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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 128 - Khand 4, Adhyaya 128

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शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा

शेषजी कहते हैं- मुने! वायुनन्दन हनुमान्जीके श्री मूच्छित होनेका समाचार सुनकर शत्रुघ्नको बड़ा शोक हुआ। अब वे स्वयं सुवर्णमय रथपर विराजमान हुए और श्रेष्ठ वीरोंको साथ ले युद्धके लिये उस स्थानपर गये, जहाँ विचित्र रणकुशल वीरवर लव मौजूद थे। उन्हें देखकर शत्रुघ्नने मन ही मन विचार किया कि'श्रीरामचन्द्रजीके सदृश स्वरूप धारण करनेवाला यह बालक कौन है ? इसका नीलकमल दलके समान श्याम शरीर कितना मनोहर है! हो न हो, यह विदेहकुमारी सीताका ही पुत्र है ।' भीतर-ही-भीतर ऐसा सोचकर वे बालकसे बोले-'वत्स! तुम कौन हो, जो रणभूमिमें हमारे योद्धाओंको गिरा रहे हो ? तुम्हारेमाता-पिता कौन हैं? तुम बड़े सौभाग्यशाली हो; क्योंकि इस युद्धमें तुमने विजय पायी है महाबली वीर! तुम्हारा लोक प्रसिद्ध नाम क्या है? मैं जानना चाहता हूँ।' शत्रुघ्नके इस प्रकार पूछनेपर वीर बालक लवने उत्तर दिया- 'वीरवर! मेरे नामसे, पितासे, कुलसे तथा अवस्थासे तुम्हें क्या काम है? यदि तुम स्वयं बलवान् हो तो समरमें मेरे साथ युद्ध करो, यदि शक्ति हो तो बलपूर्वक अपना घोड़ा छुड़ा ले जाओ।' ऐसा कहकर उस उद्भट वीरने अनेकों बाणोंका सन्धान करके शत्रुघ्नकी छाती, मस्तक और भुजाओंपर प्रहार किया। तब राजा शत्रुघ्नने भी अत्यन्त कोपमें भरकर अपना धनुष चढ़ाया और बालकको त्रास-सा देते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें टंकार की। बलवानोंमें श्रेष्ठ तो वे थे ही, असंख्य बाणकी वर्षा करने लगे। परन्तु बालक लवने उनके सभी सायकोंको बलपूर्वक काट दिया। तत्पश्चात् लवके छोड़े हुए करोड़ों बाणों से वहाँकी सारी पृथ्वी आच्छादित हो गयी।

इतने बाणोंका प्रहार देखकर शत्रुघ्न दंग रह गये। फिर उन्होंने लवके लाखों वाणोंको काट गिराया। अपने समस्त सायकोंको कटा देख कुशके छोटे भाई लवने राजा शत्रुघ्न धनुषको वेगपूर्वक काट डाला। वे दूसरा धनुष लेकर ज्यों ही बाण छोड़नेको उद्यत होते हैं, त्यों ही लवने तीक्ष्ण सायकोंसे उनके रथको भी खण्डित कर दिया। रथ, घोड़े, सारथि और धनुषके कट जानेपर वे दूसरे रथपर सवार हुए और बलपूर्वक लवका सामना करनेके लिये चले। उस समय शत्रुघ्नने अत्यन्त कोपमें भरकर लवके ऊपर दस तीखे बाण छोड़े जो प्रागोंका संहार करनेवाले थे। परन्तु लवने तीखी गाँठवाले बार्णोंसे उनके टुकड़े टुकड़े करके एक अर्धचन्द्राकार बाणसे शत्रुघ्नको छातीमें प्रहार किया, उससे उनकी छातीमें गहरी चोट पहुँची और उन्हें बड़ी भयंकर पीड़ा हुई। वे हाथमें धनुष लिये ही रथकी बैठकमें गिर पड़े।

शत्रुघ्नको मूच्छित देख सुरथ आदि राजा युद्धमें विजय प्राप्तिके लिये उद्यत हो लवपर टूट पड़े किसीने क्षुरप्र और मुशल चलाये तो कोई अत्यन्त भयानकबाद्वारा ही प्रहार करने लगे। किसीने प्रास, किसीने कुन्त और किसीने फरसोंसे ही काम लिया। सारांश यह कि राजालोग सब ओरसे लवपर प्रहार करने लगे। वीरशिरोमणि लवने देखा कि ये क्षत्रिय अधर्मपूर्वक युद्ध करनेको तैयार हैं तो उन्होंने दस-दस बाणोंसे सबको घायल कर दिया। लवकी बाणवर्षासे आहत होकर कितने ही क्रोधी राजा रणभूमिसे पलायन कर गये और कितने ही युद्धक्षेत्रमें ही मूर्च्छित होकर गिर पड़े। इतनेहीमें राजा शत्रुघ्नकी मूर्च्छा दूर हुई और वे महावीर लवसे बलपूर्वक युद्ध करनेके लिये आगे बढ़े तथा सामने आकर बोले- 'वीर! तुम धन्य हो ! देखनेमें ही बालक-जैसे जान पड़ते हो, [वास्तवमे तुम्हारी वीरता अद्भुत है।] अब मेरा पराक्रम देखो: मैं अभी तुम्हें युद्धमें गिराता हूँ।' ऐसा कहकर शत्रुघ्नने एक बाग हाथमें लिया, जिसके द्वारा लवणासुरका वध हुआ था तथा जो यमराजके मुखकी भाँति भयंकर था। उस तीखे बाणको धनुषपर चढ़ाकर शत्रुघ्नने लवकी छातीको विदीर्ण करनेका विचार किया। वह बाण धनुषसे छूटते ही दसों दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ प्रज्वलित हो उठा। उसे देखकर लवको अपने बलिष्ठ भ्राता कुशकी याद आयी, जो वैरियोंको मार गिरानेवाले थे। वे सोचने लगे, यदि इस समय मेरे बलवान् भाई वीरवर कुश होते तो मुझे शत्रुघ्नके अधीन न होना पड़ता तथा मुझपर यह दारुण भय न आता। इस प्रकार विचारते हुए महात्मा लवकी छातीमें वह महान् बाण आ लगा। जो कालाग्निके समान भयंकर था। उसकी चोट खाकर वीर लव मूच्छित हो गये।

बलवान् वैरियोंको विदीर्ण करनेवाले लवको मूर्च्छित देख महाबली शत्रुघ्नने युद्धमें विजय प्राप्त की। वे शिरस्त्राण आदिसे अलंकृत बालक लवको, जो स्वरूपसे श्रीरामचन्द्रजीकी समानता करता था, रथपर बिठाकर वहाँसे जानेका विचार करने लगे। अपने मित्रको शत्रुके चंगुलमें फँसा देख आश्रमवासी ब्राह्मण बालकोंको बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने तुरंत जाकर लवकी माता सीतासे सब समाचार कह सुनाया-'माँजानकी! तुम्हारे पुत्र लवने किसी बड़े राजा महाराजाके घोड़ेको जबरदस्ती पकड़ लिया है। राजाके पास सेना भी है तथा उनका मान-सम्मान भी बहुत है। घोड़ा पकड़नेके बाद लवका राजाकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध हुआ। किन्तु सीता मैया! तुम्हारे वीर पुत्रने सब योद्धाओंको मार गिराया। उसके बाद वे लोग फिर लड़ने आये। परन्तु उसमें भी तुम्हारे सुन्दर पुत्रकी ही जीत हुई। उसने राजाको बेहोश कर दिया और युद्धमें विजय पायी । तदनन्तर कुछ ही देरके बाद उस भयंकर राजाकी मूर्च्छा दूर हो गयी और उसने क्रोधमें भरकर तुम्हारे पुत्रको रणभूमिमें मूर्च्छित करके गिरा दिया है।'

सीता बोलीं- हाय ! राजा बड़ा निर्दयी है, वह बालकके साथ क्यों युद्ध करता है? अधर्मके कारण उसकी बुद्धि दूषित हो गयी है, तभी उसने मेरे बच्चेको धराशायी किया है। बालको! बताओ, उस राजाने मेरे पुत्रको कैसे युद्धमें गिराया है तथा अब वह कहाँ जायगा ?

पतिव्रता जानकी बालकोंसे इस प्रकारकी बातें कह रही थीं, इतनेहीमें वीरवर कुश भी महर्षियोंके साथ आश्रमपर आ पहुँचे। उन्होंने देखा, माता जानकीअत्यन्त व्याकुल हैं तथा उनके नेत्रोंसे आँसू बह रहे हैं। तब वे अपनी जननीसे बोले-'माँ मुझ पुत्रके रहते हुए तुमपर कैसा दुःख आ पड़ा ? शत्रुओंका मर्दन करनेवाला मेरा भाई लव कहाँ है? वह बलवान् वीर दिखायी क्यों नहीं देता ? कहाँ घूमने चला गया ? मेरी माँ तुम रोती क्यों हो? बताओ न लव कहाँ है?"

जानकीने कहा- बेटा! किसी राजाने लवको पकड़ लिया है। वह अपने घोड़ेकी रक्षा के लिये यहाँ आया था। सुना है, मेरे बच्चेने उसके यज्ञसम्बन्धी अश्वको पकड़कर बाँध लिया था। लव बलवान् है, उसे अकेले ही अनेकों शत्रुओंसे लड़ना पड़ा है। फिर भी उसने बहुत से अश्व-रक्षकोंको परास्त किया है। परन्तु अन्तमें उस राजाने लवको युद्धमें मूच्छित करके बाँध लिया है, यह बात इन बालकोंने बतायी है, जो उसके साथ ही गये थे। यही सुनकर मुझे दुःख हुआ है। वत्स! तुम समयपर आ गये। जाओ और उस श्रेष्ठ राजाके हाथसे लवको बलपूर्वक छुड़ा लाओ।

कुश बोले- माँ ! तुम जान लो कि लव अब उस राजाके बन्धनसे मुक्त हो गया। मैं अभी जाकर राजाको सेना और सवारियोंसहित अपने बाणोंका निशाना बनाता हूँ। यदि कोई अमर देवता या साक्षात् रुद्र आ गये हो तो भी अपने तीखे बाणोंकी मारसे उन्हें व्यथित करके मैं लवको छुड़ा लूँगा। माता! तुम रोओ मत; वीर पुरुषोंका संग्राममें मूच्छित होना उनके यशका कारण होता है। युद्धसे भागना ही उनके लिये कलंककी बात है।

शेषजी कहते हैं- मुने! कुशके इस वचनसे शुभलक्षणा सीताको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने पुत्रको सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र दिये और विजयके लिये आशीर्वाद देकर कहा- 'बेटा! युद्धक्षेत्रमें जाकर मूच्छित हुए लवको बन्धनसे छुड़ाओ।' माताकी यह आज्ञा पाकर कुशने कवच और कुण्डल धारण किये तथा जननीके चरणोंमें प्रणाम करके बड़े वेग से रणकी ओर प्रस्थान किया। वे वेगपूर्वक युद्धके लिये संग्रामभूमिमें उपस्थित हुए, वहाँ पहुँचते ही उनकी दृष्टिलवके ऊपर पड़ी, जिन्हें शत्रुओंने मूच्छित करके गिराया था [वे रथपर बँधे पड़े थे और उनकी मूर्च्छा दूर हो चुकी थी]। अपने महाबली भ्राता कुशको आया देख लव युद्धभूमिमें चमक उठे; मानो वायुका सहयोग पाकर अग्नि प्रज्वलित हो उठी हो। वे रथसे अपनेको छुड़ाकर युद्धके लिये निकल पड़े। फिर तो कुशने रणभूमिमें खड़े हुए समस्त वीरोंको पूर्व दिशाकी ओरसे मारना आरम्भ किया और लवने कोपमें भरकर सबको पश्चिम ओरसे पीटना शुरू किया। एक ओर कुशके बाणोंसे व्यथित और दूसरी ओर लवके सायकोंसे पीड़ित हो सेनाके समस्त योद्धा उत्ताल तरंगोंसे युक्त समुद्रकी भँवरके समान क्षुब्ध हो गये। सारी सेना इधर-उधर भाग चली।

सबके ऊपर आतंक छा रहा था। कोई भी बलवान् रणभूमिमें कहीं भी खड़ा होकर युद्ध करना नहीं चाहता था । इसी समय शत्रुओंको ताप देनेवाले राजा शत्रुघ्न लवके समान ही प्रतीत होनेवाले वीरवर कुशसे युद्ध करनेके लिये आगे बढ़े। समीप पहुँचकर उन्होंने पूछा - 'महावीर ! तुम कौन हो? आकार-प्रकारसे तोतुम अपने भाई लवके ही समान जान पड़ते हो। तुम्हारा बल भी महान् है। बताओ तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारी माता कहाँ है? और पिता कौन हैं?"

कुशने कहा- राजन् ! पातिव्रत्य धर्मका पालन करनेवाली केवल माता सीताने हमें जन्म दिया है। हम दोनों भाई महर्षि वाल्मीकिके चरणोंका पूजन करते हुए इस वनमें रहते हैं और माताकी सेवा किया करते हैं। हम दोनोंने सब प्रकारकी विद्याओंमें प्रवीणता प्राप्त की है। मेरा नाम कुश है और इसका नाम लव । अब तुम अपना परिचय दो, कौन हो ? युद्धकी श्लाघा रखनेवाले वीर जान पड़ते हो यह सुन्दर अश्व तुमने किसलिये छोड़ रखा है? भूपाल यदि वास्तवमें वीर हो तो मेरे साथ युद्ध करो मैं अभी इस बुद्धके मुहाने पर तुम्हारा वध कर डालूंगा।

शत्रुघ्नको जब यह मालूम हुआ कि यह श्रीरामचन्द्रजीके वीर्यसे उत्पन्न सीताका पुत्र है, तो उनके चित्तमें बड़ा विस्मय हुआ [किन्तु उस बालकने उन्हें युद्धके लिये ललकारा था; इसलिये] उन्होंने क्रोधमें भरकर धनुष उठा लिया। उन्हें धनुष लेते देख कुशको भी क्रोध हो आया और उसने अपने मुद्द एवं उत्तम धनुषको खींचा। फिर तो कुश और शत्रुघ्नके धनुषसे लाखों वाण छूटने लगे। उनसे वहाँका सारा प्रदेश व्याप्त हो गया। यह एक अद्भुत बात थी। उस समय उद्भट वीर कुशने शत्रुघ्नपर नारायणास्त्रका प्रयोग किया किन्तु वह अस्त्र उन्हें पीड़ा देनेमें समर्थ न हो सका। यह देख कुशके क्रोधकी सीमा न रही। वे महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न राजा शत्रुघ्नसे बोले-'राजन् मैं जानता हूँ, तुम संग्राममें जीतनेवाले महान् वीर हो; क्योंकि मेरे इस भयंकर अस्त्र नारायणास्वने भी तुम्हें तनिक बाधा नहीं पहुँचायी; तथापि आज इसी समय में अपने तीन बाणोंसे तुम्हें गिरा दूँगा। यदि ऐसा न करूँ तो मेरी प्रतिज्ञा सुनो, जो करोड़ों पुण्योंसे भी दुर्लभ मनुष्य शरीरको पाकर मोहवश उसका आदर नहीं करता [ भगवद्भजन आदिके द्वारा उसको सफल नहीं बनाता ] उस पुरुषको लगनेवाला पातक मुझे भी लगे। अच्छा,अब तुम सावधान हो जाओ में तत्काल हो तुम्हें पृथ्वीपर गिराता हूँ।' ऐसा कहकर कुशने अपने धनुषपर एक बाण चढ़ाया, जो कालाग्निके समान भयंकर था। उन्होंने शत्रुके अत्यन्त कठोर एवं विशाल वक्षःस्थलको लक्ष्य करके छोड़ दिया। कुशको उस बाणका सन्धान करते देख शत्रुघ्न कोपमें भर गये तथा श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके उन्होंने तुरंत ही उसे काट डाला। बाणके कटनेसे कुशका क्रोध और भी भड़क उठा तथा उन्होंने धनुषपर दूसरा बाण चढ़ाया। उस बाणके द्वारा वे शत्रुघ्नकी छाती छेद डालनेका विचार कर ही रहे थे कि शत्रुघ्नने उसको भी काट गिराया। तब तो कुशको और भी क्रोध हुआ। अब उन्होंने अपनी माताके चरणोंका स्मरण करके धनुषपर तीसरा उत्तम बाण रखा। शत्रुघ्नने उसको भी शीघ्र ही काट डालनेके विचारसे बाण हाथमें लिया; किन्तु उसे छोड़ने के पहले ही वे कुशके बाणसे घायल होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। शत्रुघ्नके गिरनेपर सेनामें बड़ा भारी हाहाकार मचा। उस समय अपनी भुजाओंके बलपर गर्व रखनेवाले वीरवर कुशकी विजय हुई।

शेषजी कहते हैं- मुने! राजाओंमें श्रेष्ठ सुरथने जब शत्रुघ्नको गिरा देखा तो वे अत्यन्त अद्भुत मणिमय रथपर बैठकर युद्धके लिये गये। वे महान् वीरोंके शिरोमणि थे। कुशके पास पहुँचकर उन्होंने अनेकों बाण छोड़े और समरभूमिमें कुशको व्यथित कर दिया। तब कुशने भी दस बाण मारकर सुरथको रथहीन कर दिया और प्रत्यंचा चढ़ाये हुए उनके सुदृढ़ धनुषको भी वेगपूर्वक काट डाला। जब एक किसी दिव्य अस्त्रका प्रयोग करता, तो दूसरा उसके बदले में संहारास्त्रका उपयोग करता था और जब दूसरा किसी अस्त्रको फेंकता तो पहला भी वैसा ही अस्त्र चलाकर तुरंत उसका बदला चुकाता था। इस प्रकार उन दोनोंमें घोर घमासान युद्ध हुआ, जो वीरोंके रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। कुशने सोचा, अब मुझे क्या करना चाहिये? कर्तव्यका निश्चय करके उन्होंने एक तीक्ष्ण एवं भयंकर सायक हाथमें लिया। छूटते ही वह कालाग्निके समान प्रज्वलित हो उठा। उसे आते देख सुरथने ज्यों ही काटनेका विचारकिया, त्यों ही वह महाबाण तुरंत उनकी छातीमें आ लगा सुरथ मूर्च्छित होकर रथपर गिर पड़े। यह देख सारथि उन्हें रणभूमिसे बाहर ले गया।

सुरथके गिर जानेपर कुश विजयी हुए यह देख पवनकुमार हनुमानजीने सहसा एक विशाल शालका वृक्ष उखाड़ लिया। महान् बलवान् तो वे थे ही, कुशकी छातीको लक्ष्य बनाकर उनसे युद्ध करनेके लिये गये। निकट जाकर उन्होंने कुशकी छातीपर वह शालवृक्ष दे मारा। उसकी चोट खाकर वीर कुशने संहारास्त्र उठाया। उनका छोड़ा हुआ संहारास्त्र दुर्जय (अमोघ) था। उसे देखकर हनुमान्जी मन-ही-मन भक्तोंका विघ्न नष्ट करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीका ध्यान करने लगे। इतनेहीमें उनकी छातीपर उस अस्त्रकी करारी चोट पड़ी। वह बड़ी व्यथा पहुँचानेवाला अस्त्र था। उसके लगते ही हनुमानजीको मूर्च्छा आ गयी। तत्पश्चात् उस रणक्षेत्रमें कुशके चलाये हुए हजारों बाणोंकी मार खाकर सारी सेनाके पाँव उखड़ गये समूची चतुरंगिणी सेना भाग चली।

उस समय वानरराज सुग्रीव उस विशाल वाहिनीके संरक्षक हुए। वे अनेकों वृक्ष उखाड़कर उद्भट वीर कुशकी ओर दौड़े। परन्तु कुशने हँसते-हँसते खेलमें ही वे सारे वृक्ष काट गिराये। तब सुग्रीवने एक भयंकर पर्वत उठाकर कुशके मस्तकको उसका निशाना बनाया। उस पर्वतको आते देख कुशने शीघ्र ही अनेकों वाणोंका प्रहार करके उसे चूर्ण कर डाला। वह पर्वत महारुद्रके शरीरमें लगानेयोग्य भस्म-सा बन गया। बालकका यह महान् पराक्रम देखकर सुग्रीवको बड़ा अमर्ष हुआ और उन्होंने कुशको मारनेके लिये रोषपूर्वक एक वृक्ष हाथमें लिया। इतनेहीमें लवके बड़े भाई वीरवर कुशने वारुणास्त्रका प्रयोग किया और सुग्रीवको वरुण-पाशसे दृढतापूर्वक बाँध लिया बलशाली कुशके द्वारा कोमल पाशोंसे बाँधे जानेपर सुग्रीव रणभूमिमें गिर पड़े। सुग्रीवको गिरा देख सभी योद्धा इधर-उधर भाग गये। महावीरशिरोमणि कुशने विजय पायी। इसी समय लवने भी पुष्कल, अंगद, प्रतापाद्र्ध, वीरमणि तथा अन्यराजाओंको जीतकर रणमें विजय पायी। फिर दोनों भाई बड़े हर्षमें भरकर एक-दूसरेसे मिले।

लखने कहा- भैया! आपकी कृपासे में युद्धरूपी समुद्रके पार हुआ। अब हमलोग इस रणकी स्मृतिके लिये कोई सुन्दर चिह्न तलाश करने चलें।' ऐसा कहकर लव अपने भाई कुशके साथ पहले राजा शत्रुघ्नके निकट गये। वहाँ कुशने उनकी सुवर्णमण्डित मनोहर मुकुटमणि ले ली। फिर वीरवर लवने पुष्कलका सुन्दर किरीट उतार लिया। इसके बाद दोनों भाइयोंने उनके बहुमूल्य भुजबंद तथा हथियारोंको भी हथिया लिया। तदनन्तर हनुमान् और सुग्रीवके पास जाकर उन दोनोंको बाँधा। फिर लवने अपने भाईसे कहा-'भैया मैं इन दोनोंको अपने आश्रम में ले चलूँगा। वहाँ मुनियोंके बालक इनसे खेलेंगे और मेरा भी मनोरंजन होगा।' इस तरहकी बातें करते हुए उन दोनों महाबली वानरोंको पकड़कर ये आश्रमकी ओर चले और माताको कुटीपर जा पहुँचे। अपने दोनों मनोहर बालकोंको आया देख माता जानकीको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बड़े स्नेहके साथ उन्हें छाती से लगाया किन्तु जब उनके लाये हुए दोनों वानरोंपर उनकी दृष्टि पड़ीतो उन्होंने और बनावको सहसा पहचान लिया। अब वे उन्हें छोड़ देनेकी आज्ञा देती हुई यह श्रेष्ठ वचन बोलीं- 'पुत्रो ! ये दोनों वानर बड़े वीर और महाबलवान् है इन्हें छोड़ दो ये कीर हनुमान्जी हैं, जिन्होंने रावणकी पुरी लंकाको भस्म किया था; तथा ये भी वानर और भालुओंके राजा सुग्रीव हैं। इन दोनोंको तुमने किसलिये पकड़ा है? अथवा क्यों इनके साथ अनादरपूर्ण बर्ताव किया है?'

पुत्रोंने कहा -'माँ! एक राम नामसे प्रसिद्ध बलवान् राजा हैं, जो महाराज दशरथके पुत्र हैं। उन्होंने एक सुन्दर घोड़ा छोड़ रखा है, जिसके ललाटपर सोनेका पत्र बँधा है। उसमें यह लिखा है कि 'जो सच्चे क्षत्रिय हों, वे इस घोड़ेको पकड़े; अन्यथा मेरे सामने मस्तक झुकावें।' उस राजाकी ढिठाई देखकर मैंने घोड़ेको पकड़ लिया। सारी सेनाको हमलोगोंने युद्धमें मार गिराया है। यह राजा शत्रुघ्नका मुकुट है तथा यह दूसरे वीर महात्मा पुष्कलका किरीट है।

सीताने कहा- पुत्रो तुम दोनोंने बड़ा अन्याय ! किया। श्रीरामचन्द्रजीका छोड़ा हुआ महान् अश्व तुमनेपकड़ा, अनेकों वीरोंको मार गिराया और इन कपीश्वरोंको भी बाँध लिया - यह सब अच्छा नहीं हुआ। वीरो ! तुम नहीं जानते, वह तुम्हारे पिताका ही घोड़ा है [ श्रीराम तुम्हारे पिता हैं], उन्होंने अश्वमेध यज्ञके लिये उस अश्वको छोड़ रखा था। इन दोनों वानर वीरोंको छोड़ दो तथा उस श्रेष्ठ अश्वको भी खोल दो ।

माताकी बात सुनकर उन बलवान् बालकोंने कहा—'माँ! हमलोगोंने क्षत्रिय धर्मके अनुसार उस बलवान् राजाको परास्त किया है। क्षात्रधर्मके अनुसार युद्ध करनेवालोंको अन्यायका भागी नहीं होना पड़ता । आजके पहले जब हमलोग पढ़ रहे थे, उस समय महर्षि वाल्मीकिजीने भी हमसे ऐसा ही कहा था 'क्षात्रधर्मके अनुसार पुत्र पितासे, भाई भाईसे और शिष्य गुरुसे भी युद्ध कर सकता है, इससे पाप नहीं होता।' तुम्हारी आज्ञासे हमलोग अभी उस उत्तम अश्वकोलौटाये देते हैं; तथा इन वानरोंको भी छोड़ देंगे। तुमने जो कुछ कहा है, सबका हम पालन करेंगे।'

मातासे ऐसा कहकर वे दोनों वीर पुनः रणभूमिमें गये और वहाँ उन दोनों कपीश्वरों तथा उस अश्वमेध योग्य अश्वको भी छोड़ आये। अपने पुत्रोंके द्वारा सेनाका मारा जाना सुनकर सीतादेवीने मन-ही-मन श्रीरामचन्द्रजीका ध्यान किया और सबके साक्षी भगवान् सूर्यकी ओर देखा। वे कहने लगीं- 'यदि मैं मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा केवल श्रीरघुनाथजीका ही भजन करती हूँ, दूसरे किसीको कभी मनमें भी नहीं लाती तो ये राजा शत्रुघ्न जीवित हो जायँ तथा इनकी वह विशाल सेना भी जो मेरे पुत्रोंके द्वारा बलपूर्वक नष्ट की गयी है, मेरे सत्यके प्रभावसे जी उठे।' पतिव्रता जानकीने ज्यों ही यह वचन मुँहसे निकाला, त्यों ही वह सारी सेना, जो संग्राम भूमिमें नष्ट हुई थी, जीवित हो गयी।

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पद्म पुराण को पद्मपुराण और Padma Purana,Padama Purana आदि नामों से भी जाना जाता है।

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार