View All Puran & Books

मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 128 - Adhyaya 128

Previous Page 128 of 291 Next

देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन

ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! आपने जो यह सारा विषय पूर्णरूपसे वर्णन किया है, उसे तो हमलोगोंने सुना, परंतु देव-गृह कैसे होते हैं? (यह जाननेकी विशेष उत्कण्ठा हो रही है।) अतः आप पुनः (पूर्वकथित) ज्योतिश्चक्रका कुछ और विस्तारसे वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥

सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! अब मैं जिस प्रकार देव-गृह एवं सूर्य, चन्द्रमा और अग्रिके गृह होते हैं तथा जैसी सूर्य और चन्द्रमाकी गति होती है, वह सब बतला रहा हूँ। (ब्रह्माकी रात्रि व्यतीत होनेपर प्रातःकाल अव्यक्तयोनि ब्रह्माने देखा कि जगत्की कोई वस्तु दीख नहीं रही है। सारा जगत् रात्रिके अन्धकारसे आच्छत्र है (कहीं प्रकाशका चिह्नमात्र भी अवशेष नहीं है।) ब्रह्माद्वारा अधिष्ठित इस जगत्में केवल चार पदार्थ अवशिष्ट थे, तब लोकोंके तत्त्वार्थको सिद्ध करनेवाले स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा खद्योत (जुगनू ) - के रूपमें विचरण करते हुए प्रकाशको आविर्भूत करनेके लिये विचार करने लगे। (उस समय उन्हें स्मरण हुआ कि) कल्पकालके आदिमें अग्रि तत्त्व जल और | पृथ्वीमें सम्मिलित हो गया था। यह जानकर उन्होंने तीनोंको एकत्र कर प्रकाश करनेके लिये तीन भागों में विभक्त कर | दिया। इस प्रकार इस लोकमें जो पाचक नामक अनि है, उसेपार्थिव अग्रि कहते हैं। जो अनि सूर्यमें स्थित होकर ताप पैदा करती है, वह शुचि अग्रि कहलाती है। उदरमें स्थित अग्नि विद्युत्से उत्पन्न हुई मानी जाती है। उसे सौम्य कहते हैं। इस वैद्युतानिका इन्धन जल है। कोई अग्नि अपने तेजसे ही बढ़ती है और कोई बिना इन्धनके भी उद्दीत होती है। काहरूपी इन्धनसे जलनेवाली अग्रिका नाम निर्मध्य' है। यह अग्रि जलके संयोगसे शान्त हो जाती है। पचमान अग्रि ज्यालाओंसे संयुक्त रहता है और प्रभाहीन रहना सौम्य अग्निका लक्षण है। जो श्वेत मण्डलमें स्थित रहकर ऊष्मारहित हो प्रकाशित नहीं होती, सूर्यकी वह कान्ति सूर्यके अस्त हो जानेपर अपने चतुर्थाश अग्रिमें प्रवेश कर जाती है, इसी कारण रातमें अग्रिका प्रकाश अधिक होता है ।। 2-10 ॥

पुनः सूर्योदय होनेपर अग्रिकी ऊष्मा अपने तेजके चतुर्थांशसे सूर्यमें प्रविष्ट हो जाती है, इस कारण दिनमें सूर्य पूर्णरूपसे तपते हैं। प्रकाशता, उष्णता, सूर्य और अग्निका तेज- इन सबके परस्पर अनुप्रवेश करनेके कारण दिन रातकी पूर्ति होती है। पृथ्वीके उत्तरवर्ती तथा दक्षिणवर्ती अर्धभागमें सूर्यके उदय होनेपर रात्रि पुनः जलमें प्रवेश कर जाती है। इस प्रकार दिनके समय रात्रिके जलमें प्रवेश करनेके कारण दिनमें जल लाल रंगका दीख पड़ता है। पुनः सूर्यके अस्त हो जानेपर दिन जलमें प्रवेश करता है। इसी कारण जल रातमें उज्ज्वल और चमकीला दिखायी पड़ता है। इसी क्रमसे भूमिके दक्षिणोत्तर अर्धभागमें सूर्यके उदय एवं अस्तके समय दिन और रात क्रमशः जलमें प्रवेश करते हैं। जो ये सूर्य तप रहे हैं, वे अपनी किरणोंद्वारा जलको सोखते हैं। सूर्यमें स्थित अग्रिका रंग लाल रंगके घड़के समान है। उसमें हजारों किरणें हैं। वह अपनी सहस्रों नाडियोंसे नदी, समुद्र, हृद और कुएँसे जलको ग्रहण करता है। सूर्यकी उन्हीं हजारों किरणोंसे शीत, वर्षां और गरमीका प्रादुर्भाव होता है ॥ 11-18 ॥

उन सहस्रों किरणोंमें विचित्र आकृतिवाली चार सौ नाडियाँ जलकी वर्षा करनेवाली हैं। उनमेंचन्दना, मेध्या, केलना, चेतना, अमृता और जीवनाये सभी किरणें विशेषरूपसे वृष्टि करनेवाली हैं। सूर्यकी तीन सौ किरणें हिमसे उत्पन्न हुई कही जाती हैं। उन्हें चन्द्रमा, तारा और सभी ग्रह पीते रहते हैं। ये मध्य नाडियाँ कहलाती है। इनके अतिरिक्त अन्य ह्रादिनी आदि नाडियाँ हिमकी सृष्टि करनेवाली हैं। शुक्ला, ककुभ, गौ और विश्वभृत् नामकी जो नाडियाँ हैं, वे सभी शुक्ला नामसे कही जाती हैं। इनकी भी संख्या तीन सौ है। ये धूपको उत्पन्न करनेवाली हैं। वे सभी मनुष्यों, देवताओं और पितरोंका भरण-पोषण करती हैं। ये किरणें ओषधियों (एवं अन्नों) द्वारा सभी मनुष्योंको, स्वधाद्वारा पितरोंको और अमृतके माध्यमसे देवताओंको सदा तृप्त करती रहती हैं। सूर्य वसन्त और ग्रीष्म ऋतुमें शनैः-शनैः अपनी तीन सौ किरणोंसे ताप उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार वर्षा और शरद् ऋतुमें चार सौ किरणोंके माध्यमसे वर्षा करते हैं। पुनः हेमन्त और शिशिर ऋतुमें तीन सौ किरणोंद्वारा बर्फ गिराते हैं। यही सूर्य ओषधियोंमें बल, स्वधामें सुधा और अमृतमें अमरत्वका आधान करते हैं अर्थात् तीनों पदार्थों में तीन तरहके गुण उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार सूर्यकी ये हजारों किरणें लोगोंका प्रयोजन सिद्ध करनेवाली हैं। ऋतुओंके क्रमानुसार जलकी शीतलता और उष्णतामें परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार उद्दीप्त एवं श्वेत वर्णवाला वह लोकसंज्ञक मण्डल नक्षत्र, ग्रह और सोमकी प्रतिष्ठा एवं योनि है। इन सभी चन्द्र, नक्षत्र और ग्रहोंको सूर्यसे उत्पन्न हुआ जानना चाहिये ॥ 19-28 ॥

सूर्यकी जो सुषुम्रा नामकी किरण है, वह क्षीण हुए चन्द्रमाको पुनः बढ़ाती है। पूर्वदिशामें जो हरिकेश नामकी किरण है, वह नक्षत्रोंकी जननी है। दक्षिण दिशामें स्थित विश्वकर्मा नामकी किरण बुधको तृप्त करती है। पश्चिम | दिशामें जो विश्वावसु नामक किरण है, उसे शुक्रकी योनि (उत्पत्तिस्थान) कहा जाता है। जो संवर्धन किरण है, वह लोहित (मंगल) की योनि है। छठी किरणको अश्वभू कहते हैं, वह बृहस्पतिको योनि है पुनः सुराट् नामक किरण शनैश्चरकी वृद्धि करती है। चूँकि ये (चन्द्र, नक्षत्र और ग्रह कभी नष्ट नहीं होते, इसीलिये इनकी नक्षत्रता मानी गयी है। उपर्युक्त नक्षत्रोंके क्षेत्र सूर्यपर आकर गिरते हैं और सूर्य अपनी किरणोंद्वारा उन क्षेत्रोंको ग्रहण करते हैं, इससे उनकी नक्षत्रता सिद्ध होती है।इस लोकसे परलोकमें जानेवाले पुण्यात्माओंका उद्धार करनेके कारण ये किरणें तारका नामसे प्रसिद्ध हैं तथा शुक्ल वर्णकी होनेके कारण शुक्ला भी कही जाती हैं। दिव्य (स्वर्गीय) एवं पार्थिव (भौमिक) सभी प्रकारके वंशोंके तेजके संयोगसे सम्पन्न होनेके कारण सूर्यको 'तपन' कहा जाता है। 'सवति (सूते) अर्थात् 'सु' धातु 'उत्पत्ति अथवा चेतनाभाव' के अर्थमें प्रयुक्त होती है। *इसलिये (भूमि) जल-तेजके उत्पादक होने के कारण सूर्य सविता कहलाते हैं। इसी प्रकार 'चदि आह्लादने' यह बढ़र्थक धातु आह्लादित करनेके अर्थमें भी प्रयुक्त | होती है। इसका शुक्लत्व, अमृतत्व और शीतत्व आदि अन्य अनेकों अर्थोंमें प्रयोग किया जाता है। (इसी धातुसे चन्द्र या चन्द्रमा शब्द निष्पन्न हुआ है।) ।। 29-37 ॥

सूर्य और चन्द्रमाके दिव्य मण्डल गगनतलमें उद्भासित होते हैं। वे सुन्दर श्वेत रंगवाले, जल और तेजसे सम्पन्न एवं कुम्भ-सदृश गोलाकार हैं। उनमें सभी मन्वन्तरोंके ऋषि एवं सूर्यादि ग्रह कर्मदेवताके रूपसे निवास करते हैं। ये ही उनके स्थान हैं, इसीसे उन्हें देव-गृह कहा जाता है। वे देव गृह उन्हों देवोंके नामसे प्रसिद्ध होते हैं सूर्य सौर नामक स्थानमें तथा चन्द्रमा सौम्य स्थानमें प्रवेश करते हैं। शुक्र शौक स्थानमें प्रवेश करते हैं, जो सोलह अरोंसे युक्त और अत्यन्त कान्तिमान् है। इसी प्रकार बृहस्पति बृहत्त्व स्थानमें, मंगल लोहित स्थानमें, शनैश्वर शनैश्वर स्थानमें, बुध बुधस्थानमें और राहु भानुस्थानमें प्रवेश करते हैं। सभी नक्षत्र नाक्षत्र स्थानमें प्रवेश करते हैं। इस प्रकार इन सभी ज्योतियोंको उन पुण्यात्माओंके देव गृह जानने चाहिये। ये सभी स्थान प्रलयपर्यन्त स्थित रहते हैं। सभी मन्वन्तरोंमें वे ही देवस्थान होते हैं। सभी देवता पुनः पुनः उन्हीं अपने-अपने स्थानों में निवास करते हैं। अतीतकालीन स्थानीय देवता अतीतकि साथ, भविष्यत्कालीन स्थानीय देवता भावी देवताओंक साथ और वर्तमानकालीन स्थानीय देवता वर्तमान देवताओंके साथ वर्तमान रहते हैं ।। 38- 45 ई ॥

अदिति के आठवें पुत्र विवस्वान् सूर्य देवता माने गये हैं। प्रभाशाली एवं धर्मात्मा चन्द्रदेव वसु कहे गये हैं। भृगुनन्दन शुक्रको, जो असुरोंके पुरोहित हैं, कर्मानुसार दैत्य समझना चाहिये।महर्षि के पुत्र परम तेजस्वी बृहस्पति देवकि आचार्य हैं। मनोहर रूपवाले बुध चन्द्रमा पुत्र है। शनैश्वर रूप कहे गये हैं। ये सूर्यके संयोगसे उत्पन्न हुए संज्ञाके पुत्र हैं। लाल रंगके अधिपति मंगल नवयुवक (माने गये) हैं। स्वयं अग्निदेव ही रूपमें विकेशी (भूमि) के गर्भसे उत्पन्न हुए थे। नक्षत्र नामवाली सत्ताईस नक्षत्राभिमानी देवियाँ दाक्षायणीकी कन्या मानी गयी हैं। राहु सिंहिकाका पुत्र है। यह सभी प्राणियोंको कष्ट देनेवाला राक्षस है। इस प्रकार सूर्य, चन्द्र, ग्रह और नक्षत्रोंके अभिमानी देवताओंका वर्णन किया गया। साथ ही उनके स्थान तथा स्थानी देवता भी बतलाये गये। सहस किरणधारी सूर्यका स्थान दिव्य, श्वेत वर्णवाला तथा अग्निके समान तेजस्वी है। चन्द्रमाका स्थान तैजस एवं जलमय है। बुधका स्थान जलमय है और वह सूर्यकी किरणरूपी गृहमें स्थित है। शुक्रदेवका स्थान सोलह किरणोंसे युक्त एवं जलमय है। मंगल नौ किरणोंसे युक्त हैं, उनका स्थान जलमय है। बृहस्पतिका स्थान बारह किरणोंसे युद्ध है और उसकी कान्ति हल्दीके समान पीली है। शनैश्चरका स्थान आठ किरणोंसे युक्त, प्राचीन, लौहमय एवं काले रंगका है। राहुका स्थान लोहेका बना है, वह प्राणियोंको कष्ट देनेवाला है। ताराएँ सुकृतीजनोंका आश्रय स्थान हैं। इनकी किरणें स्वर्णमयी हैं। जीवोंका निस्तार करनेके कारण ये तारका कहलाती हैं और शुक्लवर्ण होनेके कारण इनका शुक्ला भी नाम है ॥ 46-56 ll

सूर्यके व्यासका विस्तार नौ हजार योजन है और इनका सम्पूर्ण मण्डल इस (व्यास) से तिगुना अर्थात् सत्ताईस हजार योजन है। चन्द्रमाका विस्तार सूर्यके विस्तारसे दुगुना बतलाया जाता है। चन्द्रमाका सम्पूर्ण मण्डल विपुलतामें सूर्य मण्डलसे तिगुना है। सबके ऊपर तारकाओंके मण्डल हैं। उनका विस्तार आधे योजनका बतलाया जाता है। उनसे नीचे अन्य गणोंके स्थान हैं। राहु उनकी तुलनामें समान होते हुए भी उनके नीचेसे भ्रमण करता है। ब्रद्याद्वारा निर्मित वह तीसरा स्थान तमोमय है। उसे पृथ्वीकी छायाको ऊपर उठाकर मण्डलाकार बनाया गया है। राहु पूर्णिमा आदि पर्वोंमें सूर्यमण्डलसे निकलकर चन्द्रमण्डलमें चला जाता है और सूर्य-सम्बन्धी अमावास्या आदि पर्वोंमें पुनः चन्द्रमण्डलसे निकलकर सूर्यमण्डलमें चला आता है। वह अपनी कान्तिसे प्राणियोंको कष्ट पहुँचाता है, इसीलिये उसे स्वर्भानु कहते हैं।व्यास और बाह्यवृत्त— दोनोंके योजन- परिमाणमें शुक्रका परिमाण चन्द्रमाके सोलहवें भागके बराबर बतलाया जाता है। बृहस्पतिका परिमाण शुक्रके परिमाणसे एक चतुर्थांश कम जानना चाहिये। शनि और मंगल— ये दोनों प्रमाणमें बृहस्पतिसे चतुर्थाश कम बतलाये गये हैं। बुध इन दोनों ग्रहोंसे विस्तार और मण्डलमें चौथाई कम है। आकाशमण्डलमें तारा, नक्षत्र आदि जितने शरीरधारी हैं, वे सभी विस्तार और मण्डलके हिसाबसे बुधके समकक्ष हैं। तारा और नक्षत्र परस्पर एक-दूसरेसे कम हैं ॥57-66 ।। इस प्रकार उन सभी ज्योतिर्गणोंका मण्डल पाँच, चार, तीन, दो अथवा एक योजनमें विस्तृत है। तारकाओंके मण्डल सबसे ऊपर हैं। उनका प्रमाण आधा योजन है। इनसे कम विस्तारवाला अन्य कोई नहीं है। इनके ऊपर जो क्रूर और सात्विक ग्रह स्थित हैं, उन्हें शनैश्वर, बृहस्पति और मंगल समझना चाहिये। ये सभी मन्द गतिवाले हैं। इनके नीचे चन्द्र, सूर्य, बुध और शुक्र—ये चार अन्य महान् ग्रह विचरण करते हैं। ये सभी शीघ्रगामी हैं। जितने नक्षत्र हैं, उतने ही करोड़ तारकाएँ हैं सूर्य सभी ग्रहोंके निचले भागमें गमन करते हैं। सूर्यके ऊपरी भागमें चन्द्रमा अपने मण्डलको विस्तृत करके चलते हैं। नक्षत्रमण्डल चन्द्रमासे ऊपर भ्रमण करता है। इसी प्रकार नक्षत्रोंसे ऊपर बुध, बुधसे ऊपर शुक्र, शुक्रसे ऊपर मंगल, मंगलसे ऊपर बृहस्पति और देवाचार्य बृहस्पतिके ऊपर शनैश्वर स्थित है। शनैश्चरसे ऊपर सप्तर्षि मण्डलको जानना चाहिये। सप्तर्षियोंसे ऊपर ध्रुव हैं और ध्रुवसे ऊपर सारा आकाशमण्डल है। नक्षत्रमण्डलसे ऊपर प्रत्येक ग्रह दो लाख योजनोंके अन्तरपर स्थित है। ताराओं और ग्रहोंके अन्तर परस्पर एक-दूसरेके ऊपर स्थित हैं। आकाशमण्डलमें सूर्य, चन्द्रमा और ग्रहगण दिव्य तेजसे युक्त हो निश्चित क्रमानुसार चलते हुए नक्षत्रोंसे मिलते हैं ॥ 67-763 ।।

चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह और नक्षत्र अपने-अपने नीचे ऊँचे गृहोंमें स्थित होते हैं। इसी क्रमसे इनका समागम और वियोग भी होता है। उस अवसरपर सभी प्राणी इन्हें | एक साथ देखते हैं। इस प्रकार स्थित रहकर ये परस्परसंयुक्त होते हैं। विद्वान्‌लोग इनके इस सम्बन्धको अमिश्रित ही मानते हैं। इसी प्रकार पृथ्वी, ज्योतिर्गणों, द्वीप, समुद्र, पर्वत, वर्ष, नदी तथा उनमें निवास करनेवाले प्राणियोंकी स्थिति है। ज्योतिर्गणोंका यह स्थितिक्रम सूर्यके कारण ही है। (मण्डलाकार घूमते समय) उन गणोंके मध्यमें आवर्त-सा दीख पड़ता है। वह बीचमें ध्रुवके आ जानेसे संक्षिप्त हो जाता है। वह चारों ओर ऊँचाईपर गोलाकार फैला रहता है। परमेश्वरने लोकोंकी प्रयोजन-सिद्धिके लिये उसे बनाया है। ब्रह्माने कल्पके आदिमें बहुत सोच विचारकर इसे स्थापित किया है। इस प्रकार यह सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डलकी स्थिति है। प्रधान (प्रकृति) - का यह विश्वरूप परिणाम अत्यन्त अद्भुत है। कोई भी इसकी यथार्थ गणना नहीं कर सकता। मनुष्य अपने चर्मचक्षुओंसे इन ज्योतिर्गणोंके गमनागमनको नहीं देख सकता ।। 77- 84 ॥

Previous Page 128 of 291 Next

मत्स्य पुराण को मत्स्यपुराण, Matsya Purana और Matsyapurana आदि नामों से भी जाना जाता है।

मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका