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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 227 - Adhyaya 227

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दण्डनीतिका निरूपण

मत्स्यभगवान् ने कहा- राजन्! (रत्न-धन-) वस्त्रादि धरोहरको हड़प जानेवाले व्यक्तिको उसके मूल्यके अनुरूप दण्ड देनेपर राजाका धर्म नष्ट नहीं होता जो व्यक्ति रखी हुई धरोहरको वापस नहीं करता और जो बिना धरोहर रखे ही माँगता है, वे दोनों ही चोरके समान दण्डनीय हैं। उनसे मूल्यसे दुगुना धन दिलाना चाहिये जो कोई उपधी-ढोका डालकर या छल-कपटसे दूसरेके धनको चुरा लेता है, उसे अनेकों वधोपायोंद्वारा सहायकोंसहित प्राण दण्ड देना चाहिये। जो व्यक्ति दूसरेसे माँगकर ली गयी वस्तुको समयपर वापस नहीं करता तो उसे बलपूर्वक पकड़कर वह वस्तु दिला देने अथवा पूर्वसाहस का दण्ड देनेका विधान है। जो कोई अनजानमें किसी दूसरेकी वस्तुको बेंच देता है, वह तो निर्दोष है, किंतु जो जानते हुए दूसरेकी वस्तुको बेचता है वह चोरके समान दण्डनीय है। जो मूल्य लेकर विद्या या शिल्पज्ञानको नहीं देता, उसे धर्मज्ञ राजाको रकमवापसीका दण्ड देना चाहिये। जो ब्रह्मभोजका अवसर प्राप्त होनेपर अपने पड़ोसियोंको भोजन नहीं कराता उसे एक माशा सुवर्णका दण्ड देना चाहिये। अपराधियोंको दण्ड देनेमें व्यतिक्रमका विधान नहीं है। जो निमन्त्रित ब्राह्मण अपने घरपर रहते हुए भी बिना किसी कारणके भोजन करने नहीं जाता उसे एक सौ आठ माशा सुवर्णका दण्ड देना चाहिये। जो किसी वस्तुको देनेकी प्रतिज्ञा कर उसे नहीं देता; उसे राजा एक सुवर्ण मुद्राका दण्ड दे। जो नौकर अभिमानवश आज्ञापालन तथा कहा हुआ कर्म नहीं करता, उसे राजा आठ कृष्णलको दण्ड दे और उसका वेतन भी रोक दे। जो स्वामी अपने नौकरको उसके संचित धन तथा वेतनको समयपर नहीं देता और कुसमयमें उसे छोड़ देता है, उसे सौ मुद्राका दण्ड देना चाहिये ॥ 1-10॥जो मनुष्य सत्यतापूर्वक किये गये दश ग्रामर अन्नके बँटवारेको लोभके कारण पुनः असत्य बतलाता है, उसे देशसे निकाल देना चाहिये। किसी वस्तुको खरीदने या बेंचने के बाद यदि कुछ मूल्य शेष रह जाता है तो उसे दस दिनके भीतर दे देना या ले लेना चाहिये। यदि दस दिन बीत जाने के बाद कोई शेष मूल्यको न देता है न दिलाता है तो राजा उन न देने और दिलानेवाले दोनोंको छः सौ मुद्राओंका दण्ड दे। जो व्यक्ति अपनी दोषसे युक्त कन्याको बिना दोष सूचित किये किसीको दान कर देता है तो स्वयं राजा उसे छियानवे पणोंका दण्ड दे। जो मनुष्य बिना दोषके ही किसी दूसरेकी कन्याको दोषयुक्त बतलाता है और उस कन्याके दोषको दिखाने में असमर्थ हो जाता है तो राजा उसे सौ मुद्राका दण्ड दे। जो व्यक्ति अन्य कन्याको दिखलाकर वरको दूसरी कन्याका दान करता है तो राजाको उसे उत्तम साहसिक दण्ड देना चाहिये जो वर अपने दोषको न बतलाकर किसी कन्याका पाणिग्रहण करता है तो वह | कन्या देनेके बाद भी न दी हुईके समान है। राजाको उसपर दो सौ मुद्राओंका दण्ड लगाना चाहिये। जो एक ही कन्याको किसीको दान कर देनेके बाद फिर किसी दूसरेको दान करता है, उसे भी राजाको उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये जो अपने मुखसे 'निश्चय ही मैं इतने मूल्यपर अमुक वस्तु आपको दे दूंगा' ऐसी प्रतिज्ञा कर फिर लोभके कारण उसे दूसरेके हाथ बेंच देता है, वह छः सौ मुद्राओंके दण्डका भागी होता है। जो व्यक्ति कन्याका मूल्य लेकर विक्रय नहीं करता या प्रतिज्ञासे हटता है तो उसे लिये हुए मूल्यसे दुगुने द्रव्यका दण्ड देना चाहिये, यह धर्मकी व्यवस्था है। मूल्यका कुछ भाग देनेके पश्चात् यदि लेनेवाला व्यक्ति उसे लेना नहीं चाहता तो उसे मध्यम साहसका दण्ड देना चाहिये और उसे दिये हुए द्रव्यको लौटा देना चाहिये जो गोपाल वेतन | लेकर गायको दुहता है और उसकी ठीकसे रक्षा नहीं करता उसे राजाको सौ सुवर्ण मुद्राओंका दण्ड देना चाहिये। राजा दण्ड देनेके बाद विराम ले ले। तदनन्तर | राजाद्वारा चिह्नित अपराधीको काले लोहेकी जंजीरसे आवद्ध कर दिया जाय और पुनः किसी अपने ही | कार्यपर नियुक्त कर लिया जाय ॥ 11-23॥ग्रामके बाहर चारों ओरसे सौ धनुपके विस्तारकी और नगरके लिये उससे दुगुने या तिगुने विस्तारकी ऐसी प्राचीर बनाये जिसके भीतरकी वस्तुको ऊँट भी न देख सके। उसमें कुत्ते तथा सूअरके मुख घुसने योग्य सभी छिद्रोंको बंद करा देना चाहिये। यदि पशु बिना घेरेके खेतके अन्नको हानि पहुँचाते हैं तो राजाको पशुके चरवाहेको दण्ड नहीं देना चाहिये। दस दिनके भीतरकी व्यायी गायद्वारा तथा देवताके उद्देश्यसे छोड़े गये वृषद्वारा घेरा रहनेपर भी यदि खेतके अन्नकी हानि होती है तो उसके लिये पशुपालक दण्डनीय नहीं है—ऐसा मनुने कहा है। इन उपर्युक्त कारणोंके अतिरिक्त अन्य प्रकारसे नष्ट हुए द्रव्यके दशांशका दण्ड लगाना चाहिये। कोई पशु फसलको खाकर यदि वहीं बैठा हुआ मिलता है। तो उसके स्वामीके ऊपर उक्त दण्डसे दुगुना दण्ड लगाना चाहिये। यदि खेतका स्वामी क्षत्रिय है और वैश्यका पशु हानि पहुँचाता है तो उसे हानिका दस गुना दण्ड देना चाहिये। यदि किसीके घर, तालाब, बगीचे या खेतको कोई दूसरा छीन लेता है तो उसे पाँच सौ | मुद्राका तथा बिना जाने यदि इनको हानि पहुँचाता है तो दो सौ मुद्राका दण्ड देना चाहिये। किसी खेत आदिकी सीमा बाँधनेके समय यदि कोई सीमाका उल्लङ्घन करता है या सम्मति देता है तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिये। जो सीमाका उल्लङ्घन करनेवाले व्यक्तिकी बातोंका शपथपूर्वक समर्थन करता है, उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये- ऐसा स्वायम्भुव मनुने कहा है॥ 24-32 ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य — इन तीनों वर्णोंके लोग समाजमें अपनी स्थितिके बिना किसी विशेषताके क्रमसे यदि निषिद्ध कार्य करते हैं तो उन सबसे प्रायश्चित्त करवाना चाहिये। यदि कोई अनजानमें स्त्रीका वध कर देता है तो उसे शूद्र हत्या व्रतका पालन करना चाहिये। सर्पादिकी हत्या कर धन-दान करनेमें असमर्थ द्विजको पाप-शान्तिके लिये एक-एक कृच्छ्रव्रतका आचरण करना चाहिये। फल देनेवाले वृक्षों, फूली हुई लताओं, गुल्मों, वल्लियों तथा फूले हुए वृक्षोंको काटनेपर सौ ऋचाओंका जप करना चाहिये। एक सहस्र अथवा एक गाड़ीमें भर जानेके योग्य हड्डीवाले जीवोंकी हत्या करनेवालेको शूद्रहत्याका प्रायश्चित्त करना चाहिये।हड्डीवाले जानवरोंकी हत्या करनेपर ब्राह्मणको कुछ | दान देना चाहिये और जो बिना हड्डीके हैं उनकी हिंसा करनेपर प्राणायामसे शुद्धि हो जाती है। अन्नादिसे एवं रससे उत्पन्न होनेवाले तथा फलों और पुष्पोंमें पैदा होनेवाले जन्तुओंकी हिंसा करनेपर घृत-पान ही प्रायश्चित्त है। जुताईसे उत्पन्न हुई तथा वनमें स्वतः उगी हुई ओषधियोंको बिना आवश्यकताके काटनेपर एक दिनका दुग्धव्रत करना चाहिये। हिंसासे उत्पन्न हुआ पातक इन व्रतोंसे दूर किया जा सकता है। अब चोर-कर्मसे उत्पन्न हुए पापको दूर करनेके लिये उत्तम व्रत सुनिये ॥ 33 -40 ।। यदि ब्राह्मण अपनी जातिवालोंके घरसे इच्छापूर्वक धान्य, अन्न और धनकी चोरी करता है तो वह अर्धकृच्छ्रव्रतसे शुद्ध होता है। मनुष्य, स्त्री, खेत, घर, कूप और बावलीके जलका हरण करनेपर शुद्धिके लिये चान्द्रायणव्रतका विधान है। दूसरेके घरसे थोड़ी मूल्यवाली वस्तुओंकी चोरी करनेपर उससे शुद्ध होनेके लिये कृच्छ्रसांतपन-व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये। भक्ष्य, भोज्य, वाहन, शय्या, आसन, पुष्प, मूल और फलकी चोरी करनेपर उसका प्रायश्चित्त पञ्चगव्य-पान है। तृण, काष्ठ, वृक्ष, सूखा अन्न, गुड, वस्त्र, चमड़ा तथा मांसकी चोरी करनेपर तीन राततक उपवास करना चाहिये। मणि, मोती, प्रवाल, ताँबा, चाँदी, लोहा, काँसा तथा पत्थरकी चोरी करनेपर बारह दिनोंतक अन्नके कणोंका भोजन करना चाहिये। सूती, रेशमी, ऊनी वस्त्र, दो तथा एक खुरवाले पशु, पक्षी, सुगन्धित द्रव्य, ओषधि तथा रस्सीकी चोरी करनेपर तीन दिनतक केवल जल पीकर रहना चाहिये। ब्राह्मणको इन व्रतोंद्वारा चोरीसे उत्पन्न हुए पापका निवारण करना चाहिये। अगम्या स्त्रीके साथ समागम करनेसे उत्पन्न हुए पापको इन व्रतोंद्वारा नष्ट करना चाहिये। अपनी जातिको परायी स्वोके साथ समागम करके गुरुतल्प व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये अर्थात् गुरुकी स्त्रीके साथ समागम करनेपर जो प्रायश्चित्त कहा गया है, उसका अनुष्ठान करना चाहिये। मित्र तथा पुत्रकी स्त्री, कुमारी कन्या, नीच जातिको स्त्री (चाण्डाली), फुफेरी तथा मौसेरी बहन और भाईकी कन्याके साथ समागम करनेपर चान्द्रायण व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये ।। 41-50 ॥बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि जो स्त्रियाँ अपनी जातिकी हों तथा जो पतितोंकी अनुगामिनी हों, उनके साथ भार्याके समान समागम न करे। मनुष्यसे भिन्न योनि ऋतुमती स्त्री तथा योनिद्वारसे अन्यत्र अथवा जलमें वीर्यपात करके पुरुषको कृच्छ्र सान्तपन नामक व्रतका | अनुष्ठान करना चाहिये बैलगाड़ीपर, जलमें तथा दिनमें स्त्री-पुरुषके मैथुनको देखकर ब्राह्मणको वस्वसहित स्नान करना चाहिये। ब्राह्मण यदि अज्ञानसे चाण्डाल और अन्त्यज स्त्रियोंके साथ सम्भोग, उनके यहाँ भोजन और उनका दिया हुआ दान ग्रहण करता है तो वह पतित हो जाता है और जान-बूझकर करता है तो वह उन्होंके समान हो जाता है। ब्राह्मणद्वारा दूषित स्त्रीको उसका पति एक घरमें बंद कर दे। इसी प्रकार दूसरेकी स्त्रियोंसे समागम करनेवाले पुरुषको भी यही व्रत करना चाहिये। | यदि वह स्त्री पुनः किसी परकीय पुरुषसे दूषित होती है तो उसे शुद्ध करनेके लिये कृच्छ्रचान्द्रायण व्रतका अनुष्ठान बताया गया है। जो द्विज एक रात भी शूद्र स्त्रीके साथ समागम करता है तथा उसका दिया हुआ अन्न भोजन करता है, वह तीन वर्षोंतक निरन्तर गायत्रीजप करनेसे शुद्ध होता है। चारों वर्णोंके पापियोंके लिये यह प्रायश्चित्त कहा गया है। अब पतितोंके संसर्गमें होनेवाले पापके लिये यह प्रायश्चित्त सुनिये ll 51-58 ।।

पतितके साथ यज्ञानुष्ठान, अध्यापन, यौन-सम्बन्ध, भोजन, एक वाहनपर गमन तथा आसनपर उपवेशन करनेसे भला मनुष्य (भी) एक वर्षमें पतित हो जाता है। जो मनुष्य इन कर्मोंमें जिस पतितका संसर्ग प्राप्त करता है, उसे उस संसर्गदोषको शुद्धिके लिये उसी पतितके व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये। उसके सपिण्ड भाई बन्धुओंको जातिवालोंके साथ किसी निन्दित दिनको | सायंकालके समय गुरुके समीप उस पतितके लिये उदक क्रिया करनी चाहिये। दासी उक्त व्यक्तिके लिये प्रेतकी तरह जलपूर्ण घट रखे, परिवारवालोंके साथ एक दिन रातका उपवास करे और अशौचके समान व्यवहार करे। परिवारवालोंके लिये उसके साथ वार्तालाप करना और एक आसनपर बैठना निषिद्ध है। इस पाप कर्मको जातिको भी उन्हें नहीं प्रकट करना चाहिये- यह लोककी मर्यादा है। जिस प्रकार ज्येष्ठ भाईके न रहनेपर उसके हिस्सेकी प्राप्ति छोटे भाईको होती है, उसी प्रकार अधिक गुणवान् | होनेपर भी छोटे भाईको उसका फल भोगना पड़ता है।जो पापाचारी प्राणी निश्चित की गयी मर्यादाको तोड़ देते हैं, उन्हें राजा पृथक् पृथक् जाति-क्रमके अनुसार उत्तम साहसका दण्ड दे राजन् यदि क्षत्रिय होकर ब्राह्मणको कटु वचन कहता है तो उसे सौ मुद्राका दण्ड देना चाहिये। यदि वैश्य है तो उसे दो सौ मुद्राका और यदि शूद्र है तो उसे प्राण दण्ड देना चाहिये। यदि ब्राह्मण क्षत्रियको कटु बातें कहे तो उसे पचास पण, वैश्यको कहे तो पचीस पण तथा शूदको कहे तो भारह पणका दण्ड देना चाहिये। यदि वैश्य क्षत्रियको कटु वचन कहता है तो उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये और शूद्र क्षत्रियको कटूक्ति सुनाता है तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिये ।। 59-68 ॥

क्षत्रिय यदि वैश्यको बुरा-भला कहता है तो उसे पचास और शूद्रको कहता है तो पचीस दमका दण्ड | देना चाहिये। ऐसा करनेसे उसका धर्म क्षीण नहीं होता। शूद्र यदि वैश्यको कटु वचन कहे तो उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये और वैश्य होकर शुद्रको बुरा-भला कह रहा है तो वह पचास दमके दण्डका भागी होता है। यदि कोई अपने वर्णवालेको कटुति सुनाता है तो उसे बारह दमका दण्ड देना चाहिये तथा | अकथनीय बातें कहनेपर वह दण्ड दुगुना हो जाता है। यदि द्विजातिसे भिन्न जातिवाला किसी द्विजातिको कठोर वाणीसे बुरा-भला कहता है तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिये और उसे परम नीच समझना चाहिये। अधिक द्रोहवश नाम, जाति तथा घरकी निन्दा करनेवालेके मुखमें लोहेकी बारह अंगुल लम्बी जलती हुई शलाका | डाल देनी चाहिये। राजाको द्विजातिको धर्मोपदेश करनेवाले शूद्रके मुख और कानमें खौलता हुआ तेल डाल देना चाहिये। वेद, देश, जाति और शारीरिक कर्मको निष्फल बतलानेवाला राजाद्वारा दुगुने साहसके दण्डका भागी होता है। जो मनुष्य स्वयं पापाचारी होकर दूसरे वर्णकी निन्दा करता है, उसे राजा जातिके अनुरूप उत्तम | साहसका दण्ड दे जो राजाके बनाये हुए नियमको अवहेलना करते हैं अथवा राजाकी निन्दा करते हैं, उन सबको दुगुने साहसका दण्ड देना चाहिये। जो व्यक्ति 'मैंने प्रेमवश अथवा प्रमादसे ऐसा कहा है, अब पुनः ऐसा नहीं कहूंगा' ऐसा कहकर अपराध स्वीकार कर लेता है, वह आधे दण्डका पात्र है ।। 69-78 ॥कोई काना हो, लँगड़ा हो अथवा अन्धा हो, उसे सत्यतापूर्वक उसी प्रकारका कहनेपर भी उसे एक कार्यापणका दण्ड देना चाहिये। माता पिता, ज्येष्ठ भाई, वशुर तथा गुरु-इनकी निन्दा करनेवाले तथा गुरुजनोंके मार्गको नष्ट करनेवालेको सौ कार्षापणका दण्ड देना चाहिये जो माननीय श्रेष्ठ लोगोंको मार्ग नहीं देता, उसे उस पापकी शान्तिके लिये राजा एक कृष्णलका दण्ड दे द्विजातिसे भिन्न जातिवाला व्यक्ति किसी द्विजातिका जिस अङ्गसे अपकार करता है, उसके उसी अङ्गको शीघ्र ही बिना कुछ विचार किये कटवा देना चाहिये। राजा सामने गर्वपूर्वक धूकनेवाले, पेशाब करनेवाले तथा अपानवायु छोड़नेवाले व्यक्तिका क्रमशः दोनों होंठ, लिङ्ग और गुदाद्वार कटवा दे। यदि कोई नीच जातिवाला व्यक्ति उत्कृष्ट व्यक्तिके साथ आसनपर बैठना चाहता है तो राजा उसकी कमरमें एक चिह्न बनाकर अपने राज्यसे निर्वासित | कर दे या उसके गुदाभागको कटवा दे। इसी प्रकार यदि | कोई निम्न जातिवाला किसी उच्च जातीय व्यक्तिके केशोंको पकड़ता है तो उसके हाथको बिना विचार किये ही कटवा देना चाहिये। इसी प्रकारका दण्ड दोनों पैरों, नासिका, गला तथा अण्डकोशके पकड़नेपर भी देना चाहिये। यदि कोई किसीके चमड़ेको काट देता है और उससे रक्त निकलने लगता है तो उसे शतमुद्राका दण्ड देना चाहिये। मांस काट लेनेवालेको छः निष्कोंका दण्ड तथा हड्डी तोड़नेवालेको देशनिकालाका दण्ड देना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति किसीके अङ्गको तोड़-फोड़ देता है तो राजाको चाहिये कि उसके उसी अङ्गको कटवा दे तथा उसे उतने द्रव्यका भी दण्ड दे, जितना उस आहत व्यक्तिके उठने-बैठनेके व्ययके लिये अपेक्षित हो। गाय, हाथी, अश्व और ऊँटकी हत्या करनेवालेका आधा हाथ और आधा पैर काट लेना चाहिये। राजाको पशु तथा छोटे जानवरोंकी हत्या करनेपर अपराधीको उनके मूल्यके दुगुने पणका दण्ड देना चाहिये। मृग तथा पक्षियोंकी हत्या करनेपर पचास पणका दण्ड करनेका विधान है। कृमि तथा कोटोंके मारनेपर एक मासा चाँदीका दण्ड लगाना उचित है तथा उसके अनुकूल मूल्य भी उसके स्वामीको दिलाना चाहिये ॥ 79-89 ॥दण्डको बहला रहा हूँ। फलयुक्त वृक्षको काटनेपर अपराधीको सुवर्णका दण्ड देना उचित है। यदि वह वृक्ष किसी सीमा, मार्ग अथवा जलाशयके समीप है तो उसे दुगुना दण्ड देना चाहिये। फलरहित वृक्षको भी काटने पर मध्यमसाहसका दण्ड देनेका विधान है। गुल्मों, लताओं तथा वल्लियोंको काटनेपर एक मासा सुवर्णका दण्ड देना चाहिये। बिना किसी आवश्यकताके तृणको भी नष्ट करनेवाला व्यक्ति एक कार्षापणके दण्डका भागी होता है। किसी प्राणीको कष्ट पहुँचानेवालेको कृष्णलके तिहाई भागका दण्ड देना चाहिये। राजन् वृक्षादिके काटे जानेपर राजा देश तथा कालके अनुसार उचित मूल्यका दण्ड दे और उस दण्डको वृक्षादिके स्वामीको दिला दे। यदि चालककी असावधानीसे रथ मार्गसे विचलित हो जाता है। तो ऐसे अवसरपर यदि वह चालक निपुण नहीं है तो उसके स्वामीको दण्ड देना चाहिये और यदि चालक निपुण है तो उसीके ऊपर दण्ड लगाना चाहिये, किंतु यदि वह घटना किसी विशेष परिस्थितिवश घटित हुई हो तो चालकको भी दण्ड नहीं देना चाहिये। जो किसीके द्रव्यको जानकर या अनजानमें अपहरण कर लेता है, उसे राजाके सम्मुख दण्ड स्वीकार कर उसके स्वामीको संतुष्ट करना चाहिये। अन्यथा उसपर एक पण दण्ड लगानेका विधान है। जो व्यक्ति किसी कुएँपरसे रस्सी अथवा घड़ा चुरा लेता है या उस कुएँको तोड़ता फोड़ता है, उसके ऊपर एक मासा सुवर्णका दण्ड लगाना उचित है और उसीसे कुएँकी क्षतिपूर्ति करानी चाहिये। दस घड़ेसे अधिक अन्न चुरानेवालेको प्राण दण्ड देना चाहिये यदि दस घड़ेसे कम अन्न चुराता है तो उसने जितना अन्न चुराया है, उससे ग्यारहगुना अधिक मूल्यका दण्ड उसपर लगाना चाहिये। उसी प्रकार दस घड़ेसे अधिक खाद्य सामग्री, अन्न एवं पानादिकी चोरी करनेपर उसी प्रकारके दण्डका विधान है। उसे प्राणदण्ड नहीं देना चाहिये। सुवर्ग, चाँदी आदि धातुओं,' उत्तम वस्त्रों, कुलीन पुरुषों, विशेषतया कुलीन स्त्रियों, बड़े-बड़े पशुओं, हथियारों, ओषधियों तथा मुख्य-मुख्य रत्नोंकी चोरी करनेपर चोर प्राण दण्डका पात्र होता है ।। 90 - 1013 ॥

दही, दूध, तक्र (छाँछ- मट्ठा), जल, रस, बाँस एवं पैदल आदिके पात्र, लवंग, सभी प्रकारके मिट्टीके मिट्टी और भस्मको चोरी करनेवालेके लिये राजादेश एवं कालके अनुसार दण्डकी व्यवस्था करे। ब्राह्मणके घरसे गाय, भैंस और घोड़ेकी चोरी करनेवालेको तुरंत ही आधे भैरवाला कर देना चाहिये। सूत, कपास, आसव, गोवर, गुड़, मछली, पक्षी, तेल, घी, मांस, मधु, नमक, मदिरा, भात एवं इनसे बनी हुई अन्यान्य वस्तुओं तथा सभी प्रकारके पकवानोंकी चोरी करनेवालेको उस वस्तुके मूल्यसे दुगुना दण्ड देना चाहिये। पुष्प, कच्चा अन्न, गुल्म, लता, वल्ली तथा अधिक अन्नकी चोरी करनेवालेको पाँच मासा सुवर्णका दण्ड देना उचित है। प्रचुरमात्रामें अन्न, शाक, मूल और फलकी चोरी करनेवाले संतानहीनको सौ मुद्राका तथा संतानवालेको दो सौ पणका दण्ड देना चाहिये। चोर जिस-जिस अङ्गोंकी सहायतासे चोरी करनेकी चेष्टा करता है, राजा उसके उस अङ्गको कटवा दे। यदि कोई अकिंचन ब्राह्मण मार्गमें चलते हुए दो ईख, दो कन्द (मूली), दो खीरे, दो तरबूजे, दो अन्य फल, दो मुट्ठी सभी प्रकारके अन्न अथवा साग ले लेता है तो वह चोरीके दोषसे दूषित नहीं होता। भोजनके लिये वृक्षसे उत्पन्न हुए फल, मूल और जलौनी लकड़ीको काट लेना | अथवा गौको खिलानेके लिये घास उखाड़ लेना चोरी नहीं है—ऐसा मनुजीने कहा है। देवताकी वाटिकासे भिन्न दूसरेके खेतमें उत्पन्न हुए पुष्पको देवताकी पूजाके लिये तोड़नेवाला दण्डका पात्र नहीं होता, उसे दण्ड नहीं देना चाहिये ll 102 – 113 ll

राजन्! जो अपनेको मारनेके लिये उद्यत सींगवाले, नखवाले तथा दाढ़वाले पशुको मारता है, वह पापसे लिप्त नहीं होता। गुरु, बालक, वृद्ध अथवा शास्त्रज्ञ ब्राह्मण ही क्यों न हो, यदि वह अपनेको मारनेके लिये आ रहा हो तो उसे बिना विचार किये ही मार डालना चाहिये; * क्योंकि आततायीका वध करनेपर वधकर्ताको कोई पाप नहीं लगता। प्रकटरूपमें अथवा गुप्तरूपमें भी पाप करनेवाला पापका भागी होता है। दूसरोंके घर तथा खेतका अपहरण करनेवाले, अगम्या स्त्रीके साथ समागम करनेवाले, आग लगानेवाले, विष देनेवाले, हथियार लेकर मारनेके लिये उद्यत, अभिचारपरायण, राजाके विरोधमें विद्रोह करनेवालेइनको धर्मज्ञोंने लोकमे आततायी बतलाया है। यदि भिक्षुक, परायी स्त्री तथा चारण आदि निषेध करनेपर भी घरमें घुस जाते हैं तो उन्हें दुगुना दण्ड देना चाहिये। तीर्थ, जंगल या घरमें परायी स्त्रियोंके साथ वार्तालाप करनेवाले तथा नदीको धाराका भेदन करनेवालेको पकड़कर बंद कर देना चाहिये। 'परायी स्त्रीके साथ सम्भाषण नहीं करना चाहिये'- ऐसी निषेधाज्ञा घोषित कर दे। निषेध होनेपर भी यदि कोई सम्भाषण करता है तो वह एक सुवर्ण मुद्दाके दण्डका भागी होता है। किंतु यह दण्ड चारणों, स्त्रियों तथा अन्तःपुरमें प्रवेश कर नृत्य गीतादिद्वारा अपनी जीविका चलानेवालेको नहीं देना चाहिये। ऐसे लोग यदि अन्तःपुरके लोगोंके साथ सम्भाषण करते हैं या वहाँ घूमते-फिरते हैं तो उन्हें तथा घरसे निकालकर बाहर घूमती हुई सभी दासियोंको नाममात्रका दण्ड देना चाहिये। जो व्यक्ति किसी कुमारी कन्याके साथ बलात्कार करता है, वह तुरंत ही मार डालने योग्य है यदि कोई किसी कामुकी कुमारी कन्याके साथ व्यभिचार करता है तो उसे दो सौ पणका दण्ड देना चाहिये और वहाँ जो संरक्षणकर्ता पुरुष है, उसे भी यही दण्ड देना चाहिये ।। 114- 125 ॥

जो ऐसे व्यभिचारोंको सम्भव बनाने में अवकाश देता है, उसे परायी स्त्रीके साथ व्यभिचार करनेवालेके समान ही दण्ड देना चाहिये। जो मनुष्य दूसरेकी स्त्रीके साथ बलात्कार करता है, उसे प्राणदण्ड देना चाहिये और इसमें उस स्त्रीका कोई भी अपराध नहीं मानना चाहिये। जो कन्या पिताके घरपर तीसरी बार रजस्वला होकर स्वयं पतिका वरण कर लेती है, वह राजाद्वारा दण्डनीय नहीं होती। जो अपने देशमें कन्यादान देकर पुनः उसे लेकर | परदेशमें भाग जाता है, उसे प्राणदण्ड देना चाहिये; क्योंकि वह स्त्री-चोर है। द्रव्यहीना, विधवा स्त्रीको ग्रहण करनेवाला अपराधी नहीं माना जाता, किंतु सम्पत्तिसहित विधवाको स्वीकार करनेवाला शीघ्र ही दण्डका भागी होता है। जो कन्या अपनी जाति अथवा योग्यतासे उत्कृष्ट व्यक्तिसे प्रेम करती है तो उसे उसी व्यक्तिको दे देना चाहिये, किंतु जो कन्या किसी कम योग्यतावालेसे प्रेम करती है, उसे विशेष संयमके साथ घरमें ही रखे। यदि नीच जातिवाला जघन्य पुरुष उत्तम जातिकी कन्याके साथ प्रेम करता है तो उसे प्राण दण्ड देना चाहिये। इसी प्रकार यदि उत्तम जातिकी स्त्री किसी नीच जातिके पुरुषके साथ प्रेम करती है तो वह भी प्राण-दण्डके योग्य है।जो स्त्री अपने जाति भाइयों के बलसे गवली होकर अपने पतिको छोड़ देती है, उसे घरसे निकालकर अनेक व्यक्तियोंसे युक्त संस्थानमें रख दे। राजा सवर्ण पुरुषद्वारा दूषित कुलटा स्त्रीको सभी अधिकारोंसे वञ्चित कर मलिन बना दे और भोजनमात्रका प्रबन्ध कर घरमें पड़ा रहने दे। उत्तम कुल एवं जातिमें उत्पन्न हुई स्त्री यदि दूषित हुई हो तो उसकी दस चोटियाँ रखकर शेष बाल कटवा दे और नित्य मैला वस्त्र पहननेको दे। यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य क्रमशः क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रकी स्त्रीके साथ दुराचार करते हैं तो वे राजाद्वारा उत्तमसाहस नामक दण्डके भागी होते हैं। यदि ब्राह्मण वैश्य स्त्रीके साथ और क्षत्रिय अन्त्यज-स्त्रीके साथ पापाचरण करते हैं तो उन्हें मध्यमसाहसका दण्ड देना चाहिये और यदि वैश्य शुद्रा स्त्रीके साथ व्यभिचार करता है तो उसे भी पूर्वोक्त रीतिके अनुसार उत्तमसाहसका दण्ड मिलना चाहिये। राजन्! यदि शुद अपनी जातिकी स्त्रीके साथ समागम करता है तो उसे राजाद्वारा सौ मुद्राओंका दण्ड मिलना चाहिये। इसी प्रकार सवर्णा स्त्रीके साथ पापाचरण करनेसे वैश्यको दो सौ, क्षत्रियको तीन सौ तथा ब्राह्मणको चार सौ मुद्राओंका दण्ड देनेका विधान है। ये दण्ड अरक्षित स्त्रीके साथ पापाचरण करनेपर बताये गये हैं, किंतु सुरक्षित स्त्रियोंके साथ दुराचार करनेपर इससे अधिक दण्ड देना चाहिये ।। 126 - 138 ।।

माता, फूफी, सास, मामी, चचेरी बहन, चाचीकी सखी, शिष्यकी स्त्री, बहिन, उसकी सखी तथा भाईकी स्त्री-इन सबके साथ समागम करनेपर पूर्वकथित दण्डसे | दुगुना दण्ड देना चाहिये। भानजेकी स्त्री, राजाकी पत्नी, संन्यासिनी तथा उच्चवर्णको स्त्री- ये सभी अगम्या मानी गयी हैं इन सबके साथ समागम करनेवाले व्यक्तिके लिंगको कटवाकर तत्पश्चात् उसे प्राण दण्ड देना चाहिये। इसी प्रकार चाण्डालको स्त्री तथा कुत्तेको खानेवालोंकी स्त्रीके साथ व्यभिचार करनेवालेको प्राण दण्ड देना चाहिये। गौको छोड़कर अन्य तिर्यग् योनियों में सम्भोग करनेवाले व्यक्तिको मुण्डनका दण्ड देकर उस पशुके लिये घास तथा जल देनेका दण्ड देना चाहिये।मानवश्रेष्ठ गौके साथ भोग करनेवाले व्यक्तिको सुवर्णका दण्ड लगाना चाहिये। वेश्याके साथ समागम करनेवाले ब्राह्मणको वेश्याको दिये गये शुल्कके बराबर अर्थ- दण्ड देना चाहिये। वेश्या यदि वेतन स्वीकार करनेके उपरान्त लोभवश अन्यत्र चली जाती है तो उसे दुगुना दण्ड देनेके उपरान्त लिये हुए शुल्कका दूना अर्थ दण्ड भी देना चाहिये। राजन् यदि कोई वेश्याको दूसरे के बहानेसे किसी दूसरेके पास लिवा जाता है तो उसे एक मासा सुवर्णका दण्ड देना चाहिये। जो वेश्याको लानेके बाद उसके साथ सम्भोगादि नहीं करता, उसे दूना दण्ड देकर उस वेश्याको दूना शुल्क दिलाना चाहिये। ऐसा करनेसे राजाका धर्म क्षीण नहीं होता। यदि अनेक व्यक्ति एक वेश्याके साथ समागम करनेको उपस्थित हों तो राजा उनको दूना दण्ड दे और वे सब पृथक्-पृथक् उस वेश्याको दूना द्रव्य दण्डरूपमें अधिक दें। माता, पिता, स्त्री, पुरोहित और यजमान ये पतित होनेपर भी नहीं छोड़े जाते, पर यदि कोई मनुष्य इनमेंसे किसीको छोड़ता है तो वह छः सौ सुवर्ण मुद्राओंका दण्डभागी होता है। पतित होनेपर गुरुजन भी त्याज्य हो सकते हैं, किंतु माता नहीं छोड़ी जा सकती। गर्भकालमें धारण-पोषण करनेके कारण माताका गौरव गुरुजनोंसे भी अधिक है ।। 139 - 150 ।।

अनध्यायके दिन भी अध्ययन करनेवाले ब्राह्मणको तीन कार्षापणका दण्ड देना चाहिये और अध्यापकको दुगुना | दण्ड देनेका विधान है। इसी प्रकार उन्हें अपने-अपने आचारोंका उल्लङ्घन करनेपर भी दण्ड देना चाहिये। जिन जिन अपराधोंमें केवल दण्डकी चर्चा की गयी है और कोई परिमाण नहीं निश्चित किया गया है, वहाँ सुवर्णका एक कृष्णल दण्डरूपमें समझना चाहिये। स्त्री, पुत्र, सेवक, | शिष्य तथा सगा भाई—ये यदि अपराध करते हैं तो इन्हें रस्सीसे बाँधकर बाँसकी छड़ीसे शरीरके पिछले भागपर दण्ड देना चाहिये; किंतु सिरपर किसी प्रकार भी चोट न लगने दे। इन कहे गये स्थानोंके अतिरिक्त अन्य स्थानोंपर प्रहार करनेवालेको चोरी करनेके समान पाप लगता है। जो दूतीको बुलाकर प्रकटरूपमें या गुप्तरूपमें निषिद्धाचरण करता है, उसके | लिये राजा स्वेच्छानुसार दण्डकी व्यवस्था करे। धोबीको चाहिये कि वह कोमल काठके पोठकोंपर वस्त्रको धीरे धीरे साफ करे। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसे एक | मासे सुवर्णका दण्ड देना चाहिये। राजाकी ओरसे रक्षा आदि | स्थानों पर नियुक्त किये गये लोग यदि देव भागको हड़पलेते हैं या किसानोंसे कर लेकर उसे दूसरे कार्यों में लगा देते हैं तो राजा उनका सर्वस्व छीनकर उन्हें निर्वासनका दण्ड दे। जो लोग अपने पदपर नियुक्त होकर अन्य कर्मचारियों के कार्यों को हानि पहुँचाते हैं, वे सभी निर्दय, क्रूरात्मा, कर्मके अपराधी और धनकी गर्मीसे उन्मत्त हो जाते हैं, राजाको चाहिये कि उन्हें निर्धन बना दे। यदि राजाके सेवकगण कूटनीतिसे शासन करनेवाले, प्रजावर्गको राजाके विरुद्ध भड़कानेवाले, स्त्री, बालक और ब्राह्मणकी हत्या करनेवाले हों तो राजा उन्हें प्राण दण्ड दे। चाहे अमात्य हो या प्रधान न्यायकर्ता, यदि वह अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता तो राजा उसका सर्वस्व छीनकर उसे अपने देशसे बाहर निकाल दे ब्रह्महत्यारा, मद्यपायी, चोर तथा गुरु स्त्रीगामी इन महापातकी पुरुषोंको राजा पृथक-पृथक प्राण दण्डकी व्यवस्था करे। ऐसे महापापियोंको राजा प्राण-दण्ड दे, किंतु ब्राह्मणको चिह्नित करके अपने देशसे निकाल दे। उक्त चिह्नका आकार बताता हूँ, सुनिये। यदि ब्राह्मण गुरुपत्नीके साथ समागम करता है तो उसके शरीर में भगका आकार, मदिरापायी हो तो सुराध्वजका चिह्न, चोरीके अपराधमें कुत्तेके पैरोंका चिह्न तथा ब्रह्मघातीके शरीरमें बिना सिरके पुरुषका चिह्न बनाना चाहिये। राजन् ! ऐसे मोर पापियोंके साथ उनकी जातिवाले, सम्बन्धी तथा भाई-बन्धुओंको विशेषतया सम्भाषण, सहभोज तथा | विवाहादि सम्बन्ध त्याग देना चाहिये ।। 151 - 1643 ।। राजा महापापी पुरुषोंकी सम्पत्तिको अपने अधीन कर ले और उसमेंसे दण्डभागको वरुणके उद्देश्य से जलमें छोड़ दे। धार्मिक राजाको सपत्नीक चोरको प्राण | दण्ड नहीं देना चाहिये, किंतु चुरायी हुई वस्तुके साथ ही | यदि सपत्नीक चोर पकड़ा जाता है तो उसे भी राजा बिना किसी विचारके प्राण दण्ड दे। ग्रामोंमें भी जो कोई चोरोंको भोजन, पात्र तथा रहनेका आश्रय देनेवाले हों तो इन सभीको प्राण दण्ड देना चाहिये। राष्ट्रमें राजाके अधिकारी तथा अधीनस्थ सामन्तगण यदि दुष्ट हो गये हों या बुरे अवसरपर तटस्थ रहते हों तो वे भी चोरोंके समान दण्डके भागी होते हैं। ग्राममें किसी विनाशके उपस्थित होनेपर, किसी घर आदिके गिरनेके अवसरपर या मार्ग में किसी रमणीपर अत्याचार किये जानेपर राजाके जो अधिकारी या सामन्त अपनी शक्तिके अनुसार उसकी रक्षाके लिये नहीं दौड़ते, वे परिवार तथा साधनसहित निर्वासित | कर देने योग्य हैं। राजाके कोशको अपहृत करनेवालों,|शत्रु पक्षसे मिले रहनेवालों तथा शत्रुओंका उपकार करनेवालोंको विविध वधोपायोंद्वारा मरवा डालना चाहिये। जो चोर रातमें सेंध लगाकर चोरी करते हैं, राजाको उनके हाथोंको काटकर तीखे शूलपर बैठा देना चाहिये। तड़ागका भेदन करनेवालेको राजा जलमें डुबोकर मृत्युदण्ड दे। जो व्यक्ति तालाबमें भरे हुए जलकी चोरी करता है या उसमें जलके आनेके मार्गोंको रोक देता है, उसे पूर्ववत् साहस दण्ड देना चाहिये। कोष्ठागार, आयुधागार तथा देवागारोंको तोड़नेवाले पापाचारियों एवं पापयुक्त किंवदन्तीसे लिप्त पुरुषोंको राजा शीघ्र ही प्राण दण्ड दे ॥165- 174 ॥

जो किसी आपत्तिके न होनेपर भी सड़कपर मल आदि अपवित्र वस्तुओंको फेंकता है, उसे एक कार्षापणका दण्ड देना चाहिये और उसीसे उस गंदी वस्तुको हटवाना चाहिये। यदि आपत्तिग्रस्त, वृद्ध, गर्भिणी स्त्री अथवा बालक ऐसा अपराध करते हैं तो उन्हें कहकर मना कर दे, उनसे सफाई न कराये, ऐसी मर्यादा है। जो वैद्य झूठी दवा करता है या वैद्य न होकर भी दवा देता है, उसे प्रथम साहसका दण्ड देना चाहिये। जिसकी दवा निकृष्ट है, उसे मध्यम साहसका दण्ड तथा जिसकी दवा अत्यन्त अवगुणकारी है, उसे उत्तमसाहसका दण्ड देना चाहिये। छत्र ध्वजाके दण्डों तथा प्रतिमाओंको तोड़नेवालेको पाँच सौ मुद्राका दण्ड देना चाहिये और उन्होंसे इन सबका प्रतिशोध भी कराना चाहिये। अदूषित वस्तुओंको दूषित करने या तोड़नेवालेको तथा मणि आदि मूल्यवान् वस्तुओंको नष्ट करनेवालेको प्रथमसाहसका दण्ड देना चाहिये। किसी वस्तुके मूल्यमें जो कमी या वृद्धि करता है, उसे क्रमशः पूर्व और मध्यम साहसका दण्ड देना चाहिये। राजाको अपराधियोंके सभी प्रकारके दण्डोंकी व्यवस्था मुख्य सड़कपर करनी चाहिये जिससे उस दण्डको भुगतनेवाले पापात्माको सभी लोग देख सकें। दुर्गकी चहारदीवारी खाइयों तथा दरवाजोंको तोड़नेवालेको राजा तुरंत अपने पुरसे बाहर निकाल दे वशीकरण, अभिचार आदि करनेवालेको राजा दो सौ पणका दण्ड दे। घटिया बीज बेचनेवाले, बोये हुए खेतको जोतनेवाले तथा खेतोंकी मेड़को तोड़नेवालेको विकृत मृत्युका || दण्ड देना चाहिये। नराधिप। अच्छी धातुमें नकली धातुमिलानेवाले पापात्मा एवं अन्यायी सोनारको छुरेसे खण्ड खण्ड काट डालना चाहिये। जो बनियेसे वस्तु लेकर उसका दाम नहीं चुकाता, अच्छी वस्तुको बुरी बतलाता है और वस्तुको बाजारमें छिपाकर बेंचता है, उसे मध्यम साहसका दण्ड देना चाहिये। इसी प्रकार कूटनीतिका प्रयोग करनेवालेको उत्तम साहसका दण्ड देनेका विधान है। इन सभी अपराधियोंको राजा अलग-अलगसे उत्तम साहसका दण्ड दे। शास्त्र, यज्ञ, तपस्या, देश, देवता तथा सतीकी निन्दा करनेवाला पुरुष उत्तम साहसके दण्डका पात्र है। अनेक व्यक्ति किसी एक व्यक्तिके प्रति कठोर दण्डनीय अपराध करते हैं तो उन सबको दुगुना दण्ड | देना चाहिये ॥175-188॥

जिस व्यक्तिपर कलहका आरोप हो, उसे दूना दण्ड देना चाहिये। जो ब्राह्मण अपने आचार-विचारसे अधम हो गया हो, उसे राजा अपने देशसे निकाल दे। भक्ष्य पदार्थोंको छोड़कर जो लहसुन, प्याज, सूअर, ग्रामीण मुरगे, पाँच नखवाले जीवों तथा अन्य अभक्ष्य पदार्थोंको खाता है, उस ब्राह्मणको शीघ्र ही अपने राष्ट्रसे निकाल देना चाहिये। अभक्ष्य पदार्थोंको खानेसे शूद्रको एक कृष्णलका दण्ड देना चाहिये तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको क्रमशः चौगुना, तिगुना तथा दुगुना दण्ड देनेका विधान है। जो अभक्ष्य भक्षणके लिये उत्साहित करता है, उसे दूना दण्ड देना चाहिये। जो मनुष्य 'मैं देता हूँ' ऐसा कहकर अभक्ष्य वस्तुओंके भक्षणमें दूसरेको प्रवृत्त करता है, उसे भी चौगुना दण्ड मिलना चाहिये। संदेशको न देनेवाला तथा समुद्रमें बने हुए अड्डेको नष्ट करनेवाले व्यक्तियोंको राजा पचास मुद्राका दण्ड दे जो श्रेष्ठ होकर अस्पृश्यका स्पर्श करता है, अयोग्य होकर योग्य कार्यमें हाथ लगाता है, पशुओंके पुंस्त्वका अपहरण करता है, दासीके गर्भको नष्ट करता है, शूद्र और संन्यासियोंके घर देव कार्य और पितृकार्यमें भोजन करता है तथा निमन्त्रण स्वीकार करनेपर भोजन करने नहीं जाता ये सभी राजाद्वारा सौ पण कार्यापण दण्डके भागी हैं। अपने घरमें पौडोत्पादक वस्तु रखनेवालेको एक कृष्णलका दण्ड देना चाहिये। पिता और पुत्रके पारस्परिक विरोधमें साक्षी देनेवालोंको दो सौ पणका दण्ड लगाना चाहिये। यदि कोई माननीय व्यक्ति यह अपराध करता है तो उसपर एक सौ आठ पणका दण्ड लगाना चाहिये ॥189 - 197॥तराजू, शासन, मानदण्ड और धर्मकटिके प्रति कूटनीतिका प्रयोग करनेवाले तथा ऐसे व्यक्तिके साथ व्यवहार करनेवालेको उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये। विष देनेवाली, आग लगानेवाली, पति, गुरुजन एवं अपने बच्चोंकी हत्या करनेवाली स्त्रीको कान, ओठ और नाकसे रहित करके पशुओंद्वारा मरवा डालना चाहिये। जो गाँव, खेत और घरमें आग लगानेवाले तथा राजपत्नीके साथ व्यभिचार करनेवाले हैं, उन्हें घास-फूसको अग्निमें जला देना चाहिये जो (राजाका अधिकारी) राजाज्ञाको घटा-बढ़ाकर लिखता है तथा दूसरेकी स्त्रीके साथ अपराध करनेवाले एवं चोरको छोड़ देता है, उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये। जो व्यक्ति अभक्ष्य वस्तु खिलाकर ब्राह्मणको दूषित करता है, उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये। इसी प्रकार क्षत्रियको विधर्मी करनेवालेको मध्यम, वैश्यको प्रथम तथा शूद्रको अर्धसाहसका दण्ड देना चाहिये। मृतकके शरीरपर लगे हुए आभूषण तथा आदिको बेचनेवाले, गुरुको पीटनेवाले, राजाके वाहन और आसनपर बैठनेवालेको उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये। जो व्यक्ति न्यायद्वारा या युद्धमें पराजित होनेपर भी अपनेको 'मैं पराजित नहीं हूँ'- ऐसा मानता है, उसे आता हुआ देखकर राजाको चाहिये कि उसे पुनः जीतकर दुगुने पणका दण्ड दे। जो व्यक्ति अपराध होनेपर सूचनाद्वारा बुलानेसे नहीं आता है और जो बिना बुलाये ही आकर सम्मुख उपस्थित होता है तथा जो अपराधी दण्ड देनेवालेके हाथसे छुड़ाकर भाग जाता है-ऐसे हीन लोगोंको पौरुषपूर्वक दण्ड देनेवाला न्यायकर्ता आर्थिक दण्ड दे। जो व्यक्ति दूत होनेपर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसे उपर्युक्त दण्डका आधा दण्ड देना | चाहिये। दण्ड या नियमनके लिये बाँधकर ले जाते समय यदि कोई अपराधी भाग जाता है तो उसे आठगुना दण्ड देना चाहिये। जो पुरुष सामान्य वाद-विवादमें किसीके नख या बालको काट लेता है, वह मध्यम दण्डका भागी होता है ।। 198- 208 ॥

जो व्यक्ति बलपूर्वक अवध्य अपराधोके बन्धनोंको खोल देता है तथा जो मृत्यु दण्डके अपराधीको छोड़ देता है, वह दुगुने दण्डका भागी होता है। राजाके जो सभासद उपस्थित विषयोंमें कुशलतासे मनोयोग नहीं देते, उन्हें दूना दण्ड देना चाहिये। राजा ऐसे अपराधियोंको तीसगुना अधिक दण्ड दे और जलमें फेंकवा दे।थोडेसे अपराधमें अधिक दण्ड देनेवाले तथा भीषण अपराधमें अल्प दण्ड देनेवाले न्यायकर्ताको जितना कम या अधिक दण्ड हो, उसे अपने घरसे पूर्ण करना या अपराधीको लौटाना चाहिये। अवध्य अपराधीका वध करनेमें जितना पाप लगता है उतना ही पाप वध्यको छोड़ देनेमें लगता है। राजाको इन दोनों दशाओंमें समानरूपसे | पापभागी होना पड़ता है। सभी प्रकारके पापोंमें अपराधी पाये गये ब्राह्मणको मृत्युदण्ड नहीं देना चाहिये, उसे सम्पूर्ण सम्पत्तिके साथ अपने राष्ट्रसे निर्वासित कर देना चाहिये। कभी भूलकर भी ब्राह्मणका वध नहीं करना चाहिये; क्योंकि इससे अधिक पाप होता है। इसलिये राजाको ब्रह्महत्यासे बचना चाहिये। अदण्डनीय पुरुषोंको | दण्ड देने तथा दण्डनीयको दण्ड न देनेसे राजा महान् | अयशका भागी बनता है और मरनेपर नरकगामी होता है। इसलिये राजा मनुष्यके अपराधको भलीभाँति जानकर तथा यथासमय ब्राह्मणोंकी अनुमति लेकर दण्डनीयोंके प्रति दण्डकी कल्पना करे और जो जिस प्रकारके दण्डका पात्र हो, उसकी भलीभाँति समीक्षा कर उसे | उसी प्रकारका समुचित दण्ड दे ॥ 209 - 216 ॥

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मत्स्य पुराण को मत्स्यपुराण, Matsya Purana और Matsyapurana आदि नामों से भी जाना जाता है।

मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका