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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 1, अध्याय 10 - Khand 1, Adhyaya 10

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पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन

भीष्मजीने कहा- भगवन्! अब मैं पितरोंके उत्तम वंशका वर्णन सुनना चाहता हूँ।

पुलस्त्यजी बोले- राजन्। बड़े हर्षकी बात है; मैं तुम्हें आरम्भसे ही पितरोंके वंशका वर्णन सुनाता हूँ, सुनो स्वर्गमें पितरोंके सात गण हैं। उनमें तीन तो मूर्तिरहित हैं और चार मूर्तिमान्। ये सब-के-सब अमिततेजस्वी हैं। इनमें जो मूर्तिरहित पितृगण हैं, वे वैराज प्रजापतिको सन्तान हैं; अतः वैराज नामसे प्रसिद्ध हैं। देवगण उनका यजन करते हैं। अब पितरोंकी लोक-सृष्टिका वर्णन करता हूँ, श्रवण करो। सोमपथ नामसे प्रसिद्ध कुछ लोक हैं, जहाँ कश्यपके पुत्र पितृगण निवास करते हैं। देवतालोग सदा उनका सम्मान किया करते हैं। अग्निष्वात्त नामसे प्रसिद्ध यज्वा पितृगण उन्हीं लोकोंमें निवास करते हैं। स्वर्गमें विभ्राज नामके जो दूसरे तेजस्वी लोक हैं, उनमें बर्हिषद्संज्ञक पितृगण निवास करते हैं। वहाँ मोरोंसे जुते हुए हजारों विमान हैं तथा संकल्पमय वृक्ष भी हैं, जो संकल्पके अनुसार फल प्रदान करनेवाले हैं। जो लोग इस लोकमें अपने पितरोंके लिये श्राद्ध करते हैं, वे उन विभ्राज नामके लोकोंमें जाकर समृद्धिशाली भवनोंमें आनन्द भोगते हैं तथा वहाँ मेरे सैकड़ों पुत्र विद्यमान रहते हैं, जो तपस्या और योगबलसे सम्पन्न, महात्मा, महान् सौभाग्यशाली और भक्तोंको अभयदान देनेवाले हैं। मार्तण्डमण्डल नामक लोकमें मरीचिगर्भ नामके पितृगण निवास करते हैं। वे अंगिरा मुनिके पुत्र हैं और लोकमें हविष्मान् नामसे विख्यात हैं; वे राजाओंके पितर हैं और स्वर्ग तथा मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाले हैं। तीथोंमें श्राद्ध करनेवाले श्रेष्ठ क्षत्रिय उन्होंके लोकमें जाते हैं। कामदुध नामसे प्रसिद्ध जो लोक हैं, वे इच्छानुसार भोगकी प्राप्ति करानेवाले हैं। उनमें सुस्वध नामके पितर निवास करते हैं। लोकमें वे आज्यप नामसे विख्यात हैं और प्रजापति कर्दमके पुत्र हैं। पुलहके बड़े भाईसे उत्पन्न वैश्यगण उन पितरोंकी पूजा करते हैं। श्राद्ध करनेवाले पुरुष उस लोकमें पहुँचनेपर एक ही साथ हजारों जन्मोंके परिचितमाता, भाई, पिता, सास, मित्र, सम्बन्धी तथा बन्धुओंका दर्शन करते हैं। इस प्रकार पितरोंके तीन गण बताये गये। अब चौथे गणका वर्णन करता है। ब्रह्मलोक के ऊपर मानस नामके लोक स्थित हैं, जहाँ सोमप नामसे प्रसिद्ध सनातन पितरोंका निवास है। वे सब के-सब धर्ममय स्वरूप धारण करनेवाले तथा ब्रह्माजीसे भी श्रेष्ठ हैं। स्वधासे उनकी उत्पत्ति हुई है। वे योगी हैं अतः ब्रह्मभावको प्राप्त होकर सृष्टि आदि करके सब इस समय मानसरोवरमें स्थित हैं। इन पितरोंकी कन्या नर्मदा नामकी नदी है, जो अपने जलसे समस्त प्राणियोंको पवित्र करती हुई पश्चिम समुद्रमें जा मिलती है उन सोमप नामवाले पितरोंसे ही सम्पूर्ण प्रजासृष्टिका विस्तार हुआ है, ऐसा जानकर मनुष्य सदा धर्मभावसे उनका श्राद्ध करते हैं। उन्होंके प्रसादसे योगका विस्तार होता है।

आदि सृष्टिके समय इस प्रकार पितरोंका श्राद्ध प्रचलित हुआ । श्राद्धमें उन सबके लिये चाँदीके पात्र अथवा चाँदीसे युक्त पात्रका उपयोग होना चाहिये। 'स्वधा' शब्दके उच्चारणपूर्वक पितरोंके उद्देश्यसे किया हुआ श्राद्ध-दान पितरोंको सर्वदा सन्तुष्ट करता है। विद्वान् पुरुषोंको चाहिये कि वे अग्निहोत्री एवं सोमपा ब्राह्मणोंके द्वारा अग्निमें हवन कराकर पितरोंको तृप्त करें। अग्निके अभाव में ब्राह्मणके हाथमें अथवा जलमें या शिवजीके स्थानके समीप पितरोंके निमित्त दान करे ये ही पितरोंके लिये निर्मल स्थान है। पितृकार्य दक्षिण दिशा उत्तम मानी गयी है। यज्ञोपवीतको अपसव्य अर्थात् दाहिने कंधेपर करके किया हुआ तर्पण, तिलदान तथा 'स्वभा' के उच्चारणपूर्वक किया हुआ श्राद्ध-ये सदा पितरोंको तृप्त करते हैं। कुश, उड़द, साठी धानका चावल, गायका दूध, मधु, गायका घी, सावाँ, अगहनीका चावल, जौ, तीनाका चावल, मूँग, गन्ना और सफेद फूल-ये सब वस्तुएँ पितरोंको सदा प्रिय हैं।

अब ऐसे पदार्थ बताता हूँ, जो श्राद्धमें सर्वदा वर्जित हैं। मसूर, सन, मटर, राजमाष, कुलथी, कमल,बिल्व, मदार, धतूरा, पारिभद्राट, रूषक, भेड़-बकरीका दूध, कोदो, दारवरट, कैथ, महुआ और अलसी - ये सब निषिद्ध हैं। अपनी उन्नति चाहनेवाले पुरुषको श्राद्धमें इन वस्तुओंका उपयोग कभी नहीं करना चाहिये। जो भक्तिभावसे पितरोंको प्रसन्न करता है, उसे पितर भी सन्तुष्ट करते हैं। वे पुष्टि, आरोग्य, सन्तान एवं स्वर्ग प्रदान करते हैं। पितृकार्य देवकार्यसे भी बढ़कर है; अतः देवताओंको तृप्त करनेसे पहले पितरोंको ही सन्तुष्ट करना श्रेष्ठ माना गया है। कारण, पितृगण शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं, सदा प्रिय वचन बोलते हैं, भक्तोंपर प्रेम रखते हैं और उन्हें सुख देते हैं। पितर पर्वोंके देवता हैं अर्थात् प्रत्येक पर्वपर पितरोंका पूजन करना उचित है। हविष्मान्संज्ञक पितरोंके अधिपति सूर्यदेव ही श्राद्धके देवता माने गये हैं।

भीष्मजीने कहा- ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ पुलस्त्यजी ! आपके मुँहसे यह सारा विषय सुनकर मेरी इसमें बड़ी भक्ति हो गयी है; अतः अब मुझे श्राद्धका समय, उसकी विधि तथा श्राद्धका स्वरूप बतलाइये। श्राद्धमें कैसे ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये ? तथा किनको छोड़ना चाहिये ? श्राद्धमें दिया हुआ अन्न पितरोंके पास कैसे पहुँचता है? किस विधिसे श्राद्ध करना उचित है ? और वह किस तरह उन पितरोंको तृप्त करता है? पुलस्त्यजी बोले – राजन्! अन्न और जलसे अथवा दूध एवं फल- मूल आदिसे पितरोंको सन्तुष्ट करते हुए प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिये। श्राद्ध तीन प्रकारका होता है-नित्य, नैमित्तिक और काम्य । पहले नित्य श्राद्धका वर्णन करता हूँ। उसमें अर्घ्य और आवाहनकी क्रिया नहीं होती। उसे अदैव समझना चाहिये- उसमें विश्वदेवोंको भाग नहीं दिया जाता। पर्वके दिन जो श्राद्ध किया जाता है, उसे पार्वण कहतेहै। पार्वणश्राद्धमें जो ब्राह्मण निमन्त्रित करनेयोग्य हैं. उनका वर्णन करता हूँ; श्रवण करो! जो पंचाग्निका सेवन करनेवाला, स्नातक, त्रिसौपर्ण1, वेदके व्याकरण आदि छहों अंगोंका ज्ञाता श्रोत्रिय श्रोत्रियका पुत्र, वेदके विधिवाक्योंका विशेषज्ञ, सर्वज्ञ (सब विषयोंका ज्ञाता), वेदका स्वाध्यायी, मन्त्र जपनेवाला, ज्ञानवान्, त्रिणाचिकेत, त्रिमधुरे, अन्य शास्त्रोंमें भी परिनिष्ठित पुराणका विद्वान्, स्वाध्यायशील, ब्राह्मणभक्त, पिताकी सेवा करनेवाला, सूर्यदेवताका भक्त, वैष्णव, ब्रह्मवेत्ता, योगशास्त्रका ज्ञाता, शान्त, आत्मज्ञ, अत्यन्त शीलवान् तथा शिवभक्तिपरायण हो, ऐसा ब्राह्मण आद्धमें निमन्त्रण पानेका अधिकारी है। ऐसे ब्राह्मणोंको यत्नपूर्वक श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये। अब जो लोग श्राद्धमें वर्जनीय हैं, उनका वर्णन सुनो। पतित, पतितका पुत्र, नपुंसक, चुगलखोर और अत्यन्त रोगी ये सब श्राद्धके समय धर्मज्ञ पुरुषोंद्वारा त्याग देनेयोग्य हैं। श्राद्धके पहले दिन अथवा श्राद्धके ही दिन विनयशील ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे। निमन्त्रण दिये हुए ब्राह्मणोंके शरीरमें पितरोंका आवेश हो जाता है। वे वायुरूपसे उनके भीतर प्रवेश करते हैं और ब्राह्मणोंके बैठनेपर स्वयं भी उनके साथ बैठे रहते हैं।

किसी ऐसे स्थानको, जो दक्षिण दिशाकी ओर नीचा हो, गोबरसे लीपकर वहाँ श्राद्ध आरम्भ करे अथवा गोशालामें या जलके समीप श्राद्ध करे। आहिताग्नि पुरुष पितरोंके लिये चरु (खीर) बनाये और यह कहकर कि इससे पितरोंका श्राद्ध करूँगा, वह सब दक्षिण दिशामें रख दे। तदनन्तर उसमें घृत और मधु आदि मिलाकर अपने सामने की ओर तीन निर्वापस्थान (पिण्डदानकी वेदियाँ) बनाये। उनकी लम्बाई एक बित्ताऔर चौड़ाई चार अंगुलकी होनी चाहिये। साथ ही, खैरकी तीन दर्वी ( कलछुल) बनवावे, जो चिकनी हों तथा जिनमें चाँदीका संसर्ग हो उनकी लम्बाई एक एक रत्निकी? और आकार हाथके समान सुन्दर होना उचित है। जलपात्र, कांस्यपात्र, प्रोक्षण, समिधा, कुश, तिलपात्र, उत्तम वस्त्र, गन्ध, धूप, चन्दन- ये सब वस्तुएँ धीरे-धीरे दक्षिण दिशामें रखे। उस समय जनेऊ दाहिने कंधेपर होना चाहिये। इस प्रकार सब सामान एकत्रित करके धरके पूर्व गोबरले लिपी हुई पृथ्वीपर गोमूत्रसे मण्डल बनावे और अक्षत तथा फूलसहित जल लेकर तथा जनेऊको क्रमशः बायें एवं दाहिने कंघेपर छोड़कर ब्राह्मणोंके पैर धोये तथा बारम्बार उन्हें प्रणाम करे। तदनन्तर विधिपूर्वक आचमन कराकर उन्हें बिछाये हुए दर्भयुक्त आसनोंपर बिठावे और उनसे मन्त्रोच्चारण करावे। सामर्थ्यशाली पुरुष भी देवकार्य (वैश्वदेव श्राद्ध) में दो और पितृकार्यमें तीन ब्राह्मणोंको ही भोजन कराये अथवा दोनों श्राद्धों में एक-एक ब्राह्मणको ही जिमाये। विद्वान् पुरुषको श्राद्धमें अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये। पहले विश्वेदेवसम्बन्धी और फिर पितृ-सम्बन्धी विद्वान् ब्राह्मणोंकी अर्घ्य आदिसे विधिवत् पूजा करे तथा उनकी आज्ञा लेकर अग्निमें यथाविधि हवन करे। विद्वान् पुरुष गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार घृतयुक्त चरुका अग्नि और सोमकी तृप्तिके उद्देश्यसे समयपर हवन करे। इस प्रकार देवताओंकी तृप्ति करके वह श्राद्धकर्ता श्रेष्ठ ब्राह्मण साक्षात् अग्निका स्वरूप माना जाता है। देवताके उद्देश्यसे किया जानेवाला हवन आदि प्रत्येक कार्य जनेऊको बायें कंघेपर रखकर ही करना चाहिये। तत्पश्चात् पितरोंके निमित्त करनेयोग्य पर्युक्षण (सेचन) आदि सारा कार्य विज्ञ पुरुषको जनेऊको दायें कंधेपर करके-अपसव्य भावसे करना उचित है। हवन तथा विश्वेदेवोंको अर्पण करनेसे बचे हुए अन्नको लेकर उसकेकई पिण्ड बनाये और एक-एक पिण्डको दाहिने हाथमें लेकर तिल और जलके साथ उसका दान करना चाहिये। संकल्पके समय जल-पात्रमें रखे हुए जलको बायें हाथकी सहायतासे दायें हाथमें ढाल लेना चाहिये। श्राद्धकालमें पूर्ण प्रयत्नके साथ अपने मन और इन्द्रियाँको काबूमें रखे और मात्सर्यका त्याग कर दे। (पिण्डदानकी विधि इस प्रकार है-] पिण्ड देनेके लिये बनायी हुई वेदियोंपर यत्नपूर्वक रेखा बनावे। इसके बाद अवनेजन-पात्रमें जल लेकर उसे रेखांकित वेदीपर गिरावे। [यह अवनेजन अर्थात् स्थान- शोधनकी क्रिया है।] फिर दक्षिणाभिमुख होकर वेदीपर कुश बिछावे और एक-एक करके सब पिण्डोंको क्रमशः उन कुशपर रखे उस समय [पिता पितामह आदिमैसे जिस-जिसके उद्देश्यसे पिण्ड दिया जाता हो, उस उस] पितरके नाम गोत्र आदिका उच्चारण करते हुए संकल्प पढ़ना चाहिये। पिण्डदानके पश्चात् अपने दायें हाथको पिण्डाधारभूत कुशोंपर पोंछना चाहिये। यह लेपभागभोजी पितरोंका भाग है। उस समय ऐसे ही मन्त्रका जप अर्थात् 'लेपभागभुजः पितरस्तृप्यन्तु' इत्यादि वाक्योंका उच्चारण करना उचित है। इसके बाद पुनः प्रत्यवनेजन करे अर्थात् अवनेजनपात्रमें जल लेकर उससे प्रत्येक पिण्डको नहलावे। फिर जलयुक्त पिण्डौको नमस्कार करके श्राद्धकल्पोक्त वेदमन्त्रोंके द्वारा पिण्डोंपर पितरोंका आवाहन करे और चन्दन, धूप आदि पूजन सामग्रियोंके द्वारा उनकी पूजा करे। तत्पश्चात् आहवनीयादि अग्नियोंके प्रतिनिधिभूत एक-एक ब्राह्मणको जलके साथ एक-एक दवर प्रदान करे फिर विद्वान् पुरुष पितरोंके उद्देश्यसे पिण्डोंके ऊपर कुश रखे तथा पितरोंका विसर्जन करे। तदनन्तर क्रमशः सभी पिण्डोंमेंसे थोड़ा-थोड़ा अंश निकालकर सबको एकत्र करे और ब्राह्मणोंको यत्नपूर्वक पहले वही भोजन करावे; क्योंकि उन पिण्डौका अंश ब्राह्मणलोग ही भोजन करतेहैं। इसीलिये अमावास्याके दिन किये हुए पार्वण आद्धको 'अन्वाहार्य' कहा गया है। पहले अपने हाथमें पवित्रीसहित तिल और जल लेकर पिण्डों के आगे छोड़ दे और कहे एषां स्वधा अस्तु' (ये पिण्ड - स्वधा स्वरूप हो जायँ) । इसके बाद परम पवित्र और उत्तम अन्न परोसकर उसकी प्रशंसा करते हुए उन ब्रह्मको भोजन करावे उस समय भगवान् श्रीनारायणका स्मरण करता रहे और क्रोधी स्वभावको सर्वथा त्याग दे। ब्राह्मणोंको तृप्त जानकर विकिरान्न दान करे; यह सवर्णोंके लिये उचित है विकिरान्न दानकी विधि यह है-तिलसहित अन्न और जल लेकर उसे कुशके ऊपर पृथ्वीपर रख दे। जब ब्राह्मण आचमन कर लें तो पुनः पिण्डोंपर जल गिरावे। फूल, अक्षत, जल छोड़ना और स्वधावाचन आदि सारा कार्य पिण्डके। ऊपर करे।' पहले देवश्राद्धकी समाप्ति करके फिर पितृश्राद्धकी समाप्ति करे, अन्यथा श्राद्धका नाश हो जाता है। इसके बाद नतमस्तक होकर ब्राह्मणोंकी प्रदक्षिणा करके उनका विसर्जन करे।

यह आहिताग्नि पुरुषोंके लिये अन्वाहार्य पार्वण श्राद्ध बतलाया गया। अमावास्याके पर्वपर किये जानेके कारण यह पार्वण कहलाता है। यही नैमित्तिक श्राद्ध है। श्राद्धके पिण्ड गाय या बकरीको खिला दे अथवा ब्राह्मणोंको दे दे अथवा अग्नि या जलमें छोड़ दे। यह भी न हो तो खेतमें बिखेर दें अथवा जलकी धारा बहा दे। [सन्तानकी इच्छा रखनेवाली ] पत्नी विनीत भावसे आकर मध्यम अर्थात् पितामहके पिण्डको ग्रहण करे और उसे खा जाय। उस समय 'आधत्त पितरो गर्भम्' इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये। श्राद्ध और पिण्डदान आदिकी स्थिति तभीतक रहती है, जबतक ब्राह्मणोंका विसर्जन नहीं हो जाता। इनके विसर्जनके पश्चात् पितृकार्य समाप्त हो जाता है। उसके बाद बलिवैश्वदेव करना चाहिये। तदनन्तर अपने बन्धु बान्धवके साथ पितरोंद्वारा सेवित प्रसादस्वरूप अन्न भोजन करे। श्राद्ध करनेवाले यजमान तथा श्राद्धभोजी ब्राह्मण दोनोंको उचित है कि वे दुबारा भोजन न करें,राह न चलें, मैथुन न करें; साथ ही उस दिन स्वाध्याय, कलह और दिनमें शयन इन सबको सर्वथा त्याग दें। इस विधिसे किया हुआ श्राद्ध धर्म, अर्थ और काम- तीनोंकी सिद्धि करनेवाला होता है। कन्या, कुम्भ और वृष राशिपर सूर्यके रहते कृष्णपक्ष में प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिये। जहाँ जहाँ सपिण्डीकरणरूप श्राद्ध करना हो, वहाँ अग्निहोत्र करनेवाले पुरुषको सदा इसी विधिसे करना चाहिये।

अब मैं ब्रह्माजीके बताये हुए साधारण श्राद्धका वर्णन करूँगा, जो भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाला है। उत्तरायण और दक्षिणायनके प्रारम्भके दिन, विषुव नामक योग (तुला और मेषकी संक्रान्ति) में [ जब कि दिन और रात बराबर होते हैं], प्रत्येक अमावास्याको, प्रति संक्रान्तिके दिन, अष्टका (पौष, माघ, फाल्गुन तथा आश्विन मासके कृष्णपक्षकी अष्टमी तिथि) में, पूर्णिमाको, आर्द्रा, मया और रोहिणी-इन नक्षत्रों के योग्य उत्तम पदार्थ और सुपात्र ब्राह्मणके प्राप्त होनेपर व्यतीपात, विष्टि और वैधृति योगके दिन वैशाखकी तृतीयाको, कार्तिककी नवमीको, माघकी पूर्णिमा तथा भाद्रपदकी त्रयोदशी तिथिको भी श्राद्धका अनुष्ठान करना चाहिये। उपर्युक्त तिथियाँ युगादि कहलाती हैं ये पितरोंका उपकार करनेवाली हैं। इसी प्रकार मन्वन्तरादि तिथियोंमें भी विद्वान् पुरुष श्राद्धका अनुष्ठान करे। आश्विन शुक्ला नवमी, कार्तिक शुक्ला द्वादशी चैत्र तथा भाद्रपदकी शुक्ला तृतीया, फाल्गुनकी अमावास्या, पौषको शुक्ला एकादशी, आषाढ़ शुक्ला दशमी, माघ शुक्ला सप्तमी श्रावण कृष्णा अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन और ज्येष्ठकी पूर्णिमा इन तिथियोंको मन्वन्तरादि कहते हैं। ये दिये हुए दानको अक्षय कर देनेवाली हैं। विज्ञ पुरुषको चाहिये कि वैशाखकी पूर्णिमाको, ग्रहणके दिन, किसी उत्सवके अवसरपर और महालय (आश्विन कृष्णपक्ष ) में तीर्थ, मन्दिर, गोशाला, द्वीप, उद्यान तथा घर आदिमें लिपे-पुते एकान्त स्थानमें श्राद्ध करे।' [अब श्राद्धके क्रमका वर्णन किया जाता है-]पहले विश्वेदेवोंके लिये आसन देकर जौ और पुष्पोंसे उनकी पूजा करे। [विश्वेदेवोंके दो आसन होते हैं; एकपर पिता- पितामहादिसम्बन्धी विश्वेदेवोंका आवाहन होता है और दूसरेपर मातामहादिसम्बन्धी विश्वेदेवोंका ।] उनके लिये दो अर्घ्य पात्र (सिकोरे या दोने) जौ और जल आदिसे भर दे और उन्हें कुशकी पवित्रीपर रखे। 'शंनो देवीरभिष्टय0' इत्यादि मन्त्रसे जल तथा 'यवोऽसि इत्यादिके द्वारा जौके दोनोंको उन पात्रोंमें छोड़ना चाहिये। फिर गन्ध-पुष्प आदिसे पूजा करके वहाँ विश्वेदेवोंकी स्थापना करे और 'विश्वे देवास' – इत्यादि दो मन्त्रोंसे विश्वेदेवोंका आवाहन करके उनके ऊपर जो छोड़े। जौ छोड़ते समय इस प्रकार कहे- 'जौ ! तुम सब अन्नोंके राजा हो। तुम्हारे देवता वरुण हैं-वरुणसे ही तुम्हारी उत्पत्ति हुई है; तुम्हारे अंदर मधुका मेल है। तुम सम्पूर्ण पापको दूर करनेवाले, पवित्र एवं मुनियोंद्वारा प्रशंसित अन्न हो।" फिर अर्घ्यपात्रको चन्दन और फूलोंसे सजाकर 'या दिव्या आप इस मन्त्रको पढ़ते हुए विश्वेदेवोंको अर्घ्य दे। इसके बाद उनकी पूजा करके गन्ध आदि निवेदन कर पितृयज्ञ (पितृश्राद्ध) आरम्भ करे। पहले पिता आदिके लिये कुशके तीन आसनोंकी कल्पना करके फिर तीन अर्घ्यपात्रोंका पूजन करे उन्हें पुष्प आदि से सजाये प्रत्येक अर्घ्यपात्रको कुशकी पवित्रीसे युक्त करके 'शंनो देवीरभिष्टय0 -' इस मन्त्रसे सबमें जल छोड़े। फिर 'तिलोऽसि सोमदेवत्यो-' इस मन्त्रसे तिल छोड़कर [बिना मन्त्रके ही] चन्दन और पुष्प आदि भी छोड़े। अर्घ्यपात्र पीपल आदिकी लकड़ीका, पत्तेका या चौदीका बनवाये अथवा समुद्रसे निकले हुए शंख आदिसे अर्घ्यपात्रका काम ले। सोने, चाँदी और ताँबेका पात्र पितरोंको अभीष्ट होता है। चाँदीकी तो चर्चा सुनकर भी पितर प्रसन्न हो जाते हैं। चाँदीका दर्शन अथवा चाँदीका दान उन्हें प्रिय है। यदि चाँदीके बने हुए अथवा चाँदीसे युक्त पात्रमें जल भी रखकरपितरोंको श्रद्धापूर्वक दिया जाय तो वह अक्षय हो जाता है। इसलिये पितरोंके पिण्डोंपर अर्घ्य चढ़ानेके लिये चाँदीका ही पात्र उत्तम माना गया है। चाँदी भगवान् श्रीशंकरके नेत्रसे प्रकट हुई है, इसलिये वह पितरोंको अधिक प्रिय है।

इस प्रकार उपर्युक्त वस्तुओंमेंसे जो सुलभ हो, उसके अर्घ्यपात्र बनाकर उन्हें ऊपर बताये अनुसार जल, तिल और गन्ध-पुष्प आदिसे सुसज्जित करे तत्पश्चात् 'या दिव्या आप:' इस मन्त्रको पढ़कर पिताके नाम और गोत्र आदिका उच्चारण करके अपने हाथमें कुश ले ले। फिर इस प्रकार कहे

'पितॄन् आवाहयिष्यामि'- 'पितरोंका आवाहन करूँगा।' तब निमन्त्रणमें आये हुए ब्राह्मण 'तथास्तु' कहकर श्राद्धकर्ताको आवाहनके लिये आज्ञा प्रदान करें। इस प्रकार ब्राह्मणोंकी अनुमति लेकर 'उशन्तस्त्वा नि धीमहि - 'आ यन्तु नः पितरः ऋचाओंका पाठ करते हुए वह पितरोंका आवाहन करे। तदनन्तर 'या दिव्या आप: इस मन्त्र पितरोंको अर्घ्य देकर प्रत्येकके लिये गन्ध-पुष्प आदि पूजोपचार एवं वस्त्र चढ़ावे तथा पृथक्-पृथक् संकल्प पढ़कर उन्हें समर्पित करे अर्घ्यदानकी प्रक्रिया इस प्रकार है-] पहले अनुलोमक्रमसे अर्थात् पिताके उद्देश्यसे दिये हुए अपात्रका जल पितामहके अर्घ्यपात्रमें इन दो डाले और फिर पितामहके अर्घ्यपात्रका सारा जल प्रपितामहके अर्घ्यपात्रमें डाल दे. फिर विलोमक्रमसे अर्थात् प्रपितामहके अर्घ्यपात्रको पितामहके अर्घ्यपात्रमें रखे और उन दोनों पात्रोंको उठाकर पिताके अर्घ्यपात्र में रखे। इस प्रकार तीनों अर्घ्यपात्रोंको एक-दूसरेके ऊपर करके पिता के आसनके उत्तरभागमें 'पितृभ्यः स्थानमसि' ऐसा कहकर उन्हें ढुलका दे-उलटकर रख दे। ऐसा करके अन्न परोसनेका कार्य करे। परोसने के समय भी पहले अग्निकार्य करना चाहिये।

अर्थात् थोड़ा-सा अन्न निकालकर 'अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा' और 'सोमाय पितृमते स्वाहा'- इन दो मन्त्रोंअग्नि और सोम देवताके लिये अग्निमें दो बार आहुति डाले। इसके बाद दोनों हाथोंसे अन्न निकालकर परोसे। परोसते समय 'उशन्तस्त्वा नि धीमहि - ' इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करता रहे। उत्तम, गुणकारी शाक आदि तथा नाना प्रकारके भक्ष्य पदार्थोंके साथ दही, दूध, गौका घृत और शक्कर आदिसे युक्त अन्न के लिये तृष्टिकारक होता है। मधु मिलाकर तैयार किया हुआ कोई भी पदार्थ तथा गायका दूध और घी मिलायी हुई खीर आदि पितरोंके लिये दी जाय तो वह अक्षय होती है—ऐसा आदि देवता पितरोंने स्वयं अपने ही मुखसे कहा है। इस प्रकार अन्न परोसकर पितृसम्बन्धी ऋचाओंका पाठ सुनाये इसके सिवा सभी तरहके पुराण; ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और रुद्र-सम्बन्धी भाँति-भाँति के स्तोत्र; इन्द्र, रुद्र और सोमदेवताके सूक्त; पावमानी ऋचाएँ; बृहद्रथन्तर; ज्येष्ठसामका गौरवगान; शान्तिकाध्याय, मधुब्राह्मण, मण्डलब्राह्मण तथा और भी जो कुछ ब्राह्मणको तथा अपनेको प्रिय लगे वह सब सुनाना चाहिये। महाभारतका भी पाठ करना चाहिये; क्योंकि वह पितरोंको अत्यन्त प्रिय है। ब्राह्मणोंके भोजन कर लेनेपर जो अन्न और जल आदि शेष रहे, उसे उनके आगे जमीनपर बिखेर दे। यह उन जीवोंका भाग है, जो संस्कार आदिसे हीन होनेके कारण अधम गतिको प्राप्त हुए हैं।

ब्राह्मणोंको तृप्त जानकर उन्हें हाथ-मुँह धोनेके लिये जल प्रदान करे। इसके बाद गायके गोबर और गोमूत्र लिपी हुई भूमिपर दक्षिणा कुश बिछाकर उनके ऊपर यत्नपूर्वक पितृयज्ञकी भाँति विधिवत् पिण्डदान करे। पिण्डदानके पहले पितरोंके नाम गोत्रका उच्चारण करके उन्हें अवनेजनके लिये जल देना चाहिये। फिर पिण्ड देनेके बाद पिण्डोंपर प्रत्यवनेजनका जल गिराकर उनपर पुष्प आदि चढ़ाना चाहिये। सव्यापसव्यका विचार करके प्रत्येक कार्यका सम्पादन करना उचित है। पिताके श्राद्धकी भाँति माताका श्राद्ध भी हाथमें कुश लेकर विधिवत् सम्पन्न करे। दीप जलावे; पुष्प आदिसे पूजा करे। ब्राह्मणोंके आचमन कर लेनेपर स्वयं भी आचमनकरके एक-एक बार सबको जल दे। फिर फूल और अक्षत देकर तिलसहित अक्षय्योदक दान करे। फिर नाम और गोत्रका उच्चारण करते हुए शक्तिके अनुसार दक्षिणा दे। गौ, भूमि, सोना, वस्त्र और अच्छे अच्छे बिजीने दे कृपणता छोड़कर पितरोंकी प्रसन्नताका सम्पादन करते हुए जो-जो वस्तु ब्राह्मणोंको, अपनेको तथा पिताको भी प्रिय हो, यही वही वस्तु दान करे। तत्पश्चात् स्वभावाचन करके विश्वेदेवोंको जल अर्पण करे और ब्राह्मणोंसे आशीर्वाद ले विद्वान् पुरुष पूर्वाभिमुख होकर कहे- 'अघोराः पितरः सन्तु (मेरे पितर शान्त एवं मंगलमय हों)।' यजमान के ऐसा कहनेपर ब्राह्मणलोग 'तथा सन्तु (तुम्हारे पितर ऐसे ही हॉ) – ऐसा कहकर अनुमोदन करें। फिर श्राद्धकर्ता कहे—'गोत्रं नो वर्धताम्' (हमारा गोत्र बढ़े)। यह सुनकर ब्राह्मणोंको 'तथास्तु' (ऐसा ही हो ) इस प्रकार उत्तर देना चाहिये। फिर यजमान कहे 'दातारो मेऽभिवर्धन्ताम्' 'वेदाः सन्ततिरेव च एता: सत्या आशिषः सन्तु (मेरे दाता बढ़ें, साथ ही मेरे कुलमें वेदोंके अध्ययन और सुयोग्य सन्तानकी वृद्धि हो— ये सारे आशीर्वाद सत्य हों)' यह सुनकर ब्राह्मण कहें- 'सन्तु सत्या आशिषः (ये आशीर्वाद सत्य हों) । इसके बाद भक्तिपूर्वक पिण्डोंको उठाकर सूंघे और स्वस्तिवाचन करे। फिर भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्रके साथ प्रदक्षिणा करके आठ पग चले। तदनन्तर लौटकर प्रणाम करे। इस प्रकार श्राद्धकी विधि पूरी करके मन्त्रवेत्ता पुरुष अग्नि प्रज्वलित करनेके पश्चात् बलिवैश्वदेव तथा नैत्यिक बलि अर्पण करे। तदनन्तर भृत्य, पुत्र, बान्धव तथा अतिथियोंके साथ बैठकर वही अन्न भोजन करे, जो पितरोंको अर्पण किया गया हो। जिसका यज्ञोपवीत नहीं हुआ है, ऐसा पुरुष भी इस श्राद्धको प्रत्येक पर्वपर कर सकता है। इसे साधारण [ या नैमित्तिक] श्राद्ध कहते हैं। यह सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है राजन् स्त्रीरहित या विदेशस्थित मनुष्य भी भक्तिपूर्ण हृदयसे इस श्राद्धका अनुष्ठान करनेका अधिकारी है। यही नहीं, शूद्र भी इसी विधिसे श्राद्ध कर सकता है; अन्तर इतना ही है कि वहवेदमन्त्रोंका उच्चारण नहीं कर सकता । तीसरा अर्थात् काम्य श्राद्ध आभ्युदयिक है; इसे वृद्धि - श्राद्ध भी कहते हैं। उत्सव और आनन्दके अवसरपर, संस्कारके समय, यज्ञमें तथा विवाह आदि मांगलिक कार्योंमें यह श्राद्ध किया जाता है। इसमें पहले माताओंकी अर्थात् माता, पितामही और प्रपितामहीकी पूजा होती है। इनके बाद पितरों-पिता, पितामह और प्रपितामहका पूजन किया जाता है। अन्तमें मातामह आदिकी पूजा होती है। अन्य श्राद्धोंकी भाँति इसमें भी विश्वेदेवोंकी पूजा आवश्यक है। दक्षिणावर्तक क्रमसे पूजोपचार चढ़ाना चाहिये। आभ्युदयिक श्राद्धमें दही, अक्षत, फल और जलसे ही पूर्वाभिमुख होकर पितरोंकोपिण्डदान दिया जाता है। 'सम्पन्नम्' का उच्चारण करके अर्घ्य और पिण्डदान देना चाहिये। इसमें युगल ब्राह्मणोंको अर्घ्य दान दे तथा युगल (सपत्नीक) ब्राह्मणोंकी ही वस्त्र और सुवर्ण आदिके द्वारा पूजा करे। तिलका काम जौसे लेना चाहिये तथा सारा कार्य पूर्ववत् करना चाहिये। श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा सब प्रकारके मंगलपाठ करावे। इस प्रकार शूद्र भी कर सकता है। यह वृद्धिश्राद्ध सबके लिये सामान्य है। बुद्धिमान् शूद्र 'पित्रे नमः' इत्यादि नमस्कार - मन्त्रके द्वारा ही दान आदि कार्य करे। भगवान्‌का कथन है कि | शूद्रके लिये दान ही प्रधान है; क्योंकि दानसे उसकी | समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

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पद्म पुराण को पद्मपुराण और Padma Purana,Padama Purana आदि नामों से भी जाना जाता है।

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार