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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 114 - Adhyaya 114

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भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन

ऋषियोंने पूछा-सुव्रत। जो यह भारतवर्ष है, जिसमें स्वायम्भुव आदि चौदह मनु हुए हैं, जिन्होंने प्रजाओंकी सृष्टि की है, उनके विषयमें हमलोग आपके मुखसे सुनना चाहते हैं। साथ ही वक्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी! पुनः इसके बाद भारत आदि अन्य वर्षोंके विषयमें भी कुछ बतलाइये ॥ 1-2 ॥

प्रसिद्ध पौराणिक लोमहर्षणके पुत्र सूतजीने उन पवित्रात्मा ऋषियोंका प्रश्न सुनकर अपनी बुद्धिसे बारम्बार बहुधा विचार-विमर्श करके उन ऋषियोंसे 'उत्तर श्रवण' (उत्तरवर्ती वर्षों) के विषयमें कहना आरम्भ किया ।। 3-4 ।।

सूतजी कहते हैं—ऋषियो! अब मैं इस भारतवर्षमें उत्पन्न होनेवाली प्रजाओंका वर्णन कर रहा हूँ। इन प्रजाओंकी सृष्टि करने तथा इनका भरण-पोषण करनेके कारण मनुको भरत कहा जाता है। निरुक्त वचनोंके आधारपर यह वर्ष (उन्होंके नामपर ) भारतवर्षके नामसे प्रसिद्ध है। यहाँ स्वर्ग, मोक्ष तथा इन दोनोंके अन्तर्वर्ती (भोग) पदको प्राप्ति होती है।इस भूतलपर भारतवर्षके अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी प्राणियोंके लिये कर्मका विधान नहीं सुना जाता। इस भारतवर्षके भी भेद हैं, उनके नाम सुनिये इन्द्रद्वीप, कशेरुमान् ताम्रपर्ण, गभस्तिमान् नागद्वीप, सौम्यद्वीप, गान्धर्वद्वीप और वारुणद्वीप ये आठ तथा उनमें नवाँ यह समुद्रसे घिरा हुआ भारतद्वीप (या खण्ड) है। यह द्वीप दक्षिणसे उत्तरतक एक हजार योजनमें फैला हुआ है। इसका विस्तार गङ्गाके उगमस्थानसे लेकर कन्याकुमारी अथवा कुमारी अन्तरीपतक है। यह तिरछेरूपमें ऊपर ही ऊपर दस हजार योजन विस्तृत है। इस द्वीपके चारों और सीमावर्ती प्रदेशोंमें म्लेच्छ जातियोंकी वस्तियाँ हैं। इसकी पूर्व एवं पश्चिम दिशामें क्रमशः किरात और यवन निवास करते हैं। इसके मध्यभागमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र विभागपूर्वक यज्ञ, शस्त्र ग्रहण और व्यवसाय आदिके द्वारा जीवन-यापन करते हुए निवास करते हैं। उन चारों वर्णोंका पारस्परिक व्यवहार धर्म, अर्थ और कामसे संयुक्त होता है और वे अपने-अपने कर्मोंमें ही लगे रहते हैं। यहाँ कल्पसहित पाँचों वर्णों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, योगी और संन्यासी) तथा आश्रमोंका विधिपूर्वक पालन होता है। इस द्वीपके मनुष्योंकी कर्म प्रवृत्ति स्वर्ग और मोक्षके लिये होती है ॥ 5-14 ।।

इस मानव द्वीपको जो त्रिकोणाकार फैला हुआ है, जो सम्पूर्ण रूपमें जीत लेता है वह सम्राट् कहलाता है। अन्तरिक्षपर विजय पानेवालोंके लिये यह लोक सम्राट् कहा गया है और यही लोक स्वराट्के नामसे भी प्रसिद्ध है। अब मैं इसका पुनः विस्तारपूर्वक वर्णन कर रहा हूँ। इस महान् भारतवर्षमें स्वत विश्वविख्यत कुलपर्वत है। महेन्द्र मला शुक्तिमान् वान् विध्य और परिवारे ये कुलपर्वत हैं। इनके समीप अन्य हजारों पर्वत हैं।इनके अतिरिक्त अन्य भी विशाल एवं चित्र-विचित्र शिखरोंवाले पर्वत हैं तथा दूसरे कुछ उनसे भी छोटे हैं जो निम्न (पर्वतीय) जातियोंके आश्रयभूत हैं। इन्हीं पर्वतोंसे संयुक्त जो प्रदेश हैं उनमें चारों ओर आर्य एवं म्लेच्छ जातियाँ निवास करती हैं, जो इन आगे कही जानेवाली नदियोंका जल पान करती हैं। जैसे गङ्गा, सिन्धु, सरस्वती, शतद्रु (सतलज), चन्द्रभागा ( चिनाव), यमुना, सरयू, इरावती (रावी), वितस्ता (झेलम), विपाशा (व्यास), देविका, कुहू, गोमती, धूतपापा (धोपाप), बाहुदा, दृषद्वती, कौशिकी (कोसी), तृतीया, निश्चीरा, गण्डकी, चक्षु, लौहित- ये सभी नदियाँ हिमालयकी उपत्यका (तलहटी) से निकली हुई हैं। वेदस्मृति, वेत्रवती (तया), वृत्रघ्नी, सिन्धु, पर्णाश, चन्दना, सदानीरा, मही, पारा, चर्मण्वती, यूपा, विदिशा, वेणुमती, शिप्रा, अवन्ती तथा कुन्ती-इन नदियोंका उद्गमस्थान पारियात्र पर्वत है ॥ 15-24 ॥

शोण, महानदी, नर्मदा, सुरसा, क्रिया, मन्दाकिनी, दशार्णा, चित्रकूटा, तमसा, पिप्पली, श्येनी करतोया, पिशाचिका, विमला, चञ्चला, वञ्जुला, वालुवाहिनी, शुक्तिमन्ती, शुनी, लज्जा, मुकुटा और हदिकाये स्वच्छसलिला कल्याणमयी नदियाँ ऋक्षवन्त (ऋक्षवान्) पर्वतसे उद्धृत हुई है। लापी, पयोष्णी (पूर्णानदी या जगा निर्विन्ध्या, क्षिप्रा, निषधा, वेण्या, वैतरणी, विश्वमाला, कुमुद्वती, तोया, महागौरी, दुर्गा तथा अन्तः शिला- ये सभी पुण्यतोया मङ्गलमयी नदियाँ विन्ध्याचलकी उपत्यका ओंसे निकली हुई हैं। गोदावरी, भीमरथी, कृष्णवेणी, वञ्जुला (मंजीरा), कर्णाटककी तुङ्गभद्रा, सुप्रयोगा, वाह्या (वर्धानदी) और कावेरी- ये सभी दक्षिणापथमें प्रवाहित होनेवाली नदियाँ हैं, जो सह्यपर्वतकी शाखाओंसे प्रकट हुई हैं। कृतमाला (वैगईन नदी), ताम्रपर्णी, पुष्पजा (कुसुमाङ्गा पेम्बे या पेनार नदी) और उत्पलावती ये कल्याणमयी नदियाँ मलयाचलसे निकली हुई हैं। इनका जल बहुत शोतल होता है। त्रियामा, ऋषिकुल्या, इशुला, त्रिदिवा, अचला, लाङ्गलिनी और वंशधरा- ये सभी नदियाँ महेन्द्रपर्वतसे निकली हुई मानी जाती हैं। ऋषीका, सुकुमारी, मन्दगा, मन्दवाहिनी, कृपा और पलाशिनी इन नदियोंका उगम शुतिमान् पर्वतसे हुआ है।ये सभी पुण्यतोया नदियाँ पुण्यप्रद, सर्वत्र बहनेवाली तथा साक्षात् या परम्परासे समुद्रगामिनी हैं। ये सब की सब विश्वके लिये माता सदृश हैं तथा इन सबको कल्याणकारिणी एवं पापहारिणी माना गया है ॥ 25- 33 ॥

अथवा इनकी सैकड़ों-हजारों छोटी-बड़ी सहायक नदियाँ भी हैं जिनके कछारोंमें कुरु, पाञ्चाल, शाल्व, सजाङ्गल, शूरसेन, भद्रकार, बाह्य, सहपटच्चर, मत्स्य किरात, कुन्ती, कुन्तल, काशी, कोसल, आवन्त, कलिङ्ग, मूक और अन्धक- ये देश अवस्थित हैं, जो प्रायः मध्यदेशके जनपद कहलाते हैं। ये सह्यपर्वतके निकट बसे हुए हैं, यहाँ गोदावरी नदी प्रवाहित होती है। अखिल भूमण्डलमें यह प्रदेश अत्यन्त मनोरम है। तत्पश्चात् गोवर्धन, मन्दराचल और श्रीरामचन्द्रजीका प्रियकारक गन्धमादन पर्वत है. जिसपर मुनिवर भरद्वाजजीने श्रीरामके मनोरंजनके लिये स्वर्गीय वृक्षों और दिव्य औषधियोंको अवतरित किया था। उन्हीं मुनिवरके प्रभावसे वह प्रदेश पुष्पोंसे परिपूर्ण होनेके कारण मनोमुग्धकारी हो गया था। बाह्लीक (बलख), वाटधान, आभीर, कालतोयक, पुरन्ध्र, शूद्र, पल्लव, आत्तखण्डिक, गान्धार, यवन, सिन्धु (सिंध), सौवीर (सिन्धका उत्तरी भाग), मद्रक (पंजाबका उत्तरी भाग), शक, दुह्य (ययाति-पुत्र दुह्युका उत्तरी भाग-पश्चिमी पंजाब), पुलिन्द, पारद, आहारमूर्तिक, रामठ, कण्टकार, कैकेय और दशनामक—ये क्षत्रियोंके उपनिवेश हैं तथा इनमें वैश्य और शूद्र कुलके लोग भी निवास करते हैं। इनके अतिरिक्त कम्बोज (अफगानिस्तान), दरद, बर्बर, पहलव (ईरान), अत्रि, भरद्वाज, प्रस्थल, कसेरक, लम्पक, तलगान और जाङ्गलसहित सैनिक प्रदेश- ये सभी उत्तरापथके देश हैं। अब पूर्व दिशाके देशोंको सुनिये। अङ्ग (भागलपुर), वङ्ग (बंगाल), मद्गुरक, अन्तर्गिरि, बहिगिरि, प्लवङ्ग, मातङ्ग, यमक, मालवर्णक, सुझ (उत्तरी असम), प्रविजय, मार्ग, वागेय, मालव, प्राग्ज्योतिष (आसामका पूर्वीभाग), पुण्ड (बंगलादेश), विदेह (मिथिला), ताम्रलिक (उड़ीसाका उत्तरी भाग), शाल्व, मागभ और गोनर्द ये पूर्व दिशाके जनपद है।। 34-46 llइनके बाद अब दक्षिणापथके देश बतलाये जा रहे हैं। पाण्ड्य, केरल, चोल, कुल्य, सेतुक, मूषिक, कुपथ, वाजिवासिक, महाराष्ट्र, माहिपक, कलिंग (उड़ीसाका दक्षिणी भाग), आभीर, सहषीक, आटव्य, शवर, पुलिन्द, विन्ध्यमुलिक, वैदर्भ (विदर्भ), दण्डक, कुलीय, सिराल, अश्मक (महाराष्ट्रका दक्षिण भाग), भोगवर्धन (उड़ीसाका दक्षिणभाग), तैतिरिक, नासिक्य तथा नर्मदाके अन्तः प्रान्तमें स्थित अन्य प्रदेश- ये दक्षिणापथके अन्तर्गतके देश हैं। भारुकच्छ, माहेय, सारस्वत, काच्छीक, सौराष्ट्र, आनर्त और अर्बुद ये सभी अपरान्त प्रदेश हैं। अब जो विन्ध्यवासियोंके प्रदेश हैं, उन्हें सुनिये मालव, करुष, मेकल, उत्कल, औण्डू (उड़ीसा), माप, दशार्ण, भोज, किष्किन्धक, तोशल, कोसल (दक्षिणकोसल), त्रैपुर, वैदिश (भेलसाराज्य), तुमुर, तुम्बर, पद्म, नैषध, अरूप, शौण्डिकेर, वीतिहोत्र तथा अवन्ति- ये सभी प्रदेश विन्ध्यपर्वतको घाटियोंमें स्थित बतलाये जाते हैं। इसके बाद अब मैं उन देशोंका वर्णन कर रहा हूँ जो पर्वतपर | स्थित हैं। उनके नाम हैं-निराहार, सर्वग, कुपथ, अपथ, कुथप्रावरण, ऊर्णादर्व, समुद्रक, त्रिगर्त, मण्डल, किरात और चामर। मुनियोंका कथन है कि इस भारतवर्ष में सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग-इन चार युगोंकी व्यवस्था है। अब मैं उनके वृत्तान्तका पूर्णतया वर्णन कर रहा हूँ ।। 47-58 ।।

मत्यभगवान्ने कहा- राजर्षे सूतजीद्वारा कहे हुए इस प्रकरणको सुनकर मुनियोंको और भी आगे सुननेकी उत्कट इच्छा उत्पन्न हो गयी, तब वे पुनः लोमहर्षण- पुत्र सूतजीसे बोले ॥ 59 ॥

ऋषियोंने पूछा- वेत्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी आपने भारतवर्षको वर्णन कर दिया। अब हमें किम्पुरुषवर्ष हरिवर्षविषयमें बतलाइये। साथ ही जम्बूखण्डके विस्तारका तथा अन्य द्वीपोंके निवासियोंका एवं | वहाँ उगत होनेवाले वृक्षोंका भी वर्णन हमें सुनाइये ।उन ब्रह्मर्षियोंद्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर सूतजीने उनके प्रश्नके अनुकूल जैसा देखा था तथा जो पुराण सम्मत था, वैसा उत्तर देना प्रारम्भ किया ।। 60-62 ।। सूतजी कहते हैं-ह्मणो! आपलोग जिस विषयको सुनना चाहते हैं, उसे बतला रहा है, आलस्यरहित होकर श्रवण कीजिये। जम्बूवर्प और किम्पुरुषवर्ष- ये दोनों अत्यन्त विशाल एवं नन्दन-बनकी भाँति शोभासम्पन्न हैं। इनमें किम्पुरुषवर्षमें मनुष्योंकी आयु दस हजार वर्षकी बतलायी जाती है। वहाँ जन्म लेनेवाले मनुष्य भलीभाँति तपाये हुए सुवर्णकी-सी कान्तिवाले होते हैं। उस पुण्यमय किम्पुरुषवर्षमें एक पाकड़का वृक्ष बतलाया जाता है जिससे सदा मधु टपकता रहता है। उसके उस उत्तम रसको सभी किम्पुरुषनिवासी पान करते हैं, जिसके कारण वे नीरोग, शोकरहित और सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। वहाँ पुरुषोंके शरीरका रंग सुवर्ण-जैसा होता है और स्त्रियाँ अप्सराओं जैसी सुन्दरी कही गयी हैं। उस किम्पुरुषवर्षके बाद हरिवर्ष बतलाया जाता है। वहाँ सुवर्णकी-सी कान्तिसे युक्त शरीरवाले मानव उत्पन्न होते हैं। वे सभी देवलोकसे च्युत हुए जीव होते हैं और उनके | विभिन्न प्रकारके रूप होते हैं। हरिवर्षमें सभी मनुष्य मङ्गलमय इक्षु-रसका पान करते हैं, जिससे उन्हें वृद्धावस्था बाधा नहीं पहुँचाती और वे चिरकालतक जीवित रहते हैं। उनकी आयुका प्रमाण ग्यारह हजार वर्ष बतलाया जाता है। इनके बीचमें इलावृत नामक वर्ष है, जिसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ। वहाँ सूर्यका ताप नहीं होता वहाँक मानव भी वृद्ध नहीं होते। इलावृतवर्ष में नक्षत्रोंसहित चन्द्रमा और सूर्यका प्रकाश नहीं होता। यहाँ पैदा होनेवाले सभी मानवोंके शरीर कमलके से कान्तिमान् और उनका रंग कमल-जैसा लाल होता है। उनके नेत्र कमल-दलके समान विशाल होते हैं और उनके शरीरसे कमलकी-सी गन्ध निकलती है। जामुनके फलका रस उनका आहार है। वे निस्पन्दरहित एवं सुगन्धयुक्त होते हैं। उनके वस्त्र सुवर्णके तारोंसे खचित होते हैं। देवलोकसे च्युत हुए जीव ही यहाँ जन्म धारण करते हैं। जो श्रेष्ठ पुरुष | इलावृतवर्ष में पैदा होते हैं वे तेरह हजार वर्षोंकी आयुक्तक जीवित रहते हैं । ll 63–7363॥

मेरुगिरिके दक्षिण तथा निषधपर्वतके उत्तर भागमेंसुदर्शन नामका एक विशाल प्राचीन जामुनका वृक्ष है। वह सदा पुष्प और फलोंसे लदा रहता है। सिद्ध और | चारण सदा उसका सेवन करते हैं। उसी वृक्षके नामपर यह द्वीप जम्बूद्वीपके नामसे विख्यात हुआ है। उस वृक्षराजकी ऊंचाई ग्यारह सौ योजन है। वह महान वृक्ष स्वर्गलोकतक व्याप्त है। उसके फलोंका रस नदीरूपमें प्रवाहित होता है। वह नदी मेरुकी प्रदक्षिणा करके पुनः उसी जम्बूके मूलपर पहुँचती है। इलावृतवर्षमें वहाँके निवासी सदा हर्षपूर्वक उस जम्बूरसका पान करते हैं उस जम्बूवृक्षके फलोंका रस पान करनेके कारण वहाँके निवासियोंकों वृद्धावस्था बाधा नहीं पहुंचाती न उन्हें भूख लगती है और न थकावट ही प्रतीत होती है तथा न किसी प्रकारका दुःख ही होता है। वहाँ जाम्बूनद नामक सुवर्ण पाया जाता है जो देवताओंके लिये आभूषण के काम आता है। यह इन्द्रगोप (बीरबहूटी) के समान लाल और अत्यन्त चमकीला होता है। उस वर्षके सभी वृक्षोंमें इस जामुन | वृक्षके फलोंका रस परम शुभकारक है। यह वृक्षसे टपकने पर निर्मल सुवर्ण बन जाता है जिससे देवताओंके आभूषण बनते हैं ईश्वरकी कृपासे वहाँकी भूमि आठों दिशाओंमें सब ओर इलावृत-निवासियोंके मूत्र, विष्ठा और मृत शरीरोंको आत्मसात् कर लेती है। राक्षस, पिशाच और यक्ष-ये सभी हिमालय पर्वतपर निवास करते हैं। हेमकूट पर्वतपर अप्सराओं सहित गन्धर्वोका निवास जानना चाहिये तथा शेष वासुकि और तक्षक आदि सभी प्रधान नाग भी उसपर स्थित रहते हैं। महामेरुपर यज्ञसम्बन्धी मङ्गलमय तैंतीस देवता क्रीडा करते रहते हैं। नीलम एवं वैदूर्य मणियोंसे सम्पन्न नीलपर्वतपर सिद्धों और ब्रह्मर्षियोंका निवास है। श्वेतपर्वत दैत्यों और दानवोंका निवासस्थान बतलाया जाता है। पर्वत श्रेष्ठ शृङ्गवान् पितरोंका विहारस्थल है। इस प्रकार मैंने भारतवर्षके अन्तर्गत इन नौ वर्षोंका वर्णन कर दिया। इनमें प्राणी निवास करते हैं। ये परस्पर गतिमान् और स्थिर हैं। देवताओं और मनुष्योंने अनेकों प्रकारसे इनकी वृद्धि देखी है। उनकी गणना करना असम्भव है, अतः मङ्गलार्थी मनुष्यको इनपर श्रद्धा रखनी चाहिये ।। 74-87 ।।

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मत्स्य पुराण को मत्स्यपुराण, Matsya Purana और Matsyapurana आदि नामों से भी जाना जाता है।

मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका