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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 1, अध्याय 17 - Khand 1, Adhyaya 17

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पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन

भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन्! अब आप मुझे यह बताने की कृपा करें कि वेदवेत्ता ब्राह्मण तीनों पुष्करोंकी यात्रा किस प्रकार करते हैं तथा उसके करने से मनुष्योंको क्या फल मिलता है ?

पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! अब एकाग्रचित्त होकर तीर्थ सेवनके महान् फलका श्रवण करो। जिसके हाथ, पैर और मन संयममें रहते हैं तथा जो विद्वान्, तपस्वी और कीर्तिमान् होता है, वही तीर्थ सेवनका फल प्राप्त करता है। जो प्रतिग्रहसे दूर रहता है किसीका दिया हुआ दान नहीं लेता, प्रारब्धवश जो कुछ प्राप्त हो जाय - उसीसे सन्तुष्ट रहता है तथा जिसका अहंकार दूर हो गया है, ऐसे मनुष्यको ही तीर्थ सेवनका पूरा फल मिलता है। राजेन्द्र ! जो स्वभावतः क्रोधहीन, सत्यवादी, दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाला तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें आत्मभाव रखनेवाला है, उसे तीर्थ सेवनका फल प्राप्त होता है। * यह ऋषियोंका परम गोपनीय सिद्धान्त है।

राजेन्द्र ! पुष्कर तीर्थ करोड़ों ऋषियोंसे भरा है, उसकी लम्बाई बाई योजन (दस कोस) और चौड़ाई आधा योजन (दो कोस) है। यही उस तीर्थका परिमाण है। वहाँ जानेमात्रसे मनुष्यको राजसूय और अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है, जहाँ अत्यन्त पवित्र सरस्वती नदीने ज्येष्ठ पुष्करमें प्रवेश किया है, यहाँ चैत्र शुक्ला चतुर्दशीको ब्रह्मा आदि देवताओं, ऋषियों, सिद्धों औरचारणोंका आगमन होता है, अतः उक्त तिथिको देवताओं और पितरोंके पूजनमें प्रवृत्त हो मनुष्यको वहाँ स्नान करना चाहिये। इससे वह अभय पदको प्राप्त होता है और अपने कुलका भी उद्धार करता है। वहाँ देवताओं और पितरोंका तर्पण करके मनुष्य विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। ज्येष्ठ पुष्करमें स्नान करनेसे उसका स्वरूप चन्द्रमाके समान निर्मल हो जाता है तथा वह ब्रह्मलोक एवं उत्तम गतिको प्राप्त होता है। मनुष्य लोकमें देवाधिदेव ब्रह्माजीका यह पुष्कर नामसे प्रसिद्ध तीर्थ त्रिभुवनमें विख्यात है। यह बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है। पुष्करमें तीनों सन्ध्याओंके समय प्रातःकाल, मध्याह्न एवं सायंकालमें दस हजार करोड़ (एक खरब) तीर्थ उपस्थित रहते हैं तथा आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, मरुद्गण, गन्धर्व और अप्सराओंका भी प्रतिदिन आगमन होता है। वहाँ तपस्या करके कितने ही देवता, दैत्य तथा ब्रह्मर्षि दिव्य योगसे सम्पन्न एवं महान् पुण्यशाली हो गये। जो मनसे भी पुष्कर तीर्थके सेवनकी इच्छा करता है, उस मनस्वीके सारे पाप नष्ट जाते हैं। महाराज ! उस तीर्थमें देवता और दानवोंके द्वारा सम्मानित भगवान् ब्रह्माजी सदा ही प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। वहाँ देवताओं और ऋषियोंने महान् पुण्यसे युक्त होकर इच्छानुसार सिद्धियाँ प्राप्त की हैं। जो मनुष्य देवताओं और पितरोंके पूजनमें तत्पर हो वहाँ स्नान करता है, उसके पुण्यको मनीषीपुरुष अश्वमेध यज्ञकी अपेक्षा दसगुना अधिक बतलाते। हैं। पुष्करारण्यमें जाकर जो एक ब्राह्मणको भी भोजन कराता है, उसके उस अन्नसे एक करोड़ ब्राह्मणोंको पूर्ण तृप्तिपूर्वक भोजन करानेका फल होता है तथा उस पुण्यकर्मके प्रभावसे वह इहलोक और परलोकमें भी आनन्द मनाता है। [ अन्न न हो तो ] शाक, मूल अथवा फल - जिससे वह स्वयं जीवन निर्वाह करता हो, वही - दोष- दृष्टिका परित्याग करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणको अर्पण करे। उसीके दानसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र- सभी इस तीर्थमें स्नान दानादि पुण्यके अधिकारी हैं। ब्रह्माजीका पुष्कर नामक सरोवर परम पवित्र तीर्थ है वह वानप्रस्थियों, सिद्धों तथा मुनियोंको भी पुण्य प्रदान करनेवाला है। परम पावन सरस्वती नदी पुष्करसे ही महासागरकी ओर गयी है। वहाँ महायोगी आदिदेव मधुसूदन सदा निवास करते हैं। वे आदिवराहके नामसे प्रसिद्ध हैं तथा सम्पूर्ण देवता उनकी पूजा करते रहते हैं। विशेषतः कार्तिककी पूर्णिमाको जो पुष्कर तीर्थकी यात्रा करता है, वह अक्षय फलका भागी होता है-ऐसा मैंने सुना है।

कुरुनन्दन ! जो सायंकाल और सबेरे हाथ जोड़कर तीनों पुष्करोंका स्मरण करता है, उसे समस्त तीर्थोंमें आचमन करनेका फल प्राप्त होता है। स्त्री हो या पुरुष, पुष्करमें स्नान करनेमात्रसे उसके जन्मभरका सारा पाप नष्ट हो जाता है जैसे सम्पूर्ण देवताओंमें ब्रह्माजी श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सब तीर्थोंमें पुष्कर ही आदि तीर्थ बताया गया है। जो पुष्करमें संयम और पवित्रताके साथ दस वर्षोंतक निवास करता हुआ ब्रह्माजीका दर्शन करता है, वह सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त कर लेता है और अन्तमें ब्रह्मलोकको जाता है। जो पूरे सौ वर्षोंतक अग्निहोत्र करता है और कार्तिककी एक ही पूर्णिमाको पुष्करमेंनिवास करता है, उन दोनोंका फल एक-सा ही होता है। पुष्करमें निवास दुर्लभ है, पुष्करमें तपस्याका सुयोग मिलना कठिन है। पुष्करमें दान देनेका सौभाग्य भी मुस्किलसे प्राप्त होता है तथा वहाँकी यात्राका सुयोग भी दुर्लभ है। वेदवेता ब्राह्मण ज्येष्ठ पुष्करमें जाकर स्नान करनेसे मोक्षका भागी होता है और श्राद्धसे वह पितरोंको तार देता है। जो ब्राह्मण वहाँ जाकर नाममात्रके लिये भी सन्ध्योपासन करता है, उसे बारह तक सन्ध्योपासन करनेका फल प्राप्त हो जाता है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने स्वयं ही यह बात कही थी। जो अकेले भी कभी पुष्कर तीर्थमें चला जाय, उसको चाहिये कि झारीमें पुष्करका जल लेकर क्रमशः सन्ध्या-वन्दन कर ले; ऐसा करनेसे भी उसे बारह वर्षोंतक निरन्तर सन्ध्योपासन करनेका फल प्राप्त हो जाता है। जो पत्नीको पास बिठाकर दक्षिण दिशाकी ओर मुँह करके गायत्री मन्त्रका जप करते हुए वहाँ तर्पण करता है, उसके उस तर्पणद्वारा बारह वर्षोंतक पितरोंको पूर्ण तृप्ति बनी रहती है। फिर पिण्डदानपूर्वक श्राद्ध करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। इसीलिये विद्वान् पुरुष यह सोचकर स्त्रीके साथ विवाह करते हैं। कि हम तीर्थ में जाकर श्रद्धापूर्वक पिण्डदान करेंगे। जो ऐसा करते हैं, उनके पुत्र, धन, धान्य और सन्तानका कभी उच्छेद नहीं होता यह निःसन्दिग्ध बात है।

राजन्! अब मैं तुमसे इस तीर्थके आश्रमोंका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। महर्षि अगस्त्यने इस तीर्थमें अपना आश्रम बनाया है, जो देवताओंके आश्रमकी समानता करता है। पूर्वकालमें यहाँ सप्तर्षियोंका भी आश्रम था ब्रह्मर्षियों और मनुओंने भी यहाँ आश्रम बनाया था। यज्ञ पर्वतके किनारे यहाँ नागौंको रमणीय पुरी भी है। महाराज! मैं महामना अगस्त्यजीके प्रभावका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ. ध्यान देकर सुनो। पहले की बात है-सत्ययुगमें कालकेयनामसे प्रसिद्ध दानव रहते थे। उनका स्वभाव अत्यन्त कठोर था तथा वे युद्धके लिये सदा उन्मत्त रहते थे। एक समय वे सभी दानव नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो वृत्रासुरको बीचमें करके इन्द्र आदि देवताओं पर चारों ओरसे चढ़ आये। तब देवतालोग इन्द्रको आगे करके ब्रह्माजीके पास गये। उन्हें हाथ जोड़कर खड़े देख ब्रह्माजीने कहा- "देवताओ! तुमलोग जो कार्य करना चाहते हो, वह सब मुझे मालूम है। मैं ऐसा उपाय बताऊँगा, जिससे तुम वृत्रासुरका वध कर सकोगे। दधीचि नामके एक महर्षि हैं, उनकी बुद्धि बड़ी ही उदार है। तुम सब लोग एक साथ जाकर उनसे वर माँगो वे धर्मात्मा हैं, अतः प्रसन्नचित्त होकर तुम्हारी माँग पूरी करेंगे। तुम उनसे यही कहना कि 'आप त्रिभुवनका हित करनेके लिये अपनी हड्डियाँ हमें प्रदान करें ।' निश्चय ही वे अपना शरीर त्यागकर तुम्हें हड्डियाँ अर्पण कर देंगे। उनकी हड्डियोंसे तुमलोग अत्यन्त भयंकर एवं सुदृढ़ वज्र तैयार करो, जो दिव्य शक्तिसे सम्पन्न उत्तम अस्त्र होगा। उससे बिजलीके समान गड़गड़ाहट पैदा होगी और वह महान् से - महान् शत्रुका विनाश करनेवाला होगा। उसी वज्रसे इन्द्र वृत्रासुरका वध करेंगे।"पुलस्त्यजी कहते हैं— ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर समस्त देवता उनकी आज्ञा ले इन्द्रको आगे करके दधीचिके आश्रमपर गये। वह सरस्वती नदीके उस पार बना हुआ था। नाना प्रकारके वृक्ष और लताएँ उसे घेरे हुए थीं। वहाँ पहुँचकर देवताओंने सूर्यके समान तेजस्वी महर्षि दधीचिका दर्शन किया और उनके चरणोंमें प्रणाम करके ब्रह्माजीके कथनानुसार वरदान माँगा। तब दधीचिने अत्यन्त प्रसन्न होकर देवताओंको प्रणाम करके यह कार्य साधक वचन कहा- 'अहो ! आज इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता यहाँ किसलिये पधारे हैं? मैं देखता हूँ आप सब लोगोंकी कान्ति फीकी पड़ गयी है, आपलोग पीड़ित जान पड़ते हैं। जिस कारणसे आपके हृदयको कष्ट पहुँच रहा है, उसे शान्तिपूर्वक बताइये ।'

देवता बोले—महर्षे ! यदि आपकी हड्डियोंका शस्त्र बनाया जाय तो उससे देवताओंका दुःख दूर हो सकता है।

दधीचिने कहा- देवताओ! जिससे आपलोगोंका हित होगा, वह कार्य मैं अवश्य करूँगा। आज आपलोगोंके लिये मैं अपने इस शरीरका भी त्याग करता हूँ।

ऐसा कहकर मनुष्यों में श्रेष्ठ महर्षि दधीचिने सहसा अपने प्राणोंका परित्याग कर दिया। तब सम्पूर्ण देवताओंने आवश्यकताके अनुसार उनके शरीरसे हड्डियाँ निकाल लीं। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे विजय पानेके लिये विश्वकर्माके पास जाकर बोले- 'आप इन हड्डियोंसे वज्रका निर्माण कीजिये ।' देवताओंके वचन सुनकर विश्वकर्माने बड़े हर्षके साथ प्रयत्नपूर्वक उग्र शक्ति सम्पन्न वज्रास्त्रका निर्माण किया और इन्द्रसे कहा- 'देवेश्वर ! यह वज्र सब अस्त्र-शस्त्रोंमें श्रेष्ठ है, आप इसके द्वारा देवताओंके भयंकर शत्रु वृत्रासुरको भस्म कीजिये।' उनके ऐसा कहनेपर इन्द्रको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने शुद्ध भावसे उस वज्रको ग्रहण किया। तदनन्तर इन्द्र देवताओंसे सुरक्षित हो, वज्र हाथमें लिये, वृत्रासुरका सामना करनेके लिये गये, जोपृथ्वी और आकाशको घेरकर खड़ा था। कालकेय नामके विशालकाय दानव हाथोंमें शस्त्र उठाये चारों ओरसे उसकी रक्षा कर रहे थे। फिर तो दानवोंके साथ देवताओंका भयंकर युद्ध प्रारम्भ हुआ। दो घड़ीतक तो ऐसी मार-काट हुई, जो सम्पूर्ण लोकको महान् भयमें डालनेवाली थी। वीरोंकी भुजाओंसे चलायी हुई तलवारें जब शत्रुके शरीरपर पड़ती थीं, तब बड़े जोरका शब्द होता था। आकाशसे पृथ्वीपर गिरते हुए मस्तक ताड़के फलोंके समान जान पड़ते थे उनसे वहाँकी सारी भूमि पटी हुई दिखायी देती थी। उस समय सोनेके कवच पहने हुए कालकेय दानव दावानलसे जलते हुए वृक्षोंके समान प्रतीत होते थे। वे हाथमें परिघ लेकर देवताओंपर टूट पड़े। उन्होंने एक साथ मिलकर बड़े वेगसे धावा किया था। यद्यपि देवता भी एक साथ संगठित होकर ही युद्ध कर रहे थे, तो भी वे उन दानवोंके वेगको न सह सके। उनके पैर उखड़ गये, वे भयभीत होकर भाग खड़े हुए। देवताओंको डरकर भागते और वृत्रासुरको प्रबल होते देख हजार आँखोंवाले इन्द्रको बड़ी घबराहट हुई। इन्द्रकी ऐसी अवस्था देख सनातन भगवान् श्रीविष्णुने उनके भीतर अपने तेजका संचार करके उनके बलको बढ़ाया। इन्द्रको श्रीविष्णुके तेजसे परिपूर्ण देख देवताओं तथा निर्मल अन्तःकरणवाले ब्रह्मर्षियोंने भी उनमें अपने-अपने तेजका संचार किया। इस प्रकार भगवान् श्रीविष्णु देवता तथा , महाभाग महर्षियोंके तेजसे वृद्धिको प्राप्त होकर इन्द्र अत्यन्त बलवान् हो गये।

देवराज इन्द्रको सवल जान वृत्रासुरने बड़े जोरसे सिंहनाद किया। उसकी विकट गर्जनासे पृथ्वी, दिशाएँ, अन्तरिक्ष, द्युलोक और आकाशमें सभी काँप उठे। वह भयंकर सिंहनाद सुनकर इन्द्रको बड़ा सन्ताप हुआ। उनके हृदयमें भय समा गया और उन्होंने बड़ी उतावलीके साथ अपना महान् वज्रास्त्र उसके ऊपर छोड़ दिया। इन्द्रके वज्रका आघात पाकर वह महान् असुर निष्प्राण होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवता तुरंत आगे बढ़कर वृत्रासुरके वधसे सन्तप्त हुएशेष दैत्योंको मारने लगे। देवताओंकी मार पड़नेपर वे महान् असुर भयसे पीड़ित हो वायुके सम्मान वेगसे भागकर अगाध समुद्रमें जा छिपे। वहाँ एकत्रित होकर सब-के-सब तीनों लोकोंका नाश करनेके लिये आपसमें सलाह करने लगे। उनमें जो विचारक थे. उन्होंने नाना प्रकारके उपाय बतलाये-तरह तरहकी युक्तियाँ सुझार्थी । अन्ततोगत्वा यह निश्चय हुआ कि 'तपस्यासे ही सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं, इसलिये उसीका क्षय करनेके लिये शीघ्रता की जाय। पृथ्वीपर जो कोई भी तपस्वी, धर्मज्ञ और विद्वान् हो, उनका तुरंत वध कर दिया जाय। उनके नष्ट हो जानेपर सम्पूर्ण जगत्का स्वयं ही नाश हो जायगा।

उन सबकी बुद्धि मारी गयी थी इसलिये उपर्युक्त प्रकारसे संसारके विनाशका निश्चय करके वे बहुत प्रसन्न हुए। समुद्ररूप दुर्गका आश्रय लेकर उन्होंने त्रिभुवनका विनाश आरम्भ किया। वे रातमें कुपित होकर निकलते और पवित्र आश्रमों तथा मन्दिरोंमें जो भी मुनि मिलते, उन्हें पकड़कर खा जाते थे। उन दुरात्माओंने वसिष्ठके आश्रम में जाकर आठ हजार आठ ब्राह्मणोंका भक्षण कर लिया तथा उस वनमें और भी जितने तपस्वी थे, उन्हें भी मौतके घाट उतार दिया। महर्षि च्यवनके पवित्र आश्रमपर, जहाँ बहुत-से द्विज निवास करते थे, जाकर उन्होंने फल-मूलका आहार करनेवाले सौ मुनियोंको अपना ग्रास बना लिया। इस प्रकार रातमें वे मुनियोंका संहार करते और दिनमें समुद्रके भीतर घुस जाते थे। भरद्वाजके आश्रमपर जाकर उन दानवने वायु और जल पीकर संयम नियमके साथ रहनेवाले बीस ब्रह्मचारियोंकी हत्या कर डाली इस तरह बहुत दिनोंतक उन्होंने मुनियोंका भक्षण जारी रखा, किन्तु मनुष्योंको इन हत्यारोंका पता नहीं चला। उस समय कालकेयोंके भयसे पीड़ित होकर सारा जगत् [ धर्म-कर्मको ओरसे] निरुत्साह हो गया। स्वाध्याय बंद हो गया। यज्ञ और उत्सव समाप्त हो गये। मनुष्योंकी संख्या दिनोदिन क्षीण होने सगी, वे भयभीत होकर आत्मरक्षा के लिये दस दिशाओंमें दौड़ने लगे; कोई द्विज गुफाओंमें छिप गये,दूसरों झरनोंकी शरण ली, कितनोंने भयसे व्याकुल होकर प्राण त्याग दिये। इस प्रकार यज्ञ और उत्सवोंसे रहित होकर जब सारा जगत् नष्ट होने लगा, तब इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता व्यथित होकर भगवान् श्रीनारायणक शरणमें गये और इस प्रकार स्तुति करने लगे।

देवता बोले- प्रभो! आप ही हमारे जन्मदाता और रक्षक हैं। आप ही संसारका भरण-पोषण करने जाते हैं। चर और अचर- सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि आपसे ही हुई है। कमलनयन। पूर्वकालमें यह भूमि नष्ट होकर रसातलमें चली गयी थी। उस समय आपने ही वराहरूप धारण करके संसारके हितके लिये इसका समुद्रसे उद्धार किया था। पुरुषोत्तम ! आदिदैत्य हिरण्यकशिपु बड़ा पराक्रमी था, तो भी आपने नृसिंहरूप धारण करके उसका वध कर डाला। इस प्रकार आपके बहुत से ऐसे [अलौकिक] कर्म हैं, जिनकी गणना नहीं हो सकती। मधुसूदन हमलोग भयभीत हो रहे हैं, अब आप ही हमारी गति हैं; इसलिये देवदेवेश्वर ! हम आपसे लोककी रक्षाके लिये प्रार्थना करते हैं। सम्पूर्ण लोकोंकी, देवताओंकी तथा इन्द्रकी महान् भयसे रक्षा कीजिये। आपकी ही कृपासे [अण्डज, स्वेदज, जरायुज एवं उद्भिज्ज] चार भागों में बंटी हुई सम्पूर्ण प्रजा जीवन धारण करती है। आपकी ही दयासे मनुष्य स्वस्थ होंगे और देवताओंकी हव्यकव्योंसे तृप्ति होगी। इस प्रकार देव मनुष्यादि सम्पूर्ण लोक एक दूसरेके आश्रित हैं आपके ही अनुग्रहसे इन सबका उद्वेग शान्त हो सकता है तथा आपके द्वारा ही इनकी पूर्णतया रक्षा होनी सम्भव है। भगवन्! संसारके ऊपर बड़ा भारी भय आ पहुंचा है। पता नहीं, कौन रात्रिमें जा-जाकर ब्राह्मणोंका वध कर डालता है। ब्राह्मणोंका क्षय हो जानेपर समूची पृथ्वीका नाश हो जायगा। अतः महाबाहो । जगत्पते। आप ऐसी कृपा करें, जिससे आपके द्वारा सुरक्षित होकर इन लोकोंका विनाश न हो।

भगवान् श्रीविष्णु बोले – देवताओ। मुझे प्रजाके विनाशका सारा कारण मालूम है। मैं तुम्हें भीबताता हूँ, निश्चिन्त होकर सुनो। कालकेय नामसे विख्यात जो दानवोंका समुदाय है, वह बड़ा ही निष्ठुर है। उन दानवोंने ही परस्पर मिलकर सम्पूर्ण जगत्‌को कष्ट पहुँचाना आरम्भ किया है। वे इन्द्रके द्वारा वृत्रासुरको मारा गया देख अपनी जान बचानेके लिये समुद्रमें घुस गये थे। नाना प्रकारके ग्राहोंसे भरे हुए भयंकर समुद्रमें रहकर वे जगत्का विनाश करनेके लिये रातमें मुनियोंको खा जाते हैं। जबतक वे समुद्र के भीतर छिपे रहेंगे, तबतक उनका नाश होना असम्भव है, इसलिये अब तुमलोग समुद्रको सुखानेका कोई उपाय सोचो।

पुलस्त्यजी कहते हैं- भगवान् श्रीविष्णुके ये वचन सुनकर देवता ब्रह्माजीके पास आकर वहाँसे महर्षि अगस्त्यके आश्रमपर गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मित्रावरुणके पुत्र परम तेजस्वी महात्मा अगस्त्य ऋषिको देखा। अनेकों महर्षि उनकी सेवामें लगे थे। उनमें प्रमादका लेश भी नहीं था। वे तपस्याकी राशि जान पड़ते थे। ऋषिलोग उनके अलौकिक कर्मोकी चर्चा करते हुए उनको स्तुति कर रहे थे।

देवता बोले- महर्षे! पूर्वकालमें जब राजा नहुषके द्वारा लोकोंको कष्ट पहुँच रहा था, उस समय आपने संसारके हितके लिये उन्हें इन्द्र-पदसे भ्रष्ट किया और इस प्रकार लोकका काँटा दूर करके आप जगत्के आश्रयदाता हुए। जिस समय पर्वतोंमें श्रेष्ठ विन्ध्याचल सूर्यके ऊपर क्रोध करके बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया था; उस समय आपने ही उसे नतमस्तक किया; तबसे आजतक आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ वह पर्वत बढ़ता नहीं। जब सारा जगत् अन्धकारसे आच्छादित था और प्रजा मृत्युसे पीड़ित होने लगी, उस समय आपको ही अपना रक्षक समझकर प्रजा आपकी शरणमें आयी और उसे आपके द्वारा परम आनन्द एवं शान्तिकी प्राप्ति हुई। जब-जब हमलोगोंपर भयका आक्रमण हुआ, तब-तब सदा ही आपने हमें शरण दी है; इसलिये आज भी हम आपसे एक वरकी याचना करते हैं। आप वरदाता हैं [ अतः हमारी इच्छा पूर्ण कीजिये ]भीष्मजीने पूछा- महामुने! क्या कारण था, जिससे विन्ध्य पर्वत सहसा क्रोधसे मूच्छित हो बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया था ?

पुलस्त्यजीने कहा- सूर्य प्रतिदिन उदय और अस्तके समय सुवर्णमय महापर्वत गिरिराज मेरुकी परिक्रमा किया करते हैं। एक दिन सूर्यको देखकर विन्ध्याचलने उनसे कहा-'भास्कर! जिस प्रकार आप प्रतिदिन मेरुपर्वतकी परिक्रमा किया करते हैं, उसी प्रकार मेरी भी कीजिये।' यह सुनकर सूर्यने गिरिराज विन्ध्यसे कहा- 'शैल! मैं अपनी इच्छासे मेरुकी परिक्रमा नहीं करता; जिन्होंने इस संसारकी सृष्टि की है, उन विधाताने ही मेरे लिये यह मार्ग नियत कर दिया है।' उनके ऐसा कहनेपर विन्ध्याचलको सहसा क्रोध हो आया और वह सूर्य तथा चन्द्रमाका मार्ग रोकनेके लिये बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया। तब इन्द्रादि सम्पूर्ण देवताओंने जाकर बढ़ते हुए गिरिराज विन्ध्याचलको रोका, किन्तु उसने उनकी बात नहीं मानी। तब वे महर्षि अगस्त्यके पास जाकर बोले-'मुनीश्वर! शैलराज विन्ध्य क्रोधके वशीभूत होकर सूर्य, चन्द्रमा तथा नक्षत्रोंका मार्ग रोक रहा है; उसे कोई निवारण नहीं कर पाता।'

देवताओंकी बात सुनकर ब्रह्मर्षि अगस्त्यजी विन्ध्यके पास गये और आदरपूर्वक बोले- 'पर्वत श्रेष्ठ! मैं दक्षिण दिशामें जानेके लिये तुमसे मार्ग चाहता हूँ। जबतक मैं लौटकर न आऊँ, तबतक तुम नीचे रहकर ही मेरी प्रतीक्षा करो।' [मुनिकी बात मानकर विन्ध्याचलने वैसा ही किया।] महर्षि अगस्त्य दक्षिण दिशासे आजतक नहीं लौटे; इसीसे विन्ध्य पर्वत अब नहीं बढ़ता। भीष्म ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार यह प्रसंग मैंने सुना दिया अब देवताओंने जिस प्रकार कालकेय दैत्योंका वध किया, वह वृत्तान्त सुनो। देवताओंके वचन सुनकर महर्षि अगस्त्यने पूछा

'आपलोग किसलिये यहाँ आये हैं और मुझसे क्या
वरदान चाहते हैं ?' उनके इस प्रकार पूछनेपर देवताओंने
कहा— 'महात्मन्! हम आपसे एक अद्भुत वरदान चाहते हैं। महर्षे! आप कृपा करके समुद्रको पीजाइये। आपके ऐसा करनेपर हमलोग देवद्रोही कालकेय नामक दानवों को उनके सगे-सम्बन्धियों सहित नार डालेंगे।' महर्षिने कहा-'बहुत अच्छा, देवराज मैं आपलोगों की इच्छा पूर्ण करूंगा।' ऐसा कहकर ये देवताओं और तपःसिद्ध मुनियोंके साथ जलनिधि समुद्र के पास गये। उनके इस अद्भुत कर्मको देखनेकी इच्छासे बहुतेरे मनुष्य, नाग, गन्धर्व, यक्ष और किन्नर भी उन महात्माके पीछे-पीछे गये। महर्षि सहसा समुद्रके तटपर जा पहुँचे। समुद्र भीषण गर्जना कर रहा था। वह अपनी उत्ताल तरंगोंसे नृत्य करता हुआ-सा जान पड़ता था । महर्षि अगस्त्यके साथ सम्पूर्ण देवता, गन्धर्व, नाग और महाभाग मुनि जब महासागरके किनारे पहुँच गये, तब महर्षिने समुद्रको पी जानेकी इच्छासे उन सबको लक्ष्य करके कहा – 'देवगण! सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये इस समय मैं इस महासागरको पिये लेता हूँ; अब आपलोगोंको जो कुछ करना हो, शीघ्र ही कीजिये।' यों कहकर वे सबके देखते-देखते समुद्रको पी गये। यह देखकर इन्द्र आदि देवताओंको बड़ा विस्मय हुआ तथा वे महर्षिकी स्तुति करते हुए कहने लगे- 'भगवन्! आप हमारे रक्षक और लोकोंको नयाजन्म देनेवाले हैं। आपकी कृपासे देवताओं सहित सम्पूर्ण जगत्का कभी उच्छेद नहीं हो सकता।' इस प्रकार सम्पूर्ण देवता उनका सम्मान कर रहे थे। प्रधान प्रधान गन्धर्व हर्षनाद करते थे और महर्षिके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी। उन्होंने समूचे महासागरको जलशून्य कर दिया। जब समुद्रमें एक बूँद भी पानी न रहा, तब सम्पूर्ण देवता हर्षमें भरकर हाथों में दिव्य आयुध लिये दानवोंपर प्रहार करने लगे। महाबली देवताओंका वेग असुरोंके लिये असह्य हो गया। उनकी मार खाकर भी वे भीमकाय दानव दो घड़ीतक घमासान युद्ध करते रहे; किन्तु वे पवित्रात्मा मुनियोंकी तपस्यासे दग्ध हो चुके थे, इसलिये पूर्ण शक्ति लगाकर यत्न करते रहनेपर भी देवताओंके हाथसे मारे गये। जो मरनेसे बच रहे, वे पृथ्वी फाड़कर पातालमें घुस गये। दानवोंको मारा गया देख देवताओंने नाना प्रकारके वचनोंद्वारा मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यका स्तवन किया तथा इस प्रकार कहा

देवता बोले-महाभाग ! आपकी कृपासे संसारके लोगोंको बड़ा सुख मिला। कालकेय दानव बड़े ही क्रूर और पराक्रमी थे, वे सब आपकी शक्तिसे मारे गये। लोकरक्षक महर्षे! अब इस समुद्रको भरदीजिये। आपने जो जल पी लिया है, वह सब इसमें वापस छोड़ दीजिये ।

उनके ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी बोले- 'वह जल तो मैंने पचा लिया, अब समुद्रको भरनेके लिये आपलोग कोई दूसरा उपाय सोचें।' महर्षिकी बात सुनकर देवताओंको विस्मय भी हुआ और विषाद भी । वहाँ इकट्ठे हुए सब लोग एक-दूसरेकी अनुमति ले मुनिवर अगस्त्यजीको प्रणाम करके जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। देवतालोग समुद्रको भरनेके विषयमें परस्पर विचार करते हुए ब्रह्माजीके पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने हाथ जोड़ ब्रह्माजीको प्रणाम किया और समुद्रके पुनः भरनेका उपाय पूछा। तब लोकपितामह ब्रह्माने उनसे कहा-'देवताओ! तुम सब लोग इच्छानुसार अपने-अपने अभीष्ट स्थानको लौट जाओ, अब बहुत दिनोंके बाद समुद्र अपनी पूर्वावस्थाको प्राप्त होगा । महाराज भगीरथ अपने कुटुम्बी जनोंको तारनेके लिये गंगाजीको लायेंगे और उन्हींके जलसे पुनः समुद्रको भर देंगे।'

ऐसा कहकर ब्रह्माजीने देवताओं और ऋषियोंको भेज दिया।

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पद्म पुराण को पद्मपुराण और Padma Purana,Padama Purana आदि नामों से भी जाना जाता है।

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार