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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 144 - Adhyaya 144

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द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! इसके बाद अब मैं | द्वापरयुगको विधिका वर्णन कर रहा हूँ त्रेतायुगके क्षीण हो जानेपर द्वापरयुगकी प्रवृत्ति होती है। द्वापरयुगके प्रारम्भ कालमें प्रजाओंको त्रेतायुगकी भाँति ही सिद्धि प्राप्त होती है, किंतु जब द्वापरयुगका प्रभाव पूर्णरूपसे व्याप्त हो जाता है, तब वह सिद्धि नष्ट हो जाती है। उस समय प्रजाओंमें लोभ, धैर्यहीनता, वाणिज्य, युद्ध, सिद्धान्तोंकी अनिश्चितता, वर्णोंका विनाश, कर्मोंका उलट-फेर, याच्या (भिक्षावृत्ति), संहार, परायापन, दण्ड, अभिमान, दम्भ, असहिष्णुता, बल तथा रजोगुण एवं तमोगुण बढ़ जाते हैं। सर्वप्रथम कृतयुगमें तो अधर्मका लेशमात्र भी नहीं रहता, किंतु उसकी कुछ-कुछ प्रवृत्ति होती है। पुनः झपरयुगमें वह विशेषरूपसे व्यात होकर कलियुगों युग समाप्तिके समय विनष्ट हो जाता है। द्वापरयुगमें चारों वर्णों तथा आश्रमोंके धर्म परस्पर घुल-मिल जाते हैं। इस युगमें श्रुतियों और स्मृतियोंमें भेद उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार श्रुति और स्मृतिको मान्यतामें भेद पड़नेके कारण किसी विषयका ठीक निश्चय नहीं हो पाता। अनिश्चितताके कारण धर्मका तत्त्व लुप्त हो जाता है। धर्मतत्त्वका ज्ञान न होनेपर बुद्धिमें भेद उत्पन्न हो जाता है। बुद्धिमें भेद पड़नेके कारण उनके विचार भी भ्रान्त हो जाते हैं और फिर धर्म क्या है और अधर्म क्या है, यह निश्चय नहीं हो पाता ॥ 1-9 ॥

पहले त्रेताके प्रारम्भमें आयुके संक्षिप्त हो जानेके कारण एक ही वेद ऋक्, यजुः, अथर्वण, साम- चार नामोंसे विभक्त कर दिया जाता है। फिर द्वापरमें विभिन्नविचारवाले ऋषिपुत्रोंद्वारा उन वेदोंका पुनः (शाखा प्रशाखा आदिमें) विभाजन कर दिया जाता है। वे महर्षिगण मन्त्र ब्राह्मणों, स्वर और क्रमके विपर्ययसे ऋक्, यजुः और सामवेदकी संहिताओंका अलग-अलग संघटन करते हैं। भिन्न विचारवाले श्रुतर्षियोंने ब्राह्मणभाग, कल्पसूत्र तथा भाष्यविद्या आदिको भी कहीं-कहीं सामान्य रूपसे और कहीं-कहीं विपरीतक्रमसे परिवर्तित कर दिया है। कुछ लोगोंने तो उनका समर्थन और कुछ लोगोंने अवरोध किया है। इसके बाद प्रत्येक द्वापरयुगमें भिन्नार्थदर्शी ऋषिवृन्द अपने-अपने विचारानुसार वैदिक प्रथामै अर्थभेद उत्पन्न कर देते हैं। पूर्वकालमें यजुर्वेद एक ही था, परंतु ऋषियोंने उसे बादमें सामान्य और विशेष अर्थसे कृष्ण और यजुः- रूपमें दो भागों में विभक्त कर दिया, जिससे शास्त्रमें भेद हो गया। इस प्रकार इन लोगोंने यजुर्वेदको अनेकों उपाख्यानों तथा प्रस्थानों, खिलांशों द्वारा विस्तृत कर दिया है। इसी प्रकार अथर्ववेद और समवेद मन्त्रोंका भी ह्रास एवं विकल्पोंद्वारा अर्थ परिवर्तन कर दिया है। इस तरह प्रत्येक द्वापरयुगमै (पूर्वपरम्परासे चले आते हुए) वेदार्थको भित्रदर्शी ऋषिवृन्द परिवर्तित करते हैं। फिर इपरके बीत जानेपर कलियुगमें वे वेदार्थ शनैः-शनैः नष्ट हो जाते हैं। वेदार्थका विपर्यय हो जानेके कारण द्वापरके अन्तमें ही यथार्थ दृष्टिका लोप, असामयिक मृत्यु और व्याधियोंके उपद्रव प्रकट हो जाते हैं। तब मन-वचन-कर्मसे उत्पन्न हुए दुःखोंके कारण लोगोंके मनमें खेद उत्पन्न होता है। खेदाधिक्यके कारण दुःखसे मुक्ति पानेके लिये उनके मनमें विचार जाग्रत् होता है। फिर विचार उत्पन्न होनेपर वैराग्य, वैराग्यसे दोष-दर्शन और दोषोंके प्रत्यक्ष होनेपर ज्ञानकी उत्पत्ति होती है ॥ 10-20 ॥

इस प्रकार पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरके द्वापरयुगमें उन मेधावी ऋषियोंके वंशमें इस भूतलपर शास्त्रोंके विरोधी लोग उत्पन्न होते हैं और उस युगमें आयुर्वेदमें विकल्प, ज्योतिषशास्त्र के अङ्ग विकल्प, अर्थशास्त्रमें विकल्प हेतुशास्त्रमें विकल्प, कल्पसूत्रोंकी प्रक्रियामें विकल्प भाष्यविद्यामें विकल्प, स्मृतिशास्त्रों में नाना प्रकारके भेद, पृथक् पृथक् मार्ग तथा मनुष्योंकी बुद्धियोंमें भेद प्रचलित हो जाते हैं। तब मन-वचन-कर्मसे लगे रहनेपर भी बड़ी कठिनाईसे लोगोंकी जीविका सिद्ध हो पाती है।इस प्रकार द्वापरयुगमें सभी प्राणियोंका जीवन भी कष्टसे ही चल पाता है। उस समय जनतामें लोभ, धैर्यहीनता, वाणिज्य-व्यवसाय, युद्ध, तत्त्वोंकी अनिश्चितता, वेदों एवं शास्त्रोंकी मनः कल्पित रचना, धर्मसंकरता, वर्णाश्रम धर्मका विनाश तथा काम और द्वेषकी भावना आदि दुर्गुणोंका प्राबल्य हो जाता है। उस समय लोगोंकी दो हजार वर्षोंकी पूर्णायु होती है। द्वापरकी समाप्तिके समय उसके चतुर्थांश में उसकी संध्याका काल आता है। उस समय लोग धर्मके गुणोंसे हीन हो जाते हैं। उसी प्रकार संध्याके चतुर्थ चरण में संध्यांशका समय उपस्थित होता है । ll 21-28 ॥

अब द्वापरयुगके बाद आनेवाले कलियुगका वृत्तान्त सुनिये। द्वापरको समाप्तिके समय जब अंशमात्र शेष रह जाता है, तब कलियुगकी प्रवृत्ति होती है। जीव-हिंसा, चोरी, असत्यभाषण, माया (छल-कपट-दम्भ) और तपस्वियोंकी हत्या—ये कलियुगके स्वभाव (स्वाभाविक गुण) हैं। वह प्रजाओंको भलीभाँति चरितार्थ कर देता है। यही उसका अविकल धर्म है। यथार्थ धर्मका तो विनाश हो जाता है। उस समय मन-वचन-कर्मसे प्रयत्न करनेपर भी यह संदेह बना रहता है कि जीविकाको सिद्धि होगी या नहीं। कलियुगमें विसूचिका, प्लेग आदि महामारक रोग होते हैं। इस घोर कलियुगमें भुखमरी और अकालका सदा भय बना रहता है। देशोंका उलट फेर तो होता ही रहता है। किसी प्रमाणमें स्थिरता नहीं रहती। कोई गर्भमें ही मर जाता है तो कोई नौजवान होकर, कोई मध्य जवानीमें तो कोई बुढ़ापामें। इस प्रकार लोग कलियुगमें अकालमें ही कालके शिकार बन जाते हैं। उस समय लोगोंका तेज और बल घट जाता है। उनमें पाप, क्रोध और धर्महीनता बढ़ जाती है। वे असत्यभाषी और लोभी हो जाते हैं। ब्राह्मणोंके अनिष्ट चिन्तन, अल्पाध्ययन, दुराचार और शास्त्र-ज्ञान हीनता-रूप कर्मदोषोंसे प्रजाओंको सदा भय बना रहता है कलियुग जीवोंमें हिंसा, अभिमान, ईर्ष्या, क्रोष असूण, असहिष्णुता, अधीरता, लोभ, मोह और संधोभ आदि दुर्गुण सर्वथा अधिक मात्रामें बढ़ जाते हैं। कलियुगके आनेपर ब्राह्मण न तो वेदोंका अध्ययन करते हैं और न यज्ञानुष्ठान ही करते हैं। क्षत्रिय भी वैश्योंके साथ (कर्मभ्रष्ट होकर) विनष्ट हो जाते हैं। कलियुगमें शूद्र मन्त्रोंके ज्ञाता हो जाते हैं और उनका शयन, आसन | एवं भोजनके समय ब्राह्मणोंके साथ सम्पर्क होता है।शूद्र ही अधिकतर राजा होते हैं। पाखण्डका प्रचार बढ़ जाता है। शूद्रलोग गेरुआ वस्त्र धारण कर हाथमें नारियलका कपाल लेकर काछ खोले हुए (संन्यासीके वेषमें) घूमते रहते हैं ।। 29-40 ॥ कुछ लोग देवताओंकी पूजा करते हैं तो कुछ लोग धर्मको दूषित करते हैं। कुछ लोगोंके आचार विचार दिव्य होते हैं तो कुछ लोग जीविकोपार्जनके लिये साधुका वेष बनाये रहते हैं। कलियुगमें अधिकतर इसी प्रकारके लोग होते हैं। उस समय शूद्रलोग धर्म और अर्थके ज्ञाता बनकर वेदोंका अध्ययन करते हैं। शूद्रयोनिमें उत्पन्न नृपतिगण अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं। उस समय लोग स्त्री, बालक और गौओंकी हत्या कर, परस्पर एक-दूसरेको मारकर तथा अपहरण कर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। कलियुगमें कष्टका बाहुल्य हो जाता है। प्राणियोंकी आयु थोड़ी हो जाती है। देशोंमें उथल-पुथल होता रहता है। व्याधिका प्रकोप बढ़ जाता है। अधर्मकी ओर लोगोंकी विशेष रुचि हो जाती है। सभीके आचार-विचार तामसिक हो जाते हैं। प्रजाओंमें भ्रूणहत्याको प्रवृत्ति हो जाती है। इसी कारण कलियुगमें आयु, बल और रूपकी क्षीणता हो जाती है। दुःखोंसे संतप्त हुए लोगोंकी परमायु सौ वर्षकी होती है। कलियुगमें सम्पूर्ण वेद विद्यमान रहते हुए भी नहींके बराबर हो जाते हैं तथा धर्मके एकमात्र कारण यज्ञोंका विनाश हो जाता है। यह तो कलियुगकी दशा बतलायी गयी, अब उसकी संध्या और संध्यांशका वर्णन सुनिये। प्रत्येक युगमें तीन-तीन चरण व्यतीत हो जानेके बाद सिद्धियाँ घट जाती हैं, अर्थात् धर्मका ह्रास हो जाता है। उनकी संध्याओंमें युगका स्वभाव चतुर्थांश मात्र रह जाता है। उसी प्रकार संध्यांशोंमें संध्याका स्वभाव भी चतुर्थांश ही शेष रहता है ॥ 41-49 ॥

इस प्रकार स्वायम्भुव मन्वन्तरमें कलियुगके अन्तिम समयमें प्राप्त हुए संध्यांशकालमें उन अधर्मियोंका शासन करनेके लिये भृगुवंशमें चन्द्रगोत्रीय प्रमति * नामक राजा उत्पन्न होता है। वह अस्त्रधारी नरेश हाथी, घोड़े और रथोंसे भरी हुई सेनाको साथ लेकर तीस वर्षोंतक पृथ्वीपरभ्रमण करता है। उस समय उसके साथ आयुधधारी सैकड़ों हजारों ब्राह्मण भी रहते हैं। वह सामर्थ्यशाली वीर सभी म्लेच्छोंका विनाश कर देता है तथा शूद्रयोनिमें उत्पन्न हुए राजाओंका सर्वथा संहार करके सम्पूर्ण पाखण्डोंको भी निर्मूल कर देता है। वह सर्वत्र घूम-घूमकर सभी धर्महीनोंका वध कर देता है। शूद्रोंका विनाश करनेवाला वह महाबली राजा उत्तर दिशाके निवासी, मध्यदेशीय, पर्वतीय, पौरस्त्य, पाश्चात्य, विन्ध्याचलके ऊपर तथा तलहटियोंमें स्थित, दाक्षिणात्य, सिंहलोंसहित द्रविड, गान्धार, पारद, पहव, यवन, शक, तुषार, बर्बर क्षेत, हलीक, दरद, खस, लम्पक, आन्ध्रक तथा चोर जातियोंका संहारकर अपना शासनचक्र प्रवृत्त करता है। वह समस्त अधार्मिक प्राणियोंको खदेड़कर इस पृथ्वीपर विचरण करता हुआ सुशोभित होता है ॥ 50-58 3 ॥

पराक्रमी प्रमति पूर्व जन्ममें विष्णु था और इस जन्ममें महाराज मनुके वंशमें भूतलपर उत्पन्न हुआ था। पहले कलियुगमें वह वीर चन्द्रमाका पुत्र था। बत्तीस वर्षकी अवस्था होनेपर उसने बीस वर्षोंतक भूतलपर सर्वत्र घूम-घूमकर सभी धर्महीन मानवों एवं अन्य प्राणियोंका संहार कर डाला। उसने आकस्मिक कालके वशीभूत हो बिना किसी निमित्तके क्रूर कर्मद्वारा उस पृथ्वीको बीजमात्र अवशेष कर दिया। तत्पश्चात् प्रमतिके साथ जो विशाल सेना थी, वह सहसा गङ्गा और यमुनाके मध्यभागमें स्थित हो गयी और समाधिद्वारा सिद्धिको प्राप्त हो गयी। इस प्रकार युगके अन्तमें संध्यांशकालके प्राप्त होनेपर सभी अधार्मिक राजाओंका विनाश होता है उन क्रूरकर्मियोंके नष्ट हो जानेपर भूतलपर कहीं-कहीं थोड़ी-बहुत प्रजाएँ अवशिष्ट रह जाती हैं। वे लोग अपनी वस्तु दूसरेको देना नहीं चाहते। उनमें लोभको मात्रा अधिक होती है। वे लोग यूथ-के यूथ एकत्र होकर परस्पर एक-दूसरेकी वस्तु लूट खसोट लेते हैं तथा उन्हें मार भी डालते हैं। उस विनाशकारी संध्यांशके उपस्थित होनेपर अराजकता फैल जाती है। उस समय सारी प्रजामें परस्पर भय बना रहता है।लोग व्याकुल होकर देवताओं और गृहोंको छोड़कर उनसे मुख मोड़ लेते हैं। सभीको अपने-अपने प्राणोंकी रक्षाकी चिन्ता लगी रहती है। क्रूरताका बोलवाला होनेके कारण लोग अत्यन्त दुःखी रहते हैं। श्रौत एवं स्मार्त धर्म नष्ट हो जाता है। सभी लोग काम और क्रोधके वशीभूत हो जाते हैं। वे मर्यादा, आनन्द, स्नेह और लज्जासे रहित हो जाते हैं। धर्मके नष्ट हो जानेपर वे भी विनष्ट हो जाते हैं। उनका कद छोटा हो जाता है और उनकी आयु पचीस वर्षकी हो जाती है। विषादसे व्याकुल हुए लोग अपनी पत्नी और पुत्रोंको भी छोड़ देते हैं। वे अकालसे पीड़ित होनेके कारण जीविकाके साधनोंका परित्याग कर कष्ट झेलते हैं तथा अपने जनपदोंको छोड़कर निकटवर्ती देशोंकी शरण लेते हैं । ll 59-71 ॥

कुछ लोग भागकर नदियों, समुद्र तटवर्ती भागों तथा पर्वतोंका आश्रय ग्रहण करते हैं। वल्कल और काला मृगचर्म ही उनका परिधान होता है। वे क्रियाहीन और परिग्रहरहित हो जाते हैं तथा वर्णाश्रमधर्मसे भ्रष्ट होकर घोर संकर-धर्ममें आस्था करने लगते हैं। उस समय स्वल्प मात्रामें बची हुई प्रजा इस प्रकार कष्ट झेलती है। क्षुधासे पीड़ित जीव-जन्तु दुःखके कारण अपने जीवनसे ऊब जाते हैं, किंतु चक्रकी तरह घूमते हुए पुनः उन्हीं देशोंका आश्रय ग्रहण करते हैं। तदनन्तर वे सारी प्रजाएँ मांसाहारी हो जाती हैं। उनमें भक्ष्याभक्ष्यका विचार लुप्त हो जाता है। वे मृगों, सूकरों, वृषभों तथा अन्यान्य सभी वनचारी जीवोंको खाने लगती हैं। जो प्रजाएँ नदियों और समुद्रोंके तटपर निवास करती हैं, वे भी भोजनके लिये सर्वत्र मछलियोंको पकड़ती हैं। इस प्रकार अभक्ष्य भोजनके दोषके कारण सारी प्रजा एक वर्णकी हो जाती हैं, अर्थात् वर्णधर्म नष्ट हो जाता है जैसे पहले कृतयुगमें एक हो (हंसनामका) वर्ण था उसी तरह कलियुगके अन्तमें सारी प्रजाएँ वर्णकी हो जाती हैं। इस प्रकार उन प्रजाओंके पूरे एक सौ दिव्य वर्ष तथा मानुष गणनाके अनुसार छत्तीस हजार वर्ष व्यतीत होते हैं। इतने लम्बे समयमें क्षुधासे पीड़ित वे सभी | लोग सर्वत्र पशुओं, पक्षियों और मछलियोंको मारकरखा डालते हैं। इस प्रकार जब संध्यांशके प्रवृत्त होनेपर सारे मछली, पक्षी और पशु मारकर निःशेष कर दिये जाते हैं, तब पुनः लोग कन्दमूल खोदकर खाने लगते हैं। उस समय वे सभी गृहरहित होकर फल मूलपर ही जीवन निर्वाह करते हैं। वल्कल ही उनका वस्त्र होता है। वे सर्वत्र भूमिपर ही शयन करते हैं उनके परिग्रह | (स्त्री-परिवार आदि), अर्थशुद्धि और शौचाचार आदि सब नष्ट हो जाते हैं ।। 72-83 ॥

इस प्रकार उस समय थोड़ी बची हुई प्रजाएँ नष्ट हो जाती हैं। उनमें भी जो थोड़ी शेष रह जाती हैं, उनकी आहार-शुद्धिके कारण वृद्धि होती है। इस प्रकार कलियुगका संध्यांश एक सौ दिव्य वर्षोंका होता है। उन सौ वर्षों बीत जानेपर जो अल्पजीवी संतानोत्पत्ति होती है और इसके पूर्व जो प्रजाएँ उत्पन्न हुई थीं, वे सभी मर जाती हैं। उन संतानोंके उत्पन्न होनेपर कृतयुगका प्रारम्भ होता है। जैसे (मृत्युके पश्चात् प्राप्त हुए) प्राणियोंके शरीर स्वर्ग और नरकमें उपभोगके योग्य होते हैं, उसी तरह कृतयुग आदि युगोंमें भी होता है। उसी प्रकार वह नूतन संतान कृतयुगकी वृद्धि और कलियुगके विनाशका कारण होता है। आत्माकी साम्यावस्थाके विचारसे विरक्ति उत्पन्न होती है, उससे आत्मज्ञान होता है और ज्ञानसे धर्म-बुद्धि होती है। इसी कारण कलियुग के अन्तमें बये हुए लोगोंमें भावी प्रयोजनके प्रभावसे पुनः पूर्ववत् प्रजाएँ उत्पन्न होती हैं। तदनन्तर कृतयुगका आरम्भ होता है। उस समय मन्वन्तरोंमें जो भूत एवं भावी कर्म होते रहे हैं, वे सभी आवृत्त होने लगते हैं। इस प्रकार मैंने संक्षेपसे युगके स्वभावका वर्णन कर दिया ।। 84-91 ।।

अब मैं पुनः कृतयुगके प्रवृत होनेपर ब्राको नमस्कार करके उसका विस्तारपूर्वक आनुपूर्वी वर्णन कर रहा हूँ। कलियुगके अन्तमें बचे हुए लोगोंमें कृतयुगकी तरह ही संतानोत्पत्ति होती है। उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियोंके बीजकी रक्षाके लिये जो सिद्धगण अदृष्टरूपसे विचरण करते हुए वर्तमान रहते हैं, वे सभी तथा सप्तर्षियोंके साथ जो अन्य लोग स्थित रहते हैं, वे सभी मिलकर कृतयुगमें क्रियाशील संततियोंके प्रति व्यवस्था विधान करते हैं और सर्षिगण उन्हें एवं | स्मार्त विधिके अनुसार वर्ण एवं आश्रमके आचारसे सम्पन्नधर्मका उपदेश देते हैं। इस प्रकार सप्तर्षियोंद्वारा प्रदर्शित धर्ममार्ग पर चलती हुई सारी प्रजा श्रत एवं स्मार्त विधिका पालन करती है। वे सप्तर्षि धर्मकी व्यवस्था करनेके लिये कृतयुगमें स्थित रहते हैं। वे ही ऋषिगण मन्वन्तरोंके कार्यकालतक स्थित रहते हैं। जैसे वनोंमें दावाग्निसे जली हुई पासोंकी जड़में प्रथम वृष्टि होनेपर पुनः अङ्कुर उत्पन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार मन्वन्तरकी समाप्तिपर्यन्त एकसे दूसरे युगमें अविच्छिन्नरूपसे प्रजाओंगें परस्पर संतानकी परम्परा चलती रहती है सुख, आयु, बल, रूप, धर्म, अर्थ, काम- ये सब क्रमशः आनेवाले युगोंमें तीन चरणसे हीन हो जाते हैं। द्विजवरो! इस प्रकार मैंने आप लोगोंसे युगकी प्रतिसंधिका वर्णन किया । ll 92- 100 ॥

यही नियम सभी चारों युगोंके लिये हैं। ये चारों युग जब क्रमशः इकहत्तर बार बीत जाते हैं, तब उसे एक मन्वन्तरका समय कहा जाता है। एक मन्वन्तरके युगोंमें जैसा कार्यक्रम होता है, वैसा ही अन्य मन्वन्तरके युगोंमें भी क्रमशः होता रहता है। प्रत्येक सर्गमें जैसे भेद उत्पन्न होते हैं, वैसे ही चौदहों मन्वन्तरोंमें समझना चाहिये प्रत्येक युगमें समयानुसार असुर, यातुधान, पिशाच, यक्ष और राक्षस स्वभाववाली प्रजाएँ उत्पन्न होती हैं। अब उनके विषयमें सुनिये कल्पानुसार युगोंके साथ-साथ उन्हींके अनुरूप लक्षणोंवाली प्रजाएँ उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार क्रमशः युगका यह लक्षण बतलाया गया। मन्वन्तरोंका यह परिवर्तन युगोंके स्वभावानुसार चिरकालसे चला आ रहा है। इसलिये यह जीवलोक उत्पत्ति और विनाशके चक्करमें फँसा हुआ | क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रहता। इस प्रकार आपलोगोंको ये युगस्वभाव क्रमशः बतलाये जा चुके अब इस कल्पमें जितने मन्वन्तर हैं, उनका वर्णन करूँगा ॥ 101-107॥

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मत्स्य पुराण को मत्स्यपुराण, Matsya Purana और Matsyapurana आदि नामों से भी जाना जाता है।

मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका