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मैं दलदलमें नहीं गिरूँगा  [Shikshaprad Kahani]
प्रेरक कथा - हिन्दी कहानी (Short Story)

अभिरूप कपिल कौशाम्बीके राजपुरोहितका पुत्र था और आचार्य इन्द्रदत्तके पास अध्ययन करने श्रावस्ती आया था। आचार्यने उसके भोजनकी व्यवस्था नगरसेठके यहाँ कर दी। किंतु यहाँ अभिरूप कपिल भोजन परोसनेवाली सेविकाके रूपपर मुग्ध हो गया। उस सेविकाने वसन्तोत्सव पास आनेपर अभिरूप कपिलसे उत्तम वस्त्र तथा आभूषण माँगे

अभिरूप कपिलके पास क्या धरा था; किंतु सेविकाने ही उसे मार्ग दिखलाया- 'श्रावस्तीनरेशकानियम है कि प्रात:काल सर्वप्रथम उन्हें जो अभिवादन करता है, उसे वे दो माशे स्वर्ण प्रदान करते हैं। तुम प्रयत्न करो।'

अभिरूप कपिलने दूसरे दिन कुछ रात्रि रहते ही महाराजके शयनकक्षमें प्रवेश करनेकी चेष्टा की। परिणाम यह हुआ कि द्वारपालोंने उसे चोर समझकर पकड़ लिया। महाराजके सामने वह उपस्थित किया गया और पूछे जानेपर उसने सब बातें सच-सच कह दीं। महाराजने उसके भोलेपनपर प्रसन्न होकर कहा-

जो चाहो, माँग लो। जो माँगोगे, दिया जायगा।'

''तब तो मैं सोचकर माँगूँगा।' अभिरूप कपिलने कहा। और उसे एक दिनका समय मिल गया। वह सोचने लगा-'दो माशा स्वर्ण तो बहुत कम है— क्यों सौ स्वर्णमुद्राएँ न माँगी जायँ ? किंतु सौ स्वर्णमुद्राएँ कितने दिन चलेंगी। यदि सहस्र मुद्राएँ माँगूँ तो ? उहुँ, ऐसा अवसर जीवनमें क्या फिर आयेगा? इतना माँगना चाहिये कि जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो तब लक्ष मुद्रा ? यह भी अल्प ही है। एक कोटि स्वर्ण ठीक होगी।' -मुद्रा

अभिरूप कपिल सोचता रहा, सोचता रहा और उसके मनमें नये-नये अभाव होते गये, उसकी कामनाएँ बढ़ती गयीं। दूसरे दिन जब वह महाराजके सम्मुख उपस्थित हुआ, तब उसने माँग की - 'आप अपना पूरा राज्य मुझे दे दें।'

श्रावस्तीनरेशके कोई संतान नहीं थी। वे धर्मात्मा नरेश किसी योग्य व्यक्तिको राज्य देकर वनमें तपस्या ।करने जानेका निश्चय कर चुके थे। अभिरूप कपिलकी माँगसे वे प्रसन्न हुए। यह ब्राह्मणकुमार उन्हें योग्य पात्र प्रतीत हुआ। महाराजने उसको सिंहासनपर बैठानेका आदेश दिया और स्वयं वन जानेको उद्यत हो गये।

महाराजने कहा- 'द्विजकुमार ! तुमने मेरा उद्धार कर दिया। तृष्णारूपी सर्पिणीके पाशसे मैं सहज ही छूट गया। कामनाओंका अथाह कूप भरते- भरते मेरा जीवन समाप्त ही हो चला था। विषयोंकी तृष्णारूपी दलदलमें पड़ा प्राणी उससे पृथक् हो जाय, यह उसका महान् सौभाग्य है।'

अभिरूप कपिलको जैसे झटका लगा। उसका विवेक जाग्रत् हो गया। वह बोला- 'महाराज ! आप अपना राज्य अपने पास रखें। मुझे आपका दो माशा स्वर्ण भी नहीं चाहिये। जिस दलदलसे आप निकल जाना चाहते हैं, उसीमें गिरनेको मैं प्रस्तुत नहीं हूँ ।'

अभिरूप कपिल वहाँसे चल पड़ा; किंतु अब वह निर्द्वन्द्व, निश्चिन्त और प्रसन्न था। – सु0 सिं0



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main daladalamen naheen giroongaa

abhiroop kapil kaushaambeeke raajapurohitaka putr tha aur aachaary indradattake paas adhyayan karane shraavastee aaya thaa. aachaaryane usake bhojanakee vyavastha nagarasethake yahaan kar dee. kintu yahaan abhiroop kapil bhojan parosanevaalee sevikaake roopapar mugdh ho gayaa. us sevikaane vasantotsav paas aanepar abhiroop kapilase uttam vastr tatha aabhooshan maange

abhiroop kapilake paas kya dhara thaa; kintu sevikaane hee use maarg dikhalaayaa- 'shraavasteenareshakaaniyam hai ki praata:kaal sarvapratham unhen jo abhivaadan karata hai, use ve do maashe svarn pradaan karate hain. tum prayatn karo.'

abhiroop kapilane doosare din kuchh raatri rahate hee mahaaraajake shayanakakshamen pravesh karanekee cheshta kee. parinaam yah hua ki dvaarapaalonne use chor samajhakar pakada़ liyaa. mahaaraajake saamane vah upasthit kiya gaya aur poochhe jaanepar usane sab baaten sacha-sach kah deen. mahaaraajane usake bholepanapar prasann hokar kahaa-

jo chaaho, maang lo. jo maangoge, diya jaayagaa.'

''tab to main sochakar maangoongaa.' abhiroop kapilane kahaa. aur use ek dinaka samay mil gayaa. vah sochane lagaa-'do maasha svarn to bahut kam hai— kyon sau svarnamudraaen n maangee jaayan ? kintu sau svarnamudraaen kitane din chalengee. yadi sahasr mudraaen maangoon to ? uhun, aisa avasar jeevanamen kya phir aayegaa? itana maangana chaahiye ki jeevan sukhapoorvak vyateet ho tab laksh mudra ? yah bhee alp hee hai. ek koti svarn theek hogee.' -mudraa

abhiroop kapil sochata raha, sochata raha aur usake manamen naye-naye abhaav hote gaye, usakee kaamanaaen badha़tee gayeen. doosare din jab vah mahaaraajake sammukh upasthit hua, tab usane maang kee - 'aap apana poora raajy mujhe de den.'

shraavasteenareshake koee santaan naheen thee. ve dharmaatma naresh kisee yogy vyaktiko raajy dekar vanamen tapasya .karane jaaneka nishchay kar chuke the. abhiroop kapilakee maangase ve prasann hue. yah braahmanakumaar unhen yogy paatr prateet huaa. mahaaraajane usako sinhaasanapar baithaaneka aadesh diya aur svayan van jaaneko udyat ho gaye.

mahaaraajane kahaa- 'dvijakumaar ! tumane mera uddhaar kar diyaa. trishnaaroopee sarpineeke paashase main sahaj hee chhoot gayaa. kaamanaaonka athaah koop bharate- bharate mera jeevan samaapt hee ho chala thaa. vishayonkee trishnaaroopee daladalamen pada़a praanee usase prithak ho jaay, yah usaka mahaan saubhaagy hai.'

abhiroop kapilako jaise jhataka lagaa. usaka vivek jaagrat ho gayaa. vah bolaa- 'mahaaraaj ! aap apana raajy apane paas rakhen. mujhe aapaka do maasha svarn bhee naheen chaahiye. jis daladalase aap nikal jaana chaahate hain, useemen giraneko main prastut naheen hoon .'

abhiroop kapil vahaanse chal pada़aa; kintu ab vah nirdvandv, nishchint aur prasann thaa. – su0 sin0

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