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जब एक भक्त की सत्य निष्ठा ने एक राक्षक्ष का भी सहज में कल्याण कर दिया


अवन्ती नगरीके किनारे एक व्यक्ति रहता था, वह संगीतका अच्छा जानकार था। उस संगीतका उपयोग वह भगवान् विष्णुके नाम-कीर्तन या उनकी अवतार कथाओंके गायनमें करता था। भगवान् विष्णुपर उसका अटूट प्रेम था। वह भगवान्‌के बताये सहज कर्मका पालन अर्थात् एकादशीका व्रत करता था और मंदिरके पास जाकर जागरण करता और रातभर संगीतसे भगवान्‌को रिझाया करता । प्रातः काल घर आता और सबको खिलाकर पीछे प्रसाद पाता था। उसका यह नियम बहुत दिनोंसे निर्विघ्न चलता आ रहा था।

एक दिन भगवान्‌को चढ़ाने हेतु फूल लानेके लिये वह शिप्रातटवर्ती वनमें गया। वहाँ उसे एक राक्षसने पकड़ लिया और उसे खाना चाहा। भक्तने कहा कि 'तुम कल मुझे खा लेना। आज मुझे भगवान्के सामने रात्रि जागरण करना है और उन्हें संगीत सुनाना है, अतः आज मुझे छोड़ दो। इस कार्यमें तुम्हें भी बाधक नहीं होना चाहिये। सम्पूर्ण संसारका मूल सत्य है। उस सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ कि मैं कल भगवान्की सेवा करके तुम्हारे पास आ जाऊँगा। कल तुम मुझे खा लेना।' राक्षसने कहा- 'जब तुम सत्यकी शपथ खा रहे हो तो जाओ, तुम्हें छोड़ देता हूँ, लेकिन कल अवश्य आना।'

वह भगवान्का नाम-कीर्तन करते हुए मंदिरपर आया। उसने पुजारीको फूल दिये। पुजारीने प्रोक्षणकर उन फूलोंको भगवान्पर चढ़ा दिया और आरतीकर घर लौट गया। वह भाई मंदिरके बाहर ही भूमिपर बैठ गया और संगीतमय कीर्तनसे वहाँके वातावरणको सिक्त करने लगा। रात बीतनेपर उसने स्नान किया, भगवान्‌को नमस्कार किया और अपने वचनको सत्य करनेके लिये वह राक्षसके पास जा पहुँचा। राक्षसको विश्वास न था कि वह फिर मेरे पास पहुँचेगा। उस को देखते ही राक्षसके हृदयमें पूज्यभाव पैदा हो गया। उसने आदरके साथ पूछा-'महाभाग ! पहले यह बताओ कि मंदिरके बाहर बैठकर रातभर जागकर भगवान्‌के नामका कीर्तन करते हुए तुम्हारा कितना समय बीत गया है?'

उस ने कहा- 'बीस वर्ष।' राक्षसने कहा 'तुम्हारे इस सत्य- पालनके प्रणसे मैं प्रभावित हो गया हूँ और चाहता हूँ कि तुम्हें छोड़ दूँ, खाऊँ नहीं; किंतु इसके लिये एक शर्त है। वह यह कि तुम एक दिनके जागरण और दर्शनका फल मुझे दे दो। यदि नहीं दोगे तो मैं भी सत्यकी शपथ लेता हूँ कि तुम्हें छोड़ेंगा नहीं, अभी खा जाऊँगा।'

भक्त जानता था कि एक रातके जागरणका फल देनेकी अपेक्षा अपने प्राण दे देना ज्यादा अच्छा है। इसलिये कहा कि 'तुम भूखे हो, मुझे खा जाओ। मैं एक रातका अपना पुण्य तुम्हें देनेको तैयार नहीं हूँ। तुम इधर-उधरकी बात न करो, मुझे खानेके लिये बुलाया था, खा जाओ।' राक्षसने कहा कि यदि एक रातका फल नहीं दे सकते तब अन्तिम प्रहरका फल ही दे दो। इससे मेरा भी उद्धार हो जायगा। मातंग (उस ) भी भक्त था, दयालु था। राक्षसकी दशा देखकर उसके प्रति उसमें करुणा उमड़ आयी और उसने अपने आधे मुहूर्तके जागरणका और संगीतका फल उसे दे दिया। उस दानके प्रभावसे राक्षसको ब्रह्मलोक मिला और वह एक हजार वर्षतक वहाँ आनन्दसे रहा।



jab ek bhakt kee saty nishtha ne ek raakshaksh ka bhee sahaj men kalyaan kar diyaa


avantee nagareeke kinaare ek vyakti rahata tha, vah sangeetaka achchha jaanakaar thaa. us sangeetaka upayog vah bhagavaan vishnuke naama-keertan ya unakee avataar kathaaonke gaayanamen karata thaa. bhagavaan vishnupar usaka atoot prem thaa. vah bhagavaan‌ke bataaye sahaj karmaka paalan arthaat ekaadasheeka vrat karata tha aur mandirake paas jaakar jaagaran karata aur raatabhar sangeetase bhagavaan‌ko rijhaaya karata . praatah kaal ghar aata aur sabako khilaakar peechhe prasaad paata thaa. usaka yah niyam bahut dinonse nirvighn chalata a raha thaa.

ek din bhagavaan‌ko chadha़aane hetu phool laaneke liye vah shipraatatavartee vanamen gayaa. vahaan use ek raakshasane pakada़ liya aur use khaana chaahaa. bhaktane kaha ki 'tum kal mujhe kha lenaa. aaj mujhe bhagavaanke saamane raatri jaagaran karana hai aur unhen sangeet sunaana hai, atah aaj mujhe chhoda़ do. is kaaryamen tumhen bhee baadhak naheen hona chaahiye. sampoorn sansaaraka mool saty hai. us satyakee shapath khaakar kahata hoon ki main kal bhagavaankee seva karake tumhaare paas a jaaoongaa. kal tum mujhe kha lenaa.' raakshasane kahaa- 'jab tum satyakee shapath kha rahe ho to jaao, tumhen chhoda़ deta hoon, lekin kal avashy aanaa.'

vah bhagavaanka naama-keertan karate hue mandirapar aayaa. usane pujaareeko phool diye. pujaareene prokshanakar un phoolonko bhagavaanpar chadha़a diya aur aarateekar ghar laut gayaa. vah bhaaee mandirake baahar hee bhoomipar baith gaya aur sangeetamay keertanase vahaanke vaataavaranako sikt karane lagaa. raat beetanepar usane snaan kiya, bhagavaan‌ko namaskaar kiya aur apane vachanako saty karaneke liye vah raakshasake paas ja pahunchaa. raakshasako vishvaas n tha ki vah phir mere paas pahunchegaa. us ko dekhate hee raakshasake hridayamen poojyabhaav paida ho gayaa. usane aadarake saath poochhaa-'mahaabhaag ! pahale yah bataao ki mandirake baahar baithakar raatabhar jaagakar bhagavaan‌ke naamaka keertan karate hue tumhaara kitana samay beet gaya hai?'

us ne kahaa- 'bees varsha.' raakshasane kaha 'tumhaare is satya- paalanake pranase main prabhaavit ho gaya hoon aur chaahata hoon ki tumhen chhoda़ doon, khaaoon naheen; kintu isake liye ek shart hai. vah yah ki tum ek dinake jaagaran aur darshanaka phal mujhe de do. yadi naheen doge to main bhee satyakee shapath leta hoon ki tumhen chhoda़enga naheen, abhee kha jaaoongaa.'

bhakt jaanata tha ki ek raatake jaagaranaka phal denekee apeksha apane praan de dena jyaada achchha hai. isaliye kaha ki 'tum bhookhe ho, mujhe kha jaao. main ek raataka apana puny tumhen deneko taiyaar naheen hoon. tum idhara-udharakee baat n karo, mujhe khaaneke liye bulaaya tha, kha jaao.' raakshasane kaha ki yadi ek raataka phal naheen de sakate tab antim praharaka phal hee de do. isase mera bhee uddhaar ho jaayagaa. maatang (us ) bhee bhakt tha, dayaalu thaa. raakshasakee dasha dekhakar usake prati usamen karuna umada़ aayee aur usane apane aadhe muhoortake jaagaranaka aur sangeetaka phal use de diyaa. us daanake prabhaavase raakshasako brahmalok mila aur vah ek hajaar varshatak vahaan aanandase rahaa.



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