त हो गये। थोड़ी देर बाद जितेन्द्रिय होनेके कारण शङ्करजी इस कामजन्य विकारको समझ गये। फिर तो उनमें थोड़ा क्रोधकी झलक आ गयी। तब उन जटाधारीने धैर्य धारणकर अपनेको कामदेवकी स्थितिसे मुक्त करनेके लिये योगमायाका आश्रय लिया। उस मायासे आविष्ट होनेके कारण कामदेव जलने लगा। तत्पश्चात् जो वासना और दुर्व्यसनका मूर्तरूप स्वेच्छानुसार शरीर धारण करनेवाला, अजेय, क्रोध और दोषका महान् आश्रयस्थान था, वह कामदेव शङ्करजीके हृदयसे बाहर निकला और एक बाहरी स्थानका सहारा लेकर निकट ही खड़ा हो गया। उस समय उसका परम स्नेही मित्र मधु (चैत्रमास या वसन्त) भी उसके साथ था। वहाँ आमके वृक्षपर मन्द वायुसे हिलाये गये रमणीय पुष्पगुच्छको देखकर मकरध्वज कामदेवने शीघ्र ही शङ्करजीके वक्ष:स्थलपर वह मोहन नामक बाण छोड़ा। वह विमोहन नामक पुष्पवाण विनाशकारी महान् प्रभावशाली, कठोर और विशाल था। वह शङ्करजीके शुद्ध हृदयपर जा गिरा। जिससे उनका हृदय घायल हो गया और उनकी इन्द्रियाँ विचलित हो गयीं। फिर तो पर्वतके समान धैर्यशाली होनेपर भी शङ्करजी कामोन्मुख हो गये, किंतु अनेकों बाहरी विघ्नसमूहोंके प्राप्त होनेपर भी सद्भावोंके प्रभुत्वके कारण उनमें कामका आवेश विशेषरूपसे नहीं हुआ ॥ 236- 2463 ।।

तदुपरान्त क्रोधाग्नि से उत्पन्न हुए भयंकर हुंकारके भयानक शब्दसे युक्त मुखके ऊपर क्रोधाग्निसे उद्दीप्त तीसरा नेत्र प्रकट हो गया, जो भीषण रूपधारी शङ्करजीका जगत्का संहार करनेवाला भयानक रूप था। तब जटाधारी शङ्करजीने अपने निकट ही खड़े हुए कामदेवकी ओर दृष्टि किया। फिर तो उस नेत्रसे निकली हुई एक चिनगारीने तुरंत ही कामियोंके दर्पको बढ़ाने वाले कामदेवको जलाकर भस्म कर दिया। यह देखकर स्वर्गवासी हाहाकार मचा रहे थे। इस प्रकार शङ्करजीके से उद्भूत हुई अग्नि कामदेवको भस्म करजगत्को जलानेके लिये आगे बड़ी और लपटोंके हुंकारसे पदार्थोंको भक्षण करने लगी। तब शङ्करजीने जगत्का कल्याण करनेके लिये उस अग्निका विभाजन कर दिया। उन्होंने कामाग्निको विभक्त कर आमके वृक्ष, वसन्त ऋतु (अथवा चैत्रमास), चन्द्रमा, सुगन्धित पुष्पों, भ्रमरों और कोकिलोंके मुखोंमें स्थापित कर दिया। बाहर और भीतर- दोनों प्रकारसे घायल हुए शिवजीद्वारा विभक्त हुआ वह कामदेवका बाण अनुराग और स्नेहसे उद्दीप्त हो वेगपूर्वक दौड़ती हुई अग्निको तरह लोगोंके मनोंको क्षुब्ध करने लगा। उसकी उन्नति रोकी नहीं जा सकती थी। वह इतना भयंकर थी कि उसके प्रतिषेधका कोई उपाय बड़ी कठिनाईसे हो सकता था। इस प्रकार वह अब भी कामियोंके स्नेहसिक हृदयमें पहुँचकर उन्हें रात-दिन जलाता रहता है ।। 247- 254 ll

इस प्रकार कामदेवको शङ्करजीके हुंकारको ज्वालासे भस्म हुआ देख रति कामदेवके मित्र वसन्तके साथ फूट-फूटकर विलाप करने लगी। बहुत प्रकारसे विलाप करनेके पश्चात् वसन्तद्वारा समझायी बुझायी जानेपर रति त्रिनेत्रधारी भगवान् चन्द्रशेखरकी शरणमें जानेके लिये प्रस्थित हुई। उस समय उसने अपने एक हाथमें पवित्रकके स्थानपर फूली हुई आमकी लताको, जिसपर भँवरे मँडरा रहे थे, धारण कर रखा था और उसके दूसरे हाथपर उसकी सखी कोयल बैठी थी। उसने अपने पुंघराले बालोंको जटाजूटके रूपमें बाँधकर अपने प्रियतम कामदेवके क्षेत भरमसे शरीरको धूसरित कर लिया था। वहाँ पहुँचकर वह पृथ्वीपर घुटने टेककर भगवान् चन्द्रशेखरसे बोली- ll 255 - 259 ll

रतिने कहा- जो सब प्रकारकी क्षतिसे रहित हैं, उन शिवको नमस्कार है। जो सभी प्राणियों के मनःस्वरूप हैं, उन शिवको प्रणाम है। जो देवताओं द्वारा पूजित और सदा भक्तोंपर कृपा करनेवाले हैं, उन आप शिवको अभिवादन है। जगत्को उत्पन्न करनेवाले शिवको नमस्कार है। कामदेवको भस्म कर देनेवाले आपको प्रणाम है। गुप्त रूपसे महान् उतको धारण करनेवाले आपको अभिवादन है। | मायारूपी काननका आश्रय लेनेवालेको नमस्कार है।आप जगत्के संहारक, कल्याणकारक और पुरातन सिद्ध हैं, आपको बारंबार प्रणाम है। आप कालस्वरूप, कल (कालकी गणना करनेवाले) और श्रेष्ठ ज्ञानके प्रदाता हैं, आपको पुनः पुनः अभिवादन है। कालकी कलाका अतिक्रमण करनेवाले आपको नमस्कार है। प्रकृतिरूप निर्मल आभूषण धारण करनेवालेको प्रणाम है। आप अप्रमेय शक्तिशाली अन्धकासुरका मर्दन करनेवाले, शरणदाता और निर्गुण हैं, आपको वारंवार अभिवादन है। भयंकर गणोंद्वारा अनुगमन किये जानेवाले आपको नमस्कार है। अनेकों भुवनोंके आदिकर्ताको प्रणाम है। अनेकों जगत्की रचना करनेवालेको अभिवादन है। चित्र-विचित्र फल प्रदान करनेवाले आपको नमस्कार है। सबकी समाप्ति अर्थात् महाप्रलयके अवसरपर आप विनाशसे बचे हुए प्राणियोंके नेता तथा विशाल यज्ञों में | अपने भागको भोगनेवाले हैं, आपको प्रणाम है। भक्तोंको उनकी अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करनेवालेको अभिवादन है। संसारकी आसक्तिका हरण करनेवाले आपको सदा नमस्कार है ।। 260- 265 ॥

आप अनन्त रूपवाले हैं तथा आपका क्रोध असह्य होता है, आपको सदैव प्रणाम है। आप चन्द्रमाके चिह्नसे सुशोभित, अपरिमित मानसे युक्त और सभी प्राणियोंद्वारा स्तुत हैं, आपको सदैव अभिवादन है। वृषभेन्द्र नन्दी आपका वाहन है, आप त्रिपुरके विनाशक और प्रसिद्ध महौषधरूप हैं, आपको नमस्कार है। आप भक्तिके वशीभूत हो अभीष्ट प्रदान करनेवाले और सभी प्रकारके कष्टोंको दूर करनेवाले हैं, आपको बारंबार प्रणाम है। आप चराचर प्राणियोंके आचार-विचारसे सर्वश्रेष्ठ, जगत्के आचार्य, समस्त भूत- सृष्टिपर दृष्टि रखनेवाले, मस्तकपर चन्द्रमाको धारण करनेवाले, अतुलित प्रेमी और महनीयोंके भी महेश्वर हैं, मैं आपकी शरणमें आयी हूँ। प्रभो! मुझे कामदेवके यशकी समृद्धि प्रदान कीजिये, जिससे ये कामदेव पुनः जीवित हो जायें। इस त्रिभुवनमें आपसे बढ़कर दूसरा कौन है, जो मेरे प्रियतमको जीवित कर सके। एकमात्र आप ही अपनी प्रियाके प्राणपति, प्रिय पदार्थोंके उद्गम स्थान पर और अपर इन दोनों अर्थोके पर्यायस्वरूप जगत्के स्वामी, परम दयालु और भोक भयको उखाड़ फेंकनेवाले हैं । ll 266 - 270 ॥सूतजी कहते हैं-ऋषियो। कामदेवकी पत्नी रतिद्वारा इस प्रकार स्तवन किये जानेपर स्तुतिके योग्य भगवान् शङ्कर प्रसन्न हो गये। तब चन्द्रखण्डको धारण करनेवाले शिवजी उसकी ओर दृष्टिपात करके मधुर वाणीमें बोले ll 279 ll

शङ्करजीने कहा- कामवल्लभे! थोड़े ही समयके बाद यह कामदेव पुनः तुम्हें पतिरूपमें प्राप्त होगा। वह जगत्में अनङ्ग नामसे विख्यात होगा। इस प्रकार कही जानेपर काम-पत्नी रतिने सिर झुकाकर भगवान् शङ्करको प्रणाम किया, तत्पश्चात् वह हिमालयके रमणीय उपवनकी ओर चली गयी। उस सुरम्य स्थानपर पहुँचकर भी वह दीनभावसे बहुत देरतक विलाप करती रही; क्योंकि वह शङ्करजीकी आज्ञासे मृत्युके निश्चयसे निवृत्त हो चुकी थी ।। 272 - 274 ।।

इधर नारदजीके वाक्योंसे प्रेरित होकर पर्वतराज हिमालय उयासपूर्ण मनसे दो सखियोंके साथ अपनी कन्याको लेकर (शङ्करजीके पास जानेके लिये शुभमुहूर्त प्रस्थित हुए। उस समय पार्वतीको आभूषणोंसे सुसज्जित कर दिया गया था। उनके सभी वैवाहिक मङ्गलकार्य सम्पन्न कर लिये गये थे। उनके मस्तकपर स्वर्गीय पुष्पोंकी माला पड़ी थी तथा शरीरपर श्वेत रंगकी महीन | रेशमी साड़ी झलक रही थी। वे काननों, वनों एवं उपवनोंको पार करके जब आगे बढ़े तो उन्होंने उस रमणीय वनस्थलीमें एक महान् ओजस्विनी नारीको, जो लोकमें अनुपम रूपवती थी, रोती हुई देखा । तब गिरिराज उसे रोती देखकर कुतूहलवश उसके निकट गये और पूछने लगे ॥। 275 - 279 ॥

हिमवान् बोले- कल्याणि तुम कौन हो ? किसकी पत्नी हो? किसलिये इस प्रकार रुदन कर रही हो ? लोकसुन्दरि ! मैं इसका असाधारण कारण नहीं मानता, (अपितु इसका कोई विशेष कारण है।) हिमाचल के वचनको सुनकर वसन्तसहित रोती हुई रति दीर्घ निःश्वास लेकर दैन्यवर्धक एवं शोकजनक वचन बोली ॥ 280-281 ।।

रतिने कहा— सुव्रत आप मुझे कामदेवकी प्यारी पत्नी रति समझें। महाभाग इसी पर्वतपर भगवान् शङ्कर तपस्या कर रहे हैं।तपस्यामें विघ्न पड़नेसे रुष्ट होकर उन्होंने अपने तीसरे नेत्रको खोलकर देखा, जिससे मेरे परम प्रिय पति कामदेव जलकर भस्म हो गये। तब भयसे विह्वल हुई मैं उन देवाधिदेवकी शरणमें गयी। वहाँ मैंने उनकी स्तुति की। उस स्तवनसे प्रसन्न होकर भगवान् शङ्करने मुझसे कहा 'कामदयिते। मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम्हारा यह मनोरथ पूर्ण हो जायगा। साथ ही जो मनुष्य मेरे शरणागत होकर तुम्हारे द्वारा की गयी इस स्तुतिका भक्तिपूर्वक पाठ करेगा, वह अपनी मनोवाञ्छित कामनाको प्राप्त कर लेगा। अब तुम मृत्युके निश्चयसे निवृत्त हो जाओ।' महायुतिमान् पर्वतराज! उसी आशाके आवेशसे मैं शङ्करजीके वाक्यकी प्रतीक्षा करती हुई कुछ कालतक इस शरीरकी रक्षा करूँगी। रतिद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर हिमाचल उस समय भयभीत हो गये। तब वे अपनी कन्याका हाथ पकड़कर अपने नगरको लौट जानेके लिये उद्यत हो गये। तब जो होनहार है, वह तो अवश्य होकर ही रहेगा ऐसा विचारकर प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाली पार्वती लजाती हुई सखीके मुखसे अपने पिता गिरिराजसे बोलीं ॥ 282 - 288 ॥

गिरिराजकुमारीने कहा-पिताजी! इस अभागे शरीरको धारण करनेसे मुझे क्या लाभ प्राप्त हो सकता है ? अब मैं किस प्रकार सुखी हो सकूँगी और किस उपायसे भगवान् शङ्कर मेरे पति हो सकेंगे? (ठीक है, ऐसा सुना जाता है कि) तपस्यासे अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है; क्योंकि तपस्वीके लिये कुछ भी असाध्य नहीं है। भला ऐसे उत्तम साधनके रहते हुए भी लोग व्यर्थ ही दुर्भाग्यका भार क्यों बहन करते हैं? तपस्या न करनेवालेके लिये भाग्यहीन जीवनसे तो मर जाना ही श्रेयस्कर है। अतः मैं निःसंदेह तपस्विनी बनूँगी और नियमोंके पालनद्वारा अपने शरीरको सुखा डालूंगी। प्रयोजन-सिद्धिके लिये तपस्याके निमित्त संदेहरहित उद्यम अवश्य करना चाहिये। इसलिये अब मैं तपस्या करूँगी, जिससे मुझे वह दुर्लभ कामना प्राप्त हो जाय। पुत्रीद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर पर्वतराज हिमाचल स्नेहसे विह्वल हो गये, तब वे स्नेहभरी गद्गद वाणीसे बोले ।। 289-293 ।।

हिमवान्ने कहा-बेटी! तू तो बड़ी चञ्चल है। 'उमा'- उसे मत कर; क्योंकि सुन्दर स्वरूपवाली बच्ची ! तेरा यह शरीर क्लेशस्वरूप तपस्याके कष्टको सहन करनेके लिये सक्षम नहीं है। वत्से! भावी पदार्थोंके प्रति सदैव ऐसा समझना चाहिये कि होनहारके विषय न चाहनेपरभी हठपूर्वक घटित होते ही हैं अतः वाले! तुझे तपस्या करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। आओ, हमलोग घर चलें, वहीं इस विषयमें विचार किया जायगा। इस प्रकार कहे जानेपर भी जब पार्वती घर लौटनेके लिये उद्यत नहीं हुई, तब हिमाचल चिन्तित हो गये और पुत्रीकी प्रशंसा करने लगे। इसी बीच धरातलपर इस प्रकारकी दिव्य आकाशवाणी सुनायी पड़ो— 'शैलराज! जो तुमने अपनी पुत्रीके प्रति 'उ मेति चपले पुत्रि- चञ्चल बेटी ! उसे मत कर' ऐसा कहा है, इस कारण संसारमें इसका 'उमा' नाम प्रसिद्ध होगा। यह साक्षात् प्रकट होकर (भक्तोंको उनकी) अभीष्ट सिद्धि प्रदान करेगी।' इस आकाशवाणीको सुनकर कास पुष्पके समान उज्ज्वल वर्णवाले हिमाचल अपनी पुत्रीको तपके निमित्त आज्ञा देकर शीघ्र ही अपने भवनको लौट गये ।। 294 - 300 ॥ सूतजी कहते हैं— ऋषियो ! इधर पार्वती भी नियमबद्ध होकर अपनी दोनों सखियोंके साथ उस शिखरकी ओर प्रस्थित हुई, जो देवताओंके लिये भी अगम्य था। हिमालयका वह पावन शिखर अनेकों प्रकारको धातुओंसे विभूषित था उसपर दिव्य पुष्पोंकी लताएँ फैली हुई थीं। वह सिद्धों एवं गन्धवद्वारा सेवित था। वहाँ अनेकों जातियोंके मृगसमूह विचर रहे थे। उसके वृक्षोंपर भ्रमर गुंजार कर रहे थे। वह दिव्य झरनोंसे युक्त तथा बावलियोंसे सुशोभित था । वहाँ नाना प्रकारके पक्षिसमूह चहचहा रहे थे। वह चक्रवाक पक्षीसे अलंकृत तथा जलमें एवं स्थलपर उत्पन्न होनेवाले खिले हुए पुष्पोंसे विभूषित था। वह विचित्र ढंगकी कन्दराओंसे युक्त था। उन गुफाओंमें मनको लुभानेवाले गृह बने थे। वहाँ घनेरूपमें कल्पवृक्ष उगे हुए थे, जिनपर पक्षिसमूह निवास करते थे वहाँ पहुँचकर गिरिराजकुमारी पार्वतीने एक विशाल शाखाओंवाले वृक्षको देखा, जो हरे हरे पत्तोंसे सुशोभित था। वह छहों ऋतुओंके पुष्पोंसे युक्त, सैकड़ों मनोरथोंकी भाँति उज्वल, नाना प्रकारके पुष्पोंसे आच्छादित और अनेकविध फलोंसे लदा हुआ था। सूर्यकी किरणें उसके सघन पल्लवोंका भेदन कर नीचेतक नहीं पहुँच पाती थीं। उसी वृक्षके नीचे पार्वतीने अपने आभूषणों और वलोंको उतारकर मुजकी मेखला और दिव्य वल्कलवलोंसे अपने | शरीरको ढंक लिया और वे उपनामें निरत हो गयीं।उन्होंने प्रथम सौ वर्ष त्रिकाल स्नान और पाटल वृक्षके पत्तोंका भोजन करके बिताया। फिर दूसरे सौ वर्षोंतक वे एक सूखा पत्ता चबाकर जीवननिर्वाह करती रहीं और पुनः सौ वर्षोंतक निराहार रहकर तपस्यामें संलग्न रहीं। उस प्रकार वे तपस्याकी निधि बन गयीं। फिर तो उनकी तपस्याजन्य अग्निसे सभी प्राणी उद्विग्न हो उठे ॥301-310 ॥

तदनन्तर ऐश्वर्यशाली इन्द्रने सातों मुनियोंका स्मरण किया। स्मरण करते ही वे सभी मुनि हर्षपूर्वक वहाँ उपस्थित हो गये। तब महेन्द्रद्वारा पूजित होनेपर उन्होंने इन्द्रसे अपना स्मरण किये जानेका प्रयोजन पूछते हुए कहा-'सुरश्रेष्ठ! किसलिये आपने हमलोगोंका स्मरण किया है?' यह सुनकर इन्द्रने कहा— 'ऋषिगण! आपलोग मेरे उस प्रयोजनको श्रवण करें। हिमाचलकी कन्या पार्वती हिमालय पर्वतपर घोर तपका अनुष्ठान कर रही है। आपलोग उनकी अभीष्ट कामनाको पूर्ण करें। तत्पश्चात् 'तथेति बहुत अच्छा' यो कहकर जगत्का कल्याण करनेके लिये ( अरुन्धतीसहित सभी) मुनिगण शीघ्र ही सिद्धसमूहों से सेवित हिमालयके शिखरपर पार्वती देवीके निकट पहुँचे। वहाँ पहुँचकर मुनियोंने पार्वतीसे मथुर वाणीमें पूछा—'कमलके समान नेत्रोंवाली पुत्रि ! तुम अपना कौन-सा मनोरथ सिद्ध करना चाहती हो ?' तब गौरववश लजाती हुई पार्वती देवीने उन मुनियोंसे कहा 'महाभाग मुनिगण! यद्यपि तपस्या करते समय मैंने मौनका नियम ले रखा था, तथापि आप जैसे महापुरुषोंकी वन्दना करनेके लिये मेरी बुद्धि उत्सुक हो उठी है, जो निश्चय ही मुझे पावन बना रही है। प्रश्न पूछनेसे पूर्व आपलोगोंके लिये आसन ग्रहण कर लेना ही उपयुक्त है, अतः पहले आसनपर बैठिये, थकावटको दूर कीजिये, तत्पश्चात् मुझसे पूछिये।' ऐसा कहकर पार्वतीने उन पूजनीयोंको | आसनपर विराजमान किया और विधि-विधानपूर्वक उनकी पूजा की। तत्पश्चात् सती धीमे स्वरमें सूर्यके समान तेजस्वी उन सप्तर्षियोंसे कहने लगीं ॥311-319 ॥

उस समय उन्होंने व्रतसम्बन्धी मौनका त्याग कर लज्जामय मौन ग्रहण कर लिया था, जिससे उनका भाव मौन-दशामें परिणत हो गया था। तब सप्तर्षियोंने गौरवके अधीन हुई पार्वतीसे उस प्रयोजनके विषयमें पुनः प्रश्न | किया तदुपरान्त सुन्दर मुसकानवाली पार्वतीने गौरवपूर्णमनसे मुनियोंको शान्तरूपसे वार्तालाप करते देखकर वाणीपर संयम रखते हुए इस प्रकार कहा- 'महर्षियो ! आपलोग तो प्राणियोंके मानसहितको भलीभाँति जानते हैं। शरीरधारी प्राणी प्रायः अपने मनोगत भावोंके कारण ही अत्यधिक कष्टका अनुभव करते हैं। उनमें कुछ लोग ऐसे निपुण हैं, जो आलस्यरहित हो दैवी उपायोंद्वारा प्रयत्न करते हैं और दुर्लभ विषयोंको प्राप्त कर लेते हैं। दूसरे कुछ लोग ऐसे हैं, जो परिमित एवं नाना प्रकारके उपायोंसे युक्त हैं। वे देहान्तरको ही हितप्रद मानकर उसके लिये कार्यारम्भ करते हैं। परंतु मेरा मन आकाशमें उत्पन्न हुए पुष्पोंकी मालासे विभूषित वया-पुत्रको प्राप्त करनेके लिये बारंबार प्रयास कर रहा है। मैं निश्चितरूपसे भगवान् शङ्करको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये उद्यत हूँ। वे एक तो स्वभावसे ही दुराराध्य हैं, दूसरे इस समय तो वे तपस्यामें निरत हैं। सुर अथवा असुर कोई भी अबतक उनकी परमार्थ-क्रियाका निर्णय नहीं कर सका। अभी-अभी हालमें ही वे कामदेवको जलाकर वीतरागी तपस्वी बन गये हैं। भला मुझ जैसी अबला वैसे कल्याणकारी शिवकी आराधना कैसे कर सकती है।' इस प्रकार कहे जानेपर वे मुनिगण पार्वतीके मनकी स्थिरताका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये क्रमशः उसी विषयपर पुनः बोले ॥ 320 – 329 ॥

मुनियोंने कहा-'बेटी! लोकोंमें दो प्रकारके सुख बतलाये जाते हैं—एक तो इस शरीरके सम्भोगोंद्वारा और दूसरा मनकी (विषयभोगोंसे) निवृत्तिद्वारा प्राप्त होता है। शङ्करजी तो स्वभावसे ही दिगम्बर, विकृत वेषधारी, पितृवनमें शयन करनेवाले, कपालधारी, भिक्षुक, नग्न, विकृत नेत्रोंवाले और उद्यमहीन हैं। उनका आकार मतवाले पागलोंकी तरह है। वे घृणित वस्तुओंका ही संग्रह करते हैं। वे एकदम अनर्थकी मूर्ति हैं। ऐसे संन्यासीसे तुम अपना कौन-सा प्रयोजन सिद्ध करना चाहती हो ? यदि तुम इस समय इस शरीरके भोगकी इच्छा करती हो तो भला उन भयावने एवं निन्दित महादेवसे तुम्हें उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है; उनके तो चूते हुए रक्त और मज्जासे चुपड़े हुए कपाल ही भूषण हैं। वे फुफकारते हुए विषैले सर्पराजोंका आभूषण धारण करनेके कारण बड़े भीषण दीख पड़ते हैं, सदा श्मशानमें निवास करते हैं और भयंकर प्रमाथगण उनके अनुचर हैं॥ 330-334 ॥इनसे तो कहीं अच्छे भगवान् विष्णु हैं, जिनके चरणोंपर प्रधान देवता अपने मुकुटसमूहको रगड़ते रहते हैं। जो शत्रुओंके संहारक, जगत्‌का पालन-पोषण करनेवाले, लक्ष्मीके पति और अनुपम शोभाशाली हैं। इसी प्रकार यज्ञभोजी देवताओंके स्वामी पाकशासन हैं। देवताओंके निधिस्वरूप एवं समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले अग्नि हैं। जगत्‌का पालन-पोषण करनेवाले वायु हैं, जो सभी शरीरधारियोंके प्राण हैं तथा विश्रवाके पुत्र राजाधिराज कुबेर हैं, जो बड़े ऐश्वर्यशाली, बुद्धिमान् और सम्पूर्ण सम्पत्तियोंके अधीश्वर हैं। तुम इनमें से किसी एकको प्राप्त करनेकी इच्छा क्यों नहीं कर रही हो ? अथवा यदि तुमने अपने मनमें यह ठान लिया हो कि जन्मान्तरमें सुखकी प्राप्ति होगी तो वह भी तुम्हें स्वर्गवासी देवताओंसे ही प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार तुम्हें देवताओंके बिना इस जन्ममें अथवा जन्मान्तरमें कल्याणकी प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि अन्यान्य सुखदायक पदार्थोंको प्राप्त करना चाहती हो तो वे सब तुम्हारे पिताके पास ही इतने अधिक हैं, जो देवताओंके पास नहीं है; अतः उनकी प्राप्तिके हेतु तुम्हारा इस प्रकार कष्ट सहन करना व्यर्थ है। साथ ही भद्रे प्रायः ऐसा देखा जाता है कि माँगी हुई वस्तुका मिलना अत्यन्त कठिन होता है और यदि मिल भी जाय तो बहुत थोड़ी ही मिलती है। इस कारण तुम्हारे इस मनोरथको ब्रह्मा ही पूर्ण कर सकते हैं (दूसरेकी शक्ति नहीं है) ।।335 - 341 ।।

सूतजी कहते हैं ऋषियो ! सप्तर्षियोंद्वारा इस प्रकार कही जानेपर पार्वती उन मुनियोंपर कुपित हो उठीं। उनके क्षेत्र क्रोधसे लाल हो गये और होंठ फड़कने लगे, तब वे बोलीं ॥ 342 ॥

देवीने कहा- सप्तर्षियो! असद् वस्तुको ग्रहण करनेवालेके लिये नीति कैसी? तथा दुर्व्यसनीके लिये व्यसनकी प्राप्तिमें कष्ट कहाँ? (अर्थात् जिसमें जिसका मन आसक्त हो गया है, उसकी प्राप्तिके लिये उसे कितना ही कष्ट क्यों न झेलना पड़े, परंतु वह उसकी परवा नहीं करता।) अरे! विपरीत अर्थको जाननेवाले आपलोगोंको किसने सन्मार्गपर नियुक्त कर दिया? आपलोग मुझे इस प्रकार दुष्ट बुद्धिवाली तथा अयुक्त एवं असद् वस्तुको ग्रहण करनेकी अभिलाषिणी मानते हैं, अतः आपलोगोंका विचार मेरे प्रति ठीक नहीं है। इसी कारण मेरे मनमें अहंकारपूर्वक मान उत्पन्न हो गया है। | यद्यपि आप सभी लोग प्रजापतिके समान समदर्शी हैं,तथापि उन महादेवके विषयमें आपलोगोंको निश्चय ही कुछ भी ज्ञात नहीं है। वे अविनाशी, जगत्के स्वामी, अजन्मा, शासक, अव्यक्त और अप्रमेय महिमावाले हैं। विष्णु और ब्रह्मा आदि सुरेश्वर भी जिन्हें नहीं जानते, उन महादेवके धर्म एवं सद्भावका जो अद्भुत ज्ञान आपलोग दे रहे हैं, उसे अब रहने दीजिये। जिसके विभवसे उत्पन्न हुआ चैतन्य सभी लोकोंमें फैला हुआ है और सभी प्राणियोंमें प्रत्यक्षरूपसे दृष्टिगोचर हो रहा है, उसे भी क्या आपलोग नहीं जानते। (भला सोचिये तो सही) यह आकाश, अग्नि, वायु, पृथ्वी और वरुण पृथक् पृथक्रूपसे किसकी मूर्ति हैं ? चन्द्रमा और सूर्यको नेत्ररूपमें धारण करनेवाला कौन है ? समस्त सुर एवं असुर लोकोंमें भक्तिपूर्वक किसके लिड़की अर्चना करते हैं? ब्रह्मा एवं इन्द्र आदि देवता तथा महर्षिगण जिन्हें अपना ईश्वर मानते हैं, उन देवताओंके प्रभाव एवं उत्पत्तिको भी क्या आपलोग नहीं जानते? 343–3503॥

(यदि नहीं जानते तो सुनिये) ये अदिति किसकी माता हैं और विष्णु किससे उत्पन्न हुए हैं? ये नारायण आदि सभी देवता कश्यप और अदितिसे ही उत्पन्न हुए हैं। वे कश्यप महर्षि मरीचिके पुत्र हैं और अदिति प्रजापति दक्षकी पुत्री हैं। ये दोनों मरीचि और दक्ष भी ब्रह्माके पुत्र हैं और ब्रह्मा दिव्य सिद्धिसे विभूषित हिरण्मय अण्डसे प्रकट हुए हैं। उनका प्रादुर्भाव किसके ध्यानसे हुआ था ? (अर्थात् ब्रह्माके आविर्भावके कारण महादेव ही हैं।) ब्रह्मा प्राकृत गुणोंके संयोगसे प्रकृतिके अंशसे तृतीय प्रकृतिमें कमलपर उत्पन्न हुए थे। जन्म लेते ही उन्होंने बुद्धिपूर्वक अपने कर्मवश उत्पन्न होनेवाले पवर्गोंकी सृष्टि की। इस प्रकार अव्यक्तजन्मा ब्रह्मसे उत्पन्न होनेके कारण ब्रह्मा अजन्मा कहलाये, जिन्होंने अपने योगबल से प्रकृतिको संक्षुब्ध कर इस जगत्की रचना की विष्णु आदि सभी देवता अपनी महिमासे सदासे ही ब्रह्माकी सर्वार्थसिद्धि, ऐश्वर्य और लोकरचनाको जानते हैं। पुनः श्रीहरि युगानुसार विभिन्न प्रकारका शरीर धारण कर जगत्के उत्तम, मध्यम और अधम कर्मोंका सम्पादन करते हैं। जन्म-मृत्युरूप संसारकी यही स्थिति है और अनेक रूपोंमें उत्पन्न हुए कमौका भी यही फल है ll 351-258llतदनन्तर भगवान् नारायण अपनी छायाका आश्रय ग्रहण करते हैं और उससे प्रेरित हो नाना प्रकारका जन्म धारण करते हैं। वह प्रेरणा भी भाग्याधीन प्राणियोंके कर्मके अनुरूप ही कही गयी है, जो उन्माद आदिसे युक्त पुरुषकी बुद्धि जैसी होती है; क्योंकि वह अपनी यथार्थ |इट वस्तुओंको भी विपरीत ही मानता है और सदा लोकके लिये रचे गये व्यवहारोंमें कष्ट भोगता है। इस प्रकार धर्म और अधर्मके फलकी प्राप्तिमें विष्णु ही कारण माने गये हैं। यद्यपि विष्णुको सामान्यतया आत्मरूपसे अनादि माना जाता है, तथापि उनका किसी भी देहमें दीर्घ | जीवन नहीं देखा गया। आपलोग भी उनके आदि- अन्तको नहीं जानते, किंतु देहधारियोंका यह धर्म है कि वे कहीं जन्म लेते हैं तो मरते कहीं हैं। कहीं गर्भमें ही नष्ट हो जाते हैं तो कहीं बुढ़ापा और रोगसे ग्रस्त होकर भी जीवित रहते हैं। कोई सौ वर्षोंतक जीवित रहता है तो कोई बचपनमें ही कालके गालमें चला जाता है। जिस पुरुषकी आयु सौ वर्षकी होती है, वह थोड़ी आयुवालेकी अपेक्षा | अनन्त आयुवाला कहा जाता है। सदा जीवित रहते हुए जो | आगे चलकर मृत्युको नहीं प्राप्त होता, उसे अमर कहा जाता है। इस तरह विष्णु आदि देवगण भी प्रारब्ध, जन्म और मृत्युसे युक्त माने गये हैं। भला, जो विनाश आदिके संयोगसे नाना प्रकारके आश्चर्यमय स्वरूपोंसे युक्त है, उस संसारमें ऐसा विशुद्ध ऐश्वर्य किसको प्राप्त हो सकता है? | अतः भद्रपुरुषो मैं पिनाकधारी शङ्करजीके अतिरिक्त इन सभी मलिन एवं स्वल्प विभूतिवाले देवताओंको नहीं वरण करना चाहती। प्राणियोंकी यह उत्कृष्टता तो क्रमशः चली ही आ रही है, किंतु जो महापुरुष हैं, उनके बल, बुद्धि, ऐश्वर्य और कार्यका प्रमाण भी विशाल होता है। अतः जिन शङ्करजीसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है और जहाँ पहुँचकर सभी समाप्त हो जाते हैं तथा जिनका ऐश्वर्य आदि-अन्तसे रहित है, मैंने उन्हींकी शरण ग्रहण की है। मेरा यह व्यवसाय अत्यन्त महान् तथा विचित्र है। मेरे कल्याणका विधान करनेवाले मुनियो ! अब आपलोग चाहे चले जायँ अथवा ठहरें, यह आपकी इच्छापर निर्भर है। पार्वती देवीके ऐसे वचन सुनकर उन मुनिवरोंकी आँखोंमें आनन्दके आँसू छलक आये तब उन्होंने उस तपस्विनी कन्याको गले लगाया। फिर वे परम प्रसन्न | होकर पार्वतीसे मधुर वाणीमें बोले ।।359-373 ।।ऋषियोंने कहा- पुत्रि ! तुम तो अत्यन्त अद्भुत निर्मल ज्ञानको मूर्ति जैसी प्रतीत हो रही हो। अहो ! शङ्करजीके भावसे भावित तुम्हारा भाव हमलोगोंको परम आनन्दित कर रहा है। शैलजे उन देवाधिदेव शङ्करके इस अद्भुत ऐश्वर्यको हमलोग नहीं जानते हैं- ऐसी बात नहीं है, अपितु हमलोग तुम्हारे निश्चयको दृढ़ता जानने के लिये यहाँ आये हैं। तन्वङ्गि ! शीघ्र ही तुम्हारा यह मनोरथ पूर्ण होगा। भला, सूर्यको प्रभा सूर्यको छोड़कर कहीं जा सकती है? रत्नोंकी कान्ति रत्नोंसे पृथक् होकर कहीं ठहर सकती है ? तथा अक्षरसमूहोंसे प्रकट होनेवाला अर्थ अक्षरोंसे अलग कहीं रह सकता है? उसी प्रकार तुम शङ्करजीके बिना कैसे रह सकती हो। अच्छा, अब हमलोग अनेकों उपायोंद्वारा शङ्करजीसे प्रार्थना करनेके निमित्त जा हैं; रहे हैं क्योंकि हमलोगों के हृदयमें भी वही प्रयोजन निश्चित रूपसे वर्तमान है। उसकी सिद्धिके लिये तुम्हीं वह बुद्धि और नीति हो। अतः शङ्करजी भी निःसंदेह उस कार्यका विधान करेंगे। ऐसा कहकर गिरिराजकुमारीद्वारा पूजित हो वे मुनिगण वहाँसे चल पड़े। तदनन्तर जो अपने शरीरको गङ्गा-जलसे आप्लावित करते हैं, जिनके मस्तकपर पीली जटा बँधी रहती है तथा जिनके गलेमें पड़ी हुई मन्दारपुष्पोंकी माला हथेलीतक लटकती रहती है, जिसपर भँवरे मँडराते रहते हैं, उन शङ्करजीका दर्शन करनेके लिये वे सप्तर्षि हिमालयके विशाल शिखरकी ओर प्रस्थित हुए। हिमालयके उस शिखरपर पहुँचकर उन्होंने शङ्करजीके आश्रमको देखा उस आश्रममें सम्पूर्ण प्राणिसमूह शान्तरूपसे बैठे हुए थे । वहाँका नूतन कानन भी शान्त था। चारों दिशाओंमें शब्दरहित एवं स्वच्छन्दगति से प्रवाहित होनेवाले जलसे युक्त झरने झर रहे थे। उस आश्रमके द्वारपर उन पूज्य एवं विनीत सप्तर्षियोंने हाथमें बेंत धारण किये वीरकको देखा। तब वक्ताओंमें श्रेष्ठ वे सप्तर्षि कार्यके गौरववश वीरकसे मधुर वाणीमें बोले-'द्वारपाल ! ऐसा समझो कि | हमलोग देवकार्यसे प्रेरित होकर यहाँ शरणदाता एवं गणनायक त्रिनेत्रधारी भगवान् शङ्करका दर्शन करनेके लिये आये हैं। इस विषयमें तुम्हीं हमलोगोंके साधन हो। इसलिये हमलोगोंकी यह प्रार्थना है कि ऐसा उपाय करो, जिससे हमलोगोंका कालातिक्रम न हो; क्योंकि स्वामियोंको सूचना तो प्रायः द्वारपालसे ही मिलती है।' मुनियोंद्वारा इस | प्रकार कहे जानेपर वीरकने गौरववश उनसे कहा'विप्रवरो! अभी-अभी दोपहर की संध्या समाप्त कर शङ्करजी मन्दाकिनीके जलमें स्नान करनेके लिये गये हैं, अतः क्षणभर ठहरिये, फिर आपलोग उन त्रिशूलधारीका दर्शन कीजियेगा। इस प्रकार कहे जानेपर वे मुनिगण उस कालकी प्रतीक्षा करते हुए उसी प्रकार खड़े रहे, जैसे वर्षा ऋतुमें प्यासे चातक जलसे भरे हुए बादलकी ओर टकटकी लगाये रहते हैं ॥ 374-388 ॥

तत्पश्चात् थोड़ी देर बाद जब समाधि सम्पन्न करके शङ्करजी मृगचर्मपर लगाये हुए वीरासनको छोड़कर उठे, तब वीरकने विनम्र भावसे पृथ्वीपर घुटने टेककर प्रणाम करते हुए महादेवजीसे कहा- 'विभो ! प्रचण्ड तेजस्वी सप्तर्षि आपका दर्शन करनेके लिये आये हुए हैं उन्हें दर्शन करनेके लिये आदेश दीजिये अथवा इस विषय में आप जैसा उचित समझें। उनके मनमें आपके दर्शनकी लालसा है और वे कह रहे हैं कि हमलोग देवकार्यसे आये हुए हैं।' तब उस महात्मा वीरकद्वारा इस प्रकार सूचित किये जानेपर जटाधारी शङ्करने भौंहोंके संकेतसे उन लोगोंके लिये प्रवेशाज्ञा प्रदान की। फिर तो वीरकने भी समीपमें ही स्थित उन सभी मुनियोंको सिर हिलाकर संकेतसे पिनाकधारी शङ्करका दर्शन करनेके लिये बुलाया। यह देखकर उतावलीक्श आधी बंधी हुई शिखावाले एवं मृगचर्मरूपी वस्त्रको लटकाये हुए वे मुनिलोग शङ्करजीकी विभूतिसे सिद्ध हुई वेदीमें प्रविष्ट हुए। वहाँ उन्होंने बँधी हुई अञ्जलि तथा दोनेमें रखे हुए स्वर्गीय पुष्पसमूहोंको स्वर्गवासद्वारा वन्दनीय शिवजीके दोनों चरणोंपर बिखेरकर नमस्कार किया। तब त्रिशूलधारी शङ्करने उन शान्तस्वभाव मुनियोंकी ओर स्नेहभरी दृष्टिसे देखा। इस प्रकार सत्कृत होनेसे प्रसन्न हुए ऋषिगण कामदेवके शत्रु भगवान् शङ्करको सम्यक् प्रकारसे स्तुति करने लगे ॥ 389-396 ॥

मुनियोंने कहा- अहो भगवन्! इस समय हमलोग तो कृतार्थ हो ही गये, आगे चलकर देवराज इन्द्र भी सफलमनोरथ होंगे। इसी प्रकार आपकी कृपारूपी निर्मल जलके सिंचनसे कोई तपस्विनी भी अपनी तपस्याके फलसे युक्त होगी।इस धन्यवादके पात्र हिमाचलकी जय हो, जिनके आश्रयमें रहकर उनकी कन्या तपस्या कर रही है। सम्पूर्ण देवताओंको उखाड़ फेंकनेवाले दैत्यराज तारकके भी महान् पुण्यफलका उदय हो गया है, जो आपके अंशसे उत्पन्न हुए पुत्रको देखकर पापसे निर्मुक्त हो अपने शरीरका परित्याग करेगा। लोकपिता चतुर्मुख ब्रह्माकी तथा तारकके भयरूपी अग्निसे संतप्त श्रीहरिकी भी बुद्धि धन्य है, जो महान् संतापके प्रशमनके लिये एकमात्र कारणभूत आपके दोनों चरणोंको अपने हृदयमें धारण करते हैं। एकमात्र आप ही अनेकविध दुरूह कार्योंको सम्पन्न करनेवाले हैं, दुःखी लोग आपका ऐसा विरद गाते हैं। इसे अकेले आप ही जानते हैं, अतः इसके विपरीत कोई ऐसा कार्य न कीजिये, जिससे जगत्‌को आपकी निर्दयताका अनुभव होने लगे। अथवा यदि आप इस सांसारिक दुःखकी ओर ध्यान नहीं देते तो आपकी सर्वतोमुखी क्रिया लुम होने जा रही है। यदि आप इस प्रकार जगत्के उपद्रवकी उपेक्षा कर दे रहे हैं तो किसलिये आपको दयामय कहा जा सकता है। साथ ही अपनी योगमायाकी महिमारूपी गुफामें स्थित रहनेवाला आपके निर्मल ऐश्वर्यका गौरव भी विद्यमान नहीं रह सकता। शरीरधारियोंमें हमलोग भी अतिशय धन्यवादके पात्र हैं, जो इस प्रकार आपका दर्शन कर रहे हैं। इसलिये हमारा मनोरथ नष्ट नहीं होना चाहिये। आप जगकी रक्षाके विधानमें जगत्के लिये ऐसा करें जिससे हमारे मनोगत भाव सफल हो जायँ। हमलोग देवराज इन्द्रके दूत बनकर आये हैं। ऐसा कहकर वे मुनिगण शङ्करजीके चरणोंमें अवनत हो गये। उस समय उन्होंने शङ्करजीके कानरूपी भूमिके निकट उस वाणीरूपी बीजको इस प्रकार छींट दिया था, जैसे किसानलोग भलीभाँति जोती हुई भूमिपर अच्छे फलकी प्राप्तिके निमित्त उत्तम बीजकी मूँठ डाल देते हैं ॥ 397- 404 ॥

तदनन्तर उन मुनियोंकी सिलसिलेवार योजनासे युक्त मनोहर वाणीको सुनकर भगवान् शङ्करके मुखपर मुसकानकी छटा बिखर गयी तब वे बृहस्पतिकी तरह सान्त्वनापूर्ण वचन बोले ।। 405 ।।शङ्करजीने कहा- मुनिवरो! जगत्के कल्याणके लिये किये जाते हुए कन्याके उस उत्तम सत्कार्यको मैं जानता हूँ। वह कन्या हिमाचलकी पुत्रीरूपमें उत्पन्न हुई है। आपलोग उसीके संयोग प्रस्तावका निरूपण कर रहे है। यह सत्य है कि सभी लोग देवकार्यको सिद्धिके हेतु उत्सुक और उद्यत हैं, इससे उनके चित्त उतावली से भर गये हैं, किंतु यह कार्य कुछ कालकी अपेक्षा कर रहा है अर्थात् इसके पूर्ण होनेमें कुछ विलम्ब है। विद्वानोंको विशेषरूपसे लोकव्यवहारका निर्वाह करना चाहिये; क्योंकि वे जिस धर्मका सेवन करते हैं, वही दूसरोंके लिये प्रमाणरूप बन जाता है। ऐसा कहे जानेपर मुनिगण तुरंत ही हिमाचल के पास चल दिये। वहाँ पहुँचने पर हिमाचलने उनकी आदरपूर्वक आवभगत की। तब प्रसन्न हुए मुनिवर शीघ्रतापूर्वक थोड़े शब्दों में (इस प्रकार) बोले ॥ 406 -409 ।।

मुनियोंने कहा- पर्वतराज! पिनाकधारी साक्षात् महादेव आपकी कन्याको प्राप्त करना चाहते हैं, अतः अग्निमें पड़ी हुई आहुतिकी तरह उसे शीघ्र ही उन्हें प्रदान करके अपने आत्माको पवित्र कर लीजिये। देवताओंका यह कार्य चिरकालसे चला आ रहा है, अतः जगत्का उद्धार करनेके लिये आप इस उद्योगको शीघ्र सम्पन्न कीजिये। मुनियोंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर उस समय हिमाचल हर्षविभोर हो मुनियोंको उत्तर देनेके लिये उद्यत हुए; किंतु जब उत्तर देनेमें असमर्थ हो गये, तब मन-ही मन शङ्करजीसे प्रार्थना करने लगे। तत्पश्चात् प्रयोजनको समझनेवाली मेनाने मुनियोंको प्रणाम किया और पुत्रीके स्नेहसे व्याकुल हुई वह उन मुनियोंके चरणोंके निकट स्थित हो इस प्रकार बोली ।। 410-413 ॥

मेनाने कहा- मुनिवरो! जिन कारणोंसे लोग महान् फलदायक होनेपर भी कन्याके जन्मकी इच्छा नहीं करते, वही सब इस समय परम्परासे मेरे सामने आ उपस्थित हुआ है। (विवाहकी प्रथा तो यह है कि) जो वर उत्तम कुल, जन्म, अवस्था, रूप, ऐश्वर्य और सम्पत्तिसे भी युक्त हो, उसे अपने घर बुलाकर कन्या प्रदान करनी चाहिये, किंतु कन्याकी याचना करनेवालेको नहीं भला बताइये, इस प्रकार समस्त घोर तपको करनेवाले वरके साथ मेरी पुत्री कैसे जायगी। इसलिये इस विषय में मेरी पुत्रके कथनानुसार जो उचित हो, वही आपलोग करें।हिमाचलकी पत्नी मेनाद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वे मुनिगण पुनः नारीके चित्तको प्रसन्न करनेवाले उदार अर्थसे युक्त वचन बोले ॥ 414 – 417 ll

मुनियोंने कहा- मेना। तुम शङ्करजीके ऐश्वर्यका ज्ञान उन देवताओं और असुरोंसे प्राप्त करो, जो उनके दोनों चरणकमलोंकी आराधना करके भलीभाँति संतुष्ट हो चुके हैं। जिसके लिये जो रूप उपयोगी होता है, वह उसीकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करता है। इस नियमके अनुसार वह कन्या शंकरजीकी प्राप्तिके लिये चिरकालसे घोर तपस्या कर रही है। उसे उसी रूपसे पूर्ण संतोष है। जो पुरुष उसके दिव्य व्रतोंका समापन करेगा, उसके प्रति वह अतिशय प्रसन्न एवं संतुष्ट होगी। ऐसा कहकर वे मुनिगण हिमाचल के साथ उस स्थानपर गये, जहाँ सूर्य और अग्निको ज्वालाको जीतनेवाली एवं तपस्याके तेजसे युक्त पार्वती उमा तपस्या कर रही थीं। वहाँ पहुँचकर मुनियोंने पार्वतीसे स्नेहपूर्ण वाणीमें कहा- 'पुत्रि! अब तुम्हारे लिये सम्मान्यका पथ प्राप्त हो गया है, इसलिये अब तुम अपने इस रमणीय, प्रिय एवं मनको लुभानेवाले रूपको तपस्यासे दग्ध मत करो। प्रातःकाल वे शङ्कर तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे। हमलोग उनसे प्रार्थना करके पहले ही तुम्हारे पिताके पास आ गये हैं। अब तुम अपने पिता के साथ घर लौट जाओ और हमलोग अपने निवासस्थानको जा रहे हैं। इस प्रकार कही जानेपर पार्वती 'तपका फल निश्चय ही सत्य होता है - ऐसा विचारकर दिव्य पदार्थोंसे सुशोभित अपने पिताके घरकी ओर शीघ्रतापूर्वक प्रस्थित हुई। वहाँ पहुँचकर पार्वतीके मनमें शङ्करजीके दर्शनकी महान् उत्कण्ठा उत्पन्न हुई, जिससे सती पार्वतीको वह रात्रि दस हजार वर्षोंके समान प्रतीत होने लगी । 418-426 ॥ तदनन्तर प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्तमें देवाङ्गनाओंने पार्वती के लिये क्रमशः नाना प्रकारके माङ्गलिक कार्योंको यथार्थरूपसे सम्पन्न किया। फिर उस विविध प्रकारके मङ्गलोंसे युक्त भवनमें पार्वतीके अङ्गोंको दिव्य श्रृंगारसे सुशोभित किया गया। उस समय सभी प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली छहों ऋतुएँ शरीर धारणकर हिमाचलकी सेवामें उपस्थित हुई, वायु और बादल पर्वतको गुफाओंमें झाड़-बुहारके कार्यमें संलग्न थे। अट्टालिकाओंपर स्वयं लक्ष्मीदेवी नाना प्रकारकी सामग्रियोंको सैंजोये हुए विराजमान थीं। सभी पदार्थों में कान्ति फूटी पड़ती थी। ऋद्धि आकुल हो उठी थी। चिन्तामणि आदि रत्न पर्वतपर चारों ओरबिखरे हुए थे कल्पवृक्ष आदि महनीय वृक्षोंसे युक्त अन्यान्य पर्वत भी सेवामें उपस्थित थे। दिव्यौषधिसे युक मूर्तिमती औषधियाँ तथा सभी प्रकारके रस और धातुएँ हिमाचलके परिचारकरूपमें विद्यमान थे। हिमाचलके वे सभी किंकर आज्ञापालनके लिये उतावले हो रहे थे। इनके अतिरिक्त सभी समुद्र और नदियाँ तथा समस्त स्थावरजङ्गम प्राणी उस समय हिमाचलकी महिमाको बढ़ा रहे थे ॥ 427- 433 ॥

उधर गन्धमादन पर्वतपर शङ्करजीके विवाहोत्सवमें सभी मुनि, नाग, यक्ष, गन्धर्व और किंनर आदि देवगण सम्मिलित हुए। वे सभी निर्मल मूर्ति धारणकर शृङ्गारसामग्री के जुटाने में तत्पर थे उस समय प्रेम एवं उदार भावनासे उत्फुल्ल नेत्रोंवाले ब्रह्माने शंकरजीके जटाजूटमें चन्द्रखण्डको बाँधा चामुण्डाने उनके मस्तकपर एक विशाल कपालमाला बाँधी और इस प्रकार कहा "शंकर ऐसा पुत्र उत्पन्न करो, जो दैत्यराज तारकके कुलका संहार कर मुझे रक्तसे तृप्त करे।' भगवान् विष्णु अग्निके समान उद्दीप्त एवं चमकीले अग्रभागवाले रत्नोंसे निर्मित मुकुट और सर्पोंके आभूषण आदि शृङ्गारसामग्री लेकर शंकरजीके आगे उपस्थित हुए। इन्द्रने वेगपूर्वक गजचर्म लाकर शंकरजीको धारण कराया, जिसका अग्रभाग चर्बीसे लिप्त हुआ था। उस समय प्रसन्नतासे | खिले हुए इन्द्रके मुखकमलपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं। वायुने शंकरजीके वाहन उस वृषभराज नन्दीश्वरको विभूषित किया, जिसका शरीर विशाल था, जिसके सींग तीखे थे तथा जो हिमाचलके समान उज्ज्वल कान्तिवाला एवं महान् ओजस्वी था। जगत्के कर्मोंके साक्षी सूर्य, अग्नि और चन्द्र लोकनायक शम्भुके नेत्रोंके अन्तस्तलमें स्थित होकर अपनी-अपनी प्रभाका विस्तार करने लगे। प्रेतराज यमने शंकरजीके मस्तकपर चाँदीके समान चमकीला चिताभस्म लगाकर एक हाथसे मनुष्योंकी हड्डियोंसे बनी हुई मालाको बाँधा और फिर वे हाथमें गदा लेकर द्वारपर खड़े हो गये। तत्पश्चात् शिवजीने कुबेरद्वारा लाये गये नाना प्रकारके बहुमूल्य रत्नोंक बने हुए आभूषणों और वरुणद्वारा लायी गयी अम्लान (न कुम्हलानेवाले) पुष्पोंसे गूँथी गयी मालाको पृथक् रखकर विषैले सर्पोक कङ्कणसे सुशोभित अपने हाथसे स्वयं वासुकि और तक्षकको अपना कुण्डल बनाया । ll 434 - 4443 ॥तत्पश्चात् वहाँ आये हुए गणाधीशोंने विनयपूर्वक वीरकसे कहा- 'भयंकर आकृतिवाले बीरक तुम शंकरजीसे हमारे आगमनको सूचना दे दो हमलोग सजे-सजाये महादेवको शृङ्गार सामग्रियोंद्वारा पुनः सुशोभित करेंगे।' इतनेमें वहाँ सातों समुद्र दर्पणको स्थानपूर्ति करनेके लिये उपस्थित हुए। तब उस महासागरके जलके भीतर अपने रूपको देखकर भगवान् केशव घुटनोंद्वारा पृथ्वीका आलिङ्गन करके (अर्थात् पृथ्वीपर दोनों घुटने टेककर) शंकरजीसे बोले- 'देव! इस समय आप अपने इस जगत्‌को आनन्द प्रदान करनेवाले रूपसे सुशोभित हो रहे हैं।' इसी बीच मातृकाओंने उपयुक्त समय जानकर वैधव्यके चिह्नोंसे युक्त काम-पत्नी रतिको इशारेसे शंकरजीके सम्मुख जानेके लिये प्रेरित किया। (तब वह शिवजीके समक्ष जाकर खड़ी हो गयी।) तब वे मातृकाएँ हँसती हुई शंकरजीसे बोलीं- 'देव! आपके सम्मुख खड़ी हुई कामदेवसे रहित यह रति शोभा नहीं पा रही है।' तब शंकरजी अपने बायें हाथके अग्रभागके संकेतसे उसे सान्त्वना देते हुए सामनेसे हटाकर प्रस्थित हुए। उस समय उनका मन गिरिजाके मुखका अवलोकन करनेके लिये समुत्सुक हो रहा था ।। 445 - 451 ॥

तदुपरान्त शंकरजीने विशालकाय महावृषभ नन्दीश्वर पर, जिसकी आकृति हिमाचलके गुफा सदृश भी तथा जिसके नेत्र प्रमाथगणोंकी ओर लगे हुए थे, सवार होकर उसे धीमी चालसे आगे बढ़ाया। उस समय उनके प्रस्थानसे पृथ्वी उसी प्रकार काँप रही थी, मानो वज्रके प्रहारसे पर्वत काँप रहे हों। तत्पश्चात् श्रीहरिने जिनके आभूषण पृथ्वीकी धूलसे धूसरित हो गये थे, शीघ्रतापूर्वक कदम बढ़ाते हुए आगे जाकर श्रमवश घने वृक्षोंके नीचे विश्राम करते हुए लोगोंसे कहा- 'अरे! चलो, आगे बढ़ो, इस मार्गमें भीड़ मत करो।' पुनः शंकरजीका पुत्र वीरक भौहें टेड़ी कर श्रीहरिकी प्रथम आज्ञाको उच्च स्वरसे फैलाता हुआ बोला-'अरे आकाशचारियो! आकाशमें कौन-सी सुन्दर वस्तु रखी है, जिसे सब लोग देख रहे हो, आगे बढ़ो। पर्वतसमूहो ! तुमलोग एक-दूसरेसे अलग अलग होकर चलो। महासागरो! तुमलोग राक्षसोंके आगमनसे उत्पन्न हुए महान् कीचड़से युक्त जलको शिलासदृश कर दो गणेश्वरो! तुमलोग चञ्चलतापूर्वक मत चालो सुरेश्वरोंको स्थिरगतिसे चलना चाहिये।शङ्करजीके आगे-आगे विशाल पानपात्रको लेकर चलने वाले भृङ्गी अपने शरीरकी रक्षा करते हुए नहीं चल रहे हैं। यम! तुम अपने इस निकले हुए दाँतोंवाले आयुधको व्यर्थ ही धारण किये हुए हो भय छोड़कर चलो। शङ्करजीके रथके घोड़े अपने मार्गको बहुत-सी माताओंसे व्याप्त होनेपर भी नहीं छोड़ रहे हैं। ये शङ्करजीके प्रिय देवगण पृथक् पृथक् अपने अनुयायियोंसे घिरे हुए पैदल ही दूना मार्ग तय कर रहे हैं ।। 452–457 ।।

'देवगण! आपलोग आमोदके साधनोंसे सम्पन्न एवं वायुके आवेगसे हिलते हुए चामरोंसे युक्त अपने वाहनोंद्वारा, जिनपर ध्वजाएँ फहरा रही हैं, अलग-अलग होकर चलिये। आपलोग नियतरूपसे तीनों लयोंका अनुगमन करनेवाले अपने ऊर्जस्वी रागके विषयमें क्यों नहीं विचार कर रहे हैं? किंनरगण (अपने वाद्योंद्वारा) आभूषणसमूहसे उत्पन्न हुई ध्वनिको परास्त नहीं कर सकते अपनी जातिवाले गणेश्वरो! इस समय षड्ज, मध्यम और पृथु स्वरसे युक्त गीत अधिक मात्रामें क्यों नहीं गाये जा रहे हैं। ये गौर्ड रागके जानकार लोग कालभेदर्क अनुसार विभिन्नताको प्राप्त हुए एवं नतानत, नत और आनतके लवसे युक्त अत्यन्त भेदवाले रागको पृथक्रूपमें निःशङ्कभावसे अलापते हुए बड़ी शीघ्रतासे चले जा रहे हैं। पाडवे रागके जालोग पृथक-पृथक अपने ललित पदोंके प्रयोजक गीतोंको अलापते हुए शंकरजीके आगे-आगे क्यों नहीं चल रहे हैं? ऐसा प्रतीत हो रहा है कि शंकरजीकी हर्षपूर्ण यात्रामें विघ्न न पड़ जाय इस भयसे वे ऐसा नहीं कर रहे हैं। ये विभिन्न जातियोंके विलासोन्मत्त नाग शंकरजीके यशका विस्तार करनेवाले, अधिकांश गमकके स्वभावसे सम्पन्न तथा मनोहर ध्वनिसे युक्त संगीतका पृथक् पृथक् प्रयोग कर रहे हैं। उधर उस दिशामें ये वधुओं सहित अनेकों संगीतज्ञ प्रतिक्षण कैसा संगीत अलाप रहे है? पता नहीं क्यों न तो उसमें मृदङ्गसे निकली हुई ध्यानिकी जातियाँ लक्षित हो रही हैं, न मूर्तना | आरोह-अवरोहसे युक्त स्वरका ही भान हो रहा है।तुम्बुरुद्वारा बजाये जानेवाले कर्णप्रिय तथा क्रम एवं गतिके भेदसे युक्त तारवाले बाजे क्यों नहीं बजाये जा रहे हैं ? इधर बीणा, मृदंग आदि अनेकों प्रकारके वादसमूह क्यों नहीं बजाये जा रहे हैं? ' ।। 458 - 464 ।।।

इस प्रकार कही गयी उस सुन्दर वाणीको सुनकर देवता और दैत्य अत्यन्त प्रसन्न हो गये। तब वे तुरंत ही वीरककी आज्ञासे सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को आच्छादित करते हुए नियमपूर्वक आगे बढ़ने लगे। इस प्रकार शंकरजीके शीघ्रतापूर्वक गमनसे दिशाओंमें कोलाहल गूँज उठा महासागरोंमें ज्वार उठने लगा, बादल गरजने लगे, पर्वतकी कन्दराएँ तहस-नहस हो गयीं, जगत्में तुमुल ध्वनि व्याप्त हो गयी और हिमाचल व्याकुल हो गये। इस प्रकार श्रेष्ठ सुरों एवं असुरोंद्वारा प्रशंसित होते हुए शिवजी क्षणमात्रमें ही पर्वतराज हिमाचलके उस नगरमें जा पहुँचे, जो तपाये गये सुवर्णके सहस्रों तोरणोंसे सुशोभित था। उसमें कहीं-कहीं मरकतमणिके संयोगसे बने हुए घरोंमें वेदिकाएँ बनी हुई थीं। कहीं कहीं निर्मल वैदूर्य मणिके फर्श बने थे। कहीं बादलके समान रमणीय झरने झर रहे थे। वह नगर हजारों फहराते हुए ऊँचे-ऊंचे ध्वजोंसे विभूषित था वहाँ चबूतरोंपर कल्पवृक्षके पुष्पोंके गुच्छे बिखेरे गये थे वह श्वेत, काले और लाल रंगकी धातुओंसे रँगा हुआ था। उसकी उज्ज्वल छटा फैल रही थी। उसके मार्ग और फाटक अत्यन्त विस्तृत थे वहाँ उमड़े हुए बादलोंका अनुपम शब्द हो रहा था। सुगन्धयुक्त वायुके चलनेसे वह पुर अत्यन्त मनोहर लग रहा था ।। 465 - 469 ।।

शिवजीको उस नगरमें प्रवेश करते देखकर पर्वतराज हिमाचलका सारा नगर व्याकुल हो गया। पति-पुत्र आदिसे युक्त सम्मानित नारियाँ व्याकुल होकर वेगपूर्वक इधर-उधर भागने लगीं। मार्गों और गलियोंमें भागते हुए लोगों की भीड़ लग गयी। कोई देवाङ्गना अट्टालिकाके झरोखेमें बैठकर अपने नीलकमलके से नेत्रोंसे उसकी शोभा बढ़ा रही थी। कोई नारी अपने आभूषणोंकी किरणोंसे छिपी होनेपर भी प्रत्यक्ष रूपमें दीख रही थी। कोई सुन्दरी अपनेको सम्पूर्ण शृङ्गारोंसे विभूषितकर सखीके प्रेमको छोड़कर शिवजीकी ओर निहार रही थी। कोई नारी अभिमानरहित हो मधुर वाणीमें बोली- अरी भोलीभाली सखि । तुम कातर मत होओ। यद्यपि शिवजीने कामदेवको जला दिया है, तथापि वे स्वयं ही बिहार करनेकी इच्छा करते हैं।' कोई सुन्दरी, जो स्वयं मनोभवके फंदे में पड़ गयी थी, विरहसे स्खलित अङ्गवाली दूसरी नारीसे बोली- 'चपले तुम भूलसे शङ्करजीके साथ कामदेव के संयोगकी चर्चा मत किया कर कोई कामिनी व्यवधान पड़नेके कारण शङ्करजीको न देखकर युक्तिपूर्वक 'शङ्कर यही हैं'- ऐसा मानकर कह रही थी- 'वे शिव यही हैं, जिन चन्द्रशेखरको अपनी सेवाके फलकी प्राप्तिके निमित्त स्वर्गवासियोंके अधीश्वर इन्द्र आदि देवगण स्वयं अपना-अपना नाम लेकर नमस्कार कर रहे हैं।' कोई नारी कह रही थी— 'अरे! शिवजी यह नहीं हैं, वे तो वह हैं, जिनके मस्तकपर चन्द्रमा शोभा पा रहा है और जिनका शरीर चमड़ेसे ढंका हुआ है तथा जिनके आगे वज्रधारी देवराज इन्द्र इस मार्गको निर्वाध करनेके लिये दौड़ रहे हैं। देखो, ये लम्बी जटाओं और मृगचर्मसे सुशोभित पद्मयोनि ब्रह्मा भी उनके निकट जाकर हाथसे मुख पकड़े हुए प्रेमपूर्वक उनके कानोंमें कुछ कह रहे हैं। इस प्रकार अतिशय प्रेमके कारण देवाङ्गनाओंके चित्तमें परम संतोष हुआ। तब वे कहने लगीं कि शङ्करजीका आश्रय ग्रहण करनेसे पार्वतीको अपने जन्मका परम फल प्राप्त हो गया ।। 470-478 ॥

तदनन्तर भगवान् शङ्कर हिमाचलके उस भवनमें प्रविष्ट हुए, जिसका निर्माण देवशिल्पी विश्वकर्माने किया था तथा जिसमें महानीलमणिके खम्भे लगे हुए थे, जिसका फर्श तपाये हुए स्वर्णका बना हुआ था, जो मोतियोंकी झालरोंसे सुशोभित और जलती हुई औषधियोंके प्रकाशसे उद्दीप्त हो रहा था, जिसमें हजारों क्रीडोद्यान थे तथा जिसकी बावलियोंकी सीढ़ियाँ सोनेकी बनी हुई थीं उस अद्भुत भवनको देखकर महेन्द्र आदि सभी देवताओंने अपने मनमें ऐसा समझा कि आज हमारे नेत्र सफल हो गये। उस भवनके द्वारपर श्रीहरिद्वारा रोके जानेपर भीड़के कारण जिनके केयूर परस्पर रगड़ खाकर चूर-चूर हो गये थे, ऐसे कुछ प्रमुख स्वर्गवासी किसी प्रकार उस भवनमें प्रविष्ट हुए। तदनन्तर वहाँ (मण्डपमें) | पर्वतराज हिमाचलने विनम्रभावसे ब्रह्माकी पूजा की। तबउन्होंने विधानानुसार मन्त्रोचारणपूर्वक सारा कार्य सम्पन्न किया। तदुपरान्त शिवजीने अग्निको साक्षी बनाकर गिरिजाका अटूट पाणिग्रहण किया। उस विवाहोत्सवमें पर्वतोंके राजा हिमाचल दाता, देवाधिदेव ब्रह्मा होता, साक्षात् शिव वर तथा विश्वकी अरणिभूता पार्वती कन्या थीं। उस समय प्रधान देवता एवं असुर तथा चराचर सभी प्राणी (कार्याधिक्यके कारण) नियमको छोड़कर व्यग्र हो उठे। सभी प्रकारके मनोरम भावोंसे परिपूर्ण पृथ्वीदेवी आकुल होकर सभी प्रकारके नूतन अत्रों, रसों और औषधियोंको उड़ेलने लगीं। सभी प्राणियोंको हर्ष प्रदान करनेवाले वरुणदेव स्वयं आभूषणोंसे विभूषित हो सभी प्रकारके रत्नों तथा अनेकविध रत्नोंसे निर्मित पुण्यमय एवं पावन आभरणोंको लेकर वहाँ उपस्थित थे । ll 479 - 488 ।।

उस समय वहाँ कुबेर भी विनम्रभावसे विभिन्न प्रकारके स्वर्णमय दिव्य आभूषणोंको लिये हुए उपस्थित थे स्पर्शसे सुख उत्पन्न करनेवाली परम सुगन्धित वायु चारों ओर बहने लगी। मालाधारी इन्द्र हर्षपूर्वक अनेकों आभूषणोंसे विभूषित अपनी भुजाओंद्वारा चन्द्रमाकी किरणोंके समान कान्तिमान् अत्यन्त उज्ज्वल छत्र लिये हुए थे। प्रधान प्रधान गन्धर्व गीत गा रहे थे और अप्सराएँ नाच रही थीं। कुछ अन्य गन्धर्व और किंनर बाजा बजाते हुए अत्यन्त मधुर स्वरसे राग अलाप रहे थे। वहाँ छहों ऋतुएँ भी शरीर धारणकर नाचती और गाती थीं। मञ्चल प्रकृतिवाले प्रमथगण हिमाचलको विचलित करते हुए उपस्थित थे। इसी समय विश्वके पालनकर्ता एवं भगदेवताके नेत्रोंके विनाशक भगवान् शिव उठे और अपनी पत्नी पार्वतीके साथ क्रमशः सारा वैवाहिक कार्य यथोचितरूपसे सम्पन्न किये। उस समय पर्वतराज हिमाचलने उन्हें अर्घ्य प्रदान किया और सुरसमूह विनोदकी बातें करने लगे। तत्पश्चात् त्रिपुरके विनाशक भगवान् शङ्करने उस रातमें पत्नीके साथ वहाँ निवास किया। प्रातःकाल गन्धर्वोके गीत, अप्सराओंके नृत्य तथा देवों एवं दैत्योंकी स्तुतियोंके माध्यमसे जगाये गये देवेश्वर शङ्कर पर्वतराज हिमाचलसे आज्ञा लेकर उमाके साथ वायुके समान वेगशाली नन्दीश्वरपर सवार हो मन्दराचलको चले गये ।।489-496 llतदनन्तर नीललोहित भगवान् शङ्करके उमासहित चले जानेपर भाई-बन्धुओंसहित हिमाचलका मन खिन्न हो गया क्योंकि जगतमें भला ऐसा कौन कन्याका पिता होगा, जिसका मन उसकी विदाईके समय विह्वल न हो जाता हो ? उधर मन्दराचलपर शिवजीका नगर बहुत पहले से ही विरचित था वह चमकती हुई मणियों, स्फटिक शिलाओं और स्वर्णसे निर्मित होनेके कारण अत्यन्त सुन्दर लग रहा था, उसकी कान्ति फूटी पड़ती थी और उसमें स्फटिकके फाटक लगे हुए थे। वहाँ पहुँचकर शिवजी देवसमूहको विदा कर अपने नगरमें प्रविष्ट हुए ।। 497-498 ।।

वहाँ भग-नेत्रहारी भगवान् शङ्कर उमासहित नगरके रमणीय उद्यानों तथा एकान्त वनोंमें विहार करने लगे। उस समय उनका हृदय कामके वशीभूत होनेके कारण पार्वतीदेवीके प्रति अतिशय अनुरक्त हो गया था। इस प्रकार बहुत समय व्यतीत होनेके पश्चात् पार्वतीके मनमें पुत्रकी कामना उत्पन्न हुई, तब वे सखियोंके साथ कृत्रिम पुत्र बनाकर क्रीडा करने लगीं। किसी समय पार्वतीने सुगन्धित तेलसे शरीरको मलकर उसके मैल जमे हुए अङ्गोंमें चूर्णका उबटन भी लगाया। फिर उस लेपनको इकट्ठाकर उससे हाथीके से मुखवाले पुरुषकी आकृतिका निर्माण किया। उसके साथ क्रीडा करनेके पश्चात् पार्वतीदेवीने उसे अपनी सीवीके जलमें डलवा दिया। वहाँ वह विशाल शरीरवाला हो गया और अपने उस अत्यन्त विशाल शरीरसे सारे जगत्को आच्छादित कर लिया। तब पार्वतीदेवीने उसे 'पुत्र' ऐसा कहा और उधर जाह्नवीने भी उसे 'पुत्र' कहकर पुकारा। अन्तमें वह गजानन गाङ्गेय' नामसे देवताओंद्वारा सम्मानित किया गया और ब्रह्माने उसे विनायकका आधिपत्य प्रदान किया। तत्पश्चात् सुन्दर मुखवाली सुन्दरी पार्वतीने पुनः पुत्रकी कामनासे अशेकके नये निकले हुए सुन्दर अङ्कुरको खिलौना बनाया और बृहस्पति आदि विप्रों तथा इन्द्र आदि देवताओंद्वारा अपना माङ्गलिक संस्कार कराकर उसे पाला पोसा यह देखकर देवताओं और मुनियोंने पार्वतीदेवी से यह बात कही भवानि ! आप तो परम सुन्दर रूपवाली हो और लोकके कल्याणके लिये प्रकट हुई हो। प्रायः संसार पुत्ररूप फलका ही प्रेमी है और वह फल पुत्र-पौत्रोंद्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। जगत्‌में जो प्रजाऐं पुण्होन हैं, वे प्रायः प्रारब्धके कारण ही वैसा दीख पड़ती हैं।देवि! इस समय आप शास्त्रद्वारा प्रदर्शित मार्गकी मर्यादा निर्धारित करें। इन कल्पित पुत्रकोंसे क्या लाभ | उपलब्ध होगा?' ऐसा कही जानेपर उमाके अङ्ग हर्षसे पूर्ण हो गये, तब वे सुन्दर वाणीमें बोलीं ॥499-510॥

पार्वतीदेवीने कहा- 'विप्रवरो! इस प्रकारके जलरहित प्रदेशमें जो बुद्धिमान पुरुष कुआँ बनाता है, वह कुऍके जलके एक-एक बूँदके बराबर वर्षोंतक स्वर्गमें निवास करता है। इस प्रकार दस कुएँके समान एक बावली, दस बावलीके सदृश एक सरोवर, दस सरोवरको तुलनामें एक पुत्र और दस पुत्रके समान एक वृक्ष माना गया है। यही लोकोंका कल्याण करनेवाली मर्यादा है, जिसे मैं निर्धारित कर रही हूँ। इस प्रकार कहे जानेपर बृहस्पति आदि विप्रगण भवानीको आदरपूर्वक नमस्कार कर अपने-अपने निवास स्थानको चले गये। उन सबके चले जानेपर देवाधिदेव शङ्करने भी सुन्दरी पार्वतीको बायें हाथका सहारा देकर धीरे-धीरे अपने भवनमें प्रवेश कराया। चित्तको प्रसन्न करनेवाला वह भवन फाटकके निकट ही था। उसमें मोतियोंकी लम्बी-लम्बी झालरें लटक रही थीं, वेदिकाएँ पुष्पहारोंसे सुसज्जित थीं, तपाये हुए स्वर्णके मनोरम क्रीडागृह बने हुए थे, बिखरे हुए पुष्पोंकी सुगन्धसे उन्मत्त हुए भँवरे गुंजार कर रहे थे, किन्नरोंद्वारा गाये गये संगीतसे गृहकी भीतरी दीवाल प्रतिध्वनित हो रही थी, मनको अच्छी लगनेवाली सुगन्धित धूपोंकी भीनी सुगन्ध फैल रही थी। वह नाचती हुई मयूरियों तथा तारवाले बाजे बजानेवाले वादकोंसे व्याप्त था। वहाँ हंस-समूहोंकी ध्वनि गूंज रही थी, स्फटिकके खम्भोंसे युक्त वेदिकाएँ सुशोभित थीं, अधिकांश किन्नर अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक निरन्तर उपस्थित रहते थे उसमें पद्मराग मणिकी दीवालें बनी हुई थीं, जिनपर मोतियोंकी झलक पड़ रही थी, इस कारण अनारके भ्रमसे शुकसमूह उनपर अपने ठोरोंसे आघात कर रहे थे। ऐसे भवनमें पार्वतीदेवी द्यूतक्रीडाके माध्यमसे विहार करने लगीं। निर्मल इन्द्रनील मणिके बने हुए उस क्रीडा-स्थानपर क्रीडा करते हुए शिव-पार्वती विनोदके रसमें निमग्न हो परस्पर एक दूसरेके शरीरकी सहायताको प्राप्त हुए ॥ 511 - 521 ॥

इस प्रकार वहाँ पार्वती और शंकरके क्रीडा करते समय उस गृहके भीतर महान् भयंकर शब्द प्रादुर्भूत हुआ।उसे सुनकर सुन्दर शरीरवाली पार्वतीदेवीने कुतूहलवश आश्चर्यपूर्वक भगवान् शंकरसे पूछा—'यह क्या हो रहा है?' तब शिवजीने पार्वती से कहा-'सुविस्मिते। तुमने पहले इसे नहीं देखा है। मेरे परम प्रिय ये गणेश्वर इस पर्वत सदा क्रीडा करते रहते हैं शुभानने। जो लोग | पहले तपस्या, ब्रह्मचर्य, नियमपालन और तीर्थसेवनद्वारा मुझे संतुष्ट कर चुके हैं, वे ही ये श्रेष्ठ पुरुष मेरे पास प्राप्त हुए हैं। ये मुझे परम प्रिय हैं। ये इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले, महान् उत्साहसे सम्पन्न तथा अतिशय सौन्दर्य एवं गुणोंसे युक्त हैं। इन बलशालियोंके कार्योंसे तो मुझे भी परम विस्मय हो जाता है। ये देवताओंसहित इस जगत्को सृष्टि और संहार करनेमें समर्थ हैं। अतः ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, गन्धर्व, किंनर और प्रधान प्रधान नागोंसे नित्य विलग रहनेपर भी मुझे कष्ट नहीं होता, परंतु इनसे वियुक्त होनेपर मुझे कभी आनन्द नहीं प्राप्त होता। इनके सभी अङ्ग अत्यन्त सुन्दर है और ये सभी मुझे परम प्रिय हैं। वे ही ये सब इस पर्वतपर क्रीडा कर रहे हैं।' इस प्रकार कही जानेपर पार्वतीने विस्मयसे व्याकुल हो द्यूतक्रीडा छोड़ दी और वे भौंचक्की-सी हो झरोखे में बैठकर उनकी ओर देखने लगीं ।। 522- 529 ॥

वे जितने थे, उनमें कुछ दुबले-पतले, लम्बे, छोटे और विशाल पेटवाले थे। किन्हींके मुख व्याघ्र और हाथीके समान थे तो कोई भेड़ और बकरेके से रूपवाले थे उनके रूप अनेकों प्राणियोंके सदृश थे किन्हींके 1 | मुखसे ज्वाला निकल रही थी तो कोई काले एवं पोले रंगके थे। किन्हींके मुख सौम्य, किन्होंके भयंकर और किन्हींके मुसकानयुक्त थे। किन्हींके मस्तकपर काले एवं पीले रंगकी जटा बँधी थी। किन्हींके मुख नाना प्रकारके | पक्षियोंके से तथा किन्हींके मुख विभिन्न प्रकारके पशुओं सदृश थे किन्हींके शरीरपर रेशमी वस्त्र थे तो कोई वस्त्रके स्थानपर चमड़ा ही लपेटे हुए थे और कुछ नंगे ही थे। कुछ अत्यन्त कुरूप थे। किन्हींके कान गौ- सरीखे थे तो किन्हींके कान हाथी जैसे थे। किन्होंके बहुत-से मुख, - नेत्र और पेट थे तो किन्होंके बहुत से पैर और भुजाएँ थीं। उनके हाथोंमें नाना प्रकारके दिव्यास्त्र शोभा पा रहे थे। किन्होंके मस्तकोंपर नाना प्रकारके पुष्प बँधे हुए थे तो कोई अनेकविध सर्पोंके हो आभूषण धारण किये हुए थे। कोई गोल मुखमा अल लिये हुए थे तो कोई विभिन्न प्रकाश कवचोंसे विभूषित थे कुछ दिव्य रूपधारी । | थे और विचित्र वाहनोंपर आरूढ़ हो आकाशमें विचर रहे थे।कुछ मुखसे वीणा आदि बाजे बजा रहे थे और कुछ यत्र तत्र नाच रहे थे। इस प्रकार उन गणे श्धरोंको देखकर पार्वतीदेवी | शंकरजीसे बोलीं ॥ 530 - 536 ॥

देवीने पूछा- 'प्रभो! इन गणेश्वरोंकी संख्या कितनी है ? इनके क्या क्या नाम हैं? इनके स्वभाव कैसे हैं? ये जो पृथक पृथक बैठे हैं, इनमेंसे मुझे एक-एकका | परिचय दीजिये ॥ 537 ॥

शंकरजी बोले- 'देवि! यों तो ये असंख्य हैं, परंतु प्रधान प्रधान गणेश्वरोंको संख्या एक करोड़ है। ये विभिन्न प्रकारके पुरुषार्थोंके लिये विख्यात हैं। इन सभी महाबली भयंकर गणोंसे सारा जगत् परिपूर्ण है। नाना प्रकारके आहार-विहारसे युक्त ये गणेश्वर हर्षपूर्वक सिद्ध क्षेत्रों, गलियों, पुराने उद्यानों, घरों, दानवोंके शरीरों, बालकों और पागलोंमें प्रवेश करते हैं। ये सभी ऊष्मा, फेन, धूम, मधु, रक्त और वायुका पान करनेवाले हैं। जल इनका भोजन है और ये सर्वभक्षी हैं। ये नाच गानके उपहारसे प्रसन्न होनेवाले और अनेकों प्रकारके वाद्य शब्दोंके प्रेमी हैं। अनन्त होनेके कारण इनके गुणोंका वर्णन नहीं किया जा सकता ।। 538- 541 ॥

देवीने पूछा- 'स्वामिन्! जो मृगचर्मका दुपट्टा लपेटे हुए हैं, जिसके सभी अङ्ग शुद्ध हैं जो की मेखला धारण किये हुए हैं, जिसके बायें कंधेपर झोली लटक रही है, जो अत्यन्त चञ्चल और रँगे हुए मुखवाला है, जिसकी दाढ़ सिंहके सदृश है, जो कमल-पुष्पोंकी माला धारण किये हुए, सुन्दर आकृतिसे युक्त और पाषाण खण्डसे उत्तान रखे हुए काँसेके बाजेपर ताल लगा रहा है तथा जिसके पीछे किन्नर लोग चल रहे हैं और जो अन्य गणोंद्वारा गाये गये गीतोंपर बार-बार कान लगाये हुए हैं, उस गणेश्वर देवका क्या नाम है ? ।। 542-544 ॥

शंकरजीने कहा- देवि! यही वह वीरक है, जो सदा मेरे हृदयको प्रिय लगनेवाला है। यह नाना प्रकारके आश्चर्यजनक गुणोंका आश्रय तथा सभी गणेश्वरोंद्वारा पूजित- सम्मानित है ॥ 545 ॥

देवीने पूछा— त्रिपुरनाशक भगवन्! मेरे मनमें ऐसा ही पुत्र प्राप्त करनेकी प्रबल उत्कण्ठा है। मैं कल ऐसे आनन्ददायक पुत्रको देखूँगी ? ।। 546 ।।शिवजीने कहा- सुमध्यमे । नेत्रोंको आनन्द प्रदान करनेवाला यह वीरक ही तुम्हारा पुत्र हो और वीरक भी तुम जैसी माताको पाकर कृतार्थ हो जाय। इस प्रकार कही जानेपर पर्वतराजी कन्या पार्वतीने हर्षसे उत्सुक होकर तुरंत ही वीरकको बुला लानेके लिये विजयाको भेजा। तब विजया शीघ्र ही उस गगनचुम्बी अट्टालिकासे नीचे उतरकर गणोंके मध्यमें पहुंची और गणेश्वर वीरकसे बोली- 'वीरक यहाँ आओ तुम्हारी चञ्चलतासे भगवान् शंकर क्रुद्ध हो गये हैं। तुम्हारे इस नाच-रंगके विषयमें माता पार्वती भी देखो क्या कहती हैं। 'विजया के ऐसा कहनेपर वीरकने पाषाणखण्डको फेंक दिया और वह अपने मुखको धोकर माताद्वारा बुलाये जानेके मूल कारणके विषयमें सोचता हुआ विजयाके पीछे-पीछे पार्वतीदेवीके निकट आया। खिले हुए लाल कमलपुष्पकी-सी कान्तिवाली पार्वतीने अट्टालिकाके शिखरपरसे जब वीरकको आते हुए देखा तो उनके स्तनोंसे अधिक मात्रामें स्वादिष्ट दूध टपकने लगा। तब गिरिजा स्नेहपूर्वक मधुर वाणीमें वीरकसे बोलीं ॥ 540-553॥

उपाने] कहा- वीरक! आओ, यहाँ आओ, देवाधिदेवने तुम्हें मुझे प्रदान किया है। अब तुम मेरे पुत्रस्वरूप हो गये हो। ऐसा कहकर माता पार्वती वीरकको अपनी गोदमें बैठाकर उस मधुरभाषी पुत्रके कपोलोंका चुम्बन करने लगीं। उन्होंने उसका मस्तक सूपकर शरीरके सभी अङ्गोंको नहलाकर स्वच्छ किया। फिर किंकिणी, कटिसूत्र, नूपुर, मणिनिर्मित केयूर, हार और ऊरुमूलगुण (कच्छी) आदि दिव्य आभूषणोंसे उसे स्वयं विभूषित किया। तत्पश्चात् अत्यन्त सुन्दर विचित्र रंगके कोमल पलवों दिव्य मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित अनेकों माङ्गलिक सूलों तथा अनेक धातुओंके चूर्णोंसे मिश्रित सफेद सरसोंसे उसके अङ्गोंकी रक्षाका विधान किया। इस प्रकार उसे गोदमें लेकर मुखापर गोरोचनसे उज्वल पत्रभंगीको रचना करके उसके मस्तकपर माला डालकर कहा- 'बेटा! अब जाओ और अपने साथी गणोंके साथ सावधान होकर खेलो। उनके साथ कपटरहित होकर निवास करो।तुम्हारे दूसरे साथी व्यालसमूहों से व्याकुल और पर्वतशिखर, वृक्ष और गजराजोंसे परास्त हो रहे हैं। गङ्गाका जल अत्यन्त क्षुब्ध हो रहा है, उसने तटको जर्जर कर दिया है, अतः वहाँ तथा बहुत से दुष्ट व्याघ्रोंसे भरे हुए वनमें मत प्रवेश करना। इन पुत्ररूप असंख्य गणेश्वरोंमें इस वीरकपर दुर्गादेवी सदा पुत्रभावसे संतुष्ट अन्तःकरणवाली बनी रहें। अपने पितृजनोंद्वारा प्रार्थित भावी अवश्य घटित होती है, अतः यह भव्यता तुम्हें भविष्य प्राप्त होगी ।। 554-559॥

तदनन्तर बालक्रीडाके रसमें निमग्नबुद्धि वीरक भी वहाँसे लौटकर सभी गणोंसे हँसते हुए बोला- 'मित्रो! देखो, स्वयं माताने मेरा यह शृङ्गार किया है। उन्होंने ही यह गुलाबी बुंदियोंसे युक्त वस्त्र पहनाया है और मालती पुष्पोंसे मिली हुई यह सिन्दुवार पुष्पों की माला मेरे सिरपर रखी है। यह आतोद्य नामक बाजा धारण करनेवाला कौन गण है? मैं उसे अपने हाथसे वह खिलौना दूंगा।' उधर सखीके साथ पार्वती कभी दक्षिणसे पश्चिम, कभी पश्चिमसे उत्तर और कभी उत्तरसे पूर्वकी ओर घूम-घूमकर गवाक्ष मार्गसे बाहर खेलते हुए वीरककी ओर निहार रही थीं। जब जगन्माता पार्वतीके चित्तमें (पुत्रको खेलते हुए देखकर) इस प्रकार व्यामोह उत्पन्न हो जाता है, तब भला स्वल्पबुद्धि, मूर्ख, मांस, विष्ठा और मूत्रको राशिसे भरे हुए शरीरको धारण करनेवाला ऐसा कौन पुत्रप्रेमी जन होगा जिसे मोह न प्राप्त हो। इसी बीच देवगण भगवान् चन्द्रशेखरका दर्शन करनेके लिये कक्षके भीतर प्रविष्ट हुए और प्रमाथगण अपने वाहनोंपर आरूढ़ हो गये। उनसे घिरे हुए वीरकने लोकपाल यमके अस्त्र खड्गको म्यानसे खींचकर कहा 'तुमलोग बतलाओ, निर्दय कृतान्त किस कारण किसका वध करना चाहता है? तुमलोग मौन क्यों हो? अस्त्रदण्डसे क्या अलभ्य है? भयंकर आकृतिवाले मेरे वर्तमान रहते इस पर्वतपर ऐसा कौन-सा कार्य है जो अत्रज्ञद्वारा सिद्ध नहीं हो सकता ।। 560 - 5653 ॥

वीरकके इस प्रकार कहनेपर देवताओंने उनसे कहा- 'बौरक तुम्हें इस प्रकार लोकपालोंके चित्तका अनुगमन नहीं करना चाहिये।' फिर लक्षणादेवी देवाधिदेव | महादेवके अनुचर वीरकसे बोलीं- 'तुमलोग प्राणियोंकीरक्षा करते हुए वन, पर्वत, निर्झर और अग्नियुक्त स्थानोंपर विचरण करते हुए झरनोंके जलप्रवाहमें मज्जन करो, पुष्पोंसे सुसज्जित भवनोंमें शयन करो और ऊँचे कैसे विभिन्न पर्वतोंके कुंओंमें स्वेच्छानुसार संशयात अव्यक्त शब्दका अनुकरण करते हुए गर्जना करो। विनोदकी अभिलापावाली पुत्रप्रेमी पार्वती ऊँचे स्वर्णमय शिखरोंकी ढालू भूमिसे युक्त, आकाशचारियोंकी रमणीय वनस्थलीरूप, अनेकों प्रकारको सम्पत्तियोंसे परिपूर्ण तथा सुन्दर मन्दारपुष्प, प्रवाल और कमल-पुष्पोंसे सुशोभित मन्दराचलके खोहोंमें खेलते वीरकको जिसकी अङ्गकान्ति सुवर्णकी रेणु सरीखी थी, सिद्धोंकी स्त्रियाँ जिसके रूपामृतका पान कर रही थीं और जो गणोंके साथ विराजमान था, क्षण-क्षणपर निमेषरहित विस्फारित नेत्रोंसे देखती हुई स्मरण करती रहती थीं। वीरकका भी उस समय जन्मान्तरका पुण्य उदय हो गया था, जिससे वह पार्वतीका पुत्र हो गया। ऐसी दशामें उसे खेलसे तृप्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? वह जगत्कर्ता ब्रह्माद्वारा तेजके भावी अंशसे कल्पित किया गया था। वह प्रतिक्षण दिव्य गीतोंको सुनता था और स्वयं भी चलतापूर्वक नृत्य करता था गणेश्वर उसके सामने नतमस्तक रहते थे। वह चञ्चलतापूर्वक किसी क्षण सिंहनादसे व्याप्त, रत्नसमूहोंकी खानवाले तथा बड़े बड़े साल और ताड़के वृक्षोंसे सुशोभित पर्वत-शिखरपर, किसी क्षण खिले हुए बहुत-से तमाल वृक्षोंसे युक्त होनेके कारण काले दीखनेवाले वनोंमें, किसी क्षण राजहंसपर चढ़कर, किसी क्षण कमलसे भरे हुए थोड़े कीचड़ और जलवाले सरोवरमें तथा किसी क्षण माताको निष्कलंक सुन्दर गोदमें बैठकर क्रीडा करता था। इस प्रकार देवताओंको आनन्द प्रदान करनेवाला एवं गणेश्वरोंका भी अधिपति वह बाललीलाबिहारी वोरक निकुजमें विद्याधरोंके साथ गान करता और शंकरजीकी तरह लीलाविलाससे युक्त हो क्रीडा करता था ॥ 566-672ll तदनन्तर भगवान् सूर्य सारे भुवनोंको प्रकाशित करनेके पश्चात् सायंकाल अस्ताचलकी ओर प्रस्थित हुए। उदयाचल और अस्ताचल- ये दोनों पर्वत पूर्वकालकी निश्चित योजना अनुसार स्थित हैं। इनमें सूर्यको अस्ताचलके साथ सुदृढ़ मित्रता है-ऐसा विचारकरनित्य सूर्यद्वारा आराधित, शोभाशाली, स्थूल मूल भागवाले एवं समुत मेने गिरते हुए सूर्यको सेवा करनेके लिये | कोई उपहार नहीं समर्पित किया। जलमें भी यही व्यवस्था है इन सभी विषयोंपर बुद्धिमान् पुरुष संशय करेंगे। दिनके अवसानका अनुगमन करनेवाले सूर्यने अपनत्वकी पूर्ति की। संध्याके समय हाथ जोड़े हुए मुनिगण सूर्यके सम्मुख उपस्थित हो आत्मामें उत्पन्न हुई (बिछोहकी) भावनाको रोककर पुनः शीघ्र ही आगमनकी याचना कर रहे हैं। इस प्रकार सूर्यके अस्त हो जानेपर सारे जगतमें रात्रिका अन्धकार क्रमशः उसी प्रकार बढ़ने लगा, जैसे कुटिल मनुष्यके हृदयमें पाप मनको दूषित करते हुए फैल जाता है ॥ 573–578 ॥

तत्पश्चात् जिसकी दीवालें प्रभापूर्ण सर्पोकी मणिरूपी दीपकों उद्भाषित हो रही थीं, ऐसे भवनमें शय्या बिछी थी, जिसपर चाँदनीकी राशि जैसी उज्ज्वल चादर बिछी थी, नाना प्रकारके रत्नोंकी कान्तिसे सुशोभित होनेके कारण वह इन्द्रधनुषकी विडम्बना कर रही थी, उसमें रत्ननिर्मित क्षुद्रघण्टिकाएँ तथा मोतियोंकी लम्बी लम्बी झालरें लटक रही थीं और उसका ऊपरी भाग हिलते हुए कमनीय वितानसे आच्छादित था, ऐसी शय्यापर मन्दगति से चलते हुए भगवान् शंकर पार्वतीके साथ विराजमान हुए। उस समय उनका कंधा पार्वतीकी भुजलतासे संयुक्त था। चन्द्रभूषणकी उज्वल एवं निर्मल प्रभा सर्वत्र फैल रही थी। कजरारे नेत्रोंवाली गिरिजाकी भी छवि नीले कमल-दलके समान थी। रात्रिसे संयुक्त होनेके कारण वे विशेषरूपसे तमोमयी दीख रही थीं। उस समय भगवान् शंकर पार्वतीसे क्रीडाकेलिकी कलासे युक्त वचन बोले ।। 579-583 ।।

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मत्स्य पुराण को मत्स्यपुराण, Matsya Purana और Matsyapurana आदि नामों से भी जाना जाता है।

मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका