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महल नहीं, धर्मशाला  [छोटी सी कहानी]
Moral Story - Shikshaprad Kahani (Short Story)

महाराज जीमूतकेतुके ऐश्वर्यका पार नहीं था। उन्होंने देवराज इन्द्रकी उपासना करके कल्पवृक्ष प्राप्त किया था। उनका राजभवन इतना भव्य था कि देवता भी उसे देखकर मुग्ध हो उठते थे। एक धार्मिक नरेश सांसारिक वैभवमें ही आसक्त रहे और मनुष्य जीवन व्यर्थ व्यतीत कर दे, यह योग्य कार्य नहीं है। धर्मका सच्चा फल तो भोगोंसे विरक्ति तथा मोक्षकी प्राप्ति ही है भगवान् दत्तात्रेयको दया आ गयी राजा जीमूतकेतुपर वे मलिन वस्त्र पहिने, केश बिखराये भूलिधूसर अवधूत वेशमें आये और राजभवनमें राजाके पलंगपर ही जा विराजे।

राजसेवक डरे; किंतु आगत आगन्तुक जो किएक पागल जान पड़ता था, उसके मुखका तेज कुछ ऐसा था कि कोई सेवक उसे रोकने या हटानेका साहस नहीं कर सका। अपनी शय्यापर एक उन्मत्त भिखारीको बैठे देखकर राजा जीमूतकेतु क्रोधसे लाल हो उठे। वे उसके पास आकर बोले – 'तू कौन है ? यहाँ राजभवनमें क्यों घुस आया ? निकल यहाँसे ।'

अवधूत दत्तात्रेय बड़ी निश्चिन्ततासे बोले - ' भाई ! अप्रसन्न क्यों होते हो? यह तो धर्मशाला है। तुम भी इसमें ठहरो, मैं भी ठहरता हूँ।'

'यह मेरा राजभवन है, धर्मशाला नहीं। समझे ! चलो, बाहर जाओ!' राजाने डाँटा । अवधूत - ' तो इसमें सदासे - हजार, दो हजारवर्षसे तुम्हीं हो ?'

राजा - 'कैसा पागल है, मुझे तो जन्म लिये अभी पचास वर्ष हुए।' अवधूत - 'उससे पहले इसमें कौन था ?'

राजा- 'मेरे पूज्य पिता।' अवधूत - 'वे कहाँ गये ? कब लौटेंगे ?' राजा - 'उनका शरीरान्त हो गया। वे अब कभीनहीं लौटेंगे।'

अवधूतने इसी प्रकार कई बार पूछा और राजाने बताया कि पितासे पूर्व पितामह, उनसे पूर्व प्रपितामह उस भवनमें रहते थे। अवधूत हँसे और बोले—'भले आदमी! जहाँ मनुष्य आकर कुछ काल ठहरकर चला जाय, फिर न लौटे वह धर्मशाला नहीं तो है क्या ?'



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mahal naheen, dharmashaalaa

mahaaraaj jeemootaketuke aishvaryaka paar naheen thaa. unhonne devaraaj indrakee upaasana karake kalpavriksh praapt kiya thaa. unaka raajabhavan itana bhavy tha ki devata bhee use dekhakar mugdh ho uthate the. ek dhaarmik naresh saansaarik vaibhavamen hee aasakt rahe aur manushy jeevan vyarth vyateet kar de, yah yogy kaary naheen hai. dharmaka sachcha phal to bhogonse virakti tatha mokshakee praapti hee hai bhagavaan dattaatreyako daya a gayee raaja jeemootaketupar ve malin vastr pahine, kesh bikharaaye bhoolidhoosar avadhoot veshamen aaye aur raajabhavanamen raajaake palangapar hee ja viraaje.

raajasevak dare; kintu aagat aagantuk jo kiek paagal jaan pada़ta tha, usake mukhaka tej kuchh aisa tha ki koee sevak use rokane ya hataaneka saahas naheen kar sakaa. apanee shayyaapar ek unmatt bhikhaareeko baithe dekhakar raaja jeemootaketu krodhase laal ho uthe. ve usake paas aakar bole – 'too kaun hai ? yahaan raajabhavanamen kyon ghus aaya ? nikal yahaanse .'

avadhoot dattaatrey bada़ee nishchintataase bole - ' bhaaee ! aprasann kyon hote ho? yah to dharmashaala hai. tum bhee isamen thaharo, main bhee thaharata hoon.'

'yah mera raajabhavan hai, dharmashaala naheen. samajhe ! chalo, baahar jaao!' raajaane daanta . avadhoot - ' to isamen sadaase - hajaar, do hajaaravarshase tumheen ho ?'

raaja - 'kaisa paagal hai, mujhe to janm liye abhee pachaas varsh hue.' avadhoot - 'usase pahale isamen kaun tha ?'

raajaa- 'mere poojy pitaa.' avadhoot - 've kahaan gaye ? kab lautenge ?' raaja - 'unaka shareeraant ho gayaa. ve ab kabheenaheen lautenge.'

avadhootane isee prakaar kaee baar poochha aur raajaane bataaya ki pitaase poorv pitaamah, unase poorv prapitaamah us bhavanamen rahate the. avadhoot hanse aur bole—'bhale aadamee! jahaan manushy aakar kuchh kaal thaharakar chala jaay, phir n laute vah dharmashaala naheen to hai kya ?'

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