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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 264 - Khand 5, Adhyaya 264

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श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन

पार्वतीजीने कहा- भगवन्! आपने श्रीहरिकी वैभवावस्थाका पूरा-पूरा वर्णन किया। इसमें भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्णका चरित्र बड़ा ही विस्मयजनक है। अहो! भगवान् श्रीराम और परमात्मा श्रीकृष्णकी लीला कितनी अद्भुत है? देवेश्वर! मैं तो इस कथाको सौ कल्पोंतक सुनती रहूँ तो भी मेरा मन कभी इससे तृप्त नहीं होगा। अब मैं इस समय भगवान् विष्णुके उत्तम माहात्म्य और पूजनविधिका श्रवण करना चाहती हूँ।

श्रीमहादेवजीने कहा- देवि ! मैं परमात्मा श्रीहरिके स्थापन और पूजनका वर्णन करता हूँ, सुनो। भगवान्का विग्रह दो प्रकारका बताया गया है-एक तो 'स्थापित' और दूसरा 'स्वयं व्यक्त ।' पत्थर, मिट्टी,लकड़ी अथवा लोहा आदिसे श्रीहरिकी आकृति बनाकर श्रुति, स्मृति तथा आगममें बतायी हुई विधिके अनुसार जो भगवान्‌की स्थापना होती है, वह 'स्थापित विग्रह' है तथा जहाँ भगवान् अपने आप प्रकट हुए हों, वह 'स्वयं व्यक्त विग्रह' कहलाता है। भगवान्‌का विग्रह स्वयं व्यक्त हो या स्थापित, उसका पूजन अवश्य करना चाहिये। देवताओं और महर्षियोंके पूजनके लिये जगत्के स्वामी सनातन भगवान् विष्णु स्वयं ही प्रत्यक्षरूपसे उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। जिसका भगवान्‌के जिस विग्रहमें मन लगता है, उसके लिये वे उसी रूपमें भूतलपर प्रकट होते हैं; अतः उसी रूपमें भगवान्का सदा पूजन करना चाहिये और उसीमें सदा अनुरक्तरहना चाहिये। पार्वती श्रीरंगक्षेत्रमें शयन करनेवाले भगवान् विष्णुका विधिपूर्वक पूजन करना चाहिये। काशीपुरीमें पापहारी भगवान् माधव मेरे भी पूजनीय हैं। जिस-जिस रमणीय भवनमें सनातन भगवान् स्वयं व्यक्त होते हैं, वहाँ-वहाँ जाकर मैं आनन्दका अनुभव किया करता हूँ। भगवान्‌का दर्शन हो जानेपर वे मनोवांछित वरदान देते हैं। इस पृथ्वीपर प्रतिमामें अज्ञानीजनोंको भी सदा भगवान्‌का सान्निध्य प्राप्त होता रहता है। परम पुण्यमय जम्बूद्वीप और उसमें भी भारतवर्षके भीतर प्रतिमामें भगवान् विष्णु सदा सन्निहित रहते हैं; अतः मुनियों तथा देवताओंने भारतवर्ष में ही तप, यज्ञ और क्रिया आदिके द्वारा सदा श्रीविष्णुका सेवन किया है। इन्द्रद्युम्नसरोवर कूर्मस्थान, सिंहाचल करवीरक, काशी, प्रयाग, सौम्य, शालग्रामार्थना नैमिषारण्य, बदरिकाश्रम, कृतशौचतीर्थ, पुण्डरीकतीर्थ, दण्डकवन, मथुरा, वेंकटाचल, श्वेताद्रि, गरुड़ाचल, कांची, अनन्तशयन, श्रीरंग, भैरवगिरि, नारायणाचल, वाराहतीर्थ और वामनाश्रम - इन सब स्थानोंमें भगवान् श्रीहरि स्वयं व्यक्त हुए हैं; अतः उपर्युक्त स्थान सम्पूर्ण कामनाओं तथा फलोंको देनेवाले हैं। इनमें श्रीजनार्दन स्वयं ही सन्निहित होते हैं। ऐसे ही स्थानोंमें जो भगवान्का विग्रह है, उसे मुनिजन 'स्वयं व्यक्त' कहते हैं। महान् भगवद्भकोंमें ब्रेष्ठ पुरुष यदि विधिपूर्वक भगवान् की स्थापना करके मन्त्रके द्वारा उनका सान्निध्य प्राप्त करावे तो उस स्थापनाका विशेष महत्त्व है। गाँवों अथवा परोंमें जो ऐसे विग्रह हो, उनमें भगवान्‌का पूजन करना चाहिये। सत्पुरुषोंने घरपर शालग्रामशिलाकी पूजा उत्तम बतायी है।

पार्वती भगवान्की मानसिक पूजाका सबके लिये समानरूपसे विधान है, अतः अपने-अपने अधिकारके अनुसार सबको जगदीश्वरकी पूजा करनी चाहिये जो भगवान्‌ के सिवा दूसरे किसी देवताके भक्त नहीं है; भगवत्प्राप्तिके सिवा और किसी फलके साधक नहीं हैं, जो वेदवेत्ता, ब्रह्मतत्त्व, वीतराग, मुमुक्षु गुरुभक्त, प्रसन्नात्मा, साधु, ब्राह्मण अथवा इतर मनुष्य हैं, उनसबको सदा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि यह वेद और स्मृतियोंमें बताये हुए उत्तम सदाचारका सदा पालन करे। उनमें बताये हुए कर्मोंका कभी उल्लंघन न करे। शम (मनोनिग्रह), दम (इन्द्रियसंयम), तप (धर्मके लिये क्लेशसहन एवं तितिक्षा), शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता), सत्य (मन, वाणी और क्रियाद्वारा सत्यका पालन), मांस न खाना, चोरी न करना और किसी भी जीवकी हिंसा न करना - यह सबके लिये धर्मका साधन है।

रातके अन्तमें उठकर विधिपूर्वक आचमन करे। फिर गुरुजनोंको नमस्कार करके मन-ही-मन भगवान् विष्णुका स्मरण करे। मौन हो पवित्रभावसे भक्तिपूर्वक सहस्रनामका पाठ करे। तत्पश्चात् गाँवसे बाहर जाकर विधिपूर्वक मल-मूत्रका त्याग करे। फिर उचितरूपसे शरीरकी शुद्धि करके कुल्ला करे और शुद्ध एवं पवित्र हो दन्तधावन करके विधिपूर्वक स्नान करे। तुलसीके मूलभागकी मिट्टी और तुलसीदल लेकर मूलमन्त्रसे और गायत्रीमन्त्रसे अभिमन्त्रित करके मन्त्रसे ही उसको सम्पूर्ण शरीरमें लगावे। फिर अघमर्षण करके स्नान करे। गंगाजी भगवान्के चरणोंसे प्रकट हुई हैं। अतः उनके निर्मल जलमें गोता लगाकर अघमर्षण-‍ - सूक्तका जप करे। फिर आचमन करके पुरुषसूक्तके मन्त्रोंसे क्रमशः मार्जन करे। पुनः जलमें डुबकी लगाकर अट्ठाईस या एक सौ आठ बार मूलमन्त्रका जप करे। इसके बाद वैष्णव पुरुष उक्त मन्त्रसे ही जलको अभिमन्त्रित करके उससे आचमन करे। तदनन्तर देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण करे। फिर वस्त्र निमोड़ ले। उसके बाद आचमन करके धौतवस्त्र पहने। वैष्णव पुरुष निर्मल एवं रमणीय मृत्तिका ले उसे मन्यसे अभिमन्त्रित करके ललाट आदिमें लगावे। आलस्य छोड़कर परिगणित अंगोंमें ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करे। उसके बाद विधिपूर्वक सन्ध्योपासना करके गायत्रीका जप करे। तदनन्तर मनको संयममें रखकर घर जाय और पैर धो मौनभावसे आचमन करके एकाग्रचित्त हो पूजामण्डपमें प्रवेश करे।एक सुन्दर सिंहासनको फूलोंसे सजाकर भगवान् लक्ष्मीनारायणको विराजमान करे। फिर गन्ध, पुष्प और अक्षत आदिके द्वारा विधिपूर्वक भगवान्का पूजन आरम्भ करे। विग्रह स्थापित, स्वयं व्यक्त अथवा शालग्रामशिला - कोई भी क्यों न हो, श्रुति, स्मृति और आगमोंमें बतायी हुई विधिके अनुसार उसका पूजन उचित है। वैष्णव पुरुष शुद्धचित हो गुरुके उपदेशके अनुसार भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुका यथायोग्य पूजन करे। वेदों तथा ब्राह्मणग्रन्थोंमें बतायी हुई पूजा 'श्रीत' कहलाती है। वासिष्ठी पद्धतिके अनुसार की जानेवाली पूजाको 'स्मार्त' कहते हैं। तथा पांचरात्रमें बताया हुआ विधान 'आगम' कहलाता है। भगवान् विष्णुकी आराधना बहुत ही उत्तम कर्म है। इस क्रियाका कभी लोप नहीं करना चाहिये। आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय, स्नानीय वस्तु यज्ञोपवीत गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल एवं नमस्कार आदि उपचारोंके द्वारा अपनी शक्तिके अनुसार प्रसन्नतापूर्वक श्रीविष्णुकी आराधना करे। पुरुषसूककी प्रत्येक ऋचा तथा मूलमन्त्र- इन दोनोंहीसे वैष्णव पुरुष षोडशोपचार समर्पण करे। पुनः प्रत्युपचार अर्पण करके पुष्पांजलि दे वैष्णवको चाहिये कि वह मुद्राद्वारा भगवान् जगन्नाथका आवाहन करे। फिर फूल और मुद्रासे ही आसन दे। इसी प्रकार क्रमशः पाद्य, अर्घ्य, आचमन और स्नानके लिये भिन्न-भिन्न पात्रोंमें निर्मल जल समर्पित करे। उस जलमें मांगलिक द्रव्योंके साथ तुलसीदल मिला हो इसके बाद उक्त दोनों ही प्रकारके मन्त्रोंसे प्रत्युपचार अर्पण करे सुगन्धित तेलसे भगवान्को अभ्यंग लगावे कस्तूरी और चन्दनसे उनके श्रीअंगमें उबटन लगावे। फिर मन्त्रका पाठ करते हुए सुगन्धित जलसे भगवान्‌को स्नान करावे। तत्पश्चात् दिव्य वस्त्र और आभूषणोंसे विधिपूर्वक भगवान्‌का शृंगार करे। फिर उन्हें मधुपर्क दे तथा भक्तिके साथ सुगन्धित चन्दन और सौरभयुक्त सुन्दर पुष्प निवेदन करे। इसके बाद दशांग या अष्टांग धूप, मनोहर दीप और भाँति-भाँति के नैवेद्य भेंट करे। नैवेद्य खरऔर मालपुआ भी होने चाहिये। नैवेद्यके अन्तमें आचमन कराकर भक्तियुक्त हृदयसे कर्पूरमिश्रित ताम्बूल निवेदित करे। फिर घीकी बत्तियोंसे आरती करके भगवान्‌को फूलोंकी माला पहनावे। तदनन्तर समीप जा विनीतभावसे प्रणाम करके उत्तम स्तोत्रोंद्वारा भगवान् का स्तवन करे। फिर उन्हें गरुड़के अंकमें शयन कराकर मंगलार्घ्य निवेदन करे। उसके बाद पवित्र नामौका कीर्तन करके होम करे भगवान्‌को भोग लगाये हुए नैवेद्यसे जो शेष बचे, उसीसे अग्निमें हवन करे। प्रत्येक आहुतिके साथ पुरुषसूक्त अथवा मंगलमय श्रीसूक्तकी एक-एक ऋचाका पाठ करे। वेदोक्त विधिसे स्थापित अग्निमें मृतमिश्रित हविष्यके द्वारा उपर्युक्त मन्त्ररत्नका एक सौ आठ या अट्ठाईस बार जप करके हवन करना चाहिये और हवनकालमें यज्ञस्वरूप महाविष्णुका ध्यान भी करना चाहिये।

शुद्ध जाम्बूनद नामक सुवर्णके समान जिनका श्यामवर्ण है, जो शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले हैं, जिनमें अंग- उपांगौसहित सम्पूर्ण वेद-वेदान्तोंका ज्ञान भरा हुआ है तथा जो श्रीदेवीके साथ सुशोभित हो रहे हैं, उन भगवान्‌का ध्यान करके होम करना चाहिये। मन्त्रद्वारा होम करनेके पश्चात् नामोंका उच्चारण करके एक एकके लिये एक-एक आहुति देनी चाहिये। भगवद्भकोंमें श्रेष्ठ पुरुष भगवान्के 'नित्य भक्तों के उद्देश्यसे उनके नाम ले-लेकर आहुति दे। पहले क्रमशः भूदेवी, लीलादेवी और विमला आदि शक्तियाँ होमकी अधिकारिणी हैं। फिर अनन्त, गरुड आदि, तदनन्तर वासुदेव आदि, तत्पश्चात् शक्ति आदि, इनके बाद केशव आदि विग्रह, संकर्षण आदि व्यूह, मत्स्य कूर्म आदि अवतार, चक्र आदि आयुध, कुमुद आदि देवता, चन्द्र आदि देव, इन्द्र आदि लोकपाल तथा धर्म आदि | देवता क्रमशः होमके अधिकारी हैं; इन सबका हवन और विशेषरूपसे पूजन करना चाहिये। इस प्रकार भगवद्भक्त पुरुष नित्य पूजनकी विधिमें प्रतिदिन एकाग्रचित हो हवन करे। इस हवनका नाम 'वैकुण्ठहोम' है। गृहमें पूजा करनेपर उस घर के दरवाजेपर पंचयज्ञकीविधिसे बलि अर्पण करे, फिर आचमन कर ले। तत्पश्चात् कुशके आसनपर काला मृगचर्म बिछाकर उस शुद्ध आसनके ऊपर बैठे। मृगचर्म अपने-आप मेरे हुए मृगका होना चाहिये। पद्मासनसे बैठकर पहले भूतशुद्धि करे, फिर जितेन्द्रिय पुरुष मन्त्रपाठपूर्वक तीन बार प्राणायाम कर ले। तदनन्तर मन-ही-मन यह भावना करे कि 'मेरे हृदय कमलका मुख ऊपरकी ओर है और वह विज्ञानरूपी सूर्यके प्रकाशसे विकसित हो रहा है।' इसके बाद श्रेष्ठ वैष्णव पुरुष उस कमलकी वेदत्रयीमयी कर्णिकामें क्रमशः अग्निबिम्ब, सूर्यबिम्ब और चन्द्रबिम्बका चिन्तन करे। उन बिम्बोंके ऊपर नाना प्रकारके रत्नोंद्वारा निर्मित पीठकी भावना करे। इसके ऊपर बालरविके सदृश कान्तिमान् अष्टविध ऐश्वर्यरूप अष्टदलकमलका चिन्तन करे। प्रत्येक दल अष्टाक्षर मन्त्रके एक-एक अक्षरके रूपमें हो। फिर ऐसी भावना करे कि उस अष्टदलकमलमें श्रीदेवीके साथ भगवान् विष्णु विराजमान हैं, जो कोटि चन्द्रमाओंके समान प्रकाशमान हो रहे हैं। उनके चार भुजाएँ, सुन्दर श्रीअंग तथा हाथोंमें शंख, चक्र और गदा है। पद्मपत्रके समान विशाल नेत्र शोभा पा रहे हैं। वे समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न दिखायी देते हैं। उनके हृदयमें श्रीवत्सका चिह्न है, वहीं कौस्तुभमणिका प्रकाश छा रहा है। भगवान् पीत वस्त्र, विचित्र आभूषण, दिव्य श्रृंगार, दिव्य चन्दन, दिव्य पुष्प, कोमल तुलसीदल और वनमालासे विभूषित हैं। कोटि-कोटि बालसूर्यके सदृश उनकी सुन्दर कान्ति है। उनके श्रीविग्रहसे सटकर बैठी हुई श्रीदेवी भी सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न दिखायी देती हैं।

इस प्रकार ध्यान करते हुए एकाग्रचित्त एवं शुद्ध हो अष्टाक्षर मन्त्रका एक हजार या एक सौ बार यथाशक्ति जप करे फिर भक्तिपूर्वक मानसिक पूजा करके विराम करे। उस समय जो भगवद्भक्त पुरुष वहाँ पधारे हों, उन्हें अन्न-जल आदिसे सन्तुष्ट करे और जब वे जाने लगें तो उनके पीछे-पीछे थोड़ी दूर जाकर विदाकरे। देवताओं तथा पितरोंका विधिपूर्वक पूजन एवं तर्पण करे और अतिथि एवं भृत्यवर्गीका यथावत् सत्कार करके सबके अन्तमें वह और उसकी पत्नी भोजन करे। यक्ष, राक्षस और भूतोंका पूजन सदा त्याग दे। जो श्रेष्ठ विप्र उनका पूजन करता है, वह निश्चय ही चाण्डाल हो जाता है। ब्रह्मराक्षस, वेताल, यक्ष तथा भूतोंका पूजन मनुष्योंके लिये महाघोर कुम्भीपाक नामक नरककी प्राप्ति करानेवाला है। यक्ष और भूत आदिके पूजनसे कोटि जन्मोंके किये हुए यज्ञ, दान और शुभ कर्म आदि पुण्य तत्काल नष्ट हो जाते हैं।" जो यक्षों, पिशाचों तथा तमोगुणी देवताओंको निवेदित किया हुआ अन्न खाता है, वह पीब और रक्त भोजन करनेवाला होता है। जो स्त्री यक्ष, पिशाच, सर्प और राक्षसोंकी पूजा करती है, वह नीचे मुँह किये घोर कालसूत्र नामक नरकमें गिरती है। अतः यक्ष आदि तामस देवताओंकी पूजा त्याग देनी चाहिये।

वैष्णव पुरुष विश्ववन्द्य भगवान् नारायणका पूजन करके उनके चारों ओर विराजमान देवताओंका पूजन करे भगवान्‌को भोग लगाये हुए अन्नमेंसे निकालकर उसीसे उनके लिये बलि निवेदन करे। भगवत्प्रसादसे ही उनके निमित्त होम भी करे। देवताओंके लिये भी भगवत्प्रसादस्वरूप हविष्यका ही हवन करे। पितरोंको ही प्रसाद अर्पण करे; इससे वह सब फल प्राप्त करता है। प्राणियोंको पीड़ा देना विद्वानोंकी दृष्टिमें नरकका कारण है। पार्वती ! मनुष्य दूसरोंकी वस्तुको जो बिना दिये ही ले लेता है, वह भी नरकका कारण है। अगम्या (परायी) स्त्रीके साथ संभोग, दूसरोंके धनका अपहरण तथा अभक्ष्य वस्तुका भक्षण करनेसे तत्काल नरककी प्राप्ति होती है। जो अपनी विवाहिता पत्नीको छोड़कर दूसरी स्त्रीके साथ संभोग करता है, उसका वह कर्म 'अगम्यागमन' कहलाता है, जो तत्काल नरककी प्राप्तिका कारण है । पतित, पाखण्डी और पापी मनुष्योंके संसर्गसे मनुष्य अवश्य नरकमें पड़ता है। उनसे सम्पर्करखनेवालेका भी संसर्ग छोड़ देना चाहिये। एकान्ती पुरुष महापातकयुक्त ग्रामको छोड़ दे और परमैकान्ती मनुष्य वैसे देशका भी परित्याग कर दे। अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुसार कर्म, ज्ञान और भक्ति आदिका साधन वैष्णव साधन माना गया है। जो भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार कर्म, ज्ञान आदिका अनुष्ठान करता है, यह वासुदेवपरायण ब्राह्मण 'एकान्ती' कहलाता है। वैष्णव पुरुष निषिद्ध कर्मको मन-बुद्धिसे भी त्याग दे । एकान्ती पुरुष अपने धर्मको निन्दा करनेवाले शास्त्रको मनसे भी त्याग दे और परम एकान्ती भक्त हेव बुद्धिसे उसका परित्याग करे।

कर्म तीन प्रकारका माना गया है— नित्य, नैमित्तिक और काम्य। इसी प्रकार मुनियोंने ज्ञानके भेदोंका भी वर्णन किया है - कृत्याकृत्यविवेक ज्ञान, परलोकचिन्तन ज्ञान, विष्णुप्राप्तिसाधन- ज्ञान तथा विष्णुस्वरूप ज्ञान- ये चार प्रकारके ज्ञान हैं। पार्वती नैमित्तिक कृल्पमें भगवान्‌का विशेषरूपसे विधिवत् पूजन करना चाहिये। कार्तिकमासमें प्रतिदिन चमेलीके फूलोंसे श्रीहरिकी पूजा करे, उन्हें अखण्ड दीप दे तथा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करे। फिर कार्तिकके अन्तमें ब्राह्मणोंको भोजन करावे, इससे वह श्रीहरिके सायुज्यको प्राप्त होता है। पौषमासमें सूर्योदयके पहले उठकर लगातार एक मासतक उत्पल तथा श्याम श्वेत कनेरपुष्पोंसे भगवान् विष्णुका पूजन करे। तत्पश्चात् यथाशक्ति धूप, दीप और नैवेद्य निवेदन करे। मासकी समाप्ति होनेपर श्रेष्ठ भगवद्भक्तोंको भोजन करावे। ऐसा करनेसे मनुष्य निश्चय ही एक हजार अश्वमेध यज्ञोंका फल प्राप्त करता है । माघमासमें सूर्योदय के समय विशेषतः नदीके जलमें स्नान करके उत्पल (कमल) के पुष्पोंसे माधवकी पूजा करनी चाहिये और उन्हें भक्तिपूर्वक घृतमिश्रित दिव्य खीरका भोग लगाना चाहिये। चैत्रमासमें वकुल (मौलसिरी) और चम्पाके फूलोंसे भगवान्की पूजा करके गुड़मिश्रित अन्नका भोग लगावे। तदनन्तर मासकी समाप्ति होनेपर एकाग्रचित्त हो वैष्णव ब्राह्मणको भोजन करावे। ऐसा करनेसे प्रतिदिन एक हजार वर्षोंकी पूजाका पुण्य प्राप्तहोता है। वैशाखमासमें शतपत्र और महोत्पलके पुष्पोंसे विधिवत् भगवान्का पूजन करके उन्हें दही, अन्न और फलके साथ गुड़ तथा जल भक्तिपूर्वक निवेदन करे । इससे लक्ष्मीसहित जगदीश्वर श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं। ज्येष्ठमासमें श्वेत कमल, गुलाब, कुमुद और उत्पलके पुष्पोंसे भगवान् हृषीकेशका पूजन करके उन्हें आमके फलोंके साथ अन्न भोग लगावे । भक्तिपूर्वक ऐसा करनेसे मनुष्यको कोटि गोदानका फल प्राप्त होता है। फिर मासके अन्तमें वैष्णवोंको भोजन करानेसे सबका फल अनन्त हो जाता है। आषाढमासमें देवदेवेश्वर लक्ष्मीपतिको प्रतिदिन श्रीपुष्पोंसे पूजा करे और उन्हें खीरका भोग लगावे। फिर मासकी समाप्ति होनेपर उत्तम भगवद्भक्त ब्राह्मणोंको भोजन करावे। ऐसा करनेसे वैष्णव पुरुष साठ हजार वर्षोंकी पूजाका फल पाता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। श्रावणमासमें नागकेसर और केवड़ेसे भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुकी पूजा करनेसे मनुष्यका फिर इस लोकमें जन्म नहीं होता। उस समय भक्तिके साथ घी और शक्कर मिले हुए पूएका नैवेद्य निवेदन करे और श्रेष्ठ भगवद्भक्त ब्राह्मणोंको भोजन करावे भादोंमें कुन्द और कटसरैयाके फूलोंसे पूजा करके खीरका भोग लगावे आश्विनमें नीलकमलसे मधुसूदनकी पूजा करे और भक्तिके साथ उन्हें खीर-पूआ निवेदन करे इसी प्रकार कार्तिकमें कोमल तुलसीदलोंके द्वारा भक्तिपूर्वक अच्युतका पूजन करनेसे उनका सायुज्य प्राप्त होता है दूध, घी और शक्करको बनी हुई मिठाई, खीर और मालपुआ - इन्हें भक्तिपूर्वक एक-एक करके भगवान्‌को निवेदन करे।

अमावास्या तिथि, शनिवार, वैष्णवनक्षत्र (श्रवण), सूर्यसंक्रान्ति, व्यतीपात, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके अवसरपर अपनी शक्तिके अनुसार भगवान् विष्णुका विशेषरूपसे पूजन करे। श्रेष्ठ द्विजको उचित है कि गुरुके उत्क्रमणके दिन तथा श्रीहरिके अवतारोंके जन्म-नक्षत्रोंमें अपनी शक्तिके अनुसार वैष्णव-याग करे उसमें वेदमन्त्रोंका उच्चारण करके प्रत्येक ऋचाके साथ भगवान्‌को पुष्पांजलि समर्पण करे। यथाशक्ति वैष्णव ब्राह्मणोंको भोजन करावे और दक्षिणा दे। ऐसा करनेसे वह अपनी करोड़ोंपीढ़ियोंका उद्धार करके वैष्णवपद (वैकुण्ठधाम ) - को प्राप्त होता है। श्रेष्ठ वैष्णव यदि सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा भगवान्का यजन करनेमें असमर्थ हो तो केवल वैष्णव अनुवाकद्वारा लगातार सात राततक प्रतिदिन एक सहस्र पुष्पांजलि समर्पण करे और हविष्यसे हवन करके भगवान्‌का यजन करे। विद्वान् पुरुष विशेषतः श्रेष्ठ भगवद्भक्तोंका पूजन करे। यज्ञान्तमें अपने वैभवके अनुसार अवभृथस्नानका उत्सव करे। अवभृथस्नान भी उसे वैष्णव अनुवाकोंद्वारा ही करना चाहिये विधिपूर्वक स्नान करके एक सुन्दर पात्रमें आचार्यके चरणोंको भक्तिपूर्वक पखारे । फिर गन्ध, पुष्प, वस्त्र और आभूषण आदिके द्वारा पूजा करे यथाशक्ति ताम्बूल और फूलोंसे सत्कार करे और अन्न-पान आदिसे भोजन कराकरबारंबार प्रणाम करे। जाते समय गाँवकी सीमातक पहुँचाने जाय और वहाँ प्रणाम करके उन्हें विदा करे। इस प्रकार जीवनभर आलस्य छोड़कर भगवान् और उनके भक्तोंका विशेषरूपसे पूजन करना चाहिये। समस्त आराधनाओंमें श्रीविष्णुकी आराधना सबसे श्रेष्ठ है। उससे भी उनके भक्तोंकी पूजा करनी अधिक श्रेष्ठ है। जो भगवान् गोविन्दकी पूजा करके उनके भक्तोंका पूजन नहीं करता, उसे भगवद्भक्त नहीं जानना चाहिये । वह केवल दम्भी है। अत: सर्वथा प्रयत्न करके श्रीविष्णुभक्तका पूजन करना चाहिये। उनके पूजनसे मनुष्य समस्त दुःखराशिके पार हो जाता है। पार्वती ! इस प्रकार मैंने तुमसे श्रीविष्णुकी श्रेष्ठ आराधना, नित्य-नैमित्तिक कृत्य तथा भगवद्भक्तोंकी पूजाका वर्णन किया है।

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पद्म पुराण को पद्मपुराण और Padma Purana,Padama Purana आदि नामों से भी जाना जाता है।

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार