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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 256 - Khand 5, Adhyaya 256

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श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग

श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती! तदनन्तर किसी पवित्र दिनको शुभ लग्नमें मंगलमय भगवान् श्रीरामका राज्याभिषेक करनेके लिये लोगोंने मांगलिक उत्सव मनाना आरम्भ किया। वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि कश्यप, मार्कण्डेय, मौद्गल्य, पर्वत और नारद-ये महर्षि जप और होम करके राजशिरोमणि श्रीरघुनाथजीका शुभ अभिषेक करने लगे। नाना रत्नोंसे निर्मित दिव्य सुवर्णमय पीढ़ेपर सीतासहित भगवान् श्रीरामको बिठाकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षि सोने और रत्नोंके कलशों में रखे हुए सब तीर्थोके शुद्ध एवं मन्त्रपूत जलसे, जिसमें पवित्र मांगलिक वस्तुएँ दुर्बदन तुलसीदल फूल और चन्दन आदि पड़े थे, उनका मंगलमय अभिषेक करने और चारों वेदोंके वैष्णव सूक्तोंको पढ़ने लगे। उस शुभ लग्नके समय आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजती थीं। चारों ओरसे फूलोंकी वर्षा होती थी। वेदोंके पारगामी मुनियोंने दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण, दिव्य गन्ध और नाना प्रकारके दिव्य पुष्पोंसे श्रीसीतादेवीके साथ श्रीरघुनाथजीका शृंगार किया। उस समय लक्ष्मणनेदिव्य छत्र और चॅवर धारण किये। भरत और शत्रुघ्न भगवान्‌के दोनों बगलमें खड़े होकर ताड़के पंखोंस हवा करने लगे। राक्षसराज विभीषणने सामनेसे दर्पण दिखाया। वानरराज सुग्रीव भरा हुआ कलश लेकर खड़े हुए। महातेजस्वी जाम्बवान्ने मनोहर फूलोंकी माला पहनायी। बालिकुमार अंगदने श्रीहरिको कपूर मिला हुआ पान अर्पण किया। हनुमान्जीने दिव्य दीपक दिखाया। सुषेणने सुन्दर झंडा फहराया। सब मन्त्री महात्मा श्रीरामको चारों ओरसे घेरकर उनकी सेवामें खड़े हुए। मन्त्रियोंके नाम इस प्रकार थे— सृष्टि, जयन्त, विजय, सौराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल तथा सुमन्त्र। नाना जनपदोंके स्वामी नरश्रेष्ठ नृपतिगण, पुरवासी, वैदिक विद्वान् तथा बड़े बूढ़े सज्जन भी महाराजकी सेवामें उपस्थित थे। वानर, भालू, मन्त्री, राजा, राक्षस, श्रेष्ठ द्विज तथा सेवकोंसे घिरे हुए महाराज श्रीराम साकेतधाम (अयोध्या) - में इस प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे भगवान् लक्ष्मीपति विष्णु देवताओंसे घिरे होनेपर परव्योम (वैकुण्ठधाम) - में सुशोभित होते हैं। देवी सीताके साथ श्रीरघुनाथजीको राज्यपर अभिषिक्तहोते देख विमानोंपर बैठे हुए देवताओंका हृदय आनन्दसे भर गया। गन्धर्व और अप्सराओंके समुदाय जय जयकार करते हुए स्तुति करने लगे। वसिष्ठ आदि महर्षियोद्वारा अभिषेक होने श्रीसीतादेवी के साथ उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे लक्ष्मीजीके साथ भगवान् विष्णु शोभा पते हैं। सीताजी अत्यन्त विव श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंकी सेवा किया करती थीं।

राज्याभिषेक हो जानेके पश्चात् सम्पूर्ण दिशाओंका पालन करते हुए श्रीरामचन्द्रजीने विदेहनन्दिनी सीताके साथ एक हजार वर्षोंतक मनोरम राजभोगका उपभोग किया। इस बीचमें अन्तःपुरकी रिवद नगर निवासी तथा प्रान्तके लोग छिपे तौरपर सीताजीकी निन्दा करने लगे। निन्दाका विषय यही था कि वे कुछ कालतक राक्षसके घरमें निवास कर चुकी थीं। शत्रुओंका संहार करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी लोकापवादके कारण मानव भावका प्रदर्शन करते हुए उन्होंने राजकुमारी सीताको गर्भवतीकी अवस्थामै वाल्मीकि मुनिके आश्रम के पास गंगातटपर महान् बनके भीतर छुपा दिया। महातेजस्विनी जानकी गर्भका कष्ट सहन करती हुई मुनिके आश्रम में रहने लगीं। उनका मन सदा स्वामीके चिन्तनमें ही लगा रहता था। मुनिपत्नियोंसे सत्कृत और महर्षि वाल्मीकिद्वारा सुरक्षित होकर उन्होंने आश्रम में ही दो पुत्र उत्पन्न किये, जो कुश और लवके नामसे प्रसिद्ध हुए। मुनिने ही उनके संस्कार किये और वहीं पलकर वे दोनों बड़े हुए।

उधर श्रीरामचन्द्रजी यम-नियमादि गुणोंसे सम्पन्न हो सब प्रकारके भोगोंका परित्याग करके भाइयोंके साथ पृथ्वीका पालन करने लगे। वे सदा आदि-अन्तसे रहित, सर्वव्यापी श्रीहरिका पूजन करते हुए ब्रह्मचर्यपरायण हो प्रतिदिन पृथ्वीका शासन करते थे। धर्मात्मा शत्रुघ्न लवणासुरको मारकर अपने दो पुत्रोंके साथ देवनिर्मित मथुरापुरीके राज्यका पालन करने लगे। भरतने सिंधु नदीके दोनों तटोंपर अधिकार जमाये हुए गन्धवका संहार करके उस देशमें अपने दोनों महाबली पुत्रोंको स्थापित कर दिया। इसी प्रकार लक्ष्मणने मद्रदेशमें रकर मौका वध किया और अपने दो महापराक्रमी पुगेको यहाँके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया। तत्पश्चात् आकर वे श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंकी सेवाकरने लगे। श्रीरघुनाथजीने एक तपस्वी शूद्रको मारकर मृत्युको प्राप्त हुए एक ब्राह्मणबालकको जीवन प्रदान किया। तत्पश्चात् नैमिषारण्य में गोमतीके तटपर श्रीरघुनाथजीने सुवर्णमयी जानकीको प्रतिमाके साथ बैठकर अश्वमेधयज्ञ किया। वहाँ भारी जनसमाज एकत्रित था। उन्होंने बहुत से यज्ञ किये।

इसी समय महातपस्वी वाल्मीकिजी सीताको साथ लेकर वहाँ आये और श्रीरघुनाथजीसे इस प्रकार बोले- 'उत्तम व्रतका पालन करनेवाले श्रीराम। मिथिलेशकुमारी सीता सर्वधा निष्पाप हैं। ये अत्यन्त निर्मल और सती-साध्वी स्त्री हैं। जैसे प्रभा सूर्यसे पृथक नहीं होती, उसी प्रकार ये भी कभी आपसे अलग नहीं होतीं। आप भी पापके सम्पर्कसे रहित हैं; फिर आपने इनका त्याग कैसे किया ?'

श्रीराम बोले- ब्रह्मन् ! मैं जानता हूँ, आपके कथनानुसार जानकी सर्वथा निष्पाप हैं। बात यह है कि सती-साध्वी सीताको दण्डकारण्य में रावणने हर लिया था। मैंने उस दुष्टको युद्धमें मार डाला। उसके बाद सीताने अग्निमें प्रवेश करके जब अपनेको शुद्ध प्रमाणित कर दिया, तब मैं धर्मतः इन्हें लेकर पुनः अयोध्या में आया। यहाँ आनेपर इनके प्रति नगरनिवासियोंमें महान् अपवाद फैला। यद्यपि ये तब भी सदाचारिणी ही थीं, तो भी लोकापवादके कारण मैंने इन्हें आपके निकट छोड़ दिया। अतः अब केवल मेरे ही चिन्तनमें संलग्न रहनेवाली सीताको उचित है कि ये लोगोंके सन्तोषके लिये राजाओं और महर्षियोंके सामने अपनी शुद्धताका विश्वास दिलावें।

मुनियों और राजाओंकी सभा में श्रीरामचन्द्रजीके ऐसा कहनेपर सती सीताने उनके प्रति अपना अनन्य प्रेम दिखलाने के लिये सब लोगोंको आश्चर्यमें डालनेवाला प्रमाण उपस्थित किया। वे हाथ जोड़कर सबके सामने उस भरी सभामें बोलीं- 'यदि मैं श्रीरघुनाथजीके सिवा अन्य किसी पुरुषका मनसे चिन्तन भी न करती होऊ तो हे पृथ्वीदेवी! तुम मुझे अपने अंकमें स्थान दो। यदि मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा केवल श्रीरघुनाथजीकी ही पूजा करती होऊँ तो हे माता पृथिवी । तुम मुझे अपने अंकमें स्थान दो।'माता जानकीको परमधाममें चलनेके लिये उद्यत जान पक्षिराज गरुड़ अपनी पीठपर रत्नमय सिंहासन लिये रसातलसे प्रकट हुए। इसी समय पृथ्वीदेवी भी प्रत्यक्षरूपसे प्रकट हुई। उन्होंने मिथिलेशकुमारी सीताको दोनों हाथोंसे उठा लिया और स्वागतपूर्वक अभिनन्दन करके उन्हें सिंहासनपर बिठाया। सीतादेवीको सिंहासनपर बैठी देख देवगण धारावाहिकरूपसे उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे तथा दिव्य अप्सराओंने उनका पूजन किया। फिर वे सनातनी देवी गरुड़पर आरूढ़ हो पृथ्वीके ही मार्गसे परमधामको बली गर्यो जगदीश्वरी सीता पूर्वभागमें दासीगणोंसे पिरकर योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य सनातन परमधाममें स्थित हुईं। सीताको रसातलमें प्रवेश करते देख सब मनुष्य साधुवाद देते हुए उच्चस्वरसे कहने लगे' वास्तवमें ये सीतादेवी परम साध्वी हैं।'

सीताके अन्तर्धान हो जानेसे श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा शोक हुआ। वे अपने दोनों पुत्रोंको लेकर मुनियों और राजाओंके साथ अयोध्यामें आये। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् उत्तम व्रतका पालन करनेवाली श्रीरामचन्द्रजीकी माताएँ कालधर्मको प्राप्त हो पतिके समीप स्वर्गलोकमें चली गयीं। कठोर व्रतका पालन करनेवाले श्रीरघुनाथजीने ग्यारह हजार वर्षोंतक धर्मपूर्वक राज्यका पालन किया। एक दिन काल तपस्वीका वेष धारण करके श्रीराम चन्द्रजीके भवनमें आया और इस प्रकार बोला 'महाभाग श्रीराम ! मुझे ब्रह्माजीने भेजा है। रघुश्रेष्ठ! मैं उनका सन्देश कहता है, आप सुनें। मेरी और आपकी बातचीत हम ही दोनोंतक सीमित रहनी चाहिये; इस बीचमें जो यहाँ प्रवेश करे, वह वधके योग्य होगा।'

ऐसा ही होगा, यह प्रतिज्ञा करके श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणको दरवाजेपर पहरा देनेके लिये बिठा दिया और स्वयं कालके साथ वार्तालाप करने लगे। उस समय कालने कहा- " श्रीराम! मेरे आनेका जो कारण है, उसे आप सुनें। देवताओंने आपसे कहा था कि 'आप रावण और कुम्भकर्णको मार ग्यारह हजार वर्षोंतक मनुष्यलोकमें निवास करें।' उनके ऐसा कहनेपर आप इस भूतलपर अवतीर्ण हुए थे। वह समय अब पूरा हो गया है; अतः अब आप परमधामको पधारें, जिससे सब देवता आपसेसनाथ हों।" महाबाहु श्रीरामने 'एवमस्तु' कहकर कालका अनुरोध स्वीकार किया।

उन दोनोंमें अभी बातचीत हो ही रही थी कि महातपस्वी दुर्वासामुनि राजद्वारपर आ पहुँचे और लक्ष्मणसे बोले- राजकुमार तुम शीघ्र जाकर रघुनाथजीको मेरे आनेकी सूचना दो।' यह सुनकर लक्ष्मणने कहा 'ब्रह्मन्! इस समय महाराजके समीप जानेकी आज्ञा नहीं है। लक्ष्मणकी बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाको बड़ा क्रोध हुआ। वे बोले-'यदि तुम श्रीरामचन्द्रजीसे नहीं मिलाओगे तो शाप दे दूंगा।' लक्ष्मणजीने शापके भवसे श्रीरामचन्द्रजीको महर्षि दुर्वासाके आगमनकी सूचना दे दी। तब सब भूतोंको भय देनेवाले कालदेव वहीं अन्तर्धान हो गये। महाराज श्रीरामने दुर्वासाके आनेपर उनका विधिवत् पूजन किया। उधर रघुश्रेष्ठ लक्ष्मणने अपने बड़े भाईकी प्रतिज्ञाको याद करके सरयूके जलमें स्थित हो अपने साक्षात् स्वरूपमें प्रवेश किया। उस समय उनके मस्तकपर सहस्रों फन शोभा पाने लगे। उनके श्रीअंगोंकी कान्ति कोटि चन्द्रमाओंके समान जान पड़ती थी। वे दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण किये दिव्य चन्दनके अनुलेपसे सुशोभित हो रहे थे। सहस्त्रों नाग-कन्याओंसे घिरे हुए भगवान् अनन्त दिव्य विमानपर बैठकर परमधामको चले गये।

लक्ष्मणके परमधामगमनका हाल जानकर श्रीरघुनाथजीने भी इस लोकसे जानेका विचार किया। उन्होंने अपने पुत्र वीरवर कुशको कुशावतीमें और लयको द्वारवतीमें धर्मपूर्वक अपने-अपने राज्यपर स्थापित किया। उस समय भगवान् श्रीरामके अभिप्रायको जानकर समस्त वानर और महाबली राक्षस अयोध्यामें आ गये। विभीषण, सुग्रीव, जाम्बवान्, पवनकुमार हनुमान्, नील, नल, सुषेण और निषादराज गुह भी आ पहुँचे महामना शत्रुघ्न भी अपने वीर पुत्रोंको राज्यपर अभिषिक्त करके श्रीरामपालित अयोध्यानगरीमें आये वे सभी महात्मा श्रीरामको प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहने लगे 'रघुश्रेष्ठ! आप परमधाममें पधारनेको उद्यत हैं-वह जानकर हम सब लोग आपके साथ चलनेको आये हैं। प्रभो! आपके बिना हम क्षणभर भी जीवित रहनेमें समर्थ नहीं हैं; अतः हम भी साथ ही चलेंगे।' उनकेऐसा कहनेपर श्रीरघुनाथजीने बहुत अच्छा' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की। तत्पश्चात् उन्होंने राक्षसराज विभीषणसे कहा- तुम धर्मपूर्वक राज्यका पालन करो। मेरी प्रतिज्ञा व्यर्थ न होने दो। जबतक चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी कायम हैं, तबतक प्रसन्नतापूर्वक राज्य भोगो। फिर योग्य समय आनेपर मेरे परमपदको प्राप्त होओगे।'

ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजीने इक्ष्वाकुकुलके देवता श्रीरंगशायी सनातन भगवान् विष्णुके अचविग्रहको विभीषणके लिये समर्पित किया। इसके बाद शत्रुसूदन । श्रीरघुनाथजीने हनुमान्जीसे कहा- 'वानरेश्वर! संसारमें जबतक मेरी कथाका प्रचार रहे, तबतक तुम इस पृथ्वीपर सुखसे रहो। फिर समयानुसार मुझे प्राप्त होओगे।' हनुमानूजीसे ऐसा कहकर वे जाम्बवान्से बोले- 'पुरुषश्रेष्ठ! द्वापरयुग आनेपर में पुनः पृथ्वीका भार उतारनेके लिये यदुकुलमें अवतार लूँगा और तुम्हारे साथ युद्ध करूँगा। [अतः तुम यहाँ रहो।]'

उपर्युक्त व्यक्तियोंसे ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी अन्य सभी वानरों और भालुओंसे कहा- 'तुम सब लोग मेरे साथ चलो।' तदनन्तर ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले भगवान् श्रीराम श्वेत वस्त्र पहनकर दोनों हाथोंमें कुश लिये अनासक्तभावसे चले। श्रीरामचन्द्रजीके दक्षिण भागमें कमल हाथमें लिये श्रीदेवी उपस्थित हो गर्यो और वामभागमै भूदेवी साथ-साथ चलने लगी। वेद, वेदांग, पुराण, इतिहास, ॐकार, वषट्कार, लोकको पवित्र करनेवाली सावित्री तथा धनुष आदि अम्ब शस्त्र- सभी पुरुष विग्रह धारण करके वहाँ उपस्थित हो गये। भरत, शत्रुघ्न तथा समस्त पुरवासी भी अपनी स्त्री, पुत्र तथा सेवकोंसहित भगवान् के साथ-साथ चले। मन्त्री, भृत्यवर्ग, किंकर, वैदिक, वानरगण, भालु तथा राजा सुग्रीव - इन सबने स्त्री और पुत्रोंके साथ परम बुद्धिमान् श्रीरघुनाथजीका अनुसरण किया। इतना ही नहीं, समीपवर्ती पशु, पक्षी तथा समस्त स्थावर-जंगम प्राणी भी महात्मा रघुनाथजीके साथ गये। उस समय श्रीरामचन्द्रजीको जो भी देख लेते, वे ही उनके साथ लग जाते थे। उनमेंसे कोई भी पीछे नहीं लौटता था।

तदनन्तर अयोध्यासे तीन योजन दूर जाकर जहाँ नदीका प्रवाह पच्छिमकी और था, भगवान्नेअनुयायियों सहित पुण्यसलिला सरयूमें प्रवेश किया। उस समय पितामह ब्रह्माजी सब देवताओं और ऋषियोंके साथ आकर रघुनाथजीकी स्तुति करते हुए बोले—' श्रीविष्णो! आइये आपका कल्याण हो। बड़े सौभाग्यकी बात है जो आप यहाँ पधारे हैं। मानद! अब आप अपने देवोपम भाइयोंके साथ अपने वैष्णव स्वरूपमें प्रवेश कीजिये वही आपका सनातन रूप है। देव! आप ही सम्पूर्ण विश्वकी गति हैं। कोई भी आपके स्वरूपको वास्तवमें नहीं जानते। आप अचिन्त्य, महात्मा, अविनाशी और सबके आश्रय हैं। भगवन्! आप आइये।' उस समय भगवान् श्रीरामने अपने स्वरूपमें प्रवेश किया। भरत और शत्रुघ्न क्रमशः शंख और चक्रके अंश थे। वे दोनों महात्मा दिव्य तेजसे सम्पन्न हो अपने तेजमें मिल गये। तब शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए चतुर्भुज भगवान् विष्णुके रूपमें स्थित हो श्रीरामचन्द्रजी श्री और भू देवियोंके साथ विमानपर आरूढ़ हुए। वहाँ दिव्य कल्पवृक्षके मूल भागमें सुन्दर सिंहासनपर भगवान् विराजमान हुए उस समय सब देवता उनकी स्तुति कर रहे थे। श्रीराम चन्द्रजीके पीछे जो वानर, भालु और मनुष्य आये थे, उन्होंने सरयूके जलका स्पर्श करते ही सुखपूर्वक प्राण त्याग दिये और श्रीरघुनाथजीकी कृपासे सबने दिव्य रूप धारण कर लिया। उनके अंगोंमें दिव्य हार और दिव्य वस्त्र शोभा पा रहे थे। वे दिव्य मंगलमय कान्तिसे सम्पन्न थे। असंख्य देहधारियोंसे घिरे हुए राजीवलोचन भगवान् श्रीराम उस विमानपर आरूढ़ हुए। उस समय देवता, सिद्ध, मुनि और महात्माओंसे पूजित होकर वे अपने दिव्य, अविनाशी एवं सनातन धाममें चले गये।

पार्वती जो मनुष्य श्रीरामचन्द्रजीके चरित्रके एक या आधे श्लोकको पढ़ता अथवा सुनता या भक्तिपूर्वक स्मरण करता है, वह कोटि जन्मोंके उपार्जित ज्ञाताज्ञात पापसे मुक्त हो स्त्री, पुत्र एवं बन्धु बान्धवोंके साथ योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य विष्णुलोकमें अनायास ही चला जाता है। देवि ! यह मैंने तुमसे श्रीरामचन्द्रजीके महान् चरित्रका वर्णन किया है तुम्हारी प्रेरणासे मुझे श्रीरामचन्द्रजीकी लीलाओंके कीर्तनका शुभ अवसर प्राप्त हुआ, इससे मैं अपनेको धन्य मानता है।

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पद्म पुराण को पद्मपुराण और Padma Purana,Padama Purana आदि नामों से भी जाना जाता है।

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार