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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 215 - Adhyaya 215

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राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण

मनुने पूछा— भगवन्! अभिषेक होनेके बाद राजाको तुरंत कौन-सा कर्म करना आवश्यक है? वह सब मुझे बतलाइये; क्योंकि आप इसे अच्छी तरह जानते हैं ॥ 1 मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्! राज्यकी रक्षा करनेवाले राजाको चाहिये कि वह अभिषेकके जलसे सिरके भीगते ही सहायकों (मन्त्रियों) की नियुक्ति करे; क्योंकि राज्य उन्होंपर प्रतिष्ठित रहता है।जो छोटे-से-छोटा भी कार्य होता है, वह भी सहायकरहित अकेले व्यक्तिके लिये दुष्कर होता है, फिर राज्य-जैसे महान् उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यके लिये तो कहना ही क्या है ? इसलिये राजाको चाहिये कि जो उत्तम कुलमें उत्पन्न, शूर, उच्च जातिमें उत्पन्न, बलवान् श्रीसम्पत्र, रूपवान् सत्त्वगुणसे युक्त, सज्जन, क्षमाशील, कष्टसहिष्णु महोत्साही, धर्मन, प्रियभाषी, हितोपदेशके कालका ज्ञाता, स्वामिभक्त तथा यशके अभिलाषी हों, ऐसे सहायकों का स्वयं वरण करके उन्हें माङ्गलिक कम नियुक्त करे उसी प्रकार स्वयं राजाको कुछ गुणहीन 1 सहायकोंको भी जान-बूझकर उन्हें यथायोग्य कार्यों में विभागपूर्वक नियुक्त करना चाहिये। राजाको उत्तम कुलोत्पन्न, शीलवान्, धनुर्वेद प्रवीण, हाथी और अवको शिक्षामें कुशल, मृदुभाषी, शकुन और अन्यान्य शुभाशुभ कारणों तथा ओषधियोंको जाननेवाला, कृतज्ञ, शूरतामें प्रवीण, कष्टसहिष्णु, सरल, व्यूह-रचनाके विधानको जाननेवाला, निस्तत्त्व एवं सारतत्त्वका विशेषज्ञ, ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय पुरुषको सेनापति पदपर नियुक्त करना चाहिये ।। 2-10 ll

ऊंचे कदवाला, सौन्दर्यशाली, कार्यकुशल, प्रियवक्ता गम्भीर तथा सबके चित्तको आकर्षित करनेवालेको प्रतिहारी बनाने का विधान है जो सत्यवादी, देशी भाषामें प्रवीण, सामर्थ्यशाली, सहिष्णु, वक्ता, देश कालके विभागको जाननेवाला, देश-कालका जानकार तथा मौकेपर नीतिकी बातें कहनेवाला हो, वह राजाका दूत हो सकता है जो लम्बे कदवाले, कम सोनेवाले, शूर, दृढ़ भक्ति रखनेवाले, धैर्यवान्, कष्टसहिष्णु और हितैषी हों, ऐसे पुरुषोंको राजद्वारा अङ्गरक्षा कार्यमें नियुक्त किया जाना चाहिये जो दूसरोंद्वारा बहकाया न 1 जा सके, दुष्ट स्वभावका न हो, राजामें अगाध भक्ति रखता हो ऐसा पुरुष ताम्बूलधारी हो सकता है, अथवा ऐसे गुणवाली स्त्री भी नियुक्त की जा सकती है। राजाको नीति शास्त्रके छः गुणोंके तत्त्वोंको जाननेवाले, देशी भाषा में प्रवीण एवं नीतिनिपुणको सन्धि विग्राहिक बनाना चाहिये। भृत्योंके कृत-अकृत कार्योंको जाननेवाले, आय-व्ययके जाता, लोकका जानकार और देशोत्पत्तिमें निपुण पुरुषको देशरक्षक बनाना चाहिये।सुन्दर आकृतिवाले, लम्बे कदवाले, राज्यभक्त, कुलीन, शूर-वीर तथा कष्टसहिष्णुको खड्गधारी बनाना चाहिये। शूर बलवान हाथी, घोड़े और रथको विशेषताको जाननेवाला, सभी प्रकारके क्लेशोंको सहन करनेमें समर्थ तथा पवित्र व्यक्ति राजाका धनुर्धारी हो सकता है। शुभाशुभ शकुनको जाननेवाला अश्वशिक्षामें विशारद, अश्वोंके आयुर्वेदविज्ञानको जाननेवाला, पृथ्वीके समस्त भागोंका ज्ञाता, रथियोंके बलाबलका पारखी, स्थिरदृष्टि, प्रियभाषी, शूर-वीर तथा विद्वान् पुरुष सारथिके योग्य | कहा गया है ।। 11-21 ॥

दूसरोंके बहकावे में न आनेवाले, पवित्र, प्रवीण, ओषधियोंके गुण-दोषोंको जाननेवालोंमें श्रेष्ठ, भोजनको विशेषताओंके जानकारको उत्तम भोजनाध्यक्ष कहा जाता है जो भोजनशास्त्रके विधानोंमें कुशल, वंश परम्परासे 1 चले आनेवाले, दूसरोंद्वारा अभेद्य तथा कटे हुए नख केशवाले हों, ऐसे सभी पुरुषोंको चौकेमें नियुक्त करना चाहिये। शत्रु और मित्रमें समताका व्यवहार करनेवाले, धर्मशास्त्रमें विशारद, कुलीन श्रेष्ठ ब्राह्मणको धर्माध्यक्षका पद सौंपना चाहिये। ऊपर कही हुई विशेषताओंसे युक्त ब्राह्मणोंको सभासद् नियुक्त करना चाहिये जो सभी | देशोंकी भाषाओंका ज्ञाता तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंमें पटु हो, ऐसा व्यक्ति सभी विभागों में राजाका लेखक कहा गया है जो ऊपरकी शिरोरेखासे पूर्ण, पूर्ण अवयववाले, समश्रेणीमें प्राप्त एवं समान आकृतिवाले अक्षरोंको लिखता है, वह अच्छा लेखक कहा जाता है। नृपश्रेष्ठ ! जो उपाययुक्त वाक्योंमें प्रवीण, सम्पूर्ण शास्त्रोंमें विशारद तथा थोड़े शब्दोंमें अधिक प्रयोजनकी बात कहनेकी क्षमता रखता हो, उसे लेखक बनाना चाहिये। नृपोत्तम! जो वाक्योंके अभिप्रायको जाननेवाला, देश-कालके विभागका ज्ञाता तथा अभेदज्ञ यानी भेद न करनेवाला हो, उसे लेखक बनाना चाहिये। मनुष्यों के हृदयकी बातों तथा भावोंको परखनेवाले, दीर्घकाय, निर्लोभ एवं | दानशील व्यक्तियोंको धर्माधिकारी बनाना चाहिये तथा राजाद्वारा इसी प्रकारके लोगोंको द्वारपालका पद भी सौंपा जाना चाहिये। लोह, वस्त्र, मृगचर्मादि तथा रत्नोंकी परख करनेवाला, अच्छी-बुरी वस्तुओंका जानकार, दूसरोंके बहकावे में न आनेवाला, पवित्र, निपुण एवं सावधान व्यक्तिको धनाध्यक्ष बनाना चाहिये ।।22-32 ॥

राजाद्वारा आय तथा व्ययके सभी स्थानोंपर धनाध्यक्ष के समान गुणवाले पुरुषोंको नियुक्त करना चाहिये। जोपरम्परासे आनेवाला आठों अड़ोंकी चिकित्सको अच्छी तरह जाननेवाला, स्वामिभक्त, धर्मात्मा एवं सत्कुलोत्पन्न हो, ऐसे व्यक्तिको वैद्य बनाना चाहिये। राजन्। उसे प्राणाचार्य जानना चाहिये और सर्वसाधारणकी भाँति उसके वचनोंका सदा पालन करना चाहिये। जो जंगलीजवालोंके रीति रस्मोंका ज्ञाता हस्तिशिक्षाका विशेषज्ञ, सहिष्णुतामें समर्थ हो, ऐसा व्यक्ति राजाका श्रेष्ठ गजाध्यक्ष हो सकता है। उपर्युक्त गुणोंसे युक्त तथा अवस्थामें वृद्ध व्यक्ति राजाका गजारोही होकर सभी कायोंमें श्रेष्ठ कहा गया है। अध-शिक्षा के विधानमें प्रवीण, उनकी चिकित्सामें विशारद तथा स्थिर आसनसे बैठनेवाला व्यक्ति राजाका श्रेष्ठ अश्वाध्यक्ष कहा गया है। जो स्वामिभक्त, शूर-वीर, बुद्धिमान् कुलीन, सभी कार्योंमें उद्यत हो, वह राजाका दुर्गाध्यक्ष कहा गया है। वास्तुविद्याके विधानमें प्रवीण, फुर्तीला, परिश्रमी, दीर्घदर्शी एवं शूर व्यक्तिको श्रेष्ठ कारीगर कहा गया है यन्त्रमुक्त (तोप बन्दूक) आदि, पाणिमुक्त (शक्ति आदि), विमुक्त, मुक्तधारित आदि अस्त्रोंके परिचालनकी विशेषताओंमें सुनिपुण, उद्वेगरहित व्यक्ति श्रेष्ठ अस्वाचार्य कहा गया है। वृद्ध, सत्कुलोत्पन्न, मधुरभाषी, पिता पितामहके समयसे उसी कार्यपर नियुक्त होनेवाले, पवित्र एवं विनीत व्यक्तिको राजाओंके अन्तःपुरके अध्यक्ष-पदपर नियुक्त करना उचित है । 33-42 ॥ इस प्रकार राजाको इन सात अधिकार पदोंपर सभी कार्योंमें भलीभाँति परीक्षा कर सातों व्यक्तियोंको अधिकारी बनाना चाहिये। कार्योंमें नियुक्त किये गये। व्यक्तियोंको उद्योगशील जागरूक तथा पटु होना चाहिये। | राजकुलोत्पन्न! राजाओंके अस्त्रागारमें दक्ष तथा उद्यमशील व्यक्ति होना चाहिये। राजाके कार्योंकी गणना नहीं की जा सकती, अतः राजाको उत्तम, मध्यम तथा अधम कार्योंको भलीभाँति समझ-बूझकर वैसे ही उत्तम, मध्यम एवं अधम पुरुषोंको सौंपना चाहिये। सौंपे गये कार्योंमें परिवर्तन अर्थात् अधमको उत्तम और उत्तमको अधम कार्य सौंप देनेसे राजाका विनाश हो जाता है। राजाको चाहिये कि अपने पुरुषोंके निश्चय, पौरुष, भक्ति, शास्त्रज्ञान, शूरता, कुल और नीतिको जानकर उनका वेतन निश्चित | करे। कोई दूसरा व्यक्ति न जान सके इस अभिप्रायसे राजाअनेकों मन्त्रियोंके साथ अलग-अलग मन्त्रणा करे, परंतु | एक मन्त्रीकी मन्त्रणाको दूसरे मन्त्रियोंपर प्रकट न होने दे। इस संसारमें मनुष्योंको सदा कहीं भी किसीका विश्वास नहीं होता, अतः राजाको एक ही विद्वान् मन्त्रीकी मन्त्रणाका निश्चय नहीं करना चाहिये। अन्यथा दूसरेको बुद्धिके सहारे नियको प्राप्ति हो जाती है। उस अकेले किये गये निश्चयमें भी राजाको चाहिये कि फिरसे विचार कर ले। उसे त्रयीधर्ममें अटल निश्चय रखनेवाले ब्राह्मणोंकी सेवा करनी चाहिये जो नहीं हैं, उन मूर्खोकी पूजा न करे; क्योंकि वे लोकके लिये कण्टकस्वरूप हैं। पवित्र आचरणवाले, वेदवेत्ता, वृद्ध ब्राह्मणोंकी नित्य सेवा करनी चाहिये और उन्हींसे सदा विनम्र होकर विनयकी शिक्षा लेनी चाहिये। ऐसा करनेसे वह (राजा) निःसंदेह सम्पूर्ण वसुन्धराको वशमें कर सकता है। बहुत-से राजा उद्दण्डताके कारण अपने परिजन एवं अनुचरोंके साथ नष्ट हो गये और अनेकों वनस्थ राजाओंने विनयसे पुनः राज्यश्रीको प्राप्त किया। है। राजाओंको वेदवेत्ताओंसे तीनों वेद, शाश्वती दण्डनीति, | आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र) तथा आत्मविद्या ग्रहण करनी चाहिये और सर्वसाधारणसे लौकिक वार्ताओंकी सूचना प्राप्त करनी चाहिये। राजाको दिन-रात इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करनेकी युक्ति करते रहना चाहिये; क्योंकि जितेन्द्रिय राजा ही प्रजाओंको वशमें रखनेमें समर्थ हो सकता है। राजाको दक्षिणायुक्त बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठान करना चाहिये तथा ब्राह्मणोंको धर्मको प्रासिके लिये भोग्य सामग्रियाँ और धन देना चाहिये ॥ 43-56 ॥

बुद्धिमान् कर्मचारियोंद्वारा राज्यसे वार्षिक कर वसूल कराये। उसे सर्वदा स्वाध्यायमें लीन तथा लोगों के साथ पिता और भाईका सा व्यवहार करना चाहिये। राजाको गुरुकुलसे लौटे हुए ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये। राजाओंके लिये यह अक्षय ब्राह्म-निधि (कोश खजाना) कही गयी है। चोर अथवा शत्रुगण उसका हरण नहीं कर सकते और न उसका विनाश ही होता है। इसलिये राजाको इस अक्षय ब्राह्म-निधि (खजाने ) का संचय अवश्य करना चाहिये। राजाको चाहिये कि वह अपने उत्तम, मध्यम तथा अधम अनुचरोंद्वारा प्रजाको बुलाकर उनका पालन करे और अपने क्षात्रधर्मका स्मरण कर संग्रामसे कभी विचलित न हो।युद्धविमुख न होना, प्रजाओंका परिपालन तथा ब्राह्मणोंकी शुश्रूषा—ये तीनों धर्म राजाओंके लिये परम कल्याणकारी है। उसी प्रकार दुर्दशाग्रस्त, असहाय और वृद्धोंक तथा विधवा स्त्रियोंके योगक्षेम एवं जीविकाका प्रबन्ध करना चाहिये। राजाको वर्णाश्रमकी व्यवस्था विशेषरूपसे करनी चाहिये तथा अपने धर्मसे भ्रष्ट हुए लोगोंको पुनः अपने | अपने धर्मो में स्थापित करना चाहिये। चारों आश्रमोंपर भी उसी प्रकारकी देख-रेख रखनी चाहिये। राजाके लिये उचित है कि यह अतिथिके लिये अन्न, तैल और पात्रोंको व्यवस्था स्वयं करे एवं सम्माननीय व्यक्तियोंका अपमान न करे तथा तपस्वीके लिये अपने सभी कर्मोंको तथा राज्य एवं अपने आपको समर्पित कर दे और देवताके समान चिरकालतक उनकी पूजा करे। मनुष्यके द्वारा सरल (सुमति) और कुटिल (कुमति) दो प्रकारकी बुद्धियोंको जानना चाहिये। उनमें कुटिल बुद्धिको जान लेनेपर उसका सेवन न करे, किंतु यदि आ गयी हो तो उसे दूर हटा दे। राजाके छिद्रको शत्रु न जान सके, किंतु वह शत्रुके छिद्रको जान ले वह कछुएकी भाँति अपने अङ्गोंको छिपाये रखे और अपने छिद्रकी रक्षा करे। | अविश्वसनीय व्यक्तिका विश्वास न करे और विश्वसनीयका भी बहुत विश्वास न करे; क्योंकि विश्वाससे उत्पन्न हुआ भय मूलको भी काट डालता है ॥ 57-68 ॥

राजाको चाहिये कि वह यथार्थ कारणको प्रकाशित करके दूसरोंको अपनेपर विश्वस्त करे। वह बगुलेकी भाँति अर्थका चिन्तन करे, सिंहकी तरह पराक्रम करे, भेड़ियेके समान लूट-पाट कर ले, खरगोशकी तरह छिपा रहे तथा शूकरके सदृश दृढ़ प्रहार करनेवाला हो। राजा मोरकी भाँति विचित्र आकारवाला, कुत्तेकी तरह अनन्यभक्त तथा कोकिलकी भाँति मृदुभाषी हो। नरश्रेष्ठ! राजाको चाहिये कि वह सर्वदा कौएकी भाँति सशङ्कित रहे। वह गुप्त स्थानपर निवास करे, पहले बिना परीक्षा किये भोजन, शय्या, वस्त्र, पुष्प, अलंकार एवं अन्यान्य सामग्रियोंको न ग्रहण करे। विश्वस्त पुरुषोंद्वारा पहले बिना परीक्षा किये हुए मनुष्योंकी भीड़ तथा अज्ञात जलाशय में प्रवेश न करे। दुष्ट हाथी एवं बिना सिखाये घोड़ेपर न चढ़े, न बिना जानी हुई स्त्रीके साथ समागम करे और न देवोत्सवमें निवास करे। धर्मज्ञ राजाको सर्वदा राजलक्ष्मी (चिह्न) से सुसम्पन्न, दोनरक्षक औरउद्यमी होना चाहिये। पृथ्वीको जीतनेकी इच्छा रखनेवाले राजाको सर्वदा सम्मानित एवं पालित उत्तम अनुचरोंको | सहायक बनाना चाहिये। वह प्राणियोंको यथायोग्य कर्मोमें नियुक्त करे। उसे धर्म कार्योंमें धर्मात्माओंको, युद्धकमोंमें शूरवीरोंको, अर्थ- कार्योंमें उसके विशेषज्ञोंको, सच्चरित्रोंको सर्वत्र स्त्रियोंके मध्य में नपुंसकको और भीषण कर्मोमें निर्दयको नियुक्त करना चाहिये। रविनन्दन। राजाको धर्म, अर्थ, काम और नीतिके कार्योंमें गुप्त पारिश्रमिक देकर अनुचरोंको परीक्षा करनी चाहिये उत्तीर्ण होनेवालेको श्रेष्ठ गुप्तचर बनाये और उनके कार्योंकी देखरेख करनेवालोंको उनका अध्यक्ष बनाये। राजन्! इस प्रकार राजाको राज्यके कार्योंका संचालन करना चाहिये। राजाको सर्वथा उम्र कमवाला नहीं होना चाहिये। नरेश्वर! राजाके जो पापाचरणद्वारा सिद्ध होनेवाले कर्म हैं, उन्हें सत्पुरुष नहीं करते, अतः राजाको भी उनका परित्याग कर देना चाहिये क्योंकि राजाओंके लिये क्रूर कर्माचरण उचित नहीं है। राजाको चाहिये कि जिस कार्यमें जिसकी विशेष कुशलता है, उसे उसी कार्यमें परीक्षा लेकर नियुक्त करे; किंतु पिता-पितामहसे चले आते हुए नौकरोंको सभी कर्मोंमें नियुक्त करे, परंतु अपने जातीय कार्यों में उन्हें न रखे ।।69-836॥

महाभाग! राजाको पारिवारिक कार्योंमें परीक्षा करके मनुष्योंको नियुक्त करना चाहिये; क्योंकि वे उसके कल्याण करनेवाले होते हैं। अनुचरोंका संग्रह करनेकी भावनासे राजाको चाहिये कि जो अनुचर दूसरे राजाकी ओरसे उनके यहाँ आयें चाहे वे दुष्ट हो अथवा सज्जन, उन्हें प्रयत्नपूर्वक अपने यहाँ आश्रय दे; किंतु दुष्टको समझकर राजा उसका विश्वास न करे, परंतु जनसंग्रहको इच्छासे उसे भी जीविका | देनी चाहिये। राजाको चाहिये कि दूसरे देशसे आये हुए व्यक्तिका विशेष स्वागत करे और 'यह मेरे देशमें आया है' ऐसा समझकर उसका अधिक सम्मान करे। नराधिप ! राजाको अधिक नौकर नहीं रखना चाहिये। साथ ही जो | पहले अपने पदसे पृथक कर दिये गये हों, ऐसे नौकरोंको किसी प्रकार भी नियुक्त न करे। नरशार्दूल! शत्रु, अग्नि, विष, सर्प तथा नंगी तलवार- ये सब एक ओर हैं तथा क्रुद्ध अनुचर एक ओर हैं (अर्थात् दोनों समान हैं) राजाको चाहिये कि गुप्तचरद्वारा नित्य उन अनुचरोंके चरित्रकी जानकारी प्राप्त कर उनमें गुणवानोंका सत्कार और निर्गुणोंका अनुशासन करता रहे। राजन्! इसी कारण राजालोग | सर्वदा चारचक्षु (अर्थात् गुप्तचर ही जिनकी आँखें हैं ऐसा)कहलाते हैं। अपने देशमें या पराये देशमें ज्ञानी, निपुण, निर्लोभी और कष्टसहिष्णु गुप्तचरोंको नियुक्त करना चाहिये। जिन्हें साधारण जनता न पहचानती हो, जो सरल दिखायी पड़ते हों, जो एक-दूसरेसे परिचित न हों तथा वणिक्, मन्त्री, ज्योतिषी, वैद्य और संन्यासीके वेशमें भ्रमण करनेवाले हों, राजा ऐसे गुप्तचरोंको नियुक्त करे। राजा एक गुप्तचरकी बातपर, यदि वह अच्छी लगनेवाली भी हो तो भी विश्वास न करे। उस समय उसे दो गुप्तचरोंकी बातोंपर उनके आपसी सम्बन्धको जानकर ही विश्वास करना चाहिये। यदि वे दोनों आपसमें अपरिचित हों तो विश्वास करना चाहिये। इसीलिये राजाको गुप्त रहनेवाले चरोंको नियुक्त करना चाहिये ॥ 84 - 94 ॥

राज्यके मूलाधार गुप्तचर ही हैं, क्योंकि गुप्तचर ही राजाके नेत्र हैं। अतः राजाको गुप्तचरोंकी भी यत्नपूर्वक परीक्षा करनी चाहिये। राज्यमें अनुचरोंका अनुराग एवं वैर तथा प्रजाके गुण और अवगुण - राजाओंके ये सभी कार्य गुप्तचरोंपर ही निर्भर हैं, अतः उनके प्रति यत्नशील रहना चाहिये। राजाको यह बात सर्वदा ध्यानमें रखनी चाहिये कि लोकमें मेरे किस कामसे सभी लोग अनुरक्त रहेंगे और किस कामसे विरक्त हो जायँगे। इसे समझकर राजाको लोकमें अनुरागजनक कार्यका सम्पादन और विरागोत्पादक कर्मका विशेषरूपसे त्याग करना चाहिये सूर्यकुलचन्द्र चूँकि राजाओंकी लक्ष्मी उनकी प्रजाओंके अनुरागसे उत्पन्न होनेवाली होती है, इसलिये श्रेष्ठ राजाओंको पृथ्वीपर मानवोंके प्रति प्रयत्नपूर्वक अत्यन्त अनुराग करना चाहिये ॥ 95-99॥

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मत्स्य पुराण को मत्स्यपुराण, Matsya Purana और Matsyapurana आदि नामों से भी जाना जाता है।

मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका