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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 188 - Adhyaya 188

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त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त

मार्कण्डेयजीने कहा— कुन्तीनन्दन! आपने जो मुझसे पूछा है, उसे मैं कह रहा हूँ, सुनिये ! इसी बीच रुद्रदेव नर्मदा तटपर आये। वहाँ जो तीनों लोकोंमें विख्यात माहेश्वर नामक स्थान है, उस स्थानपर बैठकर महादेव त्रिपुर-संहारके विषयमें सोचने लगे। उन्होंने मन्दराचलको गाण्डीव धनुष वासुकि सर्पको धनुषकी प्रत्यञ्चा, कार्तिकेयको तरकस, विष्णुको श्रेष्ठ बाण, बाणके अग्रभागमें अग्निको और पुच्छ भागमें वायुको प्रतिष्ठित करके चारों वेदोंको घोड़ा बनाया। इस प्रकार उन्होंने सर्वदेवमय रथका निर्माण किया। दोनों अश्विनीकुमारोंको वागडोर और रथकी धुरीके रूपमें साक्षात् वज्रधारी इन्द्रको नियुक्त किया। उनकी आज्ञाको स्वीकार कर कुबेर तोरणके स्थानपर स्थित हुए। दाहिने हाथपर यम और बायें हाथपर भयंकर काल स्थित हुए। करोड़ों देवगण और लोकविश्रुत गन्धर्वगण रथके चक्के हुए तथा श्रेष्ठ प्रजापति ब्रह्मा सारथि बने। इस प्रकार शिवजी सर्वदेवमय रथका निर्माण कर उसपर स्थाणुरूपमें | एक हजार वर्षोंतक स्थित रहे। जब तीनों पुर अन्तरिक्षमें | एक साथ सम्मिलित हुए, तब उन्होंने तीन पर्वोंवाले तीन बाणोंसे उनका भेदन किया। जिस समय भगवान् रुद्रने उस बाणको त्रिपुरके ऊपर चलाया, उस समय वहाँकी स्त्रियाँ तेजोहीन हो गयीं और उनका पातिव्रत्य बल नष्ट हो गया तथा उस नगरमें हजारों प्रकारके उपद्रव उत्पन्न होने लगे ॥ 1-10 ॥

उस समय वे स्त्रियाँ भी त्रिपुर-नाशके लिये कालस्वरूप हो गयीं। काष्ठमय घोड़े अट्टहास करने लगे। चित्ररूपमें निर्मित जीव आँखको खोलने और बंद करने लगे वहाँकै निवासी स्वप्नमें अपनेको लाल वखसे अलंकृत देखने लगे उन्हें स्वप्नमें सभी वस्तुएँ विपरीत | दिखायी पड़ने लगीं। वे इस प्रकार इन उत्पातोंको देखनेलगे। शंकरजीके कोपसे उनके बल और बुद्धि नष्ट हो गये। तदनन्तर प्रलयकालके समान प्रचण्ड सांवर्तक वायु बहने लगा। वायुसे प्रेरित आगकी भयंकर लपटें भी इधर-उधर व्याप्त होने लगीं। जिससे वहाँ वृक्ष-समूह जलने लगे और पर्वतके शिखर गिरने लगे। सभी ओर लोग व्याकुल होकर चेतनारहित हो गये। चतुर्दिक् भयंकर हाहाकार मच गया। सभी उद्यान नष्ट हो गये। वहाँ सब कुछ शीघ्र ही छिन्न-भिन्न हो गया। शंकरजीद्वारा सभी दुःखमग्न कर दिये गये। तीन शिखाओंवाले बाणोंसे वृक्ष, वाटिकाएँ और विविध प्रासाद जलने लगे। यह प्रदीप्त अग्नि दसों दिशाओंमें फैल गया। उस समय दसों दिशाएँ मैनशिलसमूहके समान दीखने लगीं। अग्निदेव अनेकों प्रकारकी सैकड़ों शिखाओंसे युक्त प्रज्वलित हो उठे, जिससे जला हुआ वह सम्पूर्ण त्रिपुर पलाशपुष्पके समान लाल रंगका दिखायी पड़ रहा था ॥ 11 – 19 ॥ उस समय धुएँके कारण एक घरसे दूसरे घरमें जाना सम्भव नहीं था। सभी लोग शंकरजीकी क्रोधाग्निसे जलते हुए अत्यन्त दुःखके कारण चीत्कार कर रहे थे। इस प्रकार सभी दिशाओंमें धधकता हुआ त्रिपुरनगर जल | रहा था। राजभवनोंके शिखरोंके अग्रभाग हजारों टुकड़ों में टूटकर गिर रहे थे। विविध मणियोंसे जटित अनेकों विमान और रमणीय घर उद्दीप्त आगसे जल रहे थे। वहाँके निवासी वृक्षोंके समूहोंमें, घरोंके छज्जोंके नीचे तथा सभी देवगृहोंमें जलते हुए इधर-उधर दौड़ रहे थे । आगकी चपेटमें आकर वे सभी विविध स्वरोंमें क्रन्दन कर रहे थे। वहाँ पर्वतशिखरके समान अङ्गारसमूह दिखायी दे रहे थे। पर्वतशिखरके समान विशाल गजराज इधर उधर जल रहे थे। सभी देवाधिदेव शंकरकी यों स्तुति कर रहे थे— 'प्रभो! हमलोगोंकी रक्षा कीजिये।' वे अग्निसे जलते हुए स्नेहके कारण एक-दूसरेका आलिङ्गन कर उसी प्रकार जलते हुए नष्ट हो रहे थे। इस प्रकार वहाँ सैकड़ों-हजारों दानव जल रहे थे ॥ 20-26 ॥

हंसों और बतखोंसे परिपूर्ण एवं कमलोंसे युक्त पुष्करिणी, बगीचे तथा बावलियाँ, जो एक योजन लम्बी चौड़ी और खिले हुए कमलोंसे व्याप्त थीं, अग्निसे जलती हुई दिखायी दे रही थीं। वहाँ रत्नोंसे विभूषित पर्वतशिखरके समान राजभवन अग्निके द्वारा भस्म होकर गिर रहे थे। वे जलशून्य मेघके समान दिखायी दे रहे थे। शंकरजीके क्रोधसे प्रेरित अग्नि श्रेष्ठ स्त्री, बालक, वृद्ध, गौ, पक्षीऔर घोड़ोंमें फैलकर निर्दयतापूर्वक जला रहे थे। हजारों जागे हुए एवं अनेकों सोये हुए व्यक्ति, जो पुत्रका गाढ़ आलिङ्गन किये हुए थे, त्रिपुराग्निसे जल रहे थे। वहाँ प्रचण्ड अग्निके कारण प्रलयकालीन संताप परिव्याप्त था। उस त्रिपुराग्निसे कुछ लोग पत्नीकी गोदमें छिपे हुए ही भस्म हो गये तो कुछ लोग माँ-बापसे चिपके हुए ही जलकर भस्मसात् हो गये। उस प्रज्वलित त्रिपुरमें अप्सराओंके समान सुन्दरी स्त्रियाँ अग्निकी ज्वालाओंसे झुलसकर पृथ्वीपर गिर रही थीं। कोई मोतीकी मालाओंसे | अलंकृत विशाल नेत्रोंवाली षोडशवर्षीया नायिका धूऐँसे व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़ी। कोई इन्द्रनील मणिसे अलंकृत स्वर्णके समान कान्तिवाली स्त्री पतिको गिरा हुआ देखकर उसीके ऊपर गिर पड़ी। कोई सूर्यके समान तेजस्विनी नारी घरमें ही स्थित रहकर सो रही थी, वह अग्निकी ज्वालासे चेतनारहित होकर धराशायी हो गयी। उसी समय अतिशय बलशाली एक दानव हाथमें तलवार लेकर उठ खड़ा हुआ, किंतु अग्निसे जलकर वह भी | पृथ्वीपर गिर पड़ा। मेघके समान श्यामवर्णकी दूसरी स्त्री, जो हार और केयूरसे अलंकृत तथा श्वेतवस्त्र पहने हुए अपने दुधमुँहे बच्चेको सुलाये हुए थी, वह उस बच्चेको जलते हुए देखकर मेघके शब्दके समान रोने लगी। इस प्रकार शंकरजीके कोपसे प्रेरित वह अग्नि त्रिपुरको जला रही थी ll 27–393 ll

कोई चन्द्रके समान कान्तिवाली एवं हीरक और वैदूर्यसे अलंकृत सज्जन नायिका अपने पुत्रको गोदमें लेकर काँपती हुई जलकर पृथ्वीपर गिर पड़ी। कोई कुन्द पुष्प एवं चन्द्रमाके समान कान्तिवाली स्त्री क्रीडा करती हुई अपने घरमें ही सो रही थी, वह घरके जलनेपर अग्निशिखासे पीड़ित हो जाग उठी और सबको जलता हुआ देखकर 'हा! मेरा पुत्र कहाँ चला गया?' ऐसा कहती हुई जलते हुए पुत्रका आलिङ्गन कर पृथ्वीपर गिर पड़ी। उदयकालीन सूर्यके समान कान्तिसे युक्त एवं लक्ष्मीके मुखके समान शोभायमान मुखवाली कोई स्त्री भागती हुई जलकर पृथ्वीपर गिर गयी। | कोई स्वर्णके समान कान्तिवाली नीलरत्नोंसे अलंकृत स्त्रीधुएँसे व्याकुल होकर पृथ्वीपर सो गयी। अन्य स्त्री अपनी सखीका हाथ पकड़कर कह रही हैं- 'सखि! बालिका जल रही है। कोई अनेक दिव्य रत्नोंसे अलङ्कृत नारी अग्निको देखकर मोहित हो गयी, तब वह सिरपर हाथ जोड़कर अग्निसे प्रार्थना करने लगी- 'भगवन् यदि अपकारी पुरुषोंसे पैर है तो घरके पिंजरे में कोयलके समान आबद्ध स्त्रियोंने तुम्हारा क्या अपराध किया है? अरे पापी! तुम तो बड़े निर्दयी और निर्लज्ज हो। स्त्रियोंके प्रति यह तुम्हारा कैसा क्रोध है! अरे कायर! न तो तुममें कुशलता है, न लज्जा है और न सत्यता है।' वह ऐसे आक्षेपयुक्त वाक्योंसे अग्निको उलाहना देने लगी। (फिर दूसरी कहने लगी- ) 'क्या तुमने यह नहीं सुना है कि शत्रुकी स्त्रियाँ भी अवध्य होती हैं? क्या जलाना और नाश करना ये ही तुम्हारे गुण हैं? तुम्हारेमें स्त्रियोंके प्रति दया, भय अथवा उदारता नहीं है। म्लेच्छगण भी स्त्रियोंको जलती हुई देखकर उनपर दया करते हैं। तुम तो म्लेच्छों से भी बढ़कर हृदयशून्य दुर्निवार कष्ट हो। दुराचारिन् ! इन स्त्रियोंको मारनेसे तुम्हें क्या मिलेगा? क्या जलाना और मारना ये ही तुम्हारे गुण हैं? दुष्ट हुताशिन् ! तुम बड़े दयाहीन, निर्लज्ज, अभागा, कठोर और कपटी हो। अरे निर्दय ! तुम क्यों बलपूर्वक स्त्रियोंको जला रहे हो ?' इस प्रकार वे स्त्रियाँ अनेकों प्रकारसे विलाप करती हुई चीत्कार कर रही थीं? अन्य कुछ स्त्रियाँ बालशोकसे मोहित होकर विलाप कर रही थीं। यह निष्ठुर अग्नि क्रुद्ध होकर | पुराने शत्रुके समान हमलोगोंको जला रहा है। पुष्करिणियों और कुओंके भी जल सूख गये। अरे म्लेच्छ हमलोगोंको जलाकर तुम किस गतिको प्राप्त होगे? इस प्रकार उनका प्रलाप सुनकर अग्निदेव सहसा मूर्तिमान् होकर उठ खड़े हुए और इस प्रकार बोले ॥ 40-56 ॥

अग्निदेवने कहा- मैं अपनी इच्छा के अनुसार तुमलोगों का विनाश नहीं कर रहा हूँ, अपितु मैं आदेशका | पालक हूँ। मैं अनुग्रहका कर्ता नहीं हूँ। मैं रुद्रके क्रोधसे आविष्ट होकर इच्छानुसार विचरण कर रहा हूँ। तदनन्तर सिंहासनपर बैठा हुआ महातेजस्वी बाग त्रिपुरको जलता |हुआ देखकर बोला-'मैं देवताओंद्वारा विनष्ट कर दिया | गया। उस स्वल्पबलशाली दुराचारियोंने शंकरसे निवेदनकिया और महात्मा शंकरने भी बिना विचारे ही मुझे जला दिया। उन त्रिलोचनको छोड़कर अन्य कोई भी मेरा विनाश नहीं कर सकता। तब वह सिंहासनसे उठ खड़ा हुआ और त्रिभुवनपति शंकरके लिङ्गको सिरपर धारणकर मित्र, पुत्र, बहुमूल्य रत्नों, स्त्रियों और अन्यान्य अनेक प्रकारके पदार्थोंको छोड़कर नगरद्वारसे बाहर निकला। वह लिङ्गको सिरपर | धारण कर गगनमण्डलमें जा पहुँचा और देवदेवेश त्रिभुवनपति शिवकी स्तुति करते हुए कहने लगा- 'देव! मैंने अपनी पुरीका परित्याग कर दिया है। शंकर! यदि मैं वस्तुतः वध करने योग्य हूँ तो महादेव! आपकी कृपासे मेरा यह लिङ्ग विनष्ट न हो। देव! मैंने परमभक्तिके साथ सदा इसकी पूजा की है, अतः यदि मैं आपके कोपके कारण वध्य हूँ तो यह लिङ्ग विनष्ट न हो। महादेव! आपके कोपसे मेरा यह जल जाना प्रशस्त ही है। महादेव! प्रत्येक जन्ममें मैं आपके... चरणोंमें ही लीन हूँ, अतः देवाधिदेव परमेश्वर! मैं तोटक छन्दद्वारा आपकी स्तुति कर रहा हूँ ॥ 57-66 ॥

आप शिव, शंकर, शर्व और हरको नमस्कार है। भव, भीम, महेश्वर और सर्वभूतमयको प्रणाम है। आप कामदेवके शरीरके नाशक, त्रिपुरान्तक, अन्धक, त्रिशूलधर, आनन्दप्रिय, कान्त, विरक्त और सुर-असुर-सिद्धगणोंसे नमस्कृत हैं, आपको नमस्कार है। मैं अश्व, वानर, सिंह और गजेन्द्रके से मुखोंवाले, अतिशय छोटे, विस्तृत विशालमुखोंसे युक्त और सैकड़ों भुजाओंसे सम्पन्न बहुत से अजेय असुरोंद्वारा प्राप्त करनेके लिये अशक्यरूपसे विख्यात हूँ। शिवजीकी भक्तिमें लीन रहनेवाला वही मैं भवके चरणों में प्रणिपात कर रहा हूँ। चञ्चल चन्द्रकलासे सुशोभित देव! आपको नमस्कार है। ये पुत्र, स्त्री, अश्वादि वैभव मेरे नहीं हैं, मेरे लिये तो आपका चिन्तन ही एकमात्र शरण है। मैं सैकड़ों शरीर (जन्म) धारण कर पीड़ित हो चुका हूँ। आगे महानरकमें पड़नेकी सम्भावना है। न जन्मसे छुटकारा मिलेगा, न पापबुद्धि ही निवृत्त होगी, शुद्ध कर्ममें लगा हुआ भी मन उसे छोड़ देता है, काँपता है, भ्रमित होता है और भयभीत होता है। मेरे ही कुकर्म अच्छे कर्मोंसे मुझे हटाते हैं।जो मनुष्य संयत होकर पवित्र मनसे इस दिव्य तोटकछन्दमें रचित स्तोत्रको पढ़ता है, उसके लिये भी रुद्र बाणके समान वरदायक होते हैं। उस समय स्वयं महेश्वरदेव इस महादिव्य स्तोत्रको सुनकर उसपर प्रसन्न हो गये और इस प्रकार बोले ॥67-73 ॥

भगवान् महेश्वरने कहा— वत्स! तुम्हें डरना नहीं चाहिये। दानव! तुम पुत्र, मित्र, बन्धु, पत्नी और भृत्यजनोंके साथ सुवर्णनिर्मित नगरमें निवास करो। बाण! आजसे तुम देवताओंद्वारा अवध्य हो गये। अब तुम लोकमें सर्वथा निर्भय, अव्यय और अक्षय होकर विचरण करो। |पाण्डुनन्दन ! इस प्रकार देवाधिदेवने बाणको पुनः वर प्रदान किया। तदनन्तर रुद्रने अग्निको जलानेसे मना कर दिया। इस प्रकार महात्मा शंकरने बाणासुरके तृतीय पुरकी रक्षा की। वह पुर रुद्रके तेजके प्रभावसे गगनमण्डलमें घूमने लगा। इस प्रकार महात्मा शंकरने त्रिपुरको जलाया। वह ज्वालामालासे प्रदील होकर पृथ्वीतलपर गिर पड़ा। उनमेंसे एक पुर त्रिपुरान्तकके श्रीशैलपर गिरा और द्वितीय उस अमरकण्टक पर्वतपर गिरा। राजेन्द्र ! उनके जल जानेपर उसपर करोड़ों रुद्र प्रतिष्ठित हुए। वह जलता हुआ गिरा था, इस कारण ज्वालेश्वर नामसे प्रसिद्ध हुआ । उसकी दिव्य ज्वालाएँ ऊपरको उठती हुई स्वर्गलोकतक जा पहुँचीं। उस समय देवों और असुरोंके द्वारा किया गया भयंकर हाहाकार व्याप्त हो गया। तब रुद्रने अमरकण्टक पर्वतपर उत्तम माहेश्वरपुरमें शरको स्तम्भित कर दिया। पाण्डुनन्दन। (इस प्रकार अमरकण्टकपर्वतपर जो व्यक्ति रुद्रकोटिकी अर्चना करता है) वह तीस करोड़ एक हजार वर्षपर्यन्त चौदहों भुवनोंका उपभोग कर अन्तमें पृथ्वीपर जन्म लेकर धार्मिक राजा होता है। वह एकच्छत्र सम्राट् होकर पृथ्वीका उपभोग करता है— इसमें संदेह नहीं है ।। 74-84 ।।

महाराज! यह अमरकण्टक पर्वत ऐसा पुण्यजनक है। जो व्यक्ति चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके समय अमरकण्टक पर्वतपर जाता है, वह अश्वमेध यज्ञसे दसगुना फल प्राप्त करता है और वहीं महेश्वरका दर्शन करके स्वर्गलोकको प्राप्त करता है—ऐसा मनीषियोंने कहा है। सूर्यग्रहणके अवसरपर अमरकण्टकपर जानेसे ब्रह्महत्याएँ निवृत्त हो | जाती हैं। इस प्रकार अमरकण्टक पर्वतपर अशेष पुण्यप्राप्त होता है। जो मनसे भी उस अमरकण्टकपर्वतका स्मरण करता है, उसे निःसंदेह सौ चान्द्रायणव्रतसे भी | अधिक फल मिलता है। अमरकण्टक पर्वत तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। यह पुण्यमय श्रेष्ठ पर्वत सिद्धों और गन्धर्वोंसे सेवित, विविध वृक्षों और लताओंसे व्याप्त तथा अनेक प्रकारके पुष्पोंसे सुशोभित है। यह महान् पर्वत हजारों मृगों और व्याघ्रोंसे सेवित है। जहाँ देवी पार्वतीके साथ महादेव, ब्रह्मा, विष्णु तथा विद्याधरोंके साथ इन्द्र सदा उपस्थित रहते हैं, वह अमरकण्टक पर्वत ऋषियों, किन्नरों और यक्षोंके द्वारा सदा सेवित रहता है। श्रेष्ठ सर्पोंके साथ वासुकि वहाँ क्रीड़ा करते रहते हैं। जो मनुष्य अमरकण्टक पर्वतकी प्रदक्षिणा करता है, वह पौण्डरीक यज्ञका फल प्राप्त करता है। वहाँ सिद्धोंद्वारा सेवित ज्वालेश्वर नामक तीर्थ है, उसमें स्नानकर मानव स्वर्गलोकको प्राप्त करते हैं और जो वहाँ शरीरका त्याग करते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता । महाराज ! चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके अवसरपर जो व्यक्ति ज्वालेश्वरमें प्राणोंका परित्याग करता है, उसे जो फल प्राप्त होता है, उसे सुनिये। वह व्यक्ति सभी कर्मोंसे विनिर्मुक्त तथा ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न हो प्रलयकालपर्यन्त रुद्रलोकको प्राप्त करता है। सुव्रत ! अमरकण्टकपर्वतके दोनों तटोंपर करोड़ों ऋषिगण तपस्यामें रत रहते हैं। यह अमरकण्टकपर्वत चारों ओरसे एक योजनमें विस्तृत है। अकाम हो या सकाम, जो मनुष्य नर्मदाके शुभदायक जलमें स्नान करता है, वह सभी पापोंसे छुटकारा पा -लेता है और रुद्रलोकको प्राप्त करता है । ll 85-99 ।।

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मत्स्य पुराण को मत्स्यपुराण, Matsya Purana और Matsyapurana आदि नामों से भी जाना जाता है।

मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका