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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 245 - Adhyaya 245

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बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान

शौनकजीने कहा—असुरराज बलिने समस्त दैत्योंको निस्तेज देखकर अपने पितामह प्रह्लादसे प्रश्न किया ॥ 1 ॥

बलिने पूछा- तात! क्या बात है कि आज सहसा ये दैत्यगण अग्निसे जले हुएके समान निस्तेज और ब्रह्मदण्डसे मारे हुएकी भाँति निर्बल दिखायी पड़ने लगे हैं? क्या दैत्योंके ऊपर कोई अरिष्ट आ गया है? या वैरियोंद्वारा निर्मित कोई कृत्या इनका विनाश करनेके लिये प्रकट हुई है, जिससे ये असुर तेजोहीन हो गये हैं? ॥ 2-3 ॥शौनकजीने कहा- राजन्। इस प्रकार अपने पौत्र बलिद्वारा पूछे जाने पर धैर्यशाली दैत्यपति ने बहुत देरतक ध्यानकर उस असुरनायक बलिसे कहा ।। 4 ।।

प्रह्लाद बोले- दानवराज बलि। इस समय पर्वत काँप उठे हैं, पृथ्वीने अपनी स्वाभाविक धीरता छोड़ दी है, सभी समुद्र विक्षुब्ध हो उठे हैं और दैत्यगण तेजोहीन कर दिये गये हैं। ग्रहगण सूर्योदय होनेपर जिस प्रकार पहले सूर्यका अनुगमन करते थे वैसा अब नहीं कर रहे हैं। कुछ कारणोंसे ऐसा अनुमान होता है कि देवताओंकी विशेष अभ्युन्नति होनेवाली है। महाबाहो ! इसका कोई महान कारण है। सुरार्दन! तुम्हें इस कार्यको तुच्छ नहीं मानना चाहिये ॥ 5-7 ॥

शौनकजीने कहा- परम भक्त असुरश्रेष्ठ प्रह्लाद दानवराज बलिसे ऐसा कहकर मन-ही-मन देवेश्वर श्रीहरिको शरणमें गये। तत्पश्चात् प्रह्लाद परम मनोहर ध्यानयोगका आश्रय लेकर देवाधिदेव जनार्दनका ध्यान करने लगे। तब उन्होंने अदितिके उदरमें वामनरूपमें उन आदिप्रजापतिको देखा जिनके भीतर सातों लोक विराजमान थे उस समय प्रह्लादने भगवान्के भीतर वसु रुद्र, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, साध्यगण, विश्वेदेव, आदित्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस, अपना पुत्र विरोचन, असुरराज बलि, जम्भ, कुजम्भ, नरक, बाण तथा अन्य असुरगण, स्वयं अपने आप पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, अग्नि, समुद्र, वृक्ष, नदियाँ, सरोवर, पशु, मृग, पक्षी, मनुष्य, सर्पादि जीव, सभी लोकोंके सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, शिव, ग्रह, नक्षत्र, नाग तथा दक्ष आदि प्रजापतियोंको भी देखा। यह देखकर प्रह्लाद आश्चर्यचकित हो गये। पुनः क्षणभर बाद स्वस्थ होनेपर उन्होंने विरोचन पुत्र असुरराज बलिसे इस प्रकार कहा ॥ 8- 15 ॥ प्रह्लाद बोले-वत्स जिस कारण तुम राक्षसोंके तेजकी यह हानि उत्पन्न हुई है उस सारे रहस्यको मैं जान गया। उसे तुम पूर्णरूपसे सुनो। जो देवाधिदेव, जगत्के उत्पत्तिस्थान, अजन्मा, जगत्‌के आदिकर्ता, अनादि, विश्वके आदि, सर्वश्रेष्ठ, वरदायक,पापनाशक, परावरोंमें उत्तम, परात्पर, प्रमाणोंके प्रमाण, सातों लोकोंके गुरुके गुरु, प्रभुके प्रभु, पर-से-परे, आदि-मध्य-अन्तसे रहित तथा महान् आत्मबलसे सम्पन्न हैं, वे भगवान् अपने अंशसे त्रिलोकीको सनाथ करनेके लिये अदिति के गर्भसे अवतीर्ण हो रहे हैं। दैत्यपते। जिनके स्वरूपको रुद्र, पद्मयोनि ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, मरीचि प्रभृति महर्षिगण नहीं जानते, वे भगवान् वासुदेव | अपनी कलासे उत्पन्न हो रहे हैं। जिन भगवान्ने पूर्वकालमें अपनी एक कलाद्वारा नृसिंहरूपमें अवतीर्ण होकर मेरे पिता (हिरण्यकशिपु का वध किया था तथा जो सभी योगिराजोंके मनमें निवास करनेवाले हैं, वे भगवान् वासुदेव अपनी कलासे अवतीर्ण हो रहे हैं। जिनके ज्ञानसे पापमुक्त हुए वेदवेत्ता जिन अव्यय भगवान्‌को जानकर उनमें प्रवेश करते हैं तथा जिनमें प्रवेश कर पुनः जन्म नहीं धारण करते, उन भगवान् वासुदेवको मैं नित्य प्रणाम करता हूँ ॥ 16- 22 ॥

समस्त प्राणी समुद्रसे लहरोंकी भाँति जिनसे निरन्तर उत्पन्न होते हैं और प्रलयकालमें पुनः जिनमें लय हो जाते हैं, उन अचिन्त्य वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ। जिन परम पुरुषके स्वरूप, बल, प्रभाव और भावको शिव तथा ब्रह्मा आदि देवगण भी नहीं समझ पाते, उन भगवान् वासुदेवको मैं सर्वदा नमस्कार करता हूँ। जिन भगवान् वासुदेवने मनुष्योंको स्वरूप देखनेके लिये नेत्र, स्पर्शके लिये चमड़ा रसास्वादनके लिये जिह्वा शब्द सुननेके लिये कान तथा सुगन्ध ग्रहण करनेके लिये नासिका दी है, जिन्होंने अपने एक दाँतके अग्रभागपर इस पृथ्वीको, जो सभी पर्वतोंको धारण करती है, धारण किया है, तथा जिनमें यह समस्त जगत् शयन करता है, | उन आदिभूत भगवान् विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ।जो अक्षयात्मा सर्वेश्वर नासिका, नेत्र और कान आदि इन्द्रियोंद्वारा जाने नहीं जा सकते, जिन्हें केवल मनद्वारा ग्रहण किया जा सकता है उन पूज्य परमेश्वर भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने गर्भ में अपने अंशमात्रसे अवतीर्ण होकर बड़े-बड़े दैत्योंके तेजोंका हरण कर लिया है, जो समस्त संसाररूपी वृक्षके लिये कुठारस्वरूप हैं उन अनन्त परमात्मदेवको मैं नमस्कार करता हूँ। महासुरेन्द्र। जो ये महान् आत्मबलसे सम्पन्न एवं जगत्के उत्पत्तिस्थान भगवान् विष्णु हैं, ये अपने सोलह अंशोंसे माता अदितिके उदरमें प्रविष्ट हुए हैं, उन्होंने ही बलपूर्वक तुमलोगोंके शरीरको निस्तेज कर दिया है। 23 - 29 ।। बलिने कहा तात यह हरि कौन है जिससे हम लोगोंको भय प्राप्त हो गया है? मेरे पास तो उस वासुदेवसे भी अधिक बलवान् सैकड़ों दैत्य हैं। विप्रचित्ति, शिवि, शङ्ख, अयःशङ्कु, अय: शिरा, अश्वशिरा, भङ्गकारी, महाहनु प्रताप, प्रथस, शुम्भ, अत्यन्त कठिनाईसे जीतने योग्य कुकुर-ये तथा इनके अतिरिक्त और भी दैत्य एवं दानव मेरे अधिकारमें हैं। ये सभी महाबली, महान् पराक्रमी तथा पृथ्वीके भारको उठाने में समर्थ हैं। इनमेंसे एक एकके आधे पराक्रमसे भी कृष्णकी कोई समानता नहीं है ।। 30- 33 ll

शौनकजी बोले – दैत्यश्रेष्ठ प्रह्लाद अपने पौत्रकी यह बात सुनकर भगवान्‌की निन्दा करनेवाले उस बलिको धिक्कारते हुए बोले ll 34 ॥

प्रह्लादने कहा- मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जिनका तुम जैसा अविवेकी एवं दुर्बुद्धि राजा है, उन दैत्यों और दानवोंका विनाश हो जायगा। तुम्हारे अतिरिक्त दूसरा कौन ऐसा पापी होगा जो देवाधिदेव, महाभाग, अजन्मा एवं सर्वव्यापी वासुदेवको ऐसा कहेगा? तुमने जिनका नाम गिनाया है ये सभी दैत्य-दानव, ब्रह्मासहित देवगण, चराचर जगत्, तुम, मैं, पर्वत, वृक्ष, नदी और नदोंसहित यह संसार, समुद्र, द्वीप और लोक- ये सभी भगवान् केशवकी समानता नहीं कर सकते।जिन सर्वव्यापी एवं वन्दनीयोंके भी वन्दनीय परमात्माके एक अंशसे यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है, उन्हें अकेले तुम जैसे अविवेकी, विनाशोन्मुख, कुबुद्धि, अजितात्मा वृद्धोंकी आज्ञाका उल्लङ्घन करनेवाले के सिवा दूसरा कौन ऐसा कहेगा? अब तो शोचनीय में हुआ, जिसके घरमें तुम्हारा नीच पिता उत्पन्न हुआ, जिसके तुम इस प्रकार देवाधिदेव विष्णुकी निन्दा करनेवाले पुत्र हुए। संसारमें जन्म लेकर उपार्जित किये गये पापोंको नष्ट करनेवाली भगवान् कृष्णके चरणोंमें हमारी भक्ति अक्षुण्ण बनी रहे, भले ही मैं तुम्हारे द्वारा अपमानित क्यों न होऊँ ? ।। 35-42 ।।

दैत्याधम! भगवान् (विष्णु) से बढ़कर मुझे अपना शरीर भी प्रिय नहीं है, इसे यह संसार जानता है, किंतु तुम्हें विदित नहीं है। मेरे प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय भगवान् विष्णुको जानते हुए भी तुम मेरे गौरवको रक्षा न करते हुए उनकी निन्दा कर रहे हो। बलि! तुम्हारा गुरु विरोचन है और मैं उसका भी गुरु हूँ तथा मेरे एवं समस्त संसारके गुरुके भी गुरु नारायण हैं। चूँकि तुम उन गुरुओंके गुरु विष्णुकी निन्दा कर रहे हो, इसलिये इस लोकमें शीघ्र ही ऐश्वर्यसे भ्रष्ट हो जाओगे। बलि ! जगदीश्वर जनार्दन मेरे देवता हैं। वे मेरे गुरु मुझपर प्रसन्न रहें, भले ही मैं तुम्हारे द्वारा उपेक्षित हो जाऊँ। (मुझे इसकी परवा नहीं है।) चूँकि तुमने बिना विचारे त्रिलोकीके गुरु भगवान्की जो इस प्रकार इतनी निन्दा की है, इसीलिये मैं तुम्हें शाप दे रहा हूँ जिस प्रकार तुमने मेरा सिर काट लेनेसे भी बढ़कर यह भगवान् अच्युतको निन्दा करनेवाला वचन कहा है, उसी प्रकार तुम राज्यसे भ्रष्ट होकर (अवनतिके गर्तमें) गिर जाओ। जिस प्रकार इस संसारसागरमें विष्णुसे बढ़कर अन्य कोई शरणदाता नहीं है. (मेरी यह बात सत्य है तो) मैं शीघ्र ही तुम्हें राज्यसे च्युत हुआ देखूं ॥ 43-50 ॥

शौनकजी बोले- दैत्यराज बलिने अपने पितामह प्रह्लादकी ऐसी अप्रिय बात सुनकर उन्हें बारम्बार प्रणाम कर सभी प्रकारसे प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहना | आरम्भ किया ॥ 51 llबलिने कहा-तात प्रसन्न हो जाइये। अज्ञानसे मारे हुए मुझपर क्रोध मत कीजिये। मैंने बलके गर्वसे उन्मत्त होकर ऐसी बात कह दी है। दैत्यश्रेष्ठ! मेरा सारा ज्ञान मोहसे नष्ट हो गया है, मैं पापी और दुराचारी हूँ। अतः आपने जो मुझे यह शाप दिया है, वह अच्छा हो किया है। तात! मैं राज्यसे च्युत और सम्पत्तिसे रहित हो जाऊँगा इससे मैं उतना दुःखी नहीं हूँ जितना आपके साथ अविनयपूर्ण व्यवहार करनेसे मुझे कष्ट हो रहा है। त्रिलोकीका राज्य, ऐश्वर्य अथवा अन्य कोई भी वस्तु अत्यन्त दुर्लभ नहीं है, परंतु आपके समान जो गुरुजन हैं, वे विश्वमें अवश्य दुर्लभ हैं। इसलिये दैत्योंके पालक ! आप प्रसन्न हो जाइये, मुझपर क्रोध न कीजिये तात! मैं आपकी क्रोधपूर्ण दृष्टिसे दुःखी हो रहा हूँ, शापसे नहीं ll 52-56 ॥

प्रह्लाद बोले- वत्स! कोपके कारण मुझे मोह उत्पन्न हो गया, जिससे अभिभूत होकर मैंने तुम्हें शाप दे दिया; क्योंकि मोहने मेरे विवेकको नष्ट कर दिया था महासुर! यदि मोहके द्वारा मेरा ज्ञान नष्ट न हुआ होता तो भगवान् विष्णुको सर्वव्यापी जानता हुआ मैं शाप क्यों देता ? असुरश्रेष्ठ। मैंने तुम्हें जो यह शाप दिया है, यह तुम्हारे लिये अवश्य घटित होगा, अतः तुम विषाद मत करो। आजसे जो देवेश्वर, कभी च्युत न होनेवाले और शास्ता हैं, उन भगवान् श्रीहरिके प्रति तुम भक्तिमान् हो जाओ। वे ही तुम्हारे रक्षक होंगे। वीर! इस शापके घटित होनेपर तुम मेरा स्मरण करना। तुम जैसे स्मरण करोगे वैसे ही मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा कि जिससे तुम कल्याणके भागी होओगे दैत्यराज बलिसे ऐसा कहकर महामतिमान् प्रह्लाद चुप हो गये। उधर भगवान् गोविन्द वामनरूपमें प्रकट हुए। सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी उन जगन्नाथके अवतरित होनेपर देवगण तथा देवमाता अदिति दुःखसे विमुख हो गर्यो उस समय सुख-स्पर्शी वायु बहने लगी, आकाश निर्मल हो गया और सभी प्राणियोंको बुद्धि धर्ममें संलग्न हो गयी। तभीसे राजाओं और राक्षसोंके तथा पृथ्वी, आकाश और स्वर्गमें निवास करनेवाले सभी जीवोंके मनोंमें उद्वेग नहीं हुआ राजन्। भगवान्‌के उत्पन्न होते ही लोकपितामह भगवान् ब्रह्माने उनका जातकर्म आदि संस्कार किया। तत्पश्चात् उन देवदेवेश्वर श्रीविष्णुका दर्शन कर वे ऋषियोंके सुनते हुए उनकी स्तुति करने लगे ।। 57-66 ।।ब्रह्मा बोले - आदि परमेश्वर! आपकी जय हो। अजेय! आपकी जय हो। सर्वात्मस्वरूप ! आपकी जय हो। आप जन्म एवं वृद्धतासे विमुक्त, अन्तरहित तथा कभी च्युत होनेवाले नहीं हैं, आपकी जय हो, जय हो, जय हो। आप अजित, अमेय और अव्यक्त स्थितिवाले हैं, आपकी जय हो, जय हो, जय हो आप परमार्थके प्रयोजनस्वरूप, सर्व ज्ञानद्वारा जानने योग्य और अपनी महिमासे प्रकट होनेवाले है, आपकी जय हो आप सम्पूर्ण जगत्के साक्षी जगत्के कर्ता और जगत्के गुरु हैं, आपकी जय हो। देव! आप जगत्की स्थिति, पालन और अन्त करनेवाले हैं, आपकी जय हो। आप शेषरूप, अशेषरूप तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित रहनेवाले हैं, आपकी जय हो, जय हो, जय हो। आप जगत्के आदि, मध्य और अन्त हैं, आपकी जय हो। सर्वज्ञाननिधे! आपकी जय हो। आप मोक्षार्थीजनों द्वारा अज्ञात, स्वयंदृष्ट, ईश्वर, योगियोंको मुक्तिरूप फल प्रदान करनेवाले और दम आदि गुणोंसे विभूषित हैं, आपकी जय हो। आप अत्यन्त सूक्ष्म, दुर्जेय, स्थूल, जगन्मय, इन्द्रियवान् और अतीन्द्रिय हैं, आपकी वारंवार जय हो। आप अपनी योगमायामें स्थित रहनेवाले, शेषनागके फणपर शयन करनेवाले और अव्यय हैं, आपकी जय हो। आप एक दाँतके | अग्रभागपर वसुंधराको उठाकर रख लेनेवाले (आदिवराह) हैं, आपकी जय हो ll 67-73 ।।

शत्रुके वक्षःस्थलको विदीर्ण करनेवाले नृसिंह! आपकी जय हो विश्वात्मन्! इस समय आप वामन रूपमें प्रकट हैं | आपकी जय हो। केशव आपकी जय हो। जगन्मूर्ति जनार्दन ! आप अपनी मायाके आवरणसे छिपे रहते हैं, आपकी जय हो। प्रभो! आप अचिन्त्य, अनेक स्वरूप धारण करनेवाले और एकरूप है, आपकी जय हो हरे! आप सम्पूर्ण प्रकृतिके विकारोंसे युक्त हैं, आपकी वृद्धि हो। आप परमेश्वरमें जगत्‌को यह धर्ममर्यादा स्थित है। हरे! न मैं, न शंकर, न इन्द्रादि देवगण, न सनकादि मुनिगण और न योगीजन ही आपको जाननेमें समर्थ हैं। जगदीश्वर सर्वेश! इस जगत्में आपकी मायारूपी वस्त्रसे लिपटा हुआ कौन मनुष्य आपको कृपाके बिना आपको जान सकता है। प्रसन्नतासे सुन्दर मुखवाले देव! जिसने आपकी आराधना की है, केवल वही आपको जानता है, अन्य लोग नहीं। विश्वात्मन्! आप बड़े-बड़े नेत्रोंसे सुशोभित एवं नन्दीश्वरके स्वामी शंकररूप हैं। सामर्थ्यशाली वामन! आप इस विश्वकी उन्नतिके लिये वृद्धिको प्राप्त हों ।। 74-80 ।।शौनकजी बोले – राजन्! ब्रह्माद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर वामनस्वरूपधारी भगवान् हृषीकेशने उस समय हँसकर कमलजन्मा ब्रह्मासे भावोंसे युक्त गम्भीर वाणीमें कहा- 'ब्रह्मन् ! प्राचीनकालमें इन्द्रादि | देवताओंके साथ कश्यपने तथा आपने मेरी स्तुति की थी, उस समय मैंने आपलोगोंसे इन्द्रको त्रिभुवन दिलानेकी प्रतिज्ञा की थी। पुनः अदितिने भी मेरी स्तुति की थी और मैंने उससे भी प्रतिज्ञा की थी कि इन्द्रको कण्टकरहित त्रिलोकीका राज्य समर्पित करूँगा। वही मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा, जिससे सहस्राक्ष इन्द्र पुनः जगत्के अधिपति होंगे, यह मैं आपलोगों से सत्य कह रहा हूँ।' तदनन्तर ब्रह्माने हृषीकेशको कृष्णमृगका चर्म दिया। भगवान् बृहस्पतिने उन्हें यज्ञोपवीत प्रदान किया । ब्रह्माके पुत्र महर्षि मरीचिने उन्हें पलाश-दण्ड, वसिष्ठने कमण्डलु, अङ्गिराने कुशासन और वेद, पुलहने अक्षसूत्र तथा पुलस्त्यने दो श्वेत वस्त्र समर्पित किये। फिर प्रणवके स्वरोंसे विभूषित वेद, सम्पूर्ण शास्त्र और सांख्ययोगकी उक्तियाँ उनके निकट उपस्थित हुईं। राजन् ! तत्पश्चात् सर्वदेवमय भगवान् वामन जटा, दण्ड, छत्र और कमण्डलु धारण करके बलिके यज्ञकी ओर प्रस्थित हुए। उस समय भगवान् वामन पृथ्वीतलपर जहाँ-जहाँ अपने चरणोंको रखते थे वहाँ-वहाँ अत्यन्त पीड़ित होनेके कारण पृथ्वीमें दरारें पड़ जाती थीं। इस प्रकार धीरे-धीरे मंद गति से चलते हुए भगवान् वामनने पर्वतों, समुद्रों और द्वीपोंसहित समूची पृथ्वीको चलायमान कर दिया ।। 81 - 90 ॥

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मत्स्य पुराण को मत्स्यपुराण, Matsya Purana और Matsyapurana आदि नामों से भी जाना जाता है।

मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका