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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 110 - Khand 4, Adhyaya 110

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राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना

सुमति कहते हैं - सुमित्रानन्दन। गण्डकी नदीका यह अनुपम माहात्म्य सुनकर राजा रत्नग्रीवने अपनेको 1 कृताथ माना। उन्होंने उस तीर्थ स्नान करके अपने समस्त पितरोंका तर्पण किया। इससे उनको बड़ा हर्ष हुआ। फिर शालग्रामशिलाकी पूजाके उद्देश्यसे उन्होंने गण्डकी नदीसे चौबीस शिलाएँ ग्रहण की और चन्दन आदि उपचार चढ़ाकर बड़े प्रेमसे उनकी पूजा की। तत्पश्चात् वहाँ दीनों और अंधोंको विशेष दान देकर राजाने पुरुषोत्तममन्दिरको जानेके लिये प्रस्थान किया। इस प्रकार क्रमशः यात्रा करते हुए वे उस तीर्थमें पहुँचे, जहाँ गंगा और समुद्रका संगम हुआ है वहाँ जाकर उन्होंने ब्राह्मणोंसे प्रसन्नतापूर्वक पूछा—'स्वामिन्! बताइये, नीलाचल यहाँसे कितनी दूर है? जहाँ साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं तथा देवता और असुर भी जिनके सामने मस्तक नवाते हैं।'

उस समय तपस्वी ब्राह्मणको बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने राजासे बड़े आदरके साथ कहा- 'राजन् ! नीलपर्वतका विश्ववन्दित स्थान है तो यही; किन्तु न जाने वह हमें दिखायी क्यों नहीं देता।' वे बारंबार इस बातको दुहराने लगे कि 'नीलाचलका वह स्थान, जो महान् पुण्यफल प्रदान करनेवाला है तथा जहाँ भगवान् पुरुषोत्तमका निवास है, यही है। उसका दर्शन क्यों नहीं होता? यह बात समझमें नहीं आती। इसी स्थानपर मैंने स्नान किया था, यहीं मुझे वे भील दिखायी दिये थे और इसी मार्गसे मैं पर्वतके ऊपर चढ़ा था।' यह बात सुनकर राजाके मनमें बड़ी व्यथा हुई, वे कहने लगे- 'विप्रवर मुझे पुरुषोत्तमका दर्शन कैसे होगा ? तथा वह नीलपर्वत कैसे दिखायी देगा ? मुझे इसका कोई उपाय बताइये।' तब तपस्वी ब्राह्मणने विस्मित होकर कहा—' राजन् ! हमलोग गंगासागर-संगममें स्नान करके यहाँ तबतक ठहरे रहें जबतक कि नीलाचलका दर्शन न हो जाय। भगवान् पुरुषोत्तम पापहारी कहलातेहैं। वे भक्तवत्सल नाम धारण करते हैं; अतः हमलोगों पर शीघ्र ही कृपा करेंगे। वे देवाधिदेवोंके भी शिरोमणि हैं. अपने भक्तौका कभी परित्याग नहीं करते। अबतक उन्होंने अनेकों भक्तोंकी रक्षा की है, इसलिये महामते ! तुम उन्हींका गुणगान करो।' ब्राह्मणकी बात सुनकर राजाने व्यथित चित्तसे गंगासागर संगममें स्नान किया। इसके बाद उन्होंने उपवासका व्रत लिया। 'जब भगवान् पुरुषोत्तम दर्शन देनेकी कृपा करेंगे तभी उनकी पूजा करके भोजन करूँगा, अन्यथा निराहार ही रहेंगा।' ऐसा नियम करके वे गंगासागरके तटपर बैठ गये और भगवान्का गुणगान करते हुए उपवासव्रतका पालन करने लगे।

राजा बोले- प्रभो! आप दीनोंपर दया करनेवाले हैं; आपकी जय हो। भक्तोंका दुःख दूर करनेवाले पुरुषोत्तम! आपका नाम मंगलमय है, आपकी जय हो। भक्तजनोंकी पीड़ाका नाश करनेके लिये ही आपने सगुण विग्रह धारण किया है, आप दुष्टोंका विनाश करनेवाले हैं; आपकी जय हो! जय हो !! आपके भक्त प्रह्लादको उसके पिता दैत्यराजने बड़ी व्यथा पहुँचायी शूलीपर चढ़ाया, फाँसी दी पानीमें डुबोया, आगमें जलाया और पर्वतसे नीचे गिराया; किन्तु आपने नृसिंहरूप धारण करके प्रह्लादको तत्काल संकटसे बचा लिया उसका पिता देखता ही रह गया। मतवाले गजराजका पैर ग्राहके मुखमें पड़ा था और वह अत्यन्त दुःखी हो रहा था उसकी दशा देख आपके हृदय में करुणा भर आयी और आप उसे बचानेके लिये शीघ्र ही गरुड़पर सवार हुए किन्तु आगे चलकर आपने पक्षिराज गरुड़को भी छोड़ दिया और हाथमें चक्र लिये बड़े वेगसे दौड़े। उस समय अधिक वेगके कारण आपकी वनमाला जोर-जोर से हिल रही थी और पीताम्बरका छोर आकाशमें फहरा रहा था। आपने | तत्काल पहुँचकर गजराजको ग्राहके चंगुलसे छुड़ायाऔर ग्राहको मौत के घाट उतार दिया। जहाँ-जहाँ आपके सेवकोंपर संकट आता है वहीं-वहीं आप देह धारण करके अपने भक्तोंकी रक्षा करते हैं। आपकी लीलाएँ मनको मोहने तथा पापको हर लेनेवाली हैं। उन्होंके द्वारा आप भक्तोंका पालन करते हैं। भक्तवल्लभ ! आप दीनोंके नाथ हैं, देवताओंके मुकुटमें जड़े हुए हीरे आपके चरणोंका स्पर्श करते हैं। प्रभो आप करोड़ों पापको भस्म करनेवाले हैं। मुझे अपने चरण कमलौका दर्शन दीजिये यदि मैं पापी हूँ तो भी आपके मानसमें आपको प्रिय लगनेवाले इस पुरुषोत्तमक्षेत्रमें आया हूँ; अतः अब मुझे दर्शन दीजिये देव-दानववन्दित परमेश्वर ! हम आपके ही हैं। आप पाप - राशिका नाश करनेवाले हैं। आपकी यह महिमा मुझे भूली नहीं है। सबके दुःखोंको दूर करनेवाले दयामय! जो लोग आपके पवित्र नामका कीर्तन करते हैं, वे पाप समुद्रसे तर जाते हैं। यदि संतोंके मुखसे सुनी हुई मेरी यह बात सच्ची है तो आप मुझे प्राप्त होइये - मुझे दर्शन देकर कृतार्थ कीजिये।

सुमति कहते हैं- इस प्रकार राजा रत्नग्रीव रात-दिन भगवान्का गुणगान करते रहे। उन्होंने क्षणभरके लिये भी न तो कभी विश्राम किया, न नींद ली और न कोई सुख ही उठाया। वे चलते-फिरते, ठहरते, गीत गाते तथा वार्तालाप करते समय भी निरन्तर यही कहते कि- 'पुरुषोत्तम ! कृपानाथ! आप मुझे अपने स्वरूपकी झाँकी कराइये।' इस तरह गंगासागर के तटपर रहते हुए राजाके पाँच दिन व्यतीत हो गये। तब दयासागर श्रीगोपालने कृपापूर्वक विचार किया कि 'यह राजा मेरी महिमाका गान करनेके कारण सर्वथा पापरहित हो गया है; अतः अब इसे मेरे देव-दानववन्दित प्रियतम विग्रहका दर्शन होना चाहिये।' ऐसा सोचकर भगवान्का हृदय करुणासे भर गया और वे संन्यासीका वेष धारण करके राजाके समीप गये। तपस्वी ब्राह्मणने देखा, भगवान् अपने भक्तपर कृपा करनेके लिये हाथमें त्रिदण्ड ले यतिका वेष बनाये यहाँ उपस्थित हुए हैं। नृपश्रेष्ठ रत्नग्रीवने 'ॐ नमो नारायणाय' कहकरसंन्यासी बाबाको नमस्कार किया और अर्घ्य, पाद्य तथा आसन आदि निवेदन करके उनका विधिवत् पूजन किया। इसके बाद वे बोले-'महात्मन्! आज मेरे सौभाग्यकी कोई तुलना नहीं है; क्योंकि आज आप जैसे साधु पुरुषने कृपापूर्वक मुझे दर्शन दिया है। मैं समझता हूँ, इसके बाद अब भगवान् गोविन्द भी मुझे अपना दर्शन देंगे।' यह सुनकर संन्यासी बाबाने कहा
'राजन्! मेरी बात सुनो, मैं अपनी ज्ञानशक्तिसे भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालकी बात जानता हूँ, इसलिये जो कुछ भी कहूँ, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनना, कल दोपहरके समय भगवान् तुम्हें दर्शन देंगे, वही दर्शन, जो ब्रह्माजीके लिये भी दुर्लभ है, तुम्हें सुलभ होगा। तुम अपने पाँच आत्मीय जनोंके साथ - परमपदको प्राप्त होओगे। तुम, तुम्हारे मन्त्री, तुम्हारी रानी, ये तपस्वी ब्राह्मण तथा तुम्हारे नगरमें रहनेवाला करम्ब नामका साधु, जो जातिका तन्तुवाय- कपड़ा बुननेवाला जुलाहा है— इन सबके साथ तुम पर्वत श्रेष्ठ नीलगिरिपर जा सकोगे। वह पर्वत देवताओंद्वारा पूजित तथा ब्रह्मा और इन्द्रद्वारा अभिवन्दित है।' यह कहकर संन्यासी बाबा अन्तर्धान हो गये, अब वे कहीं दिखायी नहीं देते थे। उनकी बात सुनकर राजाको बड़ा हर्ष हुआ। साथ ही विस्मय भी उन्होंने तपस्वी ब्राह्मणसे पूछा- स्वामिन्! वे संन्यासी कौन थे, जो यहाँ आकर मुझसे बात कर गये हैं, इस समय वे फिर दिखायी नहीं देते, कहाँ चले गये? उन्होंने मेरे चित्तको बड़ा हर्ष प्रदान किया है।

तपस्वी ब्राह्मणने कहा- राजन् ! वे समस्त पापका नाश करनेवाले भगवान् पुरुषोत्तम ही थे, जो तुम्हारे महान् प्रेमसे आकृष्ट होकर यहाँ आये थे। कल दोपहरके समय महान् पर्वत नीलगिरि तुम्हारे सामने प्रकट होगा, तुम उसपर चढ़कर भगवान्‌का दर्शन करके कृतार्थ हो जाओगे।

ब्राह्मणका यह वचन अमृत-राशिके समान सुखदायी प्रतीत हुआ; उसने राजाके हृदयकी सारी चिन्ताओंका नाश कर दिया। उस समय कांची नरेशकोजो आनन्द मिला, उसका ब्रह्माजी भी अनुभव नहीं कर सकते। दुन्दुभी बजने लगी तथा वीणा, पणव और गोमुख आदि बाजे भी बज उठे। महाराज रत्नग्रीवके मनमें उस समय बड़ा उल्लास छा गया था। वे प्रतिक्षण भगवान्का गुणगान करते हुए, बचते खड़े होते हँसते बोलते और बात करते थे। उन्हें सब सन्तापका नाश करनेवाले घनीभूत आनन्दकी प्राप्ति हुई थी। तदनन्तर सारा दिन भगवान्‌के कोन और स्मरणमें बिताकर राजा रत्नग्रीव रातमें गंगाजीके तटपर, जो महान् फल प्रदान करनेवाला हूँ सो रहे सपने में उन्होंने देखा, 'मेरा स्वरूप चतुर्भुज हो गया है। मैं शंख, चक्र, गदा, पद्म और धनुष धारण किये हुए हूँ तथा भगवान् पुरुषोत्तमके सामने रुद्र आदि देवताओंके साथ नृत्य कर रहा हूँ।'

उन्हें यह भी दिखायी दिया कि शंख, चक्र, गदा और पद्म आदि आयुध तथा विष्वक्सेन आदि पार्षदगण परम सुन्दर दिव्य स्वरूपसे प्रकट हो सदा श्रीलक्ष्मीपतिकी उपासनामें संलग्न रहते हैं। यह सब देखकर उन्हें अद्भुत हर्ष और आश्चर्य हुआ। अपनी मनोवांछित कामना पूर्ण करनेवाले भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन पाकरमहाबुद्धिमान् राजाने अपनेको उनका कृपापात्र माना। स्वप्नमें ये सारी बातें देखकर जब वे प्रातः काल नींद से उठे तो तपस्वी ब्राह्मणको बुलाकर उन्होंने अपने देखे हुए सपनेका सारा समाचार उनसे कह सुनाया। उसे सुनकर बुद्धिमान् ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ, उन्होंने कहा-'राजन् तुमने जिन भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन किया है, वे तुम्हें अपना शंख, चक्र आदि चिह्नोंसे विभूषित स्वरूप प्रदान करना चाहते हैं।' यह सुनकर महामना रत्नग्रीवने दीन दुःखियाँको उनकी इच्छा के अनुसार दान दिलाया। फिर गंगासागर संगममें स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण किया तथा भगवान्के गुणका गान करते हुए वे उनके दर्शनकी प्रतीक्षा करने लगे। तदनन्तर जब दोपहरका समय हुआ तो आकाशमें बारंबार दुन्दुभियाँ बजने लगीं देवताओंके 1 हाथसे बजाये जानेके कारण उनसे बड़े जोरकी आवाज होती थी। सहसा राजाके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा हुई देवता कहने लगे-'नृपश्रेष्ठ! तुम धन्य हो ! नीलाचलका प्रत्यक्ष दर्शन करो।' देवताओंकी कही हुई यह बात ज्यों ही राजाके कानोंमें पड़ी, त्यों ही नीलगिरिके नामसे प्रसिद्ध वह महान् पर्वत उनकी आँखोंके समक्ष प्रकट हो गया। करोड़ों सूर्योके समान उसका प्रकाश छा रहा था। चारों ओरसे सोने और चाँदीके शिखर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। राजा सोचने लगे - क्या यह अग्नि प्रज्वलित हो रहा है या दूसरे सूर्यका उदय हुआ है? अथवा स्थिर कान्ति धारण करनेवाला विद्युतपुंज ही सहसा सामने प्रकट हो गया है?"

तपस्वी ब्राह्मणने अत्यन्त शोभासम्पन्न नीलगिरिको देखकर राजासे कहा-'महाराज! यही वह परम पवित्र महान् पर्वत है।' यह सुनकर नृपश्रेष्ठ रत्नग्रीवने मस्तक झुकाकर उसे प्रणाम किया और कहा-'मैं धन्य और कृतकृत्य हो गया क्योंकि इस समय मुझे नीलाचलका प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा है। राजमन्त्री, रानी और करम्ब नामका जुलाहा ये भी नीलाचलका दर्शन पाकर बड़े प्रसन्न हुए। नरश्रेष्ठ! उपर्युक्त पाँचों व्यक्तियोंनेविजय नामक मुहूर्तमें नीलगिरिपर चढ़ना आरम्भ प्र किया। उस समय उन्हें देवताओंद्वारा बजायी हुई महान् दुन्दुभियोंकी ध्वनि सुनायी दे रही थी। पर्वतके ऊपरी 3 शिखरपर, जो विचित्र वृक्षोंसे सुशोभित हो रहा था, र उन्होंने एक सुवर्णजटित परम सुन्दर देवालय देखा। जहाँ प्रतिदिन ब्रह्माजी आकर भगवान्‌की पूजा करते हैं तथा श्रीहरिको सन्तोष देनेवाला नैवेद्य भोग लगाते हैं वह अद्भुत एवं उज्ज्वल देवालय देखकर राजा सबके साथ उसके भीतर प्रविष्ट हुए। वहाँ एक सोनेका सिंहासन था, जो बहुमूल्य मणियोंसे जटित होनेके कारण अत्यन्त विचित्र दिखायी दे रहा था। उसके ऊपर भगवान् चतुर्भुज रूपसे विराजमान थे। उनकी झाँकी बड़ी मनोहर दिखायी देती थी। चण्ड, प्रचण्ड और विजय आदि पार्षद उनकी सेवामें खड़े थे नृपश्रेष्ठ रत्नग्रीवने अपनी रानी और सेवकोंसहित भगवान्‌को प्रणाम किया।प्रणामके पश्चात् वेदोक्त मन्त्रोंद्वारा उन्हें विधिवत् स्नान कराया और प्रसन्नचित्तसे अर्घ्य, पाद्य आदि उपचार अर्पण किये। इसके बाद भगवान्के श्रीविग्रहमें चन्दन लगाकर उन्हें वस्त्र निवेदन किया तथा धूप-आरती करके सब प्रकारके स्वादसे युक्त मनोहर नैवेद्य भोग लगाया। अन्तमें पुनः प्रणाम करके तापस ब्राह्मणके साथ वे भगवान्की स्तुति करने लगे। उसमें उन्होंने अपनी बुद्धिके अनुसार श्रीहरिके गुण-समुदायसे ग्रथित स्तोत्रोंका संग्रह सुनाया था।

राजा बोले- भगवन्! एकमात्र आप ही पुरुष ( अन्तर्यामी) हैं। आप ही प्रकृतिसे परे साक्षात् भगवान् हैं। आप कार्य और कारणसे भिन्न तथा महत्तत्त्व आदिसे पूजित हैं सृष्टि रचनाएँ कुशल ब्रह्माजी आपहीके नाभि कमलसे उत्पन्न हुए हैं तथा संहारकारी स्द्रका आविर्भाव भी आपहीके नेत्रोंसे हुआ है। आपकी ही आज्ञासे ब्रह्माजी इस संसारकी सृष्टि करते हैं । पुराणपुरुष! आदिकालका जो स्थावर जंगमरूप जगत् दिखायी देता है, वह सब आपसे ही उत्पन्न हुआ है। आप ही इसमें चेतनाशक्ति डालकर इस संसारको चेतन बनाते हैं। जगदीश्वर! वास्तवमें आपका जन्म तो कभी होता ही नहीं है; अतएव आपका अन्त भी नहीं है। प्रभो! आपमें वृद्धि, क्षय और परिणाम- इन तीनों विकारोंका सर्वथा अभाव है, तथापि आप भक्तोंकी रक्षा और धर्मकी स्थापनाके लिये अपने अनुरूप गुणोंसे युक्त दिव्य जन्म-कर्म स्वीकार करते हैं। आपने मत्स्यावतार धारण करके शंखासुरको मारा और वेदोंकी रक्षा की। ब्रह्मन् ! आप महापुरुष (पुरुषोत्तम) और सबके पूर्वज हैं। महाविष्णो! शेष भी आपकी महिमाको नहीं जानते भगवती वाणी भी आपको समझ नहीं पाती. फिर मेरे-जैसे अन्यान्य अज्ञानी जीव कैसे आपकी स्तुति करनेमें समर्थ हो सकते हैं?'इस प्रकार स्तुति करके राजाने भगवान् के चरणोंमें मस्तक नवाकर पुनः प्रणाम किया। उस समय उनका स्वर गद्गद हो रहा था। समस्त अंगोंमें रोमांच हो आया था। उनकी इस स्तुतिसे भगवान् पुरुषोत्तम बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने राजासे सत्य और सार्थक वचन कहा।
श्रीभगवान् बोले- राजन् ! तुम्हारे द्वारा की हुई इस स्तुतिसे मुझे बड़ा हर्ष हुआ है। महाराज तुम यह जान लो कि मैं प्रकृतिसे परे रहनेवाला परमात्मा हूँ। 1 अब तुम शीघ्र ही मेरा नैवेद्य (प्रसाद) ग्रहण करो । इससे परम मनोहर चतुर्भुज रूपको प्राप्त होकर परमपदको जाओगे। जो मनुष्य तुम्हारे किये हुए इस स्तोत्ररत्नसे मेरी स्तुति करेगा; उसे भी मैं अपना उत्तम दर्शन दूँगा, जो भोग और मोक्ष- दोनों प्रदान करनेवाला है।

भगवान्के कहे हुए इस वचनको सुनकर राजाने अपनी सेवामें रहनेवाले चारों स्वजनोंके साथ नैवेद्य भक्षण किया। तदनन्तर क्षुद्रघण्टिकाओं से सुशोभित सुन्दर विमान उपस्थित हुआ उस समय धर्मात्मा राजा रत्नग्रीवने, जो भगवान्‌के कृपापात्र हो चुके थे, श्रीपुरुषोत्तमदेवका दर्शन करके उनके चरणोंमें प्रणाम किया तथा उनकी आज्ञा ले अपनी रानीके साथ विमानपर जा बैठे। फिर भगवान्के देखते-देखते अद्भुत वैकुण्ठलोकमें चले गये। राजाके मन्त्री भी धर्मपरायण तथा धर्मवेत्ताओंमें सबसे श्रेष्ठ थे अतः वे भी विमानपर बैठकर उनके साथ ही गये। सम्पूर्ण तीथोंमें स्नान करनेवाले तपस्वी ब्राह्मण भी चतुर्भुज - स्वरूपको प्राप्त होकर वैकुण्ठको चले गये। इसी प्रकार करम्वने भी भगवान्‌के गुणोंका गायन करनेके पुण्यसे उनका दर्शन पाया और सम्पूर्ण देवताओंके लिये दुर्लभ भगवद्-धामको प्रस्थान किया। सभी एक ही साथ परम अद्भुत विष्णुलोककी ओर प्रस्थित हुए। सबके चार-चार भुजाएँथीं। सबके हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पा रहे थे। सभी मेघके समान श्यामसुन्दर और विशुद्ध स्वभाववाले थे। सबके हाथ कमलोंकी भाँति सुशोभित थे। हार, केयूर और कड़ोंसे सभीके अंग विभूषित थे। इस प्रकार उन सब लोगोंने वैकुण्ठधामकी यात्रा की। साथमें आये हुए प्रजावर्गके लोगोंने विमानोंकी पंक्तियाँ देखीं तथा दुन्दुभीकी ध्वनिको भी श्रवण किया। उस समय एक ब्राह्मण भी वहाँ गये थे, जो भगवान्‌के चरणारविन्दोंमें बड़ा प्रेम रखनेवाले थे। उनके चित्तपर भगवद्विरहका इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि वे चतुर्भुज-स्वरूप हो गये। यह अद्भुत बात देखकर सब लोग ब्राह्मणके महान् सौभाग्यकी सराहना करने लगे और गंगासागर संगममें स्नान करके कांचीनगरीमें लौट आये। सब लोग कहते थे कि 'उत्तम बुद्धिवाले महाराज रत्नग्रीवका अहोभाग्य है, जो वे इसी शरीरसे श्रीविष्णुके परमधामको चले गये।'

[ सुमति कहते हैं- ] राजन् ! यही वह नीलगिरि है, जिसका भगवान् पुरुषोत्तमने आदर बढ़ाया है। इसका दर्शन करनेमात्रसे मनुष्य परमपद - वैकुण्ठधामको प्राप्त हो जाते हैं। जो सौभाग्यशाली पुरुष नीलगिरिके इस माहात्म्यको सुनता है तथा जो दूसरे लोगोंको सुनाता है, वे दोनों ही परमधामको प्राप्त होते हैं। इसका श्रवण और स्मरण करनेमात्रसे बुरे सपने नष्ट हो जाते हैं तथा अन्तमें भगवान् पुरुषोत्तम इस संसारसे उद्धार कर देते हैं। ये नीलाचलनिवासी पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रके ही स्वरूप हैं तथा देवी सीता साक्षात् महालक्ष्मी हैं। ये दोनों दम्पत्ति ही समस्त कारणोंके भी कारण हैं। भगवान् श्रीराम अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करके सम्पूर्ण लोकोंको पवित्र कर देंगे। उनका नाम ब्रह्महत्या के प्रायश्चित्तमें भी जपनेके लिये बताया गयाहै । [ रामनाम लेनेसे ब्रह्महत्या जैसे पातक भी दूर हो जाते हैं।] सुमित्रानन्दन! इस समय तुम्हारा यज्ञ सम्बन्धी घोड़ा पर्वतश्रेष्ठ नीलगिरिके निकट जा पहुँचा है। महामते ! तुम भी वहाँ चलकर भगवान् पुरुषोत्तमको नमस्कार करो। वहाँ जानेसे हम सब लोग निष्पाप होकर अन्तमें परमपदको प्राप्त होंगे; क्योंकि भगवान्‌के प्रसादसे अबतक अनेक मनुष्य भवसागरके पार हो चुके हैं।सुमति भगवान्‌की महिमाका वर्णन कर रहे थे; इतने हमें वह अश्व पृथ्वीको अपनी टापोंसे खोदता हुआ वायुके समान वेगसे चलकर नीलाचलपर पहुँच गया। तब राजा शत्रुघ्न भी उसके पीछे-पीछे जाकर नीलगिरिपर पहुँचे और गंगासागर-संगममें स्नान करके पुरुषोत्तमका दर्शन करनेके लिये गये। निकट जाकर उन्होंने देव दानववन्दित भगवान्‌को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करके अपनेको कृतार्थ माना ।

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पद्म पुराण को पद्मपुराण और Padma Purana,Padama Purana आदि नामों से भी जाना जाता है।

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार