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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 177 - Khand 5, Adhyaya 177

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नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन

ऋषियोंने कहा- सूतजी! आपका हृदय अत्यन्त करुणायुक्त है; अतएव श्रीमहादेवजी और देवर्षि नारदका जो अद्भुत संवाद हुआ था, उसे आपने हमलोगों से कहा है। हमलोग श्रद्धापूर्वक सुन रहे हैं। अब आप कृपापूर्वक यह बताइये कि महात्मा नारदने ब्रह्माजीसे भगवन्नामको महिमाका किस प्रकार श्रवण किया था।

सुनजी बोले- द्विजश्रेष्ठ मुनियो इस विषय मैं पुराना इतिहास सुनाता हूँ। आप सब लोग ध्यान देकर सुनें। इसके श्रवणसे भगवान् श्रीकृष्णमें भक्ति बढ़ती है। एक समयकी बात है, चित्तको पूर्ण एकाग्र रखनेवाले नारदजी अपने पिता ब्रह्माजीका दर्शन करनेके लिये मेरुपर्वतके शिखरपर गये। वहाँ आसनपर बैठे हुए जगत्पति ब्रह्माजीको प्रणाम करके मुनिश्रेष्ठ नारदजीने इस प्रकार कहा- 'विश्वेश्वर! भगवान्‌के नामकी जितनी शक्ति है, उसे बताइये। प्रभो! ये जो सम्पूर्ण विश्वके स्वामी साक्षात् श्रीनारायण हरि हैं, इन अविनाशी परमात्मा के नामकी कैसी महिमा है?"

ब्रह्माजी बोले- बेटा! इस कलियुगमेंविशेषतः नाम-कीर्तनपूर्वक भगवान्की भक्ति जिस प्रकार करनी चाहिये, वह सुनो। जिनके लिये शास्त्रोंमें कोई प्रायश्चित्त नहीं बताया गया है, उन सभी पापोंकी शुद्धिकेलिये एकमात्र विजयशील भगवान् विष्णुका प्रयत्नपूर्वक स्मरण ही सर्वोत्तम साधन देखा गया है, वह समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। अतः श्रीहरिके नामका कीर्तन और जप करना चाहिये। जो ऐसा करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। जो मनुष्य 'हरि' इस दो अक्षरोंवाले नामका सदा उच्चारण करते हैं, वे उसके उच्चारणमात्रसे मुक्त हो जाते हैं- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तपस्याके रूपमें किये जानेवाले जो सम्पूर्ण प्रायश्चित्त हैं, उन सबकी अपेक्षा श्रीकृष्णका निरन्तर स्मरण श्रेष्ठ है। जो मनुष्य प्रातः, सायं, रात्रि तथा मध्याह्न आदिके समय 'नारायण' नामका स्मरण करता है, उसके समस्त पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। 2

उत्तम व्रतका पालन करनेवाले नारद! मेरा कथन सत्य है, सत्य है, सत्य है। भगवान्‌के नामोंका उच्चारण करनेमात्रसे मनुष्य बड़े-बड़े पापोंसे मुक्त हो जाता है । 'राम-राम-राम-राम' इस प्रकार बारम्बार जप करनेवाला मनुष्य यदि चाण्डाल हो तो भी वह पवित्रात्मा हो जाता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। उसने नाम-कीर्तनमात्रसे कुरुक्षेत्र, काशी, गया और द्वारका आदि सम्पूर्ण तीर्थोंका सेवन कर लिया। जो 'कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण ! 'इस प्रकार जप और कीर्तन करता है, वह इस संसारका परित्याग करनेपर भगवान् विष्णुके समीप आनन्द भोगता है। ब्रह्मन्! जो कलियुगमें प्रसन्नतापूर्वक 'नृसिंह' नामका जप और कीर्तन करता है, वह भगवद्भक्त मनुष्य महान् पापसे छुटकारा पा जाता है। सत्ययुगमें ध्यान, त्रेतामें यज्ञ तथा द्वापरमें पूजन करके मनुष्य जो कुछ पाता है, वही कलियुगमें केवल भगवान् केशवका कीर्तन करनेसे पा लेता है। जो लोग इस बातको जानकर जगदात्मा केशवके भजनमें लीन होते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णु के परमपदको प्राप्त कर लेते हैं। मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि - ये दस अवतार इस पृथ्वीपर बताये गये हैं। इनके नामोच्चारणमात्रसे सदा ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध होता है। जो मनुष्य प्रातः काल जिस किसी तरह भी श्रीविष्णुनामका कीर्तन, जप तथा ध्यान करता है, वह निस्सन्देह मुक्त होता है, निश्चय ही नरसे नारायण बन जाता है। ll 3 ll

सूतजी कहते हैं - यह सुनकर नारदजीको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे अपने पिता ब्रह्माजीसे बोले 'तात! तीर्थसेवनके लिये पृथ्वीपर भ्रमण करनेकी क्या आवश्यकता है; जिनके नामका ऐसा माहात्म्य है किउसे सुननेमात्रसे मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है, उन भगवान्‌का ही स्मरण करना चाहिये। जिस मुखमें 'राम राम' का जप होता रहता है, वही महान् तीर्थ है, वही प्रधान क्षेत्र है तथा वही समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है। सुव्रत भगवान्के कीर्तन करनेयोग्य कौन-कौन से नाम हैं? उन सबको विशेष रूपसे बताइये।

ब्रह्माजीने कहा- बेटा! ये भगवान् विष्णु सर्वत्रव्यापक सनातन परमात्मा हैं। इनका न आदि है न अन्त। ये लक्ष्मीसे युक्त, सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा तथा समस्त प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले हैं। जिनसे मेरा प्रादुर्भाव हुआ है, वे भगवान् विष्णु सदा मेरी रक्षा करें। वही कालके भी काल और वही मेरे पूर्वज हैं। उनका कभी विनाश नहीं होता। उनके नेत्र कमलके समान शोभा पाते हैं। वे परम बुद्धिमान्, अधिकारी एवं पुरुष (अन्तर्यामी) हैं। सदा शेषनागकी शब्यापर शयन करनेवाले भगवान् विष्णु सहस्रों मस्तकवाले हैं। वे महाप्रभु हैं। सम्पूर्ण भूत उन्हींके स्वरूप हैं। भगवान् जनार्दन साक्षात् विश्वरूप हैं। कैटभ नामक असुरका वध करनेके कारण वे कैटभारि कहलाते हैं। वे ही व्यापक होनेके कारण विष्णु, धारण-पोषण करनेके कारण धाता और जगदीश्वर हैं। नारद! मैं उनका नाम और गोत्र नहीं जानता। तात! मैं केवल वेदोंका वक्ता हूँ, वेदातीत परमात्माका ज्ञाता नहीं, अतः देवर्षे तुम वहाँ जाओ, जहाँ भगवान् विश्वनाथ रहते हैं। मुनिश्रेष्ठ ! वे तुमसे सम्पूर्ण तत्त्वका वर्णन करेंगे। कैलासके स्वामी श्रीमहादेवजी ही अन्तर्यामी पुरुष हैं। वे देवताओंके स्वामी और सम्पूर्ण भक्तोंके आराध्यदेव हैं। पाँच मुखोंसे सुशोभित भगवान् उमानाथ सब दुःखोंका विनाश करनेवाले हैं। सम्पूर्ण विश्वके ईश्वर श्रीविश्वनाथजी सदा भक्तोंपर दया करनेवाले हैं। नारद। वहीं जाओ, वे तुम्हें सब कुछ बता देंगे।

सूतजी कहते हैं—पिताकी बात सुनकर देवर्षि नारद कैलास पर्वतपर, जहाँ कल्याणप्रद भगवान् विश्वेश्वर नित्य निवास करते हैं, गये। देवताओं द्वारापूजित देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् शंकर कैलासके शिखरपर विराजमान थे। उनके पाँच मुख, दस भुजाएँ, प्रत्येक मुखमें तीन नेत्र तथा हाथोंमें त्रिशूल, कपाल, खट्वांग, तीक्ष्ण शूल, खड्ग और पिनाक नामका धनुष शोभा पा रहे थे। बैलपर सवारी करनेवाले वरदाता भगवान् भीम अपने अंगोंमें भस्म रमाये सर्पोंकी शोभासे युक्त चन्द्रमाका मुकुट पहने करोड़ों सूर्योंके समान देदीप्यमान हो रहे थे। नारदजीने देवेश्वर शिवको साष्टांग दण्डवत् किया। उन्हें देखकर महादेवजीके नेत्रकमल खिल उठे। उस समय वैष्णवोंमें सर्वश्रेष्ठ शिवने ब्रह्मचारियोंमें श्रेष्ठ नारदजीसे पूछा- 'देवर्षिप्रवर ! बताओ, कहाँसे आ रहे हो ?'

नारदजीने कहा- भगवन्! एक समय मैं ब्रह्माजीके पास गया था। वहाँ उनके मुखसे मैंने भगवान् विष्णुके पापनाशक माहात्म्यका श्रवण किया। सुरश्रेष्ठ! ब्रह्माजीने मेरे सामने भगवान्की महिमाका भलीभाँति वर्णन किया। भगवान् के नामकी जितनी शक्ति है, वह भी मैंने उनके मुखसे सुनी है। तत्पश्चात् पहले विष्णुके नामोंके विषय में प्रश्न किया। तब उन्होंने कहा- 'नारद! मैं इस बातको नहीं जानता; इसका ज्ञान महारुद्रको है वे ही सब कुछ बतायेंगे।' यह सुनकर मैं आपके पास आया हूँ। इस घोर कलियुगमें मनुष्योंकी आयु थोड़ी होगी । वे सदा अधर्ममें तत्पर रहेंगे। भगवान्के नामोंमें उनकी निष्ठा नहीं होगी। कलियुगके ब्राह्मण पाखण्डी, धर्मसे विरक्त, संध्या न करनेवाले, व्रतहीन, दुष्ट और मलिन होंगे; जैसे ब्राह्मण होंगे, वैसे ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य जातिके लोग भी होंगे। प्रायः मनुष्य भगवान्के भक्त नहीं होंगे। द्विजोंसे बाहर गिने जानेवाले शूद्र कलियुगमें धर्म-अधर्म तथा हिताहितका ज्ञान भी नहीं रखते; ऐसा जानकर मैं आपके निकट आया हूँ। आप कृपा करके विष्णुके सहस्र नामोंका वर्णन कीजिये, जो पुरुषोंके लिये सौभाग्यजनक, परम उत्तम तथा सर्वदा भक्तिभावको बढ़ानेवाले हैं; इसी प्रकार जो ब्राह्मणोंको ब्रह्मज्ञान क्षत्रियोंको विजय, वैश्योंको धन तथा शूद्रोंको सदा सुख देनेवाले हैं।सुव्रत ! जो सहस्रनाम परम गोपनीय है, उसका वर्णन कीजिये वह परम पवित्र एवं सदा सर्वतीर्थमय है; अतः मैं उसका श्रवण करना चाहता हूँ। प्रभो ! विश्वेश्वर! कृपया उस सहस्रनामका उपदेश कीजिये।

नारदजी के वचन सुनकर भगवान् शंकरके नेत्र आश्चर्य चकित हो उठे। भगवान् विष्णुके नामका बारम्बार स्मरण करके उनके शरीरमें रोमांच हो आया। वे बोले-'ब्रह्मन् ! भगवान् विष्णुके सहस्रनाम परम गोपनीय हैं। इन्हें सुनकर मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता।' यों कहकर भगवान् शंकरने नारदजीको विष्णुसहस्रनामका उपदेश दिया, जिसे पूर्वकालमें वे भगवती पार्वतीजीको सुना चुके थे। इस प्रकार नारदजीने कैलासपर्वत पर भगवान् महेश्वरसे श्रीविष्णुसहस्रनामका ज्ञान प्राप्त किया। फिर दैवयोगसे एक बार वे कैलाससे उतरकर नैमिषारण्य नामक तीर्थमें आये वहाँके ऋषियोंने ऋषिश्रेष्ठ महात्मा नारदको आया देख विशेषरूपसे उनका स्वागत सत्कार किया। उन्होंने विष्णुभक्त विप्रवर नारदजीके ऊपर फूल बरसाये, पाद्य और अर्घ्य निवेदन किया, उनकी आरती उतारी और फल-मूल निवेदन करके पृथ्वीपर साष्टांग प्रणाम किया। तत्पश्चात् वे बोले 'महामुने! हमलोग इस वंशमें जन्म लेकर आज कृतार्थ हो गये; क्योंकि आज हमें परम पवित्र और पापका नाश करनेवाला आपका दर्शन प्राप्त हुआ। देवर्षे! आपके प्रसादसे हमने पुराणोंका श्रवण किया है। ब्रह्मन् ! अब आप यह बताइये कि किस प्रकार से समस्त पापका क्षय हो सकता है। दान, तपस्या, तीर्थ, यह योग, ध्यान, इन्द्रिय-निग्रह और शास्त्र समुदायके बिना ही कैसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है?"

नारदजी बोले - मुनिवरो! एक समय भगवती पार्वतीने कैलासशिखर पर बैठे हुए अपने प्रियतम देवाधिदेव जगद्गुरु महादेवजीसे इस प्रकार प्रश्न किया। पार्वती बोलीं- भगवन्! आप सर्वज्ञ और सर्वपूजित श्रेष्ठ देवता हैं। जन्म और मृत्युसे रहित, स्वयम्भू एवं सर्वशक्तिमान् हैं। स्वामिन्! आप सदा किसका ध्यान करते हैं? किस मन्त्रका जप करते हैं?देवेश्वर इसे जानने की मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है। सुत यदि मैं आपकी प्रियतमा और कृपापात्र हूँ तो मुझसे यथार्थ बात कहिये।

महादेवजी बोले- देवि! पहले सत्ययुगमें विशुद्ध चित्तवाले सब पुरुष सम्पूर्ण ईश्वरोंके भी ईश्वर एकमात्र भगवान् विष्णुका तत्त्व जानकर उन्हींके नामका जप किया करते थे और उसीके प्रभावसे इस लोक तथा परलोकमें भी परम ऐश्वर्यको प्राप्त करते थे। प्रिये! तुलादान, अश्वमेध आदि यज्ञ, काशी, प्रयाग आदि तीर्थोंमें किये हुए स्नान आदि शुभकर्म, गयामें किये हुए पितरोंके आद्ध-तर्पण आदि वेदोंके स्वाध्याय आदि, जप, उग्र तप, नियम, यम, जीवोंपर दया, गुरुशुश्रूषा सत्यभाषण, वर्ण और आश्रमके धर्मो का पालन, ज्ञान तथा ध्यान आदि साधनका कोटि जन्मोंतक भलीभाँति अनुष्ठान करनेपर भी मनुष्य परम कल्याणमय सर्वेश्वरेश्वर भगवान् विष्णुको नहीं परन्तु जो दूसरेका भरोसा न करके सर्वभावसे पुराण पुरुषोत्तम श्रीनारायणकी शरण ग्रहण करते हैं, वे उन्हें प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग एकमात्र श्रीभगवान् विष्णुके नामोंका कीर्तन करते हैं, वेसुखपूर्वक जिस गतिको प्राप्त करते हैं, उसे समस्त धार्मिक भी नहीं पा सकते। अतः सदा भगवान् विष्णुका स्मरण करना चाहिये, इन्हें कभी भी भूलना नहीं चाहिये । क्योंकि सभी विधि और निषेध इन्हींके किंकर हैं इन्हींकी आज्ञाका पालन करते हैं। प्रिये ! अब मैं तुमसे भगवान् विष्णुके मुख्य-मुख्य हजार नामका वर्णन करूँगा, जो तीनों लोकोंको मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं।

विनियोग

अस्य श्रीविष्णोर्नामसहस्त्रस्तोत्रस्य श्रीमहादेव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, परमात्मा देवता, ह्रीं बीजम्, श्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकम्, चतुर्वर्गधर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोगः ॥ 114॥

इस श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रके महादेवजी ऋषि, अनुष्टुप् छन्द, परमात्मा देवता, ह्रीं बीज, श्रीं शक्ति और क्लीं कीलक हैं। चारों पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षकी प्राप्तिके निमित्त जप करनेके लिये इस स्तोत्रका विनियोग (प्रयोग) किया जाता है॥ 114 ॥

ॐ वासुदेवाय विद्महे, महाहंसाय धीमहि, तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥ 115 ॥

हम श्रीवासुदेवका तत्त्व समझनेके लिये ज्ञान प्राप्त करते हैं, महाहंसस्वरूप नारायणके लिये ध्यान करते हैं, श्रीविष्णु हमें प्रेरित करें-हमारी मन, बुद्धिको प्रेरणा देकर इस कार्यमें लगायें 115 ॥

अङ्गन्यासकरन्यासविधिपूर्वं यदा पठेत् ।

तत्फलं कोटिगुणितं भवत्येव न संशयः ॥ 116 ॥

यदि पहले अंगन्यास और करन्यासकी विधि पूर्ण करके सहस्रनामस्तोत्रका पाठ किया जाय तो निस्सन्देह उसका फल कोटिगुना होता है ॥ 116 ॥अङ्गन्यास

श्रीवासुदेवः परं ब्रह्मेति हृदयम् । मूलप्रकृतिरिति शिरः । महावराह इति शिखा। सूर्यवंशध्वज इति कवचम्। ब्रह्मादिकाम्यलालित्यजगदाश्चर्यशैशव इति नेत्रम्। पार्थार्थखण्डिताशेष इत्यस्त्रम् । नमो नारायणायेति न्यासं सर्वत्र कारयेत् ॥ 117 ॥

'श्रीवासुदेवः परं ब्रह्म' ( श्रीवासुदेव परब्रह्म हैं) - यह कहकर दाहिने हाथकी अँगुलियोंसे हृदयका स्पर्श करे। 'मूलप्रकृतिः' (मूल प्रकृति) का उच्चारण करके सिरका स्पर्श करे। महावराहः' (महान् वराहरूपधारी भगवान् विष्णु) – यह कहकर शिखाका स्पर्श करे। 'सूर्यवंशध्वज:' (सूर्यवंशके ध्वजारूप भगवान् श्रीराम) यों कहकर दोनों हाथोंसे दोनों भुजाओंके मूलभागका स्पर्श करे। 'ब्रह्मादिकाम्यला लित्यजगदाश्चर्यशैशवः' (अवतार धारण करनेपर जिनका शिशुरूप अपने अनुपम सौन्दर्यसे संसारको आश्चर्यमें डाल देता है तथा ब्रह्मा आदि देवता भी उस रूपमें जिनकी झाँकी करनेकी अभिलाषा रखते हैं, वे भगवान् विष्णु धन्य हैं) यह कहकर नेत्रोंका स्पर्श करे । 'पार्थार्थखण्डिताशेषः' (अर्जुनके लिये महाभारतके समस्त वीरोंका संहार करानेवाले श्रीकृष्ण) यों कहकर ताली बजाये। अन्तमें 'नमो नारायणाय' (श्रीनारायणको नमस्कार है) –ऐसा बोलकर सर्वांगका स्पर्श करे ॥ 117 ॥ 2 ll

ॐ नमो नारायणाय पुरुषाय महात्मने, विशुद्धसत्त्वाय महाहंसाय धीमहि, तन्नो देवः प्रचोदयात् ॥ 118 ॥

ॐकाररूप सर्वान्तर्यामी महात्मा नारायणकोनमस्कार है, विशुद्ध सत्त्वमय महाहंसस्वरूप श्रीविष्णुका हम ध्यान करते हैं; अतः श्रीविष्णु देवता हमें सत्कार्यमें प्रेरित करें ।। 118 ॥

क्लीं कृष्णाय विद्महे, ह्रीं रामाय धीमहि, तन्नो देव: प्रचोदयात् ॥ 119 ॥

'क्लीं' रूप श्रीकृष्णतत्त्वको समझनेके लिये हम ज्ञान प्राप्त करते हैं; 'ह्रीं' रूप श्रीरामका हम ध्यान करते हैं; वे देव श्रीरघुनाथजी हमें प्रेरित करें ॥ 119 ॥

शं नृसिंहाय विद्महे, श्रीकण्ठाय धीमहि, तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥ 120 ॥ शम्— कल्याणमय भगवान् नृसिंहका तत्त्व जाननेके लिये हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, श्रीकण्ठका ध्यान करते हैं; वे श्रीनृसिंहरूप भगवान् विष्णु हमें प्रेरित करें ॥ 120 ll ॐ वासुदेवाय विद्महे, देवकीसुताय धीमहि, तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् ॥ 121 ॥

ॐ काररूप श्रीवासुदेवका तत्त्व जाननेके लिये हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, श्रीदेवकीनन्दन श्रीकृष्णका हम ध्यान करते हैं, वे श्रीकृष्ण हमें प्रेरित करें ॥ 121 ॥ ॐ ह्रां ह्रीं हूं हैं ह्रौं ह्रः क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय नमः स्वाहा ॥ 122 ॥

ॐ ह्रां ह्रीं हूं हैं ह्रौं ह्रः क्लीं— सच्चिदानन्दस्वरूप, गोपीजनोंके प्रियतम भगवान् गोविन्दको नमस्कार है; हम उनकी तृप्तिके लिये उत्तम रीतिसे हवन करते हैं- अपना सब कुछ अर्पण करते हैं ॥ 122 ॥ इति मन्त्रं समुच्चार्य यजेद् वा विष्णुमव्ययम् । श्रीनिवासं जगन्नाथं ततः स्तोत्रं पठेत् सुधीः ।

ॐ वासुदेवः परं ब्रह्म परमात्मा परात्परः ॥ 123 ॥ - उपर्युक्त मन्त्रोंका उच्चारण करके लक्ष्मीके निवासस्थान और संसारके स्वामी अविनाशी भगवान् श्रीविष्णुका पूजन करे; इसके बाद विद्वान् पुरुष सहस्रनामस्तोत्रका पाठ करे। सच्चिदानन्दस्वरूप, 1 वासुदेवः - सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेमें बसानेवाले तथा समस्त भूतोंमें सर्वात्मारूपसे बसनेवाले, चतुर्व्यूहमें वासुदेवस्वरूप, 2 परं ब्रह्म- सर्वोत्कृष्ट ब्रह्म-निर्गुणपरमात्मा, 3 परमात्मा परम श्रेष्ठ, नित्य-शुद्ध बुद्धमुक्तस्वभाव, 4 परात्परः पर अर्थात् प्रकृतिको भी परे विराजमान परमात्मा ॥ 123 ॥

परं धाम परं ज्योतिः परं तत्त्वं परं पदम् ।

परः शिवः परो ध्येयः परं ज्ञानं परा गतिः ।। 124 ॥

5 परं धाम - सर्वोत्तम वैकुण्ठधाम, निर्गुण परमात्मा, 6 परं ज्योतिः–सूर्य आदि ज्योतियोंको भी प्रकाशित करनेवाले सर्वोत्कृष्ट ज्योतिः स्वरूप, 7 परं तत्त्वम् — परम तत्त्व उपनिषदोंसे जाननेयोग्य सर्वोत्तम रहस्य, 8 परं पदम् — प्राप्त करनेयोग्य सर्वोत्कृष्ट पद, मोक्षस्वरूप, 9 परः शिवः परम कल्याणरूप, 10 परो ध्येयः - ध्यान करनेयोग्य सर्वोत्तम देव, चिन्तनके सर्वश्रेष्ठ आश्रय, 11 परं ज्ञानम् - भ्रान्तिशून्य उत्कृष्ट बोधस्वरूप परमात्मा, 12 परा गतिः सर्वोत्तम गति, मोक्षस्वरूप 124 परमार्थ: परश्रेष्ठः परानन्दः परोदयः ।

परोऽव्यक्तात्परं व्योम परमर्द्धिः परेश्वरः ।। 125 ।। 13 परमार्थः मोक्षरूप परम पुरुषार्थ, परम सत्य 14 परश्रेष्ठः श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठ, 15 परानन्दः - परम आनन्दमय, असीम आनन्दकी निधि, 16 परोदय:- सर्वाधिक अभ्युदयशाली, 17 अव्यक्तात्परः- -अव्यक्तपदवाच्य मूलप्रकृतिसे परे, 18 परं व्योम - नित्य एवं अनन्त आकाशस्वरूप निर्गुण परमात्मा 19 परमर्द्धि: सर्वोत्तम ऐश्वर्यसे सम्पन्न, 20 परेश्वरः – पर अर्थात् ब्रह्मादि देवताओंके भी ईश्वर ।। 125 ।। निरामयो निर्विकारो निर्विकल्पो निराश्रयः । निरञ्जनो निरालम्बो निर्लेपो निरवग्रहः ।। 126 ।।

21 निरामयः - रोग-शोकसे रहित, 22 निर्विकारः – उत्पत्तिः, सत्ता, वृद्धि, विपरिणाम, अपक्षय और विनाश- इन छः विकारोंसे शून्य, 23 निर्विकल्पः सन्देहरहित, 24 निराश्रयः स्वयं ही सबके आश्रय होनेके कारण अन्य किसी आश्रयसे रहित, 25 निरञ्जन: वासना और आसक्तिरूपी मलसे शून्य, तमोगुणरहित,26 निरालम्बः - आधारशून्य, स्वयं ही सबके आधार, निर्लेप: - जलसे कमलकी भाँति राग द्वेषादि दोषोंसे अलिप्त, 28 निरवग्रहः -विघ्न बाधाओंसे रहित ॥ 126 ॥ निर्गुणो निष्कलोऽनन्तोऽभयोऽचिन्त्योऽचलोऽञ्चितः । अतीन्द्रियो ऽमितोऽपारो नित्योऽनीहो ऽव्ययोऽक्षयः ॥ 127 ।।

29 निर्गुणः - सत्त्व, रज और तम इन तीनों र गुणोंसे रहित परमात्मा, 30 निष्कलः - अवयवशून्य र ब्रह्म, 31 अनन्तः - असीम एवं अविनाशी परमेश्वर, 32 अभयः - काल आदिके भयसे रहित, 33 अचिन्त्यः – मनकी गतिसे परे होनेके कारण चिन्तनमें न आनेवाले, 34 अचलः- अपनी मर्यादासे विचलित न होनेवाले, 35 अञ्चितः - सबके द्वारा पूजित, 36 अतीन्द्रियः - इन्द्रियोंके अगोचर, 37 अमितः- :- माप या सीमासे रहित, महान्, अपरिच्छिन्न, 38 अपारः - पाररहित, अनन्त, 39 नित्यः - सदा रहनेवाले, सनातन, 40 अनीहः – चेष्टारहित ब्रह्म, 41 अव्ययः - विनाशरहित, 42 अक्षयः - कभी क्षीण न होनेवाले ॥ 127 ॥ सर्वज्ञः सर्वगः सर्वः सर्वदः सर्वभावनः । सर्वशास्ता सर्वसाक्षी पूज्यः सर्वस्य सर्वदृक् ॥ 128 ॥ 43 सर्वज्ञः - परोक्ष और अपरोक्ष सबके ज्ञाता, 44 सर्वगः - कारणरूपसे सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले, 45 सर्वः - सर्वस्वरूप, 46 सर्वदः - भक्तोंको सर्वस्व देनेवाले, 47 सर्वभावनः– सबको उत्पन्न करनेवाले, 48 सर्वशास्ता — सबके शासक, 49 सर्वसाक्षी भूत, भविष्य और वर्तमान-सबपर दृष्टि रखनेवाले, 50 सर्वस्य पूज्य: :-सबके पूजनीय, 51 सर्वदृक् सबके द्रष्टा ॥ 128 ॥

सर्वशक्तिः सर्वसारः सर्वात्मा सर्वतोमुखः सर्ववासः सर्वरूपः सर्वादिः सर्वदुःखहा ॥ 129 ॥ 52 सर्वशक्तिः - सब प्रकारकी शक्तियोंसेसम्पन्न, 53 सर्वसारः - सबके बल, 54 सर्वात्मा सबके आत्मा, 55 सर्वतोमुखः - सब ओर मुखवाले, विरादस्वरूप 56 सर्ववास: सम्पूर्ण विश्वके वासस्थान, 57 सर्वरूपः – सब रूपोंमें स्वयं ही उपलब्ध होनेवाले, विश्वरूप, 58 सर्वादिः - सबके आदि कारण, 59 सर्वदुःखहा- सबके दुःखोंका नाश करनेवाले 129 ॥ सर्वार्थः सर्वतोभद्रः सर्वकारणकारणम् ।

सर्वातिशयितः सर्वाध्यक्षः सर्वेश्वरेश्वरः ।। 130 ॥ 60 सर्वार्थः – समस्त पुरुषार्थरूप, 61 सर्वतोभद्रः - सब ओरसे कल्याणरूप, 62 सर्वकारणकारणम् - विश्वके कारणभूत प्रकृति आदिके भी कारण, 63 सर्वातिशयितः - सबसे सब बातों में बढ़े हुए, ब्रह्मा और शिव आदिसे भी अधिक महिमावाले 64 सर्वाध्यक्षः सबके साक्षी, सबके नियन्ता, 65 सर्वेश्वरेश्वरः - सम्पूर्ण ईश्वरोंके भी ईश्वर, ब्रह्मादि देवताओंके भी नियामक ॥ 130 षड्विंशको महाविष्णुर्महागुह्यो महाविभुः नित्योदितो नित्ययुक्तो नित्यानन्दः सनातनः ।। 131 ।। 66 षड्विंशकः - पचीस * तत्त्वोंसे विलक्षण छब्बीसवाँ तत्व, पुरुषोत्तम, 67 महाविष्णुः - सब देवताओंमें महान् सर्वव्यापी भगवान् विष्णु, 68 महागुह्यः - परम गोपनीय तत्त्व, 69 महाविभुः - प्राकृत आकाश आदि व्यापक तत्त्वोंसे भी महान् एवं व्यापक, 70 नित्योदितः - सूर्य आदिकी भाँति अस्त न होकर नित्य निरन्तर उदित रहनेवाले, 71 नित्ययुक्तः - चराचर प्राणियोंसे नित्य संयुक्त अथवा सदा योगमें स्थित रहनेवाले, 72 नित्यानन्दः- नित्य आनन्दस्वरूप, 73 सनातनः सदा एकरस रहनेवाले ॥131 ॥

मायापतिर्योगपतिः कैवल्यपतिरात्मभूः ।

जन्ममृत्युजरातीतः कालातीतो भवातिगः ॥ 132 ॥

74 मायापतिः मायाके स्वामी, 75 योग पति:- योगपालक, योगेश्वर, 76 कैवल्यपतिः मोक्ष प्रदान करनेका अधिकार रखनेवाले, मुक्तिके स्वामी, 77 आत्मभूः - स्वतः होनेवाले, स्वयम्भू, 78 जन्ममृत्युजरातीतः - जन्म, मरण और वृद्धावस्था आदि शरीरके धर्मोसे रहित, 79 कालातीतः - कालके वशमें न आनेवाले, 80 भवातिगः - भवबन्धनसे अतीत 132 पूर्णः सत्यः शुद्धबुद्धस्वरूपो नित्यचिन्मयः

योगप्रियो योगगम्यो भवबन्धैकमोचकः ॥ 133 ॥ 81 पूर्णः - समस्त ज्ञान, शक्ति, ऐश्वर्य और गुणोंसे परिपूर्ण, 82 सत्य:- भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालोंमें सदा समानरूपसे रहनेवाले, सत्यस्वरूप, 83 शुद्धबुद्धस्वरूपः - स्वाभाविक शुद्धि और ज्ञानसे सम्पन्न, प्रकृतिके संसर्गसे रहित बोधस्वरूप परमात्मा, 84 नित्यचिन्मयः – नित्य चैतन्यस्वरूप, 85 योगप्रियः - चित्तवृत्तियोंके निरोधरूप योगके प्रेमी, 86 योगगम्यः- ध्यान अथवा समाधिके द्वारा अनुभवमें आनेयोग्य, 87 भवबन्धैकमोचकः - संसार बन्धनसे एकमात्र छुड़ानेवाले ॥ 133 ॥

पुराणपुरुषः प्रत्यक्चैतन्यः पुरुषोत्तमः । वेदान्तवेद्यो दुर्ज्ञेयस्तापत्रयविवर्जितः ॥ 134 ॥ 88 पुराणपुरुषः ब्रह्मा आदि पुरुषोंकी अपेक्षा भी प्राचीन, आदिपुरुष, 89 प्रत्यक्चैतन्यः - अन्तर्यामी चेतन, 90 पुरुषोत्तमः -क्षर और अक्षर पुरुषोंसे श्रेष्ठ 99 वेदान्तवेद्यः-उपनिषदोंके द्वारा जाननेयोग्य, 92 दुर्ज्ञेयः - कठिनतासे अनुभवमें आनेवाले, 93 तापत्रयविवर्जितः - आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों तापोंसे रहित 134 ब्रह्मविद्याश्रयोऽनघः स्वप्रकाशः स्वयम्प्रभुः । -

सर्वोपाय उदासीनः प्रणवः सर्वतः समः ।। 135 ।। 94 ब्रह्मविद्याश्रयः- -ब्रह्मविद्याके आश्रय, उसके द्वारा जाननेमें आनेवाले ब्रह्म, 95 अनघः - पापरहित, शुद्ध, 16 स्वप्रकाशः अपने ही प्रकाशसे प्रकाशितहोनेवाले, 97 स्वयम्प्रभुः- दूसरेकी सामर्थ्यकी अपेक्षासे रहित, स्वयं समर्थ, 98 सर्वोपायः सर्वसाधनरूप, 99 उदासीनः राग-द्वेषसे ऊपर उठे हुए, पक्षपातरहित 100 प्रणवः - ओंकाररूप शब्दब्रह्म, 101 सर्वतः समः - सब और समान दृष्टि रखनेवाले ॥ 135 ॥ सर्वानवद्यो दुष्प्राप्यस्तुरीयस्तमसः

कूटस्थ: सर्वसंश्लिष्टो वाङ्मनोगोचरातिगः ।। 136 ।। 102 सर्वानवद्यः - सबकी प्रशंसाके पात्र, सबके द्वारा स्तुत्य, 103 दुष्प्राप्यः - अनन्यचित्तसे भजन न करनेवालोंके लिये दुर्लभ, 104 तुरीयः - जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति- इन तीनों अवस्थाओंसे अतीत चतुर्थावस्थास्वरूप 105 तमसः परः- तमोगुण एवं अज्ञानसे परे, 106 कूटस्थ:- निहाईकी भाँति अविचलरूपसे स्थिर रहनेवाला निर्विकार आत्मा, 107 सर्वसंश्लिष्टः - सर्वत्र व्यापक होनेके कारण सबसे संयुक्त 108 नोगोचरातिगः वाणी और मनको पहुँचसे बाहर 136 संकर्षणः सर्वहरः कालः सर्वभयंकरः
अनुल्लङ्घ्यश्चित्रगतिर्महारुद्रो दुरासदः ।। 137 ।। 109 संकर्षण: कालरूपसे सबको अपनी ओर खींचनेवाले, चतुर्व्यूह संकर्षणरूप, शेषावतार बलराम, 110 सर्वहर:- प्रलयकाल में सबका संहार करनेवाले, 111 कालः - युग, वर्ष, मास, पक्ष आदि रूपसे सम्पूर्ण विश्वको अपना ग्रास बनानेवाले, काल पदवाच्य यमराज, 112 सर्वभयंकर:- मृत्युरूपसे सबको भय - - पहुँचानेवाले, 113 अनुल्लङ्घ्यः - काल आदि भी जिनकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सकते, ऐसे सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर ll 114 ll चित्रगति: विचित्र लीलाएँ करनेवाले लीलापुरुषोत्तम अथवा विचित्र गति से चलनेवाले, 195 महारुद्र: महान् दुःखोंको दूर भगानेवाले, ग्यारह रुद्रोंकी अपेक्षा भी महान् महेश्वररूप, 116 दुरासदः - बड़े-बड़े दानवोंके लिये भी जिनका सामना करना कठिन है, ऐसे दुर्धर्ष वीर ॥ 137 ॥मूलप्रकृतिरानन्दः प्रद्युम्नो विश्वमोहनः महामायो विश्वबीजं परशक्तिः सुखैकभूः ॥ 138 ll

117 मूलप्रकृतिः सम्पूर्ण विश्वके महाकारण स्वरूप, 118 आनन्दः - सब ओरसे सुख प्रदान करनेवाले, आनन्दस्वरूप, 119 प्रद्युम्नः - महान् बलवाले क्रमदेव चतुर्व्यूहमें प्रद्युम्नस्वरूप 120 विश्वमोहन: अपने अलौकिक रूपलावण्य से सम्पूर्ण विश्वको मोहित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण, 129 महामाय: मायावियोंपर भी माया डालनेवाले महान् मायावी, 122 विश्वबीजम् — जगत्की उत्पत्तिके आदिकारण, 123 परशक्तिः महान् सामर्थ्यशाली, 124 सुखैकभूः - सुखके एकमात्र उत्पत्तिस्थान ॥ 138 ॥ सर्वकाम्योऽनन्तलीलः सर्वभूतवशंकरः अनिरुद्धः सर्वजीवो हृषीकेशो मनः पतिः ।। 139 ।। 125 सर्वकाम्यः - सबकी कामनाके विषय, 126 अनन्तलील:-जिनकी लीलाओंका अन्त नहीं है ऐसे भगवान् 127 सर्वभूतवशंकर:- सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने वशमें करनेवाले 128 अनिरुद्धः संग्राममें जिनकी गतिको कोई रोक नहीं सकता- ऐसे पराक्रमी, शूरवीर चतुर्व्यूहमें अनिरुद्धस्वरूप 129 सर्वजीवः - सबको जीवन प्रदान करनेवाले, सबके आत्मा, 130 हृषीकेशः - इन्द्रियोंके स्वामी, 131 मनः पतिः– मनके स्वामी, हृदयेश्वर 139 ।। निरुपाधिप्रियो हंसोऽक्षरः सर्वनियोजकः ।

ब्रह्मप्राणेश्वर: सर्वभूतभृद् देहनायकः ॥ 140 ॥ 132 निरुपाधिप्रिय:- जिनकी बुद्धिसे उपाधिकृत भेदभ्रम दूर हो गये हैं, उन ज्ञानी परमहंसों के भी प्रियतम, 133 हंसः - हंसरूप धारण करके सनकादिकौको उपदेश करनेवाले, 134 अक्षर: कभी नष्ट न होनेवाले, आत्मा 135 सर्वनियोजकः सबको विभिन्न कमोंमें लगानेवाले, सबके प्रेरक, सबके स्वामी, 136 ब्रह्मप्राणेश्वर: ब्रह्माजीके प्राणोंके स्वामी, 137 सर्वभूतभृत् - सम्पूर्ण भूतोंका भरण-पोषण करनेवाले, 138 देहनायकः शरीरकासंचालन करनेवाले ॥ 140 ॥ क्षेत्रज्ञः प्रकृतिस्वामी पुरुषो विश्वसूत्रधृक् अन्तर्यामी त्रिधामान्तः साक्षी निर्गुण ईश्वरः ॥ 141 ।। 139 क्षेत्रज्ञः - सम्पूर्ण क्षेत्रों (शरीरों) में स्थित होकर उनका ज्ञान रखनेवाले, 140 प्रकृतिस्वामी- जगत्की कारणभूता प्रकृतिके स्वामी, 141 पुरुषः- समस्त शरीरोंमें शयन करनेवाले अन्तर्यामी, 142 विश्वसूत्रधृक् – संसाररूपी नाटकके सूत्रधार, 143 अन्तर्यामी- अन्तःकरणमें विराजमान परमेश्वर, 144 त्रिधामा - भूः भुवः स्वः रूप तीन धामवाले, त्रिलोकीमें व्याप्त, 145 अन्तः साक्षी अन्तःकरणके द्रष्टा, 146 निर्गुणः - गुणातीत, 147 ईश्वर : - सम्पूर्ण ऐश्वर्यसे सम्पन्न ॥ 141 ॥ योगिगम्यः पद्मनाभः शेषशायी श्रियः पतिः
श्रीशिवोपास्यपादाब्जो नित्यश्रीः श्रीनिकेतनः ॥ 142 ॥ 148 योगिगम्यः - योगियोंके अनुभवमें आनेवाले, 149 पद्मनाभः - अपनी नाभिसे कमल प्रकट करनेवाले, 150 शेषशायी- शेषनागकी शय्यापर शयन करनेवाले, 151 श्रियः पतिः - लक्ष्मीके स्वामी, 152 श्रीशिवोपास्यपादाब्ज:- पार्वतीसहित भगवान् शिव जिनके चरणकमलोंकी उपासना करते हैं, वे भगवान् विष्णु, 153 नित्यश्रीः कभी विलग न होनेवाली लक्ष्मीकी शोभासे युक्त, 154 श्रीनिकेतनः - भगवती लक्ष्मीके हृदय मन्दिरमें निवास करनेवाले ॥ 142 ।।

नित्यवक्षःस्थलस्थश्रीः श्रीनिधिः श्रीधरो हरिः ।वश्यश्रीर्निश्चलश्रीदो विष्णुः क्षीराब्धिमन्दिरः ।। 143 ।। 155 नित्यवक्षःस्थलस्थश्रीः- जिनके वक्षःस्थलमें लक्ष्मी सदा निवास करती हैं-ऐसे भगवान् विष्णु, 156 श्रीनिधिः- शोभाके भण्डार, सब प्रकारकी सम्पत्तियोंके आधार 157 श्रीधरः जगज्जननी श्रीको हृदयमें धारण करनेवाले, 158 हरि:- पापहारी, भक्तोंका मन हर लेनेवाले - 159 वश्यश्रीः - लक्ष्मीको सदा अपने वशमें रखनेवाले,निश्चलश्रीदः स्थिर सम्पत्ति प्रदान करनेवाले, 161 विष्णुः - सर्वत्र व्यापक, 162 क्षीराब्धिमन्दिर:- क्षीरसागरको अपना निवासस्थान बनानेवाले 143 कौस्तुभोद्भासितोरस्को माधवो जगदार्तिहा

- 163 कौस्तुभोद्भासितोरस्क:- कौस्तुभमणिकी प्रभासे उद्भासित हृदयवाले, 164 माधवः- -जगन्माता लक्ष्मीके स्वामी अथवा मधुवंश प्रादुर्भूत भगवान् श्रीकृष्ण, 165 जगदार्तिहा – समस्त संसारकी पीड़ा दूर करनेवाले, 166 श्रीवत्सवक्षाः वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न धारण करनेवाले. 167 निःसीमकल्याणगुणभाजनम् – सीमारहित कल्याणमय गुणोंके आधार 144 ॥
श्रीवत्स्वक्षा निःसीमकल्याणगुणभाजनम् ।। 144 ।।

पीताम्बरो जगन्नाथो जगत्त्राता जगत्पिता जगद्वन्धुर्जगत्स्रष्टा जगद्धाता जगन्निधिः ॥ 145 ॥ 168 पीताम्बरः पीत वस्त्रधारी, 169 जगन्नाथः - जगत्के स्वामी, 170 जगत्त्राता सम्पूर्ण विश्वके रक्षक, 171 जगत्पिता- समस्त संसारके जन्मदाता 172 जगदबन्धुः बन्धुकी भाँति जगत्के जीवोंकी सहायता करनेवाले, 173 जगत्स्रष्टा जगत् की सृष्टि करनेवाले ब्रह्मारूप, 174 जगद्धाता अखिल विश्वका धारण-पोषण करनेवाले विष्णुरूप, 175 जगन्निधिः - प्रलयके समय सम्पूर्ण जगत्को बीजरूपमें धारण करनेवाले ॥। 145 ।। जगदेकस्फुरद्वयों नाहंवादी जगन्मयः ।

सर्वाश्चर्यमयः सर्वसिद्धार्थः सर्वरञ्जितः ।। 146 ।। 176 जगदेकस्फुरद्वीर्य: संसारमें एकमात्र विख्यात पराक्रमी, 177 नाहंवादी अहंकाररहित, 178 जगन्मय:- विश्वरूप, 179 सर्वाश्चर्यमय: जिनका सब कुछ आश्चर्यमय है-ऐसे अथवा सम्पूर्ण आश्चयोंसे युक्त, 180 सर्वसिद्धार्थ:- पूर्णकाम होने के कारण जिनके सभी प्रयोजन सदा सिद्ध हैं—ऐसे परमेश्वर, 189 सर्वरञ्जितः - देवता, दानव और मानव आदि सभी प्राणी जिन्हें रिझानेकी चेष्टामें लगे रहते हैं-ऐसेभगवान् ॥ 146 ॥

सर्वामोघोद्यमो ब्रह्मरुद्राद्युत्कृष्टचेतनः ।

शम्भोः पितामहो ब्रह्मपिता शक्राद्यधीश्वरः ॥ 147 ॥

182 सर्वामोघोद्यमः - जिनके सम्पूर्ण उद्योग सफल होते हैं, कभी व्यर्थ नहीं जाते - ऐसे भगवान् विष्णु, 183 ब्रह्मरुद्राद्युत्कृष्टचेतनः - ब्रह्मा और रुद्र आदिसे उत्कृष्ट चेतनावाले, 184 शम्भोः पितामहः - शंकरजीके पिता भगवान् ब्रह्माको भी जन्म देनेवाले श्रीविष्णु, 185 ब्रह्मपिता ब्रह्माजीको उत्पन्न करनेवाले, 186 शक्राद्यधीश्वरः - इन्द्र आदि देवताओंके स्वामी ॥ 147 ॥ सर्वदेवप्रियः सर्वदेवमूर्तिरनुत्तमः ।

सर्वदेवैकशरणं सर्वदेवैकदेवता ।। 148 ।। 187 ll सर्वदेवप्रियः - सम्पूर्ण देवताओंके प्रिय, ll 188 ll सर्वदेवमूर्तिः– समस्त देवस्वरूप, 189 अनुत्तमः - जिनसे उत्तम दूसरा कोई नहीं है, सर्वश्रेष्ठ, ll 190 ll सर्वदेवैकशरणम्-समस्त देवताओंके एकमात्र आश्रय, 191 सर्वदेवैकदेवता - सम्पूर्ण देवताओंके एकमात्र आराध्यदेव ll 148 ll

यज्ञभुग्यज्ञफलदो यज्ञेशो यज्ञभावनः । यज्ञत्राता यज्ञपुमान्वनमाली द्विजप्रियः ।। 149 ।।

192 यज्ञभुक् - समस्त यज्ञोंके भोक्ता, 193 यज्ञफलदः - सम्पूर्ण यज्ञोंका फल देनेवाले, 194 यज्ञेशः – यज्ञोंके स्वामी, 195 यज्ञभावनः - अपनी वेदमयी वाणीके द्वारा यज्ञोंको प्रकट करनेवाले, 196 यज्ञत्राता - यज्ञविरोधी असुरोंका वध करके यज्ञोंकी रक्षा करनेवाले, 197 यज्ञपुमान्-यज्ञपुरुष, यज्ञाधिष्ठाता देवता, 198 वनमाली - परम मनोहर वनमाला धारण करनेवाले, 199 द्विजप्रियः- ब्राह्मणोंके प्रेमी और प्रियतम ।। 149 ।।द्विजैकमानदो
विप्रकुलदेवोऽसुरान्तकः ।

सर्वदुष्टान्तकृत्सर्वसज्जनानन्यपालकः ll 200 ll द्विजैकमानदः – ब्राह्मणोंको एकमात्र ll 201 ll विप्रकुलदेवः - सम्मान देनेवाले, ब्राह्मणवंशको अपना आराध्यदेव माननेवाले,202 असुरान्तकः - संसारमें अशान्ति फैलानेवाले असुरोंके प्राणहन्ता, 203 सर्वदुष्टान्तकृत् दुष्टोंका अन्त करनेवाले, 204 सर्वसज्जनानन्यपालकः - सम्पूर्ण साधु पुरुषोंके समस्त एकमात्र पालक ॥ 150 ॥ सप्तलोकैकजठरः
सप्तलोकैकमण्डनः ।

एकमात्र सृष्टिस्थित्यन्तकृच्चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ॥ 151 ॥ 205 सप्तलोकैकजठरः - भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक - इन सातों लोकोंको अपने उदरमें स्थापित करनेवाले, 206 सप्तलोकैकमण्डनः - सातों लोकोंके एकमात्र श्रृंगार अपनी ही शोभासे समस्त लोकोंको विभूषित करनेवाले, 207 सृष्टिस्थित्यन्तकृत् — संसारकी सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले, 208 चक्री - सुदर्शनचक्र धारण करनेवाले, 209 शार्ङ्गधन्वा – शार्ङ्ग नामक धनुष धारण करनेवाले, 210 गदाधरः- कौमोदकी नामकी गदा धारण करनेवाले ॥ 151 ॥

शङ्खभृन्नन्दकी पद्मपाणिर्गरुडवाहनः अनिर्देश्यवपुः सर्वपूज्यस्त्रैलोक्यपावनः ।। 152 ।।

211 शङ्खभृत् - एक हाथमें पांचजन्य नामक शंख लिये रहनेवाले, 212 नन्दकी- नन्दक नामक खड्ग (तलवार) बाँधनेवाले, 213 पद्मपाणि: हाथमें कमल धारण करनेवाले, 214 गरुडवाहनः - पक्षियोंके राजा विनतानन्दन गरुड़पर सवारी करनेवाले, 215 अनिर्देश्यवपुः – जिसके दिव्यस्वरूपका किसी प्रकार भी वर्णन या संकेत न किया जा सके-ऐसे अनिर्वचनीय शरीरवाले, 216 सर्वपूज्यः- देवता, दानव और मनुष्य आदि सबके पूजनीय, 217 त्रैलोक्यपावनः अपने दर्शन और स्पर्श आदिसे त्रिभुवनको पावन बनानेवाले 152 ॥

अनन्तकीर्तिर्निःसीमपौरुषः सर्वमङ्गलःसूर्यकोटिप्रतीकाशो यमकोटिदुरासदः 153 ॥ 218 अनन्तकीर्तिः शेष और शारदा भी जिनकी कीर्तिका पार न पा सकें-ऐसे अपार सुयशवाले, 219 निःसीमपौरुषः - असीम पुरुषार्थवाले, अमितपराक्रमी, 220 सर्वमङ्गलः - सबका मंगल करनेवाले अथवा सबके लिये मंगलरूप, 221 सूर्य कोटिप्रतीकाशः - करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी, 222 यमकोटिदुरासदः - करोड़ों यमराजोंके लिये भी दुर्धर्ष ll 153 ll

कन्दर्पकोटिलावण्यो दुर्गाकोट्यरिमर्दनः

समुद्रकोटिगम्भीरस्तीर्थकोटिसमाह्वयः


कन्दर्पकोटिलावण्यः-करोड़ों कामदेवोंके

।। 154 ।।

समान मनोहर कान्तिवाले, 224 दुर्गाकोट्यरिमर्दनः करोड़ों दुर्गाओंके समान शत्रुओंको रौंद डालनेवाले, 225 समुद्रकोटिगम्भीरः -करोड़ों समुद्रोंके समान गम्भीर, 226 तीर्थकोटिसमाह्वयः -करोड़ों तीर्थोंके समान पावन नामवाले ll 154 ll

ब्रह्मकोटिजगत्स्रष्टा कोटीन्दुजगदानन्दी शम्भुकोटिमहेश्वरः ॥ 155 ।। वायुकोटिमहाबलः 227 ब्रह्मकोटिजगत्स्रष्टा - करोड़ों ब्रह्माओंके समान संसारकी सृष्टि करनेवाले, 228 वायुकोटि महाबलः – करोड़ों वायुओंके तुल्य महाबली, 229 कोटीन्दुजगदानन्दी – करोड़ों चन्द्रमाओंकी भाँति जगत्‌को आनन्द प्रदान करनेवाले, 230 शम्भुकोटिमहेश्वरः – करोड़ों शंकरोंके समान महेश्वर (महान् ऐश्वर्यशाली) ॥ 155 ll

कुबेरकोटिलक्ष्मीवाञ्शनकोटिविलासवान् । हिमवत्कोटिनिष्कम्पः कोटिब्रह्माण्डविग्रहः ॥ 156 ॥

231 कुबेरकोटिलक्ष्मीवान्-करोड़ों कुबेरोंके समान सम्पत्तिशाली, 232 शक्रकोटिविलासवान् करोड़ों इन्द्रोंके सदृश भोग-विलासके साधनोंसे परिपूर्ण, 233 हिमवत्कोटिनिष्कम्पः - करोड़ों हिमालयोंकी भाँति अचल, 234 कोटिब्रह्माण्डविग्रहः – अपने श्रीविग्रहमें कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंको धारण करनेवाले, महाविराट्रूप ॥156॥

कोट्यश्वमेधपापघ्नो यज्ञकोटिसमार्चनः सुधाकोटिस्वास्थ्यहेतुः कामधुक्कोटिकामदः ॥ 157 ॥ 235 कोट्यश्वमेधपापघ्नः - करोड़ों अश्वमेध -यज्ञोंके समान पापनाशक, 236 यज्ञकोटिसमार्चनः करोड़ों होंके तुल्य पूजन सामग्री से पूजित होनेवाले, 237 सुधाकोटिस्वास्थ्यहेतुः - कोटि-कोटि अमृतके तुल्य स्वास्थ्य-रक्षाके साधन, 238 कामधुक्कोटि कामदः - करोड़ों कामधेनुओंके समान मनोरथ पूर्ण करनेवाले ॥ 157 ll

ब्रह्मविद्याकोटिरूपः शिपिविष्टः शुचिश्रवाः । विश्वम्भरस्तीर्थपादः पुण्यश्रवणकीर्तनः 158 ॥

239 ब्रह्मविद्याकोटिरूपः - करोड़ों ब्रह्म विद्याओंके तुल्य ज्ञानस्वरूप, 240 शिपिविष्ट: सूर्य किरणोंमें स्थित रहनेवाले, 241 शुचिश्रवाः पवित्र यशवाले, 242 विश्वम्भरः- सम्पूर्ण विश्वका भरण-पोषण करनेवाले, 243 तीर्थपादः तीर्थोंकी भाँति पवित्र चरणोंवाले अथवा अपने चरणोंमें ही समस्त तीथको धारण करनेवाले, 244 पुण्यश्रवण कीर्तनः - जिनके नाम, गुण, महिमा तथा स्वरूप आदिका श्रवण और कीर्तन परम पवित्र एवं पावन है-ऐसे भगवान् ॥ 158 ॥ आदिदेवो जगज्जैत्रो मुकुन्दः कालनेमिहा।

वैकुण्ठोऽनन्तमाहाल्यो महायोगेश्वरोत्सवः 159 ॥ 245 आदिदेवः- आदि देवता, सबके आदि कारण एवं प्रकाशमान 246 जगज्जैत्रः विश्वविजयी, 247 मुकुन्दः - मोक्षदाता, 248 कालनेमिहा कालनेमि नामक दैत्यका वध करनेवाले, 249 वैकुण्ठ:- परमधामस्वरूप, 250 अनन्त माहात्म्य:- जिनकी महिमाका अन्त नहीं है- ऐसे महामहिम परमेश्वर, 251 महायोगेश्वरोत्सव: बड़े-बड़े योगेश्वरोंके लिये जिनका दर्शन उत्सवरूप है - ऐसे भगवान् ॥ 159 ॥ नित्यतृप्तो लसद्भावो निःशङ्को नरकान्तकः ।

दीनानाथैकशरणं विश्वैकव्यसनापहः ॥ 160 ॥ 252 नित्यतृप्तः - अपने आपमें ही सदा तृप्त रहनेवाले, 253 लसद्भावः - सुन्दर स्वभाववाले, 254 निःशङ्कः - अद्वितीय होनेके कारण भय शंकासे रहित, 255 नरकान्तकः- नरकके भयकानाश अथवा नरकासुरका वध करनेवाले, एकमात्र दीनानाथैकशरणम्- दीनों और अनार्थीको शरण देनेवाले, 257 विश्वैकव्यसनापहः - संसारके एकमात्र संकट हरनेवाले ॥ 160 ॥ जगत्कृपाक्षमो नित्यं कृपालुः सज्जनाश्रयः ।

योगेश्वरः 258 सज्जनाश्रयः सत्पुरुषोंके 261 सदोदीर्णो वृद्धिपतिः ॥ 169॥ जगत्कृपाक्षम:- सम्पूर्ण विश्वपर कृपण करनेमें समर्थ, 259 नित्यं कृपालु सदा स्वभावसे ही कृपा करनेवाल, 260 शरणदाता, योगेश्वरः- सम्पूर्ण योगों तथा उनसे प्राप्त होनेवाली सिद्धियोंके स्वामी, 262 सदोदीर्णः - सदा अभ्युदयशील, नित्य उदार, सदा सबसे श्रेष्ठ, 263 वृद्धिक्षयविवर्जितः वृद्धि और हासरूप विकारसे रहित ॥ 169 ॥

अधोक्षजो विश्वरेताः प्रजापतिशताधिपः शातिपदः शम्भुब्रह्मोर्ध्वधामगः 162 ।।

264 अधोक्षजः - इन्द्रियोंके विषयोंसे ऊपर उठे हुए, अपने स्वरूपसे क्षीण न होनेवाले 265 विश्वरेताः सम्पूर्ण विश्व जिनके वीर्यसे उत्पन्न हुआ है, वे परमेश्वर 266 प्रजापतिशताधिपः सैकड़ों प्रजापतियोंके स्वामी, 267 शक्रार्थितपद इन्द्र और ब्रह्माजीके द्वारा पूजित चरणोंवाले, 268 शम्भुब्रह्योर्ध्वधामगः भगवान् शंकर और - ब्रह्माजी के धामसे भी ऊपर विराजमान वैकुण्ठधाम निवास करनेवाले ॥ 162 ॥ सूर्यसोमेक्षणो विश्वभोक्ता सर्वस्य पारगः ।विश्वधुरन्धरः ॥ 163

जगत्सेतुर्धर्मसेतुध 269 सूर्य सोमेक्षणः - सूर्य और चन्द्रमारूपी नेत्र 270 विश्वभोक्ता विश्वका पालन करनेवाले, 271 सर्वस्य पारग:- सबसे परे विराजमान 272 जगत्सेतुः - संसारसागरसे पार होनेके लिये सेतुरूप, 203 धर्मसेतुधरः धर्ममर्यादाका पालन करनेवाले, 274 विश्वपुरन्धरः शेषनागके रूपसे समस्त विश्वका भार वहन करनेवाले ॥ 163 ॥निर्ममो ऽखिललोकेशो निःसङ्गोऽद्भुतभोगवान् । वश्यमायो वश्यविश्वो विष्वक्सेनः सुरोत्तमः ॥ 164 ॥

275 निर्ममः- आसक्तिमूलक ममतासे रहित, 276 अखिललोकेशः सम्पूर्ण लोकोंका शासन कानेवाले, 277 निःसङ्गः आसक्तिरहित, 278 अद्भुतभोगवान्–आश्चर्यजनक भोग- सामग्री से सम्पन्न, 279 वश्यमायः - मायाको अपने वशमें रखनेवाले, वश्यविश्वः- समस्त 280 जगत्को अपने अधीन रखनेवाले, 281 विष्वक्सेनः युद्धके लिये की हुई तैयारीमात्रसे ही दैत्यसेनाको तितर-बितर कर डालनेवाले, 282 सुरोत्तमः – समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ 164

सर्वश्रेयः पतिर्दिव्यो ऽनयंभूषणभूषितः सर्वलक्षणलक्षण्यः 283 सर्वश्रेयः पतिः - समस्त कल्याणोंके स्वामी, 284 दिव्य लोकोत्तर सौन्दर्य- माधुर्य आदि गुणोंसे सम्पन्न 285 अनर्घ्यभूषणभूषितः अमूल्य आभूषणोंसे विभूषित, 286 सर्वलक्षणलक्षण्य: समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त, 287 सर्वदैत्येन्द्रदर्पहा समस्त दैत्यपतियोंका दर्प दलन करनेवाले ॥ 165 ॥ समस्तदेव सर्वस्वं सर्वदैवतनायकः ।
सर्वदैत्येन्द्रदर्पहा ।। 165 ॥

समस्तदेवकवचं सर्वदेवशिरोमणिः ॥ 166 ॥ 288 समस्तदेवसर्वस्वम् - सम्पूर्ण देवताओंके सर्वस्व 289 सर्वदैवतनायकः समस्त देवताओंके नेत, 290 समस्तदेवकवचम् - सब देवताओंकी कवचके समान रक्षा करनेवाले, 299 सर्वदेव शिरोमणिः- सम्पूर्ण देवताओंके शिरोमणि 166 प्रपन्नाशनिपञ्जरः । - समस्तदेवतादुर्गः
समस्तभयहुन्नामा भगवान् विष्टरश्रवाः ।। 167 ।।

292 समस्तदेवतादुर्गः - मजबूत किलेके समान समस्त देवताओंकी रक्षा करनेवाले, 293 प्रपन्नाशनिपञ्जरः - शरणागतोंकी रक्षाके लिये वज्रमय पिंजड़ेके समान, 294 समस्तभयहनामा – जिनका नाम सब प्रकारके भयौंको दूर करनेवाला है-ऐसे विष्णु. 295 भगवान्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री.ज्ञान और वैराग्यसे सम्पन्न, 296 विष्टरश्रवाः कुशाकी मुष्टिके समान कानोंवाले ॥ 167 ॥ विभुः सर्वहितोदको हतारिः स्वर्गतिप्रदः।

सर्वदैवतजीवेशो ब्राह्मणादिनियोजकः ।। 168 ।। 297 विभुः - सर्वत्र व्यापक, 298 सर्वहितोदर्क:- सबके लिये हितकर भविष्यका निर्माण करनेवाले, 299 हतारिः - जिनके शत्रु नष्ट हो चुके हैं, शत्रुहीन, 300 स्वर्गतिप्रदः स्वर्गीय उच्चगति प्रदान करनेवाले, 301 सर्वदैवतजीवेश:- समस्त देवताओंके जीवनके स्वामी, 302 ब्राह्मणादि नियोजक:- ब्राह्मण आदि वर्णोंको अपने-अपने धर्ममें नियुक्त करनेवाले 168

ब्रह्मशम्भुपरार्धायुर्ब्रह्मज्येष्ठः शिशुस्वराट् । विराइ भक्तपराधीनः स्तुत्यः स्तोत्रार्थसाधकः ॥। 169 ।। 303 ब्रह्मशम्भुपरार्धायुः ब्रह्मा और शिवकी अपेक्षा भी अनन्तगुनी आयुवाले 304 ब्रह्मज्येष्ठः ब्रह्माजीसे भी ज्येष्ठ, 305 शिशुस्वराट् - बालमुकुन्द रूपसे शोभा पानेवाले, 306 विराद्-विशेष शोभा सम्पन्न, अखिल ब्रह्माण्डमय विराट् रूपधारी भगवान् 307 भक्तपराधीन: प्रेमविवश होकर भक्तोंके अधीन रहनेवाले, 308 स्तुत्यः- स्तुति करनेयोग्य, 309 स्तोत्रार्थसाधक : – स्तोत्रमें कहे हुए अर्थको सिद्ध करनेवाले 169

परार्थकर्ता कृत्यज्ञः स्वार्थकृत्यसदोतिः सदानन्दः सदाभद्रः सदाशान्तः सदाशिवः ॥ 170 ॥

310 परार्थकर्ता परोपकार करनेवाले, 311 कृत्यज्ञः - कर्तव्यका ज्ञान रखनेवाले, 312 स्वार्थ कृत्यसदोतिःस्वार्थसाधनके कार्योंसे सदा दूर रहनेवाले, 313 सदानन्दः - सदा आनन्दमग्न, सत्पुरुषोंको आनन्द प्रदान करनेवाले अथवा सत् एवं आनन्दस्वरूप, 314 सदाभद्रः - सर्वदा कल्याणरूप, 315 सदाशान्तः - नित्य शान्त, 316 सदाशिव: निरन्तर कल्याण करनेवाले 170

सदाप्रियः सदातुष्टः सदापुष्टः सदार्चितः

सदापूतः पावनाग्रयो वेदगुह्यो वृषाकपिः ।। 171 ।।317 सदाप्रियः सर्वदा सबके प्रियतम, 318 सदातुष्टः - निरन्तर संतुष्ट रहनेवाले, 319 सदापुष्टः- सुधा पिपासा तथा आधि-व्याधिसे रहित होनेके कारण सदा पुष्ट शरीरवाले, 320 सदार्चितः भक्तोंद्वारा निरन्तर पूजित, 321 सदापूतः - नित्य पवित्र, 322 पावनाग्रयः- पवित्र करनेवालोंमें अग्रगण्य, 323 वेदगुः वेदोंके गूढ़ रहस्य, 324 वृषाकपिः वृष धर्मको अकम्पित (अविचल ) रखनेवाले श्रीविष्णु ॥ 171 ॥ त्रियुगश्चतुर्मूर्तिश्चतुर्भुजः

भूतभव्यभवनाथ महापुरुषपूर्वजः ।। 172 ।। 325 सहस्रनामा-हजारों नामवाले, 326 त्रियुगः- सत्ययुग, त्रेता और द्वापर नामक त्रियुग स्वरूप, 327 चतुर्मूर्तिः– राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्नरूप चार मूर्तियाले 328 चतुर्भुज: चार भुजाओंवाले, 329 भूतभव्यभवन्नाथः भूत, भविष्य और वर्तमान सभी प्राणियोंके स्वामी 330 महापुरुषपूर्वजः महापुरुष आदिके भी पूर्वज ॥ 172 ॥ नारायणो मञ्जुकेशः सर्वयोगविनिःसृतः।

वेदारो सामसारस्तपोनिधिः ।। 173 ।। 331 नारायणः - जलमें शयन करनेवाले, 332 मज्जुकेश: मनोहर पुराले केशवले, 333 सर्वयोगविनिःसृतः नाना प्रकारके शास्त्रोक्त साधनों से जाननेमें आनेवाले, समस्त योग-साधनों से प्रकट होनेवाले 334 बेदसार:- वेदोंके सारभूत तत्त्व, ब्रह्म, 335 यज्ञसारः- यज्ञोंके सारतत्त्व- f यज्ञपुरुष विष्णु, 336 सामसार:- सामवेदकी श्रुतियोंद्वारा गाये जानेवाले सारभूत परमात्मा, 337 तपोनिधिः- तपस्याके भंडार नर-नारायण स्वरूप ॥ 173 यज्ञसार:

साध्यश्रेष्ठः पुराणविर्निष्ठा शान्तिः परायणम् शिवत्रिशूलविध्वंसी श्रीकण्ठैकवरप्रदः ।। 174

॥ 338 साध्य श्रेष्ठः साध्य देवताओंमें श्रेष्ठ साधनसे प्राप्त होनेवालोंमें सबसे श्रेष्ठ, 339पुराणर्षिः - पुरातन ऋषि नारायण, 340 निष्ठा सबकी स्थिति के आधार अधिष्ठानस्वरूप 341 शान्तिः परम शान्तिस्वरूप, 342 परायणम् परम प्राप्यस्थान, 343 शिवः - कल्याणस्वरूप, 344 त्रिशूलविध्वंसी आध्यात्मिक आदि त्रिविध शूलोंका नाश करनेवाले अथवा प्रलयकालमें महारुद्ररूप होकर त्रिशूलसे समस्त समस्त विश्वका विध्वंस करनेवाले 345 श्रीकण्ठैकवरप्रदः भगवान् शंकरके एकमात्र वरदाता ॥ 174 ॥ नरः कृष्णो हरिर्धर्मनन्दनो धर्मजीवनः ।

आदिकर्ता सर्वसत्यः सर्वस्त्रीरत्नदर्पहा ।। 175 ।। 346 नरः - बदरिकाश्रममें तपस्या करनेवाले ऋषिश्रेष्ठ नर, नरके अवतार अर्जुन, 347 कृष्णः - के मनको आकृष्ट करनेवाले देवकीनन्दन श्रीकृष्ण सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा, 348 हरि:- गजेन्द्रकी पुकार सुनकर तत्काल प्रकट हो ग्राहके प्राणोंका अपहरण करनेवाले भगवान् श्रीहरि 349 धर्म नन्दनः धर्मत यहाँ पुत्ररूपसे अवतीर्ण होनेवाले भगवान् नारायण अथवा धर्मराज युधिष्ठिरको आनन्दित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण, 350 धर्मजीवन: पापाचारी असुरोंका मूलोच्छेद करके धर्मको जीवित रखनेवाले, 351 आदिकर्ता जगत्के आदि कारण ब्रह्माजीको उत्पन्न करनेवाले, 352 सर्वसत्यः पूर्णत: सत्यस्वरूप, 353 सर्वस्त्रीरत्नदर्पहा - जितेन्द्रिय होनेके कारण सम्पूर्ण सुन्दरी स्त्रियोंका अभिमान चूर्ण करनेवाले ॥ 175 ॥ त्रिकालजितकन्दर्प उर्वशीसृङ्मुनीश्वरः

कविर्हयग्रीवः सर्ववागीश्वरेश्वरः 176 ॥ 354 त्रिकालजितकन्दर्पः भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालोंमें कामदेवको परास्त करनेवाले, 355 उर्वशी उर्वशी अप्सराको सृष्टि करनेवाले भगवान् नारायण, 356 मुनीश्वरः- तपस्वी मुनियोंमें श्रेष्ठ नर-नारायणस्वरूप, 357 आद्यः- आदिपुरुष विष्णु, 358 कविः - त्रिकालदर्शी विद्वान् 359 हयग्रीवः -- हयग्रीव नामक अवतार धारण करनेवालेभगवान् 350 सर्ववागीश्वरेश्वरः ब्रह्मा आदि समस्त वागीश्वरोंके भी ईश्वर ॥ 176 ॥ सर्वदेवमयो

ब्रह्मगुरुर्वागीश्वरीपतिः। अनन्तविद्याप्रभवो

मूलाविद्याविनाशकः ।। 177 ।। 361 ll

सर्वदेवमय: सम्पूर्ण देवस्वरूप 362 ब्रह्मगुरु : – ब्रह्माजीको वेदका उपदेश करनेवाले गुरु, 363 वागीश्वरीपतिः- वाणीकी अधीश्वरी सरस्वतीदेवीके स्वामी, 364 अनन्तविद्याप्रभवः असंख्य विद्याओंकी उत्पत्तिके हेतु 365 मूलाविद्या विनाशक:- भवबन्धनकी हेतुभूत मूल अविद्याका विनाश करनेवाले ॥ 177॥

सार्वयदो नमज्जाड्यनाशको मधुसूदनः ।

अनेकमन्त्रकोटीशः शब्दब्रह्मैकपारगः ।। 178 ।।

366 सार्वज्ञ्यदः - सर्वज्ञता प्रदान करनेवाले, 367 नमज्जाड्यनाशकः - प्रणाम करनेवाले भक्तोंकी जड़ताका नाश करनेवाले, 368 मधुसूदनः- मधु नामक दैत्यका वध करनेवाले, 369 अनेकमन्त्र कोटीश :- अनेक करोड़ मन्त्रोंके मी 370 शब्दब्रह्मैकपारगः- शब्दब्रह्म (वेद-वेदांगों ) - के एकमात्र पारंगत विद्वान् 178 आदिविद्वान् वेदकर्ता वेदात्मा श्रुतिसागरः ।

ब्रह्मार्थदाहरण सर्वविज्ञानजन्मभूः 979 ।।

371 आदिविद्वान् — सर्वप्रथम वेदका ज्ञान प्रकाशित करनेवाले, 372 वेदकर्ता अपने निःश्वासके साथ वेदोंको प्रकट करनेवाले, 373 वेदात्मा- वेदोंके सार तत्त्व-उनके द्वारा प्रतिपादित होनेवाले सिद्धान्तभूत परमात्मा, 374 श्रुतिसागरः 374 श्रुतिसागरः- वैदिक ज्ञानके समुद्र, 375 ब्रह्मार्थवेदाहरण: धारण करके ब्रह्माजीके लिये वेदको ले आनेवाले, 376 सर्वविज्ञानजन्मभूः - सब प्रकारके विज्ञानोंकी जन्मभूमि 179 ॥ मत्स्यरूप विद्याराज
मत्स्यदेवो महाभुंगो जगद्वीजवहित्र ।। 180 ॥ 377 विद्याराज:- समस्त विद्याओंके राजा, 378 ज्ञानमूर्तिः ज्ञानस्वरूप, 379 ज्ञानसिन्धुःज्ञानके सागर, 380 अखण्डधीः संशय-विपर्यय - - आदिके द्वारा कभी खण्डित न होनेवाली बुद्धिसे युक्त, 381 मत्स्यदेवः - मत्स्यावतारधारी भगवान्, 382 महाभृंगः मत्स्य शरीरमें ही महान् भृंग धारण करनेवाले, 383 जगद्वीजवहित्रधृक् – संसारकी बीजभूत ओषधियोंके सहित नौकाको अपने सींगमें बाँधकर धारण करनेवाले मत्स्यभगवान् ॥ 180 ॥ लीलाव्याप्ताखिलाम्भोधिऋग्वेदादिप्रवर्तकः ।

प्रकट आदिकृषऽखिलाधारस्तृणीकृतजगद्भरः ॥ 181 ॥ 384 लीलाव्याप्ताखिलाम्भोधि:- अपने मत्स्य शरीरसे लीलापूर्वक सम्पूर्ण समुद्रको आच्छादित कर लेनेवाले, 385 ऋग्वेदादिप्रवर्तकः ऋग्वेद, यजुर्वेद आदिके प्रवर्तक 386 आदिकुर्मः सर्वप्रथम कच्छपरूपमें होनेवाले भगवान्, 387 अखिलाधारः - अखिल ब्रह्माण्डके आधारभूत, 388 तृणीकृतजगद्भरः समस्त जगत्के भारको तिनकेके समान समझनेवाले 181 अमरीकृतदेवीपः पीयूषोत्पत्तिकारणम् आत्माधारो धराधारो यज्ञाङ्गो धरणीधरः 182 ॥ 389 अमरीकृतदेवौघः - अमृत पिलाकर देवसमुदायको अमर बनानेवाले, 390 पीयूषोत्पत्ति कारणम् क्षीरसागरसे अमृतके निकालने में प्रधान कारण, 391 आत्माधारः- -अन्य किसी आधारकी अपेक्षा न रखकर अपने ही आधारपर स्थित रहनेवाले, 392 धराधारः - पृथ्वीके आधार, 393 यज्ञाङ्गः - यज्ञमय शरीरवाले भगवान् वराह, 394 धरणीधरः - अपनी दाढ़ोंपर पृथ्वीको धारण करनेवाले ॥ 182 ॥

हिरण्याक्षहरः पृथ्वीपतिः श्राद्धादिकल्पकः समस्तपितृभीतिघ्नः समस्तपितृजीवनम् ॥ 983 ॥ 395 हिरण्याक्षहरः वराहरूपसे ही हिरण्याक्ष नामक दैत्यका वध करनेवाले, 396 पृथ्वीपतिः उक्त अवतारमें ही पृथ्वीको पत्नीरूपमें ग्रहण करनेवाले, अथवा पृथ्वीके पालक, 397 श्राद्धादिकल्पकः पितरोंके लिये श्राद्ध आदिको व्यवस्था करनेवाले398 समस्तपितृभीतिघ्नः- सम्पूर्ण पितरोंके भयका निवारण करनेवाले, 399 समस्तपितृजीवनम् - समस्त पितरोंके जीवनाधार 183

हव्यकव्यैक भुग्धव्यकव्यैकफलदायकः

रोमान्तलींनजलधिः क्षोभिताशेषसागरः ।। 184 ।। 400 हव्यकव्यैकभुक् हव्य और कव्य (यज्ञ और श्राद्ध) के एकमात्र भोक्ता, 401 हव्यकव्यैक फलदायक : - यज्ञ और श्राद्धके एकमात्र फलदाता, 402 रोमान्तलीन जलधिः- अपने रोमकूपों में रोमान्तलनजलधिः रोमकूपोंमें समुद्रको लीन कर लेनेवाले महावराह, 403 क्षोभिताशेषसागरः वराहरूपसे पृथ्वीको खोज करते समय समस्त समुद्रको क्षुब्ध कर डालनेवाले ॥ 184 महावराहो यज्ञघ्नध्वंसको याज्ञिकाश्रयः श्रीनृसिंहो दिव्यसिंहः सर्वानिष्टाः खा ॥ 185 ॥

404 महावराहः – महान् वराहरूपधारी भगवान् 405 यज्ञघ्नध्वंसकः यज्ञमें विघ्न डालनेवाले असुरोंके विनाशक, 406 याज्ञिकाश्रयः - यज्ञ करनेवाले ऋत्विजोंके परम आश्रय, 407 श्रीनृसिंह: अपने भक्त प्रह्लादकी बात सत्य करनेके लिये नृसिंहरूप धारण करनेवाले भगवान्, 408 दिव्यसिंहः अलौकिक सिंहकी आकृति धारण करनेवाले, 409 सर्वानिष्टार्थदुःख सब प्रकारकी अनिष्ट वस्तुओं और दुःखोंका नाश करनेवाले ॥ 185 ॥ एकवीरोऽद्भुतल यन्त्रमन्त्रैकभञ्जनः । -

ब्रह्मादिदुःसहज्योतिर्युगान्ताग्नयतिभीषणः ।। 186 ।। f 410 एकवीरः अद्वितीय वीर 419 अद्भुतबलः - अद्भुत शक्तिशाली, 412 यन्त्र मन्त्रैकभञ्जनः -- शत्रुके यन्त्र-मन्त्रोंको एकमात्र भंग करनेवाले 413 ब्रह्मादिदुः सहयोतिः जिनके श्रीविग्रहकी ज्योति ब्रह्मा आदि देवताओंके व लिये भी दुःसह है, ऐसे नृसिंहभगवान् 414 युगान्ताग्नयतिभीषणः - प्रलयकालीन अग्निके समान अत्यन्त भयंकर । 186 ।।

कोटिवज्राधिकनखो जगददुष्प्रेक्ष्यमूर्तिधृक्। मातृचक्रप्रमथनो महामातृगणेश्वरः ।। 987 ॥415 कोटिवाधिकनख: करोड़ों वज्रोंसे भी अधिक तीक्ष्ण नखवाले, 416 जगददुष्प्रेक्ष्य मूर्ति सम्पूर्ण जगत् जिसकी ओर कठिनता से देख सके, ऐसी भयानक मूर्ति धारण करनेवाले 410] मातृचक्रप्रमथन: डाकिनी, शाकिनी, पूतना आदि मातृमण्डलको मथ डालनेवाले, 418 महामातृगणेश्वरः अपनी शक्तिभूत दिव्य महमातृगणोंके अधीश्वर ॥ 187 ॥

अचिन्त्यामोघवीर्याढ्यः समस्तासुरघस्मरः

हिरण्यकशिपुच्छेदी कालः संकर्षणीपतिः ॥ 188 ॥ 419 अचिन्त्यामोघवीर्याढ्यः – कभी व्यर्थ न जानेवाले अचिन्त्य पराक्रमसे सम्पन्न, 420 समस्तासुरघस्मरः- समस्त असुरोंको ग्रास बनानेवाले 421 हिरण्यकशिपुच्छेदी हिरण्यकशिपु नामक दैत्यको विदीर्ण करनेवाले, 422 कालः असुरोंके लिये कालरूप, 423 संकर्षणीपतिः संहारकारिणी शक्तिके स्वामी 188 कृतान्तवाहनः

सद्यः समस्तभयनाशनः ।

सर्वविघ्नान्तकः सर्वसिद्धिदः सर्वपूरकः ।। 189 ।। 424 कृतान्तवाहनः कालको अपना वाहन बनानेवाले, 425 सद्यः समस्तभयनाशन:- शरणमें आये हुए भक्तोंके समस्त भयका तत्काल नाश करनेवाले, 426 सर्वविघ्नान्तकः - सम्पूर्ण विघ्नोंका अन्त करनेवाले, 427 सर्वसिद्धिदः - सब प्रकारकी सिद्धि प्रदान करनेवाले, 428 सर्वपूरक: सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले ॥ 189 ॥ | समस्तपातकध्वंसी सिद्धिमन्त्राधिकायः

भैरवेशो हरार्तिघ्नः कालकोटिदुरासदः ॥ 190 ॥ 429 समस्तपातकध्वंसी-सब पातकोंका नाश करव 430 सिद्धिमन्त्राधिकाद्वय राम में हो सिद्धि और मन्त्रोंसे अधिक शक्ति रखनेवाले, 431 भैरवेश: भैरवगणोंके स्वामी, 432 हार्तिघ्नः भगवान् शंकरकी पीड़ाका नाश करनेवाले 433 कालकोटिदुरासदः करोड़ों कालोंके लिये भी दुर्धर्ष 190दैत्यगर्भस्त्राविनामा

स्फुटद्ब्रह्माण्डगतिः ।

स्मृतमात्राखिलत्राताद्भुतरूपो महाहरिः ।। 191 ।।

434 दैत्यगर्भवाविनामा- जिनका नाम सुनकर की दैत्यपत्नियोंके गर्भ गिर जाते हैं ऐसे भगवान् नृसिंह, 435 स्फुटद्ब्रह्माण्डगर्जितः - जिनके गर्जनेपर सारा ब्रह्माण्ड फटने लगता है, 436 स्मृतमात्रा खिलत्राता - स्मरण करनेमात्रसे सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करनेवाले, 437 अद्भुतरूपः- आश्चर्यजनक रूप धारण करनेवाले, 438 महाहरिः महान् सिंहकी आकृति धारण करनेवाले ।। 191 ।। ब्रह्मचर्यशिर पिण्डी द्वादशार्कशिरोदामा रुद्रशीर्षैकनूपुरः ।। 192 ।।

439 ब्रह्मचर्यशिरः पिण्डी- अपने शिरोभागमें ब्रह्मचर्यको धारण करनेवाले, 440 दिक्पालः - समस्त दिशाओंका पालन करनेवाले, 441 अर्धाङ्ग भूषणः- आधे अंगमें आभूषण धारण करनेवाले नृसिंह 442 द्वादशार्कशिरोदामा मस्तकमै बारह सूर्यो के समान तेज धारण करनेवाले, 443 रुद्रशीर्षैकनूपुरः जिनके चरणोंमें प्रणाम करते समय रुद्रका मस्तक एक नुपूरकी भाँति शोभा धारण करता है, वे भगवान् ॥ 192 ।। योगिनीग्रस्तगिरिजात्राता

भैरवतर्जकः ।

वीरचक्रेश्वरोऽत्युग्रो यमारिः कालसंवरः ।। 993 ॥ 444 योगिनीग्रस्तगिरिजात्राता – योगिनियोंके चंगुल में फँसी हुई पार्वतीकी रक्षा करनेवाले, 445 भैरवतर्जकः - भैरवगणोंको डाँट बतानेवाले, 446 वीरचक्रेश्वर : - वीरमण्डलके ईश्वर, 447 अत्युग्रः अत्यन्त भयंकर, 448 यमारि:- यमराजके शत्रु, 449 कालसंवर: – कालको आच्छादित करनेवाले ॥ 193 ॥ क्रोधेश्वरो रुद्रचण्डी परिवारादिदुष्टभुक्

सर्वाक्षोभ्यो मृत्युमृत्युः कालमृत्युनिवर्तकः ॥ 194॥

450 क्रोधेश्वरः - क्रोधपर शासन करनेवाले, 451 रुद्रचण्डी परिवारादिदुष्टभुक-रुद्र और चण्डीके पार्षदोंमें रहनेवाले दुष्टोंके भक्षक, 452 सर्वाक्षोभ्यः - किसीके द्वारा भी विचलित नहीं कियेजा सकनेवाले, 453 मृत्युमृत्युः — मौतको भी मारनेवाले, 454 कालमृत्युनिवर्तकः काल और मृत्युका निवारण करनेवाले ॥ 194 ॥

असाध्यसर्वरोगघ्नः सर्वदुसम्यकृत् ।

गणेशकोदिनो दुःसहाशेषगोत्रहा ।। 195 ।।

455 असाध्यसर्वरोगघ्नः - सम्पूर्ण असाध्य रोगोंका नाश करनेवाले, 456 सर्वदुर्ग्रहसौम्यकृत् समस्त दुष्ट ग्रहोंको शान्त करनेवाले, 457 गणेशकोटिदर्पघ्नः - करोड़ों गणपतियोंका अभिमान चूर्ण करनेवाले, 458 दुःसहाशेषगोत्रहा - समस्त दुस्सह शत्रुओंके कुलका नाश करनेवाले ॥। 195 ।। देवदानवदुर्दर्शो जगद्भयदभीषकः । समस्तदुर्गतित्राता

जगद्भक्षकभक्षकः । 196 ॥ भी जिनकी ओर देखने में कठिनाई होती है-ऐसे भगवान् नृसिंह, 460 जगद्भबदभीषक: संसारके भयदाता असुरोंको भी भयभीत करनेवाले, 461 समस्तदुर्गतित्रता सम्पूर्ण दुर्गतियोंसे उद्धार करनेवाले, 462 जगद्भक्षकभक्षकः - जगत्का भक्षण करनेवाले कालके भी भक्षक ॥ 196 ॥ उग्रेशो ऽम्बरमार्जारः 459 देवदानवदुर्दर्शः देवता और दानवोंको

कालमूषकभक्षकः ।

अनन्तायुधदोर्दण्डी नृसिंहो वीरभद्रजित् ॥ 197 ॥ 464 अम्बरमार्जारः - आकाशरूपी बिलाव, 465 कालमूषक भक्षकः - कालरूपी चूहेको खा जानेवाले, 466 अनन्तायुधदोर्दण्डी- अपने बाहुदण्डको ही अक्षय आयुधोंके रूपमें करनेवाले, 467 नृसिंहः - नर तथा सिंह दोनोंकी आकृति धारण करनेवाले 468 वीरभद्रजित् वीरभद्रपर विजय धारण पानेवाले ॥ 197 ॥

463 उग्रेश:- उग्र शक्तियोंपर शासन करनेवाले,

योगिनीचक्र गुह्येशः शक्रारिपशुमांसभुक् ।

रुद्रो नारायणो मेषरूपशङ्करवाहनः ।। 198 ।।

469 योगिनीचक्रगुह्येशः- योगिनीमण्डलके रहस्योंके शक्रारिपशु मांसभुक् — इन्द्रके शत्रुभूत दैत्यरूपी पशुओंका भक्षणकरनेवाले, 471 रुद्रः- प्रलयकालमें सबको रुलाने वाले रुद्र अथवा भयंकर आकारवाले नृसिंह, 472 नारायणः - नर अर्थात् जीवसमुदायके आश्रय; अथवा नार-जलको निवासस्थान बनाकर रहनेवाले शेषशायी, 403 मेषरूपरवाहनः मेषरूपधारी शिवको वाहन बनानेवाले ॥ 198 ॥

मेषरूपवित्राता दुष्टशक्तिसहस्रभुक् ।

तुलसीलो वीरो वामाचाराखिलेष्टदः । 199 ।। 474 मेषरूपवित्राता - मेषरूपधारी शिवके रक्षक, 405 दुष्टशक्तिसहस्रभुक् सहस्रों दुष्ट शक्तियोंका विनाश करनेवाले, 406 तुलसी वल्लभः - तुलसीके प्रेमी, 477 वीरः शूरवीर, 478 वामाचाराखिलेष्टदः - सुन्दर आचरणवालोंका सम्पूर्ण अभीष्ट सिद्ध करनेवाले ॥ 199 ॥ महाशिवः शिवारूढो भैरवैककपालधृक् ।

झिल्लिचक्रेश्वरः शक्रदिव्यमोहनरूपदः ॥ 200 ॥ 479 महाशिवः - परम मंगलमय, 480 शिवारूढः - कल्याणमय वाहनपर आरूढ़ होनेवाले, अथवा ध्यानस्थ भगवान् शिवके हृदयकमलपर आसीन होनेवाले 489 भैरवैककपालक रुद्ररूपसे हाथमें एक भयानक कपाल धारण करनेवाले, 482 झिल्लिचक्रेश्वरः - झींगुरोंके समुदायके स्वामी, 483 शक्रदिव्यमोहनरूपदः - इन्द्रको दिव्य एवं मोहक रूप देनेवाले 200

गौरीसौभाग्यदो मायानिधिर्मायाभयापहः ।

ब्रह्मतेजोमयो ब्रह्मश्रीमयश्च त्रयीमयः ॥ 201 ।। 484 गौरीसौभाग्यदः - भगवती पार्वतीको सौभाग्य प्रदान करनेवाले, 485 मायानिधिः- मायाके भंडार, 486 मायाभयापहः – मायाजनित भयका नाश करनेवाले, 487 ब्रह्मतेजोमयः - ब्रह्मतेजसे सम्पन्न भगवान् वामन, 488 ब्रह्मश्रीमयः - ब्राह्मणोचित श्रीसे परिपूर्ण विग्रहवाले 489 त्रयीमय: ऋक्, यजुः और साम- इन तीन वेदोंद्वारा प्रतिपादित स्वरूपवाले ॥ 201 सुब्रह्मण्यो बलिध्वंसी

वामनोऽदितिदुःखहा । उपेन्द्रो नृपतिर्विष्णुः कश्यपान्वयमण्डनः ॥ 202 ॥490 सुब्रह्मण्यः ब्राह्मण, वेद, तप और जानकी भलीभाँति रक्षा करनेवाले, 491 बलिध्वंसी राजा बलिको स्वर्णसे हटानेवाले 492 वामनः वामनरूपधारी भगवान् 493 अदितिदुःखहा देवमाता अदितिके दुःख दूर करनेवाले, 494 उपेन्द्रः इन्द्रके छोटे भाई, द्वितीय इन्द्र 495 नृपतिः राजा जो 'नराणां च नराधिपः' के अनुसार भगवान्की दिव्य विभूति है, 496 विष्णुः - बारह आदित्योंमेंसे एक, 497 कश्यपान्वयमण्डनः - कश्यपजीके कुलकी शोभा बढ़ानेवाले ॥ 202 ॥

बलिस्याराज्यदः सर्वदेवविप्रान्नदोऽच्युतः । उरुक्रमस्तीर्थपादस्विपदस्थास्त्रिविक्रमः ॥ 203 ॥

498 बलिस्वारान्यदः राजा बलिको [अगले मन्वन्तरमें इन्द्र बनाकर ] स्वर्गका राज्य प्रदान करनेवाले, 499 सर्वदेवविप्रान्नदः सम्पूर्ण देवताओं तथा ब्राह्मणोंको अन्न देनेवाले, 500 अच्युतः-अपनी - महिमासे कभी च्युत न होनेवाले, 501 उरुक्रमः बलिके यज्ञमें विरारूप होकर लम्बे डगसे त्रिलोकीको नापनेवाले 502 तीर्थपाद:- गंगाजीको प्रकट करनेके कारण तीर्थरूप चरणोंवाले, 503 त्रिपदस्थ: तीन स्थानों पर पैर रखनेवाले, 504 त्रिविक्रमः - तीन बड़े-बड़े डगवाले ॥ 203 ॥ व्योमपादः स्वपादाम्भः पवित्रितजगत्त्रयः ।

ब्रह्मेशाद्यभिवन्द्याङ्घ्रिर्दुतधर्माहिधावनः ॥ 204 ॥ 505 व्योमपाद: सम्पूर्ण आकाशको चरणोंसे नापनेवाले, 506 स्वपादाम्भः पवित्रितजगत्त्रयः अपने चरणोंके जल (गंगाजी) से तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाले 500 ब्रह्मेशाद्यभिवन्द्याप्रि: ब्रह्मा और शंकर आदि देवताओंके द्वारा वन्दनीय चरणवाले 508 धर्माशीघ्रतापूर्वक धर्मका पालन करनेवाले 509 अहिभावनः सर्पको भाँति तेज दौड़नेवाले ॥ 204 ॥ अतिविस्तारो विश्ववृक्षो महाबलः।

राहुमूर्धापराङ्गच्छिद् भृगुपत्नीशिरोहरः ॥ 205 ॥ 510 अचिन्त्यादद्भुतविस्तार:- किसी तरह चिन्तनमें न आनेवाले अद्भुत विस्तारसे युक्त,511 विश्ववृक्षः - संसार वृक्षरूप, 512 महाबलः महान् बलसे युक्त, 513 राहुमूर्धापराङ्गच्छित् राहुके मस्तक और धड़को काटकर अलग करनेवाले, 514 भृगुपत्नीशिरोहर: भृगुपलीके मस्तकका अपहरण करनेवाले ॥ 205 ॥ पापात्त्रस्तः सदापुण्यो दैत्याशानित्यखण्डकः । पूरिताखिलदेवाशो

विश्वकावतारकृत् ।। 206 ।। 515 पापात्त्रस्तः – पापसे डरनेवाले, 516 सदापुण्यः - निरन्तर पुण्यमें प्रवृत्त, 517 दैत्याशा नित्यखण्डकः – धर्मविरोधी दैत्योंकी आशाका सदा खण्डन करनेवाले, 518 पूरिताखिलदेवाशः- सम्पूर्ण देवताओंकी आशा पूर्ण करनेवाले, 519 विश्वार्थैकावतारकृत् — एकमात्र विश्वका कल्याण करनेके लिये अवतार लेनेवाले 206 स्वमायानित्यगुप्तात्मा भक्तचिन्तामणिः सदा ।

वरदः कार्तवीर्यादिराजराज्यप्रदोऽनघः 207 520 स्वमायानित्यगुप्तात्मा अपनी मायासे निरन्तर अपने स्वरूपको छिपाये रखनेवाले, 521 सदा भक्तचिन्तामणिः - सदा भक्तोंका मनोरथ पूर्ण करनेके लिये चिन्तामणिके समान, 522 वरदः भक्तोंको वर प्रदान करनेवाले, 523 कार्तवीर्यादिराजराज्यप्रदः - कृतवीर्यपुत्र अर्जुन आदि राजाओंको राज्य देनेवाले, 524 अनघः स्वभावतः पापसे रहित ॥ 207 ॥ विश्वश्लायोऽमिताचारो दत्तात्रेयो मुनीश्वरः

पराशक्तिसदाश्लिष्टो योगानन्ददोन्मदः ॥ 208 ॥ 525 विश्वश्लाघ्यः- समस्त संसारके लिये प्रशंसनीय, 526 अमिताचार:- अपरिमित आचारवाले, 527 दत्तात्रेयः - अत्रिकुमार दत्त, जो भगवान्के अवतार हैं, 528 मुनीश्वर:- मुनियोंके स्वामी, 529 पराशक्तिसदाश्लिष्टः सदा पराशक्तिसे युक्त, 530 योगानन्दसदोन्मदः- निरन्तर योगजनित आनन्दमें विभोर रहनेवाले 208 ॥ समस्तेन्द्रारितेजोहृत्परमामृतपद्यपः

अनसूयागभैरवं 531 समस्तेन्द्रारितेजोहत्-इन्द्रसे शत्रुतारखनेवाले सम्पूर्ण दैत्योंका तेज हर लेनेवाले, 532 परमामृतपद्मपः परम अमृतमय कमलका रस पान करनेवाले, 533 अनसूयागर्भरत्नम् - अत्रिपत्नी अनसूयाजीके गर्भके रत्न, 534 भोगमोक्षसुखप्रदः भोग और मोक्षका सुख प्रदान करनेवाले ॥ 209 ॥ जमदग्निकुलादित्यो रेणुकाद्भुतशक्तिधृक् मातृहत्यादिनिर्लेपः स्कन्दजिद्विप्रराज्यदः ।। 210 ॥

535 जमदग्निकुलादित्यः - मुनिवर जमदग्नि

के वंशको सूर्यके समान प्रकाशित करनेवाले परशुरामजी 536 रेणुकाद्भुतशक्तिधृक्- माता रेणुकाकी अद्भुत शक्ति धारण करनेवाले, 537 मातृहत्यादिनिर्लेपः- मातृहत्या आदि दोषोंसे निर्लिप्त रहनेवाले परशुरामजी 538 स्कन्दजित् कार्त्तिकेयजीको जीतनेवाले, 539 विप्रराज्यदः ब्राह्मणोंको राज्य देनेवाले ॥ 210 ॥

सर्वक्षत्त्रान्तकृद्वीरदर्पहा कार्तवीर्यजित्

सप्तद्वीपवतीदाता शिवार्चकयशः प्रदः ॥ 219 ॥ 540 सर्वक्षत्त्रान्तकृत् - समस्त क्षत्रियोंका अन्त करनेवाले, 541 वीरदर्पहा - बड़े-बड़े वीरोंका दर्प दलन करनेवाले, 542 कार्तवीर्यजित् — कृतवीर्य पुत्र अर्जुनको परास्त करनेवाले, 543 सप्तद्वीपवती दाता - ब्राह्मणोंको सातों द्वीपोंसे युक्त पृथ्वीका दान करनेवाले, 544 शिवार्चकयशः प्रदः - शिवकी पूजा करनेवालेको यश देनेवाले ॥ 211 ॥

भीमः परशुरामश्च शिवाचार्यैकविश्वभूः ।

शिवाखिलज्ञानकोशो भीष्माचार्योऽग्निदैवतः ।। 212 ।। 545 भीमः - भयंकर पराक्रम करनेवाले, 546 परशुराम: - परशुरामरूपधारी भगवान् 547 शिवाचार्यैकविश्वभूः - भगवान् शंकरको गुरु बनाकर विद्या सीखनेवाले संसारमें एकमात्र पुरुष, 548 शिवाखिलज्ञानकोश: भगवान् शंकरसे सम्पूर्ण ज्ञानका कोष प्राप्त करनेवाले, 549 भीष्माचार्य: पाण्डवोंके पितामह भीष्मजीके आचार्य, 550 अग्निदैवतः - अग्निदेवताके उपासक ॥ 212 ।। द्रोणाचार्यगुरुर्विश्वजैत्रधन्वा कृतान्तजित्। अद्वितीयतपोमूर्तिर्ब्रह्मचर्यैकदक्षिणः ।। 293 ।।

551 द्रोणाचार्यगुरु : आचार्य द्रोणके गुरु, 552 विश्वजैत्रधन्वा विश्वविजयी धनुष धारण करनेवाले, 553 कृतान्तजित् - कालको भी परास्त करनेवाले, 554 अद्वितीयतपोमूर्तिः– अद्वितीय तपस्याके मूर्तिमान् स्वरूप, 555 ब्रह्मचर्यैकदक्षिण: ब्रह्मचर्यपालनमें एकमात्र दक्ष 213

मनुश्रेष्ठः सतां सेतुर्महीयान् वृषभो विराट् आदिराजः क्षितिपिता क्षितिपिता सर्वरलैकदोहकृत् ।। 214 ।। ॥

556 मनुश्रेष्ठः – मनुष्योंमें श्रेष्ठ राजा पृथु, 557 सतां सेतुः - सेतुके समान सत्पुरुषोंकी मर्यादाके रक्षक, अथवा सत्पुरुषोंके लिये सेतुरूप, 558 महीयान् — बड़ोंसे भी बड़े महापुरुष, 559 वृषभ: कामनाओंकी वर्षा करनेवाले श्रेष्ठ राजा, 560 विराट् - तेजस्वी राजा, 561 आदिराजः- मनुष्यों में सबसे प्रथम राजाके पदसे विभूषित, 562 क्षितिपिता पृथ्वीको अपनी कन्याके रूपमें स्वीकार करनेवाले, 563 सर्वरनैकदोहकृत् गोरूपधारिणी पृथ्वी से समस्त रत्नोंके एकमात्र दुहनेवाले 214 ॥

जगद्वृत्तिप्रदश्चक्रवर्तिश्रेष्ठोऽद्वयास्त्रधृक् ।। 215 ।। 564 पृथुः - अपने यशसे प्रख्यात पृथु नामक राजा, 565 जन्माद्येकदक्षः- उत्पत्ति, पालन और संहारमें एकमात्र कुशल, 566 गीः श्रीकीर्तिस्वयं वृतः - वाणी, लक्ष्मी और कीर्तिके द्वारा स्वयं वरण किये हुए, 567 जगद्वृत्तिप्रदः - संसारको जीविका प्रदान करनेवाले 568 चक्रवर्तिश्रेष्ठः चक्रवर्ती राजाओंमें श्रेष्ठ, 569 अद्वयास्त्रधृक् अद्वितीय शस्त्रधारी वीर 215 सनकादिमुनिप्राप्यभगवद्भक्तिवर्धनः -

वर्णाश्रमादिधर्माणां कर्ता वक्ता प्रवर्तकः ।। 216 ।। 570 सनकादिमुनिप्राप्यभगवद्भक्तिवर्धन:-) सनकादि मुनियोंसे प्राप्त होनेयोग्य भगवद्भक्तिका विस्तार करनेवाले, 571 वर्णाश्रमादिधर्माणां कर्ता- वर्ण और आदिके धर्मोके बनानेवाले, 572 वक्ता— वर्ण और आश्रम आदिकेधमका उपदेश करनेवाले, 573 प्रवर्तकः उक धर्मोका प्रचार करनेवाले ॥ 217 ॥ सूर्यवंशध्वजो रामो राघवः सद्गुणार्णवः ।

काकुत्स्थो वीरराजाय राजधर्मधुरन्धरः 217 ॥ 574 सूर्यवंशध्वजः - सूर्यवंशकी कीर्तिपताका फहरानेवाले श्रीरघुनाथजी 575 रामः- योगीजनोंके रमण करनेके लिये नित्यानन्दस्वरूप परमात्मा मर्यादापुरुषोतम भगवान् श्रीरामचन्द्रजी 576 राघवः रघुकुलमै जन्म ग्रहण करनेवाले, 577 सद्गुणार्णवः उत्तम गुणोंके सागर, 578 काकुत्स्थः- ककुत्स्थ पदवी धारण करनेवाले राजा पुरंजयको कुल परम्परामें अवतीर्ण, 579 वीरराजार्थः वीर राजाओं में श्रेष्ठ, |580 राजधर्मधुरन्धरः - राजधर्मका भार वहन करनेवाले ॥ 217 ॥ नित्यस्वस्थाश्रयः सर्वभग्राही शुभेकटुक

- अथवा नररत्नं रत्नगर्भो धर्माध्यक्षो महानिधिः ॥ 298 ॥ 581 नित्यस्वस्थाश्रयः सदा अपने स्वरूपमें स्थित रहनेवाले महात्माओंके आश्रय, 582 सर्वभद्र ग्राही समस्त कल्याणोंकी प्राप्ति करानेवाले, 583 शुभेकक एकमात्र शुभकी ओर ही दृष्टि रखनेवाले, 584 नररत्नम् - मनुष्योंमें श्रेष्ठ, 585 रत्नगर्भः अपनी माताके गर्भके रत्न अपने भीतर रत्नमय गुणोंको धारण करनेवाले, 586 धर्माध्यक्षः - धर्मके साक्षी, 587 महानिधिः अखिल भूमण्डलके सम्राट् होनेके कारण बहुत बड़े कोषवाले ॥ 218 ॥

सर्वश्रेष्ठाश्रयः सर्वशस्त्रास्त्रग्रामवीर्यवान् ।

जगदीशो दाशरथिः सर्वरत्नाश्रयो नृपः ॥ 219 ॥ 588 सर्वश्रेष्ठाश्रयः - सबसे श्रेष्ठ आश्रय, 589 सर्वशस्त्रास्त्रग्रामवीर्यवान्- समस्त अस्त्र शस्त्रोंके समुदायकी शक्ति रखनेवाले, 590 जगदीश: सम्पूर्ण जगत्के स्वामी, 591 दाशरथिः -अयोध्याके चक्रवर्ती नरेश महाराज दशरथके प्राणाधिक प्रियतम पुत्र, 592 सर्वरत्नाश्नयो नृपः – सम्पूर्ण रत्नोंके आश्रयभूत राजा ॥ 219 ॥समस्तधर्मसूः सर्वधर्मद्रष्टाखिलार्तिहा

अतीन्द्रो ज्ञानविज्ञानपारद्रष्टा क्षमाम्बुधिः 220 593 समस्तधर्मसूः – समस्त धर्मोंको उत्पन्न करनेवाले, 594 सर्वधर्मद्रष्टा सम्पूर्ण धर्मोपर दृष्टि रखनेवाले, 595 अखिलार्तिहा - सबकी पीड़ा दूर करनेवाले अथवा समस्त पीड़ाओंके नाशक, 596 अतीन्द्रः इन्द्रसे भी बढ़कर ऐश्वर्यशाली, 597 ज्ञानविज्ञानपारद्रष्टा - ज्ञान और विज्ञानके पारंगत, 598 क्षमाम्बुधिः क्षमाके सागर 220 ॥ सर्वप्रकृष्टः शिष्टेष्टो हर्षशोकाद्यनाकुलः

पित्राज्ञात्यक्तसाम्राज्यः सपत्नोदयनिर्भयः ।। 221 ॥ 599 सर्वप्रकृष्टः - सबसे श्रेष्ठ, 600 शिष्टेष्ट:- शिष्ट पुरुषोंके इष्टदेव, 601 हर्ष शोकाद्यनाकुल:- हर्ष और शोक आदिसे विचलित न होनेवाले 602 पित्राज्ञात्यक्तसाम्राज्य:- पिताकी आज्ञासे समस्त भूमण्डलका साम्राज्य त्याग देनेवाले, 603 सपत्नोदयनिर्भयः - शत्रुओंके उदयसे भयभीत न होनेवाले ॥ 221 ॥

गुहादेशार्पितैश्वर्यः शिवस्पर्धाजटाधरः वनेचरः ।। 222 ॥

चित्रकूटाप्तरलाद्रिर्जगदीशो

604 गुहादेशार्पितैश्वर्यः - वनवासके समय पर्वतको कन्दराओंको ऐश्वर्य समर्पित करनेवाले अपने निवाससे गुफाओंको भी ऐश्वर्यसम्पन्न बनानेवाले, 605 शिवस्पर्धाजटाधरः- शंकरजीकी जटाओंसे होड़ लगानेवाली जटाएँ धारण करनेवाले, 606 चित्रकूटाप्तरत्नाद्रिः – चित्रकूटको निवासस्थल बनाकर उसे रत्नमय पर्वत (मेरुगिरि) की महत्ता प्राप्त करानेवाले, 607 जगदीश : – सम्पूर्ण जगत्के ईश्वर, 608 वनेचरः वनमें विचरनेवाले 222 ॥

यथेष्टामस्त्रो देवेन्द्रतनयाक्षिहा।

ब्रह्मेन्द्रादिनतैषीको मारीचघ्नो विराधहा ।। 223 ।। 609 यथेष्टामोघसर्वास्त्रः - जिनके सभी अस्त्र इच्छानुसार चलनेवाले एवं अचूक हैं, 610 देवेन्द्रतनयाशिहा देवराजके पुत्र जयन्तकी आँख फोड़नेवाले, 611 ब्रह्मेन्द्रादिनतैषीकः - जिनकेचलाये हुए सकके बाणको ब्रह्मा आदि देवताओंने भी मस्तक झुकाया था, ऐसे प्रभावशाली भगवान् श्रीराम, 612 मारीचघ्नः - मायामय मृगका रूप धारण करनेवाले मारीच नामक राक्षसके नाशक, 613 विराधहा विराधका वध करनेवाले 223 ब्रह्मशापहताशेषदण्डकारण्यपावनः

॥ 224 ॥

- 616 खरारिः - खर नामक राक्षसके शत्रु, 617 त्रिशिरोहन्ता – त्रिशिराका वध करनेवाले, 618 दूषणघ्नः -दूषण नामक राक्षसके प्राण लेनेवाले, 619 जनार्दनः - भक्तलोग जिनसे अभ्युदय एवं निःश्रेयसरूप परम पुरुषार्थकी याचना करते हैं, 620 जटायुषो ऽग्निगतिद:- जटायुका दाह संस्कार करके उन्हें उत्तम गति प्रदान करनेवाले, 621 अगस्त्य सर्वस्वमन्त्रराट् - जिनका नाम महर्षि अगस्त्यका सर्वस्व एवं मन्त्रोंका राजा है॥ 225 लीलाधनुष्कोट्यपास्तदुन्दुभ्यस्थिमहाचलः

चतुर्दशसहस्त्रोग्ररक्षोघ्नैकशरैकधृक्

614 ब्रह्मशापहताशेषदण्डकारण्यपावनः ब्राह्मण (शुक्राचार्य) के शापसे नष्ट हुए दण्डकारण्यको अपने निवाससे पुनः पावन बनानेवाले 615 चतुर्दशसहस्त्रोग्ररक्षोघ्नैकशरैकधृक्- चौदह हजार भयंकर राक्षसोंको मारनेकी शक्तिसे युक्त एकमात्र बाण धारण करनेवाले ॥ 224 खरारिस्त्रिशिरोहन्ता दूषणघ्नो जनार्दनः जटायुषो ऽग्निगतिदो ऽगस्त्य सर्वस्वमन्त्रराट् ।। 225 ।।

सप्ततालव्यधाकृष्टध्वस्तपातालदानवः ॥ 226 ॥ 622 लीलाधनुष्कोट्यपास्तदुन्दुभ्यस्थि | महाचल:- खेल-खेलमें ही दुन्दुभि दानवकी हड्डियोंके महान् पर्वतको धनुषकी नोकसे उठाकर दूर फेंक देनेवाले, 623 सप्ततालव्यधाकृष्ट ध्वस्तपातालदानवः - सात तालवृक्षोंके वेधसे आकृष्ट होकर आये हुए पातालवासी दानवका विनाश नामक करनेवाले ॥ 226 ॥

सुग्रीवराज्यदो हीनमनसैवाभयप्रदः हनुमद्रुद्रमुख्येशः
समस्तकपिदेहभृत् ॥ 227 ॥624] सुग्रीवराज्यदः सुग्रीवको राज्य देनेवाले, 625 अहीनमनसैवाभयप्रदः - उदार चित्तसे अभय दान देनेवाले, 626 हनुमद्रुद्रमुख्येश:- हनुमानजी तथा भगवान् शंकरके आराध्यदेव, प्रधान 620 समस्तकपिदेहभृत् सम्पूर्ण वानरोंके शरीरोंका पोषण करनेवाले 227 ॥

।। 228 ।। 628 सनागदैत्यबाणैकव्याकुलीकृत सागरः एक ही बाणसे नाग और दैत्योंसहित समुद्रको क्षुब्ध कर देनेवाले, 629 सम्लेच्छकोटि बाणैकशुष्कनिर्दग्धसागरः – एक ही बाणसे करोड़ों म्लेच्छों सहित समुद्रको सुखा देने और जला डालनेवाले ॥ 228 ॥

नागदैत्यवाणैकव्याकुलीकृतसागरः

सम्लेच्छकोटिवाणैकशुष्कनिर्दग्धसागरः

समुद्राद्भुतपूर्वकबद्धसेतुर्यशोनिधिः असाध्यसाधको लङ्कासमूलोत्साददक्षिणः ।। 229 ।।

630 समुद्राभुतपूर्वकद्धसेतु समुद्रमें पहले पहल एक अद्भुत पुल बाँधनेवाले, 631 यशोनिधिः सुयशके भंडार, 632 असाध्यसाधकः असम्भवको भी कर दिखानेवाले, 633 लङ्कासमूलोत्पाददक्षिण लंकाको जसे नष्ट कर डालनेमें दक्ष ॥ 229 ॥ सम्भव

रावणिघ्नः प्रहस्तच्छित्कुम्भकर्णभिदुग्रहा ।। 230 ।। 634 वरदृप्तजगच्छल्यपौलस्त्यकुलकृन्तन: वर पाकर घमंडसे भरे हुए तथा संसारके लिये कण्टकरूप रावणके कुलका उच्छेद करनेवाले, 6353 रावणिघ्नः - लक्ष्मणरूपसे रावणके पुत्र मेघनादका वध करनेवाले, 636 प्रहस्तच्छित् प्रहस्तका मस्तक काटनेवाले, 637 कुम्भकर्णभित्— कुम्भकर्णकोविदीर्ण करनेवाले, 638 उग्रहाभयंकर राक्षसोंका वध करनेवाले ॥ 230 ॥ स्वर्गास्वर्गत्वविच्छेदी देवेन्द्रानिन्द्रताहरः ।। 239 ॥

रावणैकशिरश्छेता निःशङ्केन्द्रकराज्यदः ।

639 रावणैकशिरश्छेता रावणके सिर काटनेवाले एकमात्र वीर, 640 निःशङ्केन्द्रैकराज्यदः - निःशंक होकर इन्द्रको एकमात्र राज्य देनेवाले, 641 स्वर्गास्वगत्वविच्छेदी–स्वर्गकी अस्वर्गताको मिटा डालनेवाले, 642 देवेन्द्रानिन्द्रताहरः- देवराज इन्द्रकी 1 अनिन्द्रता दूर करनेवाले ॥ 231 ॥ रक्षोदेवत्वद्धर्माधर्मत्वघ्नः

पुरुष्टुतः ।

नतिमात्रदशास्यारिर्दत्तराज्यविभीषणः 643 रक्षोदेवत्वत्-राक्षसलोग जो देवताओंको हटाकर स्वयं देवता बन बैठे थे, उनके उस देवत्वको हर लेनेवाले, 644 धर्माधर्मत्वघ्नः धर्मकी अधर्मताका नाश करनेवाले (राक्षसोंके कारण धर्म भी अधर्मरूपमें परिणत हो रहा था, भगवान् रामने उन्हें मारकर धर्मको धर्मको पुनः अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित किया), 645 पुरुष्टुतः बहुत लोगों के द्वारा स्तुत होनेवाले, 646 नतिमात्रदशास्यारिः - नतमस्तक होनेतक ही रावणको शत्रु माननेवाले, 647 दत्तराज्यविभीषणः विभीषणको राज्य प्रदान ॥ 232 ॥
करनेवाले ॥ 232 ॥

सुधावृष्टिमृताशेषस्वसैन्यग्नीवनैककृत्

देवब्राह्मणनामैकधाता सर्वामरार्चितः ॥ 233 ॥

648 सुधावृष्टिमृताशेषस्वसैन्योज्जीवनैक कृत्-सुधाकी वर्षा कराकर अपने समस्त मरे हुए सैनिकोंको जीवन प्रदान करनेवाले, 649 देवब्राह्मण नामैकधाता - देवता और ब्राह्मणके नामोंके एकमात्र रक्षक, वे यदि न होते तो देवताओं एवं ब्राह्मणोंकानाम-निशान मिट जाता, 650 सर्वामराचितः सम्पूर्ण देवताओंसे पूजित ॥ 233 ॥ ब्रह्मसूर्येन्द्ररुद्रादिवृन्दार्पितसतीप्रियः

अयोध्याखिलराजाग्रयः सर्वभूतमनोहरः ॥ 234 ॥

651 ब्रह्मसूर्येन्द्ररुद्रादिवृन्दार्पितसतीप्रियः

ब्रह्मा, सूर्य, इन्द्र तथा रुद्र आदि देवताओंके समूहद्वारा शुद्ध प्रमाणित करके समर्पित की हुई सती सीताके प्रियतम् 652 अयोध्याखिलराजाग्रय: अयोध्यापुरीके सम्पूर्ण राजाओंगे अग्रगण्य, 653 सर्वभूतमनोहरः - अपने सौन्दर्य-माधुर्यके कारण सम्पूर्ण प्राणियोंका मन हरनेवाले ॥ 234 ॥

स्वाम्यतुल्यकृपादण्डो हीनोत्कृष्टैकसत्प्रियः ।

श्वपक्ष्यादिन्यायदर्शी हीनार्थाधिकसाधकः ॥ 235 ॥ 654 स्वाम्यतुल्यकृपादण्डः प्रभुताके अनुरूप ही कृपा करने और दण्ड देनेवाले, 655 हीनोत्कृष्टैकसत्प्रियः - ऊँच-नीच - सबके सच्चे प्रेमी, 656 श्वपक्ष्यादिन्यायदर्शी-कुत्ते और पक्षी आदिके प्रति भी न्याय प्रदर्शित करनेवाले, 657 हीनार्थाधिकसाधकः असहाय पुरुषोंके कार्यकी अधिक सिद्धि करनेवाले ॥ 235 वधव्याजानुचितकृत्तारकोऽखिलतुल्यकृत्

पावित्र्याधिक्यमुक्तात्मा प्रियात्यक्तः स्मरारिजित् ।। 236 ।। 658 वधव्याजानुचितकृत्तारकः - अनुचित कर्म करनेवाले लोगोंका वधके बहाने उद्धार करनेवाले, 659 अखिलतुल्यकृत्-सबके साथ उसकी योग्यताके अनुरूप बर्ताव करनेवाले, 660 पावित्र्याधिक्य मुक्तात्मा अधिक पवित्रताके कारण नित्यमुक्त स्वभाववाले 661 प्रियात्यक्तः प्रिय पत्नी सीतासे कुछ कालके लिये वियुक्त, 662 स्मरारिजित् कामदेवके शत्रु भगवान् शिवको भी जीतनेवाले ॥ 236 ॥ साक्षात्कुशलयच्छद्रावितो ापराजितः ।

कोसलेन्द्रो वीरबाहुः सत्यार्थत्यक्तसोदरः ॥ 237 ।। 663 साक्षात्कुशलवच्छावितः कुश और लबके रूपमें स्वयं अपने-आपसे युद्ध हार 664 अपराजितः - वास्तवमें कभीकिसीके द्वारा भी परास्त न होनेवाले, 665 कोसलेन्द्रः कोसलदेशके ऐश्वर्यशाली सम्राट् 666 वीरबाहुः शक्तिशालिनी भुजाओंसे युक्त, 667 सत्यार्थत्यक्त सोदरः - सत्यकी रक्षाके लिये अपने भाई लक्ष्मणका त्याग करनेवाले ॥ 237 ॥ शरसंधाननिर्धूतधरणीमण्डलो जयः ।

॥ 238 ॥ - ब्रह्मादिकामसांनिध्यसनाथीकृतदैवतः 668 शरसंधाननिर्धूतधरणीमण्डल:- बागोंके संधानसे समस्त भूमण्डलको कँपा देनेवाले, 669 जय:- विजयशील, 1670 ब्रह्मादि कामसांनिध्यसनाधीकृतदैवतः ब्रह्मा आदिको कामनाके अनुसार समीपसे दर्शन देकर समस्त देवताओंको सनाथ करनेवाले ॥ 238 ॥ ब्रह्मलोकाप्तचाण्डालाद्यशेषप्राणिसार्थकः ।

स्वनीतगर्दभश्वादिश्चियनैककृत् ॥ 239 ॥ 671 ब्रह्मलोकाप्तचाण्डालाद्यशेषप्राणि सार्थकः - चाण्डाल आदि समस्त प्राणियोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचाकर कृतार्थ करनेवाले 672 स्वनतगर्दभश्वादि: गदहे और कुत्ते आदिको भी स्वर्गलोकमें ले जानेवाले, 673 चिरायोध्यावनैककृत् — चिरकालतक अयोध्याकी एकमात्र रक्षा करनेवाले ॥ 239 ॥

राम्रो द्वितीयसौमित्रिलक्ष्मणः प्रहतेन्द्रजित् विष्णुभक्तः सरामाङ्घ्रिपादुकाराज्यनिर्वृतिः ॥ 240 ॥

674 रामः - मुनियोंका मन रमानेवाले भगवान् श्रीराम, 675 द्वितीयसौमित्रिः- सुमित्राकुमार लक्ष्मणको साथ रखनेवाले, 676 लक्ष्मणः - शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न लक्ष्मणरूप, 677 प्रहतेन्द्रजित् – लक्ष्मणरूपसे मेनका वध करनेवाले, 678 विष्णुभक्त: विष्णु के अवतारभूत भगवान् श्रीरामके भक्त भरतरूप, 679 सरामाङ्घ्रिपादुकाराज्यनिर्वृतिः — श्रीरामचन्द्रजीकी चरणपादुकाके साथ मिले हुए राज्यसे संतुष्ट होनेवाले भरतरूप ॥ 240 ॥

भरतोऽसगन्धर्वकोटिनो शत्रुनो वैद्यायुर्वेदगर्भाषधीपतिः ॥ 249 ॥

680 भरतः प्रजाका भरण-पोषण करनेवालेकैकेयीकुमार भरतरूप, 681 असह्यगन्धर्वकोटिघ्नः - करोड़ों दुःसह गन्धर्वोका वध करनेवाले, 682 लवणान्तकः - लवणासुरको मारनेवाले शत्रुघ्नरूप, 683 शत्रुघ्नः - शत्रुओंका वध करनेवाले सुमित्राके छोटे कुमार, 684 वैद्यराट् - वैद्योंके राजा धन्वन्तरिरूप, 685 आयुर्वेदगर्भौषधीपतिः- आयुर्वेदके भीतर वर्णित ओषधियोंके स्वामी ॥ 241 ॥ नित्यामृतक धन्वन्तरिर्यज्ञो

सूर्यारिघ्नः सुराजीवो दक्षिणेशो द्विजप्रियः ॥। 242 ।। 686 नित्यामृतकरः - हाथोंमें सदा अमृत लिये रहनेवाले, 687 धन्वन्तरिः – धन्वन्तरि नामसे प्रसिद्ध एक वैद्य, जो समुद्रसे प्रकट हुए और भगवान् नारायणके अंश थे, 688 यज्ञः - यज्ञस्वरूप, 689 जगद्धरः – संसारके पालक, 690 सूर्यारिघ्नः - सूर्यके शत्रु (केतु) को मारनेवाले, 691 सुराजीव: - अमृतके द्वारा देवताओंको जीवन प्रदान करनेवाले, 692 दक्षिणेश: – दक्षिणदिशाके स्वामी धर्मराजरूप, 693 द्विजप्रियः - ब्राह्मणोंके प्रियतम ॥ 242 ॥

छिन्नमूर्धापदेशार्कः शेषाङ्गस्थापितामरः

विश्वार्थाशेषकृद्राहुशिरश्छेत्ताक्षताकृतिः ll 694 ll छिन्नमूर्धापदेशार्क:- जिसका मस्तक कटा हुआ है तथा जो कहनेमात्रके लिये सूर्य- 'स्वर्भानु' नाम धारण करता है, ऐसा राहु नामक ग्रह, 695 शेषाङ्गस्थापितामरः – जिसके शेष अंगोंमें अमरत्वकी स्थापना हुई है, ऐसा राहु, 696 विश्वार्थाशेषकृत् संसारके सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाले भगवान्, 697 राहुशिरश्छेत्ता- राहुका मस्तक काटनेवाले, 698 अक्षताकृतिः - स्वयं किसी प्रकारकी भी क्षतिसे रहित शरीरवाले ॥ 243 ।। ॥ 243 ॥

वाजपेयादिनामाग्निर्वेदधर्मपरायणः

श्वेतद्वीपपति: सांख्यप्रणेता सर्वसिद्धिराट् ॥ 244 ॥ 699 वाजपेयादिनामाग्निः - वाजपेय आदिनाम धारण अग्निदेवता, वेदधर्मपरायणः - वेदोक्त धर्मके परम आश्रय करनेवाले श्वेतद्वीपपति:- श्वेतद्वीपके स्वामी,
सांख्यप्रणेता-सांख्यशास्त्रकी कपिलस्वरूप, 703 सर्वसिद्धिराद्-सम्पूर्ण सिद्धियोंके रचना करनेवाले
राजा ॥ 244 ॥ विश्वप्रकाशितज्ञानयोगमोहतमिस्त्रहा
देवहूत्यात्मजः सिद्धः कपिलः कर्दमात्मजः ॥ 245 ।।

704 विश्वप्रकाशितज्ञानयोगमोहतमित्रहा संसारमें ज्ञानयोगका प्रकाश करके मोहरूपी अन्धकारका नाश करनेवाले, 705 देवहूत्यात्मजः मनुकुमारी देवहूतिके पुत्र, 706 सिद्धः - सब प्रकारकी सिद्धियोंसे परिपूर्ण, 707 कपिल:- कपिल नामसे प्रसिद्ध भगवान्के अवतार, 708 कर्दमात्मजः - कर्दम ऋषिके सुयोग्य पुत्र ।। 245 ।। योगस्वामी ध्यानभङ्गसगरात्मजभस्मकृत् ।

धर्मो वृषेन्द्रः सुरभीपतिः शुद्धात्मभावितः ॥ 246 ॥ 709 योगस्वामी - सांख्ययोगके स्वामी, 710 ध्यानभङ्गसगरात्मजभस्मकृत् - ध्यान भंग होनेसे सगर पुत्रोंको भस्म कर डालनेवाले, 711 धर्मः - जगत्‌को धारण करनेवाले धर्मके स्वरूप, 712 वृषेन्द्रः - श्रेष्ठ वृषभकी आकृति धारण करनेवाले, 713 सुरभीपतिः - सुरभी गौके स्वामी, 714 शुद्धात्मभावितः - शुद्ध अन्तःकरणमें चिन्तन किये जानेवाले ॥ 246 ॥

शम्भुस्त्रिपुरदाहैकस्थैर्यविश्वरथोद्वहः भक्तशम्भुजितो
दैत्यामृतवापीसमस्तपः ॥ 247 ॥ 715 शम्भुः - कल्याणकी उत्पत्तिके स्थानभूत, शिवस्वरूप, 716 त्रिपुरदाहैकस्थैर्यविश्वरथोद्वहः - त्रिपुरका दाह करनेके समय एकमात्र स्थिर रहनेवाले और विश्वमय रथका वहन करनेवाले, 717 भक्तशम्भुजितः - अपने भक्त शिवके द्वारा पराजित,718 दैत्यामृतवापीसमस्तपः – त्रिपुरनिवासी दैत्योंकी अमृतसे भरी हुई सारी बावलीको गोरूपसे पी जानेवाले ॥ 247 ॥

स्वरूप, 719 महाप्रलयविश्वैकनिलयः - महाप्रलयके समय सम्पूर्ण विश्वके एकमात्र निवासस्थान, 720 अखिलनागराट् – सम्पूर्ण नागोंके राजा शेषनाग स्वरूप 721 शेषदेव - प्रलयकालमें भी शेष रहनेवाले देवता, 722 सहस्राक्षः सहस्रों नेत्रवाले, 723 सहस्रास्यशिरोभुजः सहस्रों मुख, मस्तक और भुजाओंवाले ॥ 248 ।। फणामणिकणाकारयोजिताच्छाम्बुदक्षितिः ।

महाप्रलयविश्वैकनिलयोऽखिलनागराट् सहस्राक्षः सहवास्यशिरोभुजः ॥ 248 ll

कालाग्निरुद्रजनको मुशलास्त्रो हलायुधः 249 ।। 724 फणामणिकणाकारयोजिताच्छाम्बुद क्षितिः - फनॉकी मणियोंके कणोंके आकारसे पृथ्वीपर श्वेत बादलोंकी घटा-सी छा देनेवाले, 725 कालाग्निरुद्रजनकः भयंकर कालाग्नि एवं संहारमूर्ति रुद्रको प्रकट करनेवाले, 726 मुशलास्त्रः - मुशलको अस्वरूपमें ग्रहण करनेवाले शेषावतार बलरामरूप, 727 हलायुधः - हलरूपी आयुधवाले ॥ 249 ।। नीलाम्बरो वारुणीशो मनोवाक्कायदोषहा।

असंतोषदृष्टिमात्रपातितैकदशाननः ॥ 250 ॥ 728 नीलाम्बर:- नीलवस्त्रधारी, 729 वारुणीश: – वारुणीके स्वामी, 730 मनोवाक्काय दोषहा – मन, वाणी और शरीरके दोष दूर करनेवाले, 731 असंतोषदृष्टिमात्रपातितैकदशाननः - असंतोषपूर्ण दृष्टि डालनेमात्रसे ही पातालमें गये हुए रावणको गिरा देनेवाले शेषनागरूप 250 बिलसंयमनो घोरो रौहिणेयः प्रलम्बा।

पुष्टिकानो द्विविदा कालिन्दीकर्षणो बलः ।। 251 ॥ 732 बिलसंयमनः सातों पाताललोकोंको काबू रखनेवाले 733 घोरः प्रलयके समय भयंकर आकृति धारण करनेवाले, 734 रौहिणेयः रोहिणी पुत्र, 735 प्रलम्बा प्रलम्ब दानवकोमारनेवाले, 736 मुष्टिकघ्नः - मुष्टिकके प्राण लेनेवाले, 737 द्विविदहा - द्विविद नामक वीर वानरका वध करनेवाले, 738 कालिन्दीकर्षणः- यमुनाकी धाराको खींचनेवाले, 739 मूर्तिमान् स्वरूप ॥ 251 ॥

रेवतीरमणः पूर्वभक्तिखेदाच्युताग्रजः ।

देवकीवसुदेवाह्वकश्यपादितिनन्दनः ।। 252 ।। 740 रेवतीरमण:- अपनी पत्नी रेवतीके साथ रमण करनेवाले, 741 पूर्वभक्तिखेदाच्युताग्रज: पूर्वजन्ममें लक्ष्मणरूपसे भगवान्‌की निरन्तर सेवा करते करते थके रहनेके कारण दूसरे जन्ममें भगवान्की इच्छासे उनके ज्येष्ठ बन्धुके रूपमें अवतार लेनेवाले बलरामरूप, 742 देवकीवसुदेवाह्वकश्यपादिति नन्दनः- वसुदेव और देवकीके नामसे प्रसिद्ध महर्षि कश्यप और अदितिको पुत्ररूपसे आनन्द देनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण 252 वार्ष्णेयः सात्वतां श्रेष्ठः शौरिर्यदुकुलेश्वरः ।

नराकृतिः परं ब्रह्म सव्यसाचिवरप्रदः ।। 253 ॥ 743 वार्ष्णेयः - वृष्णिकुलमें उत्पन्न 744 सात्वतां श्रेष्ठः - सात्वतकुलमें सर्वश्रेष्ठ, 745 शौरिः - शूरसेनके कुलमें अवतीर्ण, 746 यदुकुलेश्वरः - यदुकुलके स्वामी, 747 नराकृतिः - मानव-शरीर धारण करनेवाले श्रीकृष्ण, 748 परं ब्रह्म-वस्तुतः परमात्मा, 749 सव्यसाचिवरप्रदः - अर्जुनको वर देनेवाले ॥ 253 ॥ ब्रह्मादिकाम्यलालित्यजगदाश्चर्यशैशवः ।

पूतनाघ्नः शकटभिद्यमलार्जुनभञ्जकः ॥ 254 ॥ 750 ब्रह्मादिकाम्यलालित्यजगदाश्चर्यशैशवः - ब्रह्मा आदि भी जिन्हें देखनेकी इच्छा रखते हैं तथा जो सम्पूर्ण जगत्को आश्चर्यमें डालनेवाली हैं, ऐसी ललित बाललीलाओंसे युक्त श्रीकृष्ण, 751 पूतनाघ्नः - पूतनाके प्राण लेनेवाले, 752 शकटभित्-लातके हलके आघातसे छकड़ेको चकनाचूर कर देनेवाले, 753 यमलार्जुनभञ्जकः- यमलार्जुन नामसे प्रसिद्ध दो जुड़वें वृक्षोंको तोड़ डालनेवाले ॥ 254 ॥वातासुरारिः केशिघ्नो धेनुकारिर्गवीश्वरः । दामोदरो गोपदेवो

यशोदानन्ददायकः ।। 255 ।। शत्रु, 754 वातासुरारि:-तृणावर्तके 755 केशिनः केसी नामक दैत्यको मारनेवाले, 756 धेनुकारि धेनुकासुर के शत्रु 757 गवीश्वरः गौओंके स्वामी, 758 दामोदरः उदरमें यशोदा मैवाद्वारा रस्सी बांधी जानेके कारण दामोदर नाम धारण करनेवाले, 759 गोपदेवः - ग्वालोंके इष्टदेव, 760 यशोदानन्ददायकः - यशोदा मैयाको आनन्द देनेवाले ॥ 255 ॥

कालीयमर्दनः सर्वगोपगोपीजनप्रियः । लीलागोवर्धनधरो गोविन्दो गोकुलोत्सवः ॥ 256 ॥

761 कालीयमर्दनः - कालिय नागका मान मर्दन करनेवाले, 762 सर्वगोपगोपीजनप्रियः समस्त गोपों और गोपियोंके प्रियतम, 763 लीलागोवर्धनधर:- अनायास ही गोवर्धनपर्वतको अंगुलीपर उठा लेनेवाले, 764 गोविन्दः - इन्द्रकी वर्षासे गौओंकी रक्षा करनेके कारण कामधेनुद्वारा 'गोविन्द' पदपर अभिषिक्त भगवान् श्रीकृष्ण, 765 गोकुलोत्सवः गोकुलनिवासियोंको निरन्तर आनन्द प्रदान करनेके कारण उत्सवरूप ॥ 256 ॥ अरिष्टमश्चनः कामोन्मत्तगोपीविमुक्तिदः ।

सद्यः कुवलयापीडघाती चाणूरमर्दनः ॥ 257 ।। 766 अरिष्टमथनः अरिष्टासुरको नष्ट करनेवाले 767 कामोन्मत्तगोपीविमुक्तिदः प्रेमविभोर गोपीको मुक्ति प्रदान करनेवाले, 768 सद्यः कुवलयापीडघाती - कुवलयापीड नामक हाथीको शीघ्र मार गिरानेवाले, 769 चाणूरमर्दनः चापूर नामक मल्लको कुचल डालनेवाले ॥ 257 ॥ कंसारिरुग्रसेनादिराज्यव्यापारितामरः

सुधर्माङ्कितभूलोको जरासंधबलान्तकः ॥ 258 ॥ 770 कंसारिः - मथुराके राजा कंसके शत्रु 701 उग्रसेनादिराज्यव्यापारितामरः राज्य सम्बन्धी कार्योंमें उग्रसेन आदिके रूपमें देवताओंको ही नियुक्त करनेवाले, 772 सुधर्माङ्कितभूलोकः - देवोचितसुधर्मा नामक सभासे भूलोकको भी सुशोभित करनेवाले, 773 जरासंधबलान्तकः - जरासंधी सेनाका संहार करनेवाले ॥ 258 ॥ त्यक्तभग्नजरासंधो

भीमसेनयशः प्रदः कालान्तकादिजित् ।। 259 ॥

सांदीपनिमृतापत्यदाता 774 त्यक्तभग्नजरासंध: - युद्धसे भगे जरासंधको जीवित छोड़ देनेवाले, 775 भीमसेन यशः प्रदः - युक्तिसे जरासंधका वध कराकर भीमसेनको यश प्रदान करनेवाले, 776 सांदीपनिमृतापत्यदाता अपने विद्यागुरु सांदीपनिके मरे हुए पुत्रको पुनः ला देनेवाले, 777 कालान्तकादिजित्- काल और अन्तक आदिपर विजय पानेवाले ॥ 259 ॥

समस्तनारकत्राता सर्वभूपतिकोटिजित् ।

रुक्मिणीरमणो रुक्मिशासनो नरकान्तकः ॥ 260 ॥ पड़े हुए समस्त प्राणियोंका भी उद्धार करनेवाले, 779 सर्वभूपतिकोटिजित्-रुक्मिणीके विवाह में करोड़ोंकी संख्यामें आये हुए समस्त राजाओंको परास्त करनेवाले, 780 रुक्मिणीरमणः - रुक्मिणीके साथ रमण करनेवाले, 781 रुक्मिशासन: रुक्मीको दण्ड देनेवाले, 782 नरकान्तकः- नरकासुरका विनाश करनेवाले ॥ 260 ॥

778 समस्तनारकत्राता-शरणमें आनेपर नरकमे समस्तसुन्दरीकान्तो मुरारिर्गरुडध्वजः एकाकिजितरुद्रार्कमरुदाद्यखिलेश्वरः ॥ 261 ॥

783 समस्तसुन्दरीकान्तः - समस्त सुन्दरियाँ जिन्हें पानेकी इच्छा करती हैं, 784 मुरारिः - मुर नामक दानवके शत्रु, 785 गरुडध्वजः - गरुड़के | चिह्नसे चिह्नित ध्वजावाले, 786 एकाकिजितरुद्रार्क मरुदाद्यखिलेश्वरः - अकेले ही रुद्र, सूर्य और वायु आदि समस्त लोकपालोंको जीतनेवाले ॥ 261 ॥ कल्पद्रुमालङ्कृतभूतलः । देवेन्द्रदर्पहा

बाणबाहुसहस्त्रच्छिन्नन्द्यादिगणकोटिजित् 787 देवेन्द्रदर्पहा - देवराज इन्द्रका अभिमान चूर्ण करनेवाले, 788 कल्पद्रुमालङ्कृतभूतलः कल्पवृक्षको स्वर्गसे लाकर उसके द्वारा भूतलकी शोभाबढ़ानेवाले, 789 बाणबाहुसहस्त्रच्छित्-बाणासुरकी सहस्र भुजाओंका उच्छेद करनेवाले, 790 नन्द्यादि गणकोटिजित् नन्दी आदि करोड़ों शिवगणोंको परास्त करनेवाले ॥ 262 ॥ लीलाजितमहादेवो इन्द्रार्थार्जुननिर्भङ्गजयदः महादेवैकपूजितः ।

पाण्डवैकधृक् ।। 263 ।। लीलाजितमहादेवः - अनायास ही 791 794 महादेवजीपर विजय पानेवाले, 792 महादेवैक पूजितः – महादेवजीके द्वारा एकमात्र पूजित, 793 इन्द्रार्थार्जुननिर्भङ्गजयदः – इन्द्रकी प्रसन्नताके लिये अर्जुनको अखण्ड विजय प्रदान करनेवाले, पाण्डवैकधृक्- पाण्डवोंके एकमात्र रक्षक 263 ॥ काशिराजशिरश्छेत्ता रुद्रशक्त्येकमर्दनः

वेश्वरप्रसादा काशिराजसुतार्दनः ।। 264 ।। 795 काशिराजशिरश्छेत्ता – काशिराजका मस्तक काट देनेवाले, 796 रुद्रशक्त्येकमर्दनः- रुद्रकी शतिके एकमात्र विश्वेश्वरप्रसादाढ्यः - काशीविश्वनाथकी प्रसन्नता प्राप्त करनेवाले, 798 काशिराजसुतार्दनः काशीनरेशशके पुत्रको पीड़ा देनेवाले ॥ 264 ॥ शम्भुप्रतिज्ञाविध्वंसीकाशीनिर्दग्धनायकः मर्दन करनेवाले, 797

काशीशगणकोटिनो लोकशिक्षाद्विजार्थकः ।। 265 ।। 799 शम्भुप्रतिज्ञाविध्वंसी- शंकरजीकी प्रतिज्ञा दोड़नेवाले, 800 काशीनिर्दग्धनायकः- जिन्होंने काशीको जलाकर अनाथ-सी कर दिया था, वे भगवान् श्रीकृष्ण, 801 काशीशगणकोटिन: काशीपति विश्वेश्वरके करोड़ों गणका नाश करनेवाले, 1802 लोकशिक्षाद्विजार्चक:- लोकको शिक्षा देनेके लिये सुदामा आदि ब्राह्मणोंकी पूजा करनेवाले ॥ 265 ॥ शिवतीव्रतपोवश्यः पुराशिववरप्रदः शङ्करैकप्रतिष्ठाधृक्स्वांशशङ्करपूजकः ।। 266 ।।

803 शिवतीव्रतपोवश्यः- शिवजीकी तीव्र तपस्याके वशीभूत होनेवाले 804 पुराशिववरप्रदः पूर्वकालमें शिवजीको वरदान देनेवाले, 805 शङ्करैकप्रतिष्ठाधृक् – भगवान् शंकरकी एकमात्रप्रतिष्ठा करनेवाले, 806 - स्वांशशङ्करपूजक:- अपने अंशभूत शंकरकी पूजा करनेवाले ॥ 266 ॥

शिवकन्याव्रतपतिः कृष्णरूपविारिहा।

महालक्ष्मीपुरीत्राता 807 शिवकन्याव्रतपतिः शिवकी कन्याके व्रतकी रक्षा करनेवाले, 808 कृष्णरूपशिवारिहा कृष्णरूपसे शिवके शत्रु ( भस्मासुर) का संहार करनेवाले, 809 महालक्ष्मीवपुर्गौरीत्राता— महालक्ष्मीका शरीर धारण करनेवाली पार्वतीके रक्षक, 810 वैदलवृत्रहा — वैदलवृत्र नामकः दैत्यका वध करनेवाले ॥ 267 ॥ वैदलवृत्रहा ।। 267 ।।स्वधाममुचुकुन्दैकनिष्कालयवनेष्टकृत् ।

यमुनापतिरानीतपरिलीनद्विजात्मजः ॥ 268 ॥

811 स्वधाममुचुकुन्दैकनिष्कालयवनेष्ट कृत्- अपने तेज: स्वरूप राजा मुचुकुन्दके द्वारा केवल कालयवनका नाश कराकर उन्हें अभीष्ट वरदान देनेवाले, 812 यमुनापतिः सूर्यकन्या यमुनाको पत्नीरूपसे ग्रहण करनेवाले, 813 आनीतपरिलीनद्विजात्मजः मरे हुए ब्राह्मणपुत्रोंको -
पुनः लानेवाले ॥ 268 ॥

श्रीदामभक्तार्थभूम्यानीतेन्द्रवैभवः दुर्वृत्तशिशुपालैकमुक्तिदो द्वारकेश्वरः ।। 269 ।।

814 श्रीदामरङ्कभक्तार्थभूम्यानीतेन्द्रवैभवः अपने दोन भक्त श्रीदामा (सुदामा) के लिये पृथ्वीपर इन्द्रके समान वैभव उपस्थित करनेवाले, 815 दुर्वृत्तशिशुपालैकमुक्तिदः - दुराचारी शिशुपालको एकमात्र मोक्ष प्रदान करनेवाले, 816 द्वारकेश्वर: द्वारकाके स्वामी ॥ 269 ।।

आचाण्डालादिकप्राप्यद्वारकानिधिकोटिकृत् । अक्रूरोद्धवमुख्यैकभक्तः स्वच्छन्दमुक्तिदः ।। 270 ।।

आचाण्डालादिकप्राप्यद्वारकानिधि कोटिकृत् द्वारकामे चाण्डाल आदितकके लिये सुलभ होनेवाली करोड़ों निधियोंका संग्रह करनेवाले, 818 अक्रूरोद्धवमुख्यैकभक्तः - अक्रूर और उद्धव आदि प्रधान भक्तोंके साथ रहनेवाले, 819 स्वच्छन्दमुक्तिदः - इच्छानुसार मुक्ति देनेवाले ॥ 270 ॥ सबालस्त्रीजलक्रीडामृतवापीकृतार्णवः । ब्रह्मास्त्रदग्धगर्भस्थपरीक्षिज्जीवनैककृत् ॥ 271 ।।

820 सवालस्वीजलक्रीडामृतवापीकृतार्णवः बालकों और स्त्रियोंके जल-विहार करनेके लिये समुद्रको अमृतमयी बावलीके समान बना देनेवाले, 821 ब्रह्मास्त्रदग्धगर्भस्थपरीक्षिज्जीवनैककृत् अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे दग्ध हुए गर्भस्थ परीक्षित्‌को एकमात्र जीवन - दान देनेवाले ॥ 279 ॥ परिलीनद्विजसुतानेतार्जुनमदापहः

गूढमुद्राकृतिग्रस्त भीष्माद्यखिलकौरव: ॥ 272 ॥ 822 परिलीनद्विजसुतानेता - नष्ट हुए ब्राह्मणकुमारों को पुनः ले आनेवाले, 823 अर्जुनमदापहः- अर्जुनका घमंड दूर करनेवाले, 824 गूढमुद्रकृतिग्रस्त भीष्माद्यखिलकौरवः गम्भीर मुद्रावाली आकृति बनाकर भीष्म आदि समस्त कौरवोंको कालका ग्रास बनानेवाले ॥ 272 ॥ यथार्थखण्डिताशेषदिव्यास्त्रपार्थमोहत्
गर्भशापच्छलध्वस्तपादयोर्वाभरापहः

॥ 273 ॥

825 यथार्थखण्डिताशेषदिव्यास्त्रपार्थमोहत् समस्त दिव्यास्त्रोंका भलीभाँति खण्डन करनेवाले अर्जुनके मोहको हरनेवाले, 826 गर्भशापच्छलध्वस्तयादयोवीभरापहः स्त्रीरूप धारण करके गये हुए साम्बके गर्भको मुनियोंद्वारा शाप दिलाने के बहाने पृथ्वीके भारभूत समस्त यादवोंका संहार करानेवाले ॥ 273 ॥

जराव्याधारिगतिदः स्मृतमात्राखिलेष्टदः

कामदेवो रतिपतिमन्मथः शम्बरान्तकः ॥ 274 ॥ 827 जराव्याधारिगतिदः – शत्रुका करनेवाले जरा नामक व्याधको उत्तम गति प्रदान करनेवाले, 828 स्मृतमात्राखिलेष्टदः - स्मरण करनेमात्र से सम्पूर्ण अभीष्ट पदार्थोंको देनेवाले, 829 कामदेवः कामदेवस्वरूप 830 रतिपति: रतिके स्वामी, 839 मन्मथः – विचारशक्तिका नाश करनेवाले कामदेवरूप, 832 शम्बरान्तकःशम्बरासुरके प्राणहन्ता ॥ 274 ॥ अनङ्गो जितगरीशो रतिकान्तः सदेशितः । कामेश्वरीप्रियः ।। 275 ।। पुष्पेषुर्विश्वविजयी

833 अन अंगरहित, 834 जितगौरीश गौरीपति शंकरको भी जीतनेवाले, 835 रतिकान्तः रतिके प्रियतम, 836 सदेप्सितः - कामी पुरुषोंको सदा अभीष्ट 837 पुष्येषुः पुष्पमय बाणवाले, 838 विश्वविजयी- सम्पूर्ण जगत्पर विजय पानेवाले, 839 स्मरः - विषयोंके स्मरणमात्रसे मनमें प्रकट हो जानेवाले, 840 कामेश्वरीप्रियः कामेश्वरी रतिके प्रेमी 275 ॥ ऊषापतिर्विश्यकेतुर्विश्वतृप्तोऽधिपूरुषः

चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्युगविधायकः ॥ 276 ॥ 849 ऊषापतिः बाणासुरकी कन्या ऊषाके स्वामी अनिरुद्धरूप, 842 विश्वकेतुः विश्वमें विजयपताका फहरानेवाले, 843 विश्यतृप्तः - सब ओरसे तृप्त, 844 अधिपूरुषः अन्तर्यामी साक्षी चेतन, 845 चतुरात्मा- मन, बुद्धि, अहंकार और चित्तरूप चार अन्तःकरणवाले, 846 चतुर्व्यूहः वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध - इन - चार व्यूहोंसे युक्त, 840 चतुर्युगविधायक:- सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग-इन चार युगका विधान करनेवाले ॥ 276 ॥

चतुर्वेदैकविश्वात्मा सर्वोत्कृष्टांशकोटिसूः

आश्रमात्मा पुराणर्षिर्व्यासः शाखासहस्त्रकृत् ॥ 277 ॥ 848 चतुर्वेदेकविश्वात्मा चारों वेदोंद्वारा प्रतिपादित एकमात्र सम्पूर्ण विश्वके आत्मा 849 सर्वोत्कृष्टांशकोटिसूः - सबसे श्रेष्ठ कोटि-कोटि अंशोंको जन्म देनेवाले, 850 आश्रमात्मा आश्रमधर्मरूप 851 पुराणर्षिः - पुराणोंके प्रकाशक ऋषि, 852 व्यासः - वेदोका विस्तार करनेवाले, 853 शाखासहस्वकृत् सामवेदको सहस्र शाखाओंका सम्पादन करनेवाले ॥ 277 ॥ महाभारतनिर्माता कवीन्द्रो बादरायणः ।
कृष्णद्वैपायनः सर्वपुरुषार्थैकबोधकः 278 ॥854 महाभारतनिर्माता महाभारत ग्रन्थके रचयिता 855 कवीन्द्रः कवियोंके राजा, 856 बादरायणः बदरी-वनमें उत्पन्न भगवान् वेदव्यासरूप, 857 कृष्णद्वैपायनः- द्वीपमें उत्पन्न श्यामवर्णवाले व्यासजी, 858 सर्वपुरुषार्थैकबोधकः - समस्त पुरुषार्थीके एकमात्र बोध करानेवाले ॥ 278 ॥ वेदान्नकर्ता ब्रह्मैकव्यञ्जकः पुरुवंशकृत् ।

बुद्धो ध्यानजिताशेषदेवदेवी जगत्प्रियः 279 859 वेदान्तकर्ता वेदान्तसूत्रों के रचयिता, 860 ब्रह्मैकव्यञ्जकः एक अद्वितीय ब्रह्मकी अभिव्यक्ति करानेवाले, 861 पुरुवंशकृत् — पुरुवंशकी परम्परा सुरक्षित रखनेवाले, 862 बुद्धः – भगवान्के अवतार बुद्धदेव, 863 ध्यानजिताशेषदेवदेवीजगत्प्रियः ध्यानके द्वारा समस्त देव-देवियोंको जीतकर जगत्के प्रियतम बननेवाले ॥ 279 ॥ निरायुधो जगज्जैत्रः श्रीधनो दुष्टमोहनः

दैत्यवेदबहिष्कर्ता वेदार्थश्रुतिगोपकः 280 ॥

864 निरायुधः - अस्त्र-शस्त्रोंका त्याग करनेवाले, 865 जगज्जैत्रः – सम्पूर्ण जगत्को वशमें करनेवाले, 866 श्रीधनः- शोभाके धनी, 867 दुष्टमोहन: दुष्टोंको मोहित करनेवाले, 868 दैत्यवेदवहिष्कर्ता दैत्योंको वेदसे बहिष्कृत करनेवाले, 869 वेदार्थश्रुतिगोपकः - वेदोंके अर्थ और श्रुतियोंको गुप्त रखनेवाले 280 शौद्धोदनिष्टदिष्टः सुखदः सदसस्पतिः ।

यथायोग्याखिलकृपः सर्वशून्योऽखिलेष्टदः ॥ 289 ।। 870 शौद्धोदनिः - कपिलवस्तुके राजा शुद्धोदनके पुत्र, 879 दृष्टदिष्टः दैवके विधानको प्रत्यक्ष देखनेवाले, 872 सुखदः- सबको सुख देनेवाले, 873 सदसस्पतिः - सत्पुरुषोंकी सभाके अध्यक्ष, 874 यथायोग्याखिलकृपः - यथायोग्य सम्पूर्ण जीवोंपर कृपा रखनेवाले, 875 सर्वशून्यः - सम्पूर्णपदार्थोंको शून्यरूप ही माननेवाले,
अखिलेप्टदः सबको सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ देनेवाले ॥ 281 ॥

चतुष्कोटिपृथक्तत्त्वप्रज्ञापारमितेश्वरः

पाखण्डवेदमार्गेश: पाखण्डतिगोपकः ॥ 282 ॥

877 चतुष्कोटिपृथक् - स्थावर आदि चार श्रेणियोंमें विभक्त हुई सृष्टिसे पृथक्, 878 तत्त्व प्रज्ञापारमितेश्वरः- तत्त्वभूत प्रज्ञापारमिता (बुद्धिकी पराकाष्ठा) के ईश्वर, 879 पाखण्डवेदमार्गेश: पाखण्ड-वेदमार्गक स्वामी, 880 पाखण्डअतिगोपक: पाखण्ड के द्वारा प्रतिपादित वेदकी श्रुतियोंके रक्षक ॥ 282 ॥ कल्की विष्णुयशः पुत्रः कलिकालविलोपकः ।

समस्तम्लेच्छदुष्टानः सर्वशिष्टद्विजातिकृत् ॥ 283 ॥ 881 कल्की - कलियुगके अन्तमें होनेवाला भगवान्का एक अवतार, 882 विष्णुयशः पुत्रः श्रीविष्णुपरा के पुत्र भगवान् कल्कि, 883 कलिकाल विलोपक:- कलियुगका लोप करके सत्ययुगका प्रवेश करानेवाले, 884 समस्तम्लेच्छदुष्टघ्नः - सम्पूर्ण म्लेच्छों और दुष्टोंका वध करनेवाले, 885 सर्वशिष्टद्विजातिकुत्-सबको श्रेष्ठ द्विज बनानेवाले अथवा समस्त साधु द्विजातियोंके रक्षक ॥। 283 ।। सत्यप्रवर्तको देवद्विजदीर्घक्षुधापहः ।

अश्ववारादिरेकान्तपृथ्वीदुर्गतिनाशनः 886 सत्यप्रवर्तकः - सत्ययुगकी प्रवृत्ति करानेवाले, 887 देवद्विजदीर्घक्षुधापहः - [ यज्ञ और ब्राह्मणभोजन आदिका प्रचार करके] देवताओं और ब्राह्मणोंकी बढ़ी हुई भूखको शान्त करनेवाले, 888 अश्ववारादिः - घुड़सवारोंमें श्रेष्ठ, 889 एकान्तपृथ्वीदुर्गतिनाशन:- पृथ्वीकी दुर्गतिका पूर्णतया नाश करनेवाले ॥ 284 ॥

सद्यः क्ष्मानन्तलक्ष्मीकृनष्टनिःशेषधर्मवित्
अनन्तस्वर्णयागेकडेमपूर्णाखिलद्विजः ।। 285 ।।

890 सद्यःक्ष्मानन्तलक्ष्मीकृत् — पृथ्वीको शीघ्र ही अनन्त लक्ष्मीसे परिपूर्ण करनेवाले, 891 नष्टनिःशेषधर्मवित्-नष्ट हुए सम्पूर्ण धर्मोके ज्ञाता, 892 अनन्तस्वर्णयागकहेमपूर्णाखिलद्विजः अनन्त सुवर्गको दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञका अनुष्ठान कराकर सम्पूर्ण ब्राह्मणोंको स्वर्णसे सम्पन्न करनेवाले ॥ 285 ॥ असाध्यैकजगच्छास्ता विश्वबन्धो जयध्वजः । आत्मतत्त्वाधिपः कर्तृश्रेष्ठो विधिरुमापतिः ।। 286 ।।

893 असाध्यैकजगच्छास्ता किसीके वशमें न होनेवाले सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र शासक, 894 विश्वबन्धः - समस्त विश्वको अपनी मायासे बाँध रखनेवाले, 895 जयध्वजः सर्वत्र अपनी विजयपताका फहरानेवाले, 896 आत्मतत्त्वाधिपः आत्मतत्त्वके स्वामी, 897 कर्तृश्रेष्ठः - कर्ताओंमें श्रेष्ठ, 898 विधिः- शास्त्रीय विधिरूप, 899 उमापतिः - उमाके स्वामी 286 भर्तृश्रेष्ठः प्रजेशाग्रयो मरीचिर्जनकाग्रणीः 904 कश्यपो देवराडिन्द्रः प्रह्लादो दैत्यराट् शशी ॥ 287 ॥ 900 भर्तृश्रेष्ठ:- भरण-पोषण करनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ 109 प्रजेशाख्यः प्रजापतियोंमें अग्रगण्य 902 मरीचिः - मरीचि नामक प्रजापतिरूप, 903 जनकाग्रणीः -जन्म देनेवाले प्रजापतियोंमें श्रेष्ठ, कश्यपः -सर्वद्रष्टा कश्यपमुनिस्वरूप, 905 देवराट् देवताओंके राजा, 106 इन्द्रः परम ऐश्वर्यशाली इन्द्रस्वरूप, 907 प्रह्लाद: भगवद्भतिके प्रभाव अत्यन्त आह्लादपूर्ण रानी कयाधूके पुरुष 908 दैत्यराट् दैत्योंके स्वामी प्रह्लादरूप, 909 शशी- खरगोशका चिह्न धारण करनेवाले चन्द्रमारूप ॥ 287 ॥

नक्षत्रेशो रविस्तेजः श्रेष्ठः शुक्रः कवीश्वरः। बलिस्वराट् ॥ 288 ॥

110 नक्षत्रेश:-नक्षत्रोंके स्वामी चन्द्रमारूप 111 रविः सूर्यस्वरूप, 992 तेजः श्रेष्ठ: तेजस्वियोंमें सबसे श्रेष्ठ, 113 शुक्रः भृगुके पुत्र शुक्राचार्यस्वरूप 114 कवीश्वरः कवियोंके स्वामी,115] महर्षिरा महर्षियोंमें अधिक तेजस्वी, 916 भृगुः ब्रह्माजी के पुत्र प्रजापति भृगुस्वरूप, 917

विष्णुः - बारह आदित्योंमेंसे एक, 918 आदित्येश: बारह आदित्योंके स्वामी 999 बलिस्वराट् बलिको इन्द्र बनानेवाले ॥ 288 ।।

वायुर्वनिः शुचिश्रेष्ठः शङ्करो रुद्रराङ्गुरुः । गन्धर्वाप्रयोऽक्षरोत्तमः ।। 289 ।।

विद्वत्तमश्चित्ररथो 920 वायुः वायुतत्त्वके अधिष्ठाता देवता 921 वह्निः - अग्नितत्त्वके अधिष्ठाता देवता, 922 शुचिश्रेष्ठः पवित्रोंमें श्रेष्ठ 923 शङ्करः सबका कल्याण करनेवाले शिवरूप, 924 रुद्रराट् — ग्यारह रुद्रोंके स्वामी, 925 गुरुः- गुरु नामसे प्रसिद्ध अंगिरापुत्र बृहस्पतिरूप, 926 विद्वत्तमः - सर्वश्रेष्ठ विद्वान्, 927 चित्ररथः - विचित्र रथवाले गन्धर्वोके राजा, 928] गन्धर्वाधः- गन्धवों में चित्ररथरूप 129 अक्षरोत्तमः अक्षरोंमें उत्तम - अग्रगण्य 'ॐ कारस्वरूप 289 ॥

वर्णादिरस्त्री गौरी शक्त्यग्रथा श्रीश्च नारदः । देवर्षिराट्पाण्डवाग्रयोऽर्जुनो वादः प्रवादराट् ॥ 290 ॥

930 वर्णादिः - समस्त अक्षरोंके आदिभूत अकारस्वरूप, 931 अग्रयस्त्री-स्त्रियोंमें अग्रगण्य सती पार्वतीरूप, 932 गौरी-गौरवर्णा उमारूप, 933 शक्त्यग्रथा - भगवान्‌की अन्तरंगा शक्तियोंमें सर्वश्रेष्ठ भगवती लक्ष्मीरूप, 934 श्री:- भगवान् विष्णुका आश्रय लेनेवाली लक्ष्मी, 935 नारदः सबको ज्ञान देनेवाले देवर्षि नारद 136 देवर्षिराट् देवर्षियोंके राजा, 937 पाण्डवाग्रय: पाण्डवोंमें अपने गुणोंके कारण श्रेष्ठ अर्जुनरूप, 938 अर्जुनः अर्जुन नामसे प्रसिद्ध कुन्तीके तृतीय पुत्र, 939 वादः तत्त्वनिर्णयके उद्देश्यसे शुद्ध नीयत के साथ किये जानेवाले शास्त्रार्थरूप 140 प्रवादराद उत्तम वाद करनेवालोंमें श्रेष्ठ ॥ 290 ॥ - पावनः पावनेशानो वरुणो यादसां पतिः गङ्गा तीर्थोत्तम तं छलकायं वरौषधम् ॥ 299 ॥ 141 पावन:- सबको पवित्र करनेवाले, 942पावनेशान :- पावन वस्तुओंके ईश्वर, 943 वरुणः जलके अधिष्ठाता देवता वरुणरूप, 944 यादसां पतिः जल-जन्तुओंके स्वामी, 945 गङ्गा-भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई परम पवित्र नदी, जो भूतलमें भागीरथीके नामसे विख्यात एवं भगवद्विभूति तीर्थोंमें उत्तम गंगारूप, 947 द्यूतम्-छल करनेवालोंमें द्यूतरूप भगवान्‌की विभूति, 948 छलकाग्रयम् — छलकी पराकाष्ठा, जूआरूप 249 वरीषधम् जीवनकी रक्षा करनेवाली श्रेष्ठ ओषधि अन्नरूप ॥ 291 ॥ अनं सुदर्शन प्रहरणोत्तमम्।

- उच्चैःश्रवा वाजिराज ऐरावत इभेश्वरः ।। 292 ।। 950 अन्नम् - प्राणियोंकी क्षुधा दूर करनेवाला धरतीसे उत्पन्न खाद्य पदार्थ, 951 सुदर्शन: देखनेमें सुन्दर तेजस्वी अस्त्र- सुदर्शनचक्ररूप, 952 अस्वाग्रयम् — समस्त अस्त्रोंमें श्रेष्ठ सुदर्शन, 953 वज्रम्-इन्द्रके आयुधस्वरूप, 954 प्रहरणोत्तमम्— प्रहार करनेयोग्य आयुधोंमें उत्तम वज्ररूप, 955 उच्चैःश्रवाः - ऊँचे कानवाला दिव्य अश्व, जो समुद्रसे उत्पन्न हुआ था, 956 वाजिराजः - घोड़ोंके राजा उच्चैःश्रवारूप, 957 ऐरावतः - समुद्रसे उत्पन्न इन्द्रका वाहन ऐरावत नामक हाथी, 958 इभेश्वर: हाथियोंके राजा ऐरावतस्वरूप ॥ 292 ॥

अरुन्धत्येक पत्नीशो श्राद। अध्यात्मविद्या विद्याग्रयः प्रणवश्छन्दसां वरः ।। 293 ।।।

959 पतिव्रता श्रेष्ठ अरुन्धती स्वरूप, 960 एकपत्नीशः पतिव्रता अरुन्धतीके स्वामी महर्षि वसिष्ठरूप, 961 अश्वत्थः - पीपलके वृक्षरूप, 962 अशेषवृक्षराद्-सम्पूर्ण वृक्षोंके राजा अश्वत्थरूप, 963 अध्यात्मविद्या - आत्मतत्त्वका बोध करानेवाली ब्रह्मविद्यास्वरूप 164 विद्याधः विद्याओं में अग्रगण्य प्रणवरूप, 965 प्रणवः काररूप 966 छन्दसां वरः वेदोंका आदिभूत ओंकार, अथवा मन्त्रोंमें श्रेष्ठ प्रणव ॥ 293 ॥ - कालसत्तमः । मैरुर्गिरिपतिर्मार्गो मासाग्रयः दिनाद्यात्मा पूर्वसिद्धः कपिलः साम वेदराद् ॥ 294 ॥967 मेरु:- मेरु नामक दिव्य पर्वतरूप, 968 गिरिपतिः - पर्वतोंके स्वामी, 969 मार्ग:- मार्गशीर्ष (अगहन) का महीना 970 मासाग्रयः - मासोंमें अग्रगण्य मार्गशीर्षस्वरूप, 979 कालसत्तम: समयौमें सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मवेला 972 दिनाद्यात्मा दिन और रात्रि दोनोंका सम्मिलितरूप- प्रभात या ब्रह्मवेला 973 पूर्वसिद्ध: आदिसिद्ध महर्षि कपिलरूप, 974 कपिलः- कपिलवर्णवाले एक मुनि, जो भगवान्के अवतार हैं, 975 साम- सहस्र शाखाओंसे विशिष्ट सामवेद, 976 वेदराट्-वेदोंके राजा सामवेदरूप ॥ 294 तार्क्ष्यः खगेन्द्र ऋत्वग्रयो वसन्तः कल्पपादपः।

दातृश्रेष्ठः कामधेनुरार्तिघ्नाग्राः सुहृत्तमः ।। 295 ।। 977 तार्क्ष्यः - तार्क्ष (कश्यप) ऋषिके पुत्र गरुड़रूप, 978 खगेन्द्रः- पक्षियोंके राजा गरुड़, 979 ऋत्वग्रयः ऋतुओंमें श्रेष्ठ वसन्तरूप, 980 वसन्तः - चैत्र और वैशाख मास, 981 कल्पपादपः- कल्पवृक्षस्वरूप, 982 दातृश्रेष्ठ:- मनोवांछित वस्तु देनेवालोंमें कल्पवृक्ष, 983 कामधेनुः - अभीष्ट पूर्ण करनेवाली गोरूप, 984 आर्तिघ्नाग्रयः पीड़ा दूर करनेवालों में सर्वश्रेष्ठ, 985 सुहृत्तमः परम हितैषी ॥ 295 ॥ चिन्तामणिगुरुश्रेष्ठो माता हिततमः पिता । श्रेष्ठ

सिंहो मृगेन्द्रो नागेन्द्रो वासुकिर्नृवरो नृपः ।। 296 ।। 986 चिन्तामणिः- मनमें चिन्तन की हुई इच्छाको पूर्ण करनेवाली भगवत्स्वरूप दिव्य मणि, 987 गुरुश्रेष्ठः- गुरुओंमें श्रेष्ठ मातारूप, 988 माता— जन्म देनेवाली जननी, 989 हिततमः - सबसे बड़े हितकारी, 990 पिता जन्मदाता, 999 सिंहः- मृगोंके राजा सिंहस्वरूप, 992 मृगेन्द्र:- समस्त वनके जन्तुओंका स्वामी सिंहरूप, 993 नागेन्द्रः- नागों के राजा, [ 994 वासुकिः नागराज वासुकिरूप 195 नृबर:- मनुष्यों में श्रेष्ठ, 996 नृपः मनुष्योंका पालन करनेवाले राजारूप 296वर्णेशो ब्राह्मणश्चेतः करणाग्रयं नमो नमः ।

इत्येतद्वासुदेवस्य विष्णोर्नामसहस्यकम् ॥ 297॥ 997 वर्णेश:- समस्त वर्णोंके स्वामी ब्राह्मण

रूप, 998 ब्राह्मण:- -ब्राह्मण माता-पितासे उत्पन्न एवं ब्रह्मज्ञानी 199 चेतः परमात्मचिन्तनकी योग्यतावाले चित्तरूप, 1000 करणाग्रयम् इन्द्रियोंका प्रेरक होनेके कारण उनमें सबसे श्रेष्ठ चित्त- - इस प्रकार ये सबके हृदयमें वास करनेवाले भगवान् विष्णुके सहस्र नाम हैं। इन सब नामोंको मेरा बारम्बार नमस्कार है ।। 297 ॥

यह विष्णुसहस्रनामस्तोत्र समस्त अपराधीको शान्त करनेवाला, परम उत्तम तथा भगवान्‌में भक्तिको बढ़ाने वाला है। इसका कभी नाश नहीं होता। ब्रह्मलोक आदिका तो यह सर्वस्व ही है। विष्णुलोकतक पहुँचनेके लिये यह अद्वितीय सीड़ी है। इसके सेवनसे सब दुःखोंका नाश हो जाता है। यह सब सुखोंको देनेवाला तथा शीघ्र ही परम मोक्ष प्रदान करनेवाला है। काम, क्रोध आदि जितने भी अन्तःकरणके मल हैं, उन सबका इससे शोधन होता है। यह परम शान्तिदायक एवं महापातकी मनुष्योंको भी पवित्र बनानेवाला है। समस्त प्राणियोंको यह शीघ्र ही सब प्रकारके अभीष्ट फल दान करता है। समस्त विघ्नोंकी शान्ति और सम्पूर्ण अरिष्टोंका विनाश करनेवाला है। इसके सेवनसे भयंकर दुःख शान्त हो जाते हैं। दुःसह दरिद्रताका नाश हो जाता है तथा तीनों प्रकारके ॠण दूर हो जाते हैं। यह परम गोपनीय तथा धन-धान्य और यशकी वृद्धि करनेवाला है सब प्रकारके ऐश्वर्यो, समस्त सिद्धियों और सम्पूर्ण धर्मोको देनेवाला है। इससे कोटि-कोटि तीर्थ, यज्ञ, तप, दान और व्रतों का फल प्राप्त होता है। यह संसारकी जडता दूर करनेवाला और सब प्रकारको विद्याओंमें प्रवृत्ति करानेवाला है। जो राज्यसे भ्रष्ट हो गये हैं, उन्हें यह राज्य दिलाता और रोगियोंके सब रोगोंको हर लेता है। इतना ही नहीं, यह स्तोत्र वन्ध्या स्त्रियोंको पुत्र औररोगसे क्षीण हुए पुरुषोंको तत्काल जीवन देनेवाला है। यह परम पवित्र, मंगलमय तथा आयु बढ़ानेवाला है। एक बार भी इसका श्रवण, पठन अथवा जप करनेसे पुराण, अंगसहित सम्पूर्ण वेद, कोटि-कोटि मन्त्र, शास्त्र तथा स्मृतियोंका श्रवण और पाठ हो जाता है। प्रिये ! जो इसके एक श्लोक, एक चरण अथवा एक अक्षरका भी नित्य जप या पाठ करता है, उसके सम्पूर्ण मनोरथ तत्काल सिद्ध हो जाते हैं। सब कार्योंकी सिद्धिसे शीघ्र ही विश्वास पैदा करानेवाला इसके समान दूसरा कोई साधन नहीं है।

कल्याणी! तुम्हें इस स्तोत्रको सदा गुप्त रखना चाहिये और अपने अभीष्ट अर्थकी सिद्धिके लिये केवल इसीका पाठ करना चाहिये जिसका हृदय संशयसे दूषित हो, जो भगवान् विष्णुका भक्त न हो, जिसमें श्रद्धा और भक्तिका अभाव हो तथा जो भगवान् विष्णुको साधारण देवता समझता हो, ऐसे पुरुषको इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो अपना पुत्र, शिष्य अथवा सुहृद् हो, उसे उसका हित करनेकी इच्छासे इस श्रीविष्णुसहस्त्रनामका उपदेश देना चाहिये। अल्पबुद्धि पुरुष इसे नहीं ग्रहण करेंगे। देवर्षि नारद मेरे प्रसादसे कलियुग तत्काल फल देनेवाले इस स्तोत्रको ग्रहण करके कल्पग्राम (कलापग्राम) में ले जायेंगे, जिससे भाग्यहीन लोगोंका दुःख दूर हो जायगा। भगवान् विष्णुसे बढ़कर कोई धाम नहीं है, श्रीविष्णुसे बढ़कर कोई तपस्या नहीं है, श्रीविष्णुसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है और श्रीविष्णुसे भिन्न कोई मन्त्र नहीं है। भगवान् श्रीविष्णुसे भिन्न कोई सत्य नहीं है, श्रीविष्णुसे बड़कर जप नहीं है, श्रीविष्णुसे उत्तम ध्यान नहीं है तथा श्रीविष्णुसे श्रेष्ठ कोई गति नहीं है। जिस पुरुषकी भगवान् जनार्दनके चरणोंमें भक्ति है, उसे अनेक मन्त्रोंके जप बहुत विस्तारवाले शास्त्रोंके स्वाध्याय तथा सहस्रों वाजपेय यज्ञोंके अनुष्ठान करनेकी क्या आवश्यकता है? मैं सत्य सत्य कहता हूँ-भगवान् विष्णु सर्वतीर्थमय है, भगवान् विष्णु सर्वशास्त्रमय हैंतथा भगवान् विष्णु सर्वयज्ञमय है। यह सब मैंने सम्पूर्ण विश्वका सर्वस्वभूत सारतत्त्व बतलाया है।

पार्वती बोलीं- जगत्पते। आज मैं धन्य हो गयी। आपने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। मैं कृतार्थ हो गयी, क्योंकि आपके मुखसे यह परम दुर्लभ एवं गोपनीय स्तोत्र मुझे सुननेको मिला है। देवेश! मुझे तो संसारकी अवस्था देखकर आश्चर्य होता है। हाय! कितने महान् कष्टकी बात है कि सम्पूर्ण सुखोंके दाता श्रीहरिके विद्यमान रहते हुए भी मूर्ख मनुष्य संसारमें क्लेश उठा रहे हैं। 2 भला, लक्ष्मी के प्रियतम भगवान् मधुसूदनसे बढ़कर दूसरा कौन देवता है आप जैसे योगीश्वर भी जिनके तत्त्वका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं, उन श्रीपुरुषोत्तमसे बड़ा दूसरा कौन-सा पद है। उनको जाने बिना ही अपनेको ज्ञानी माननेवाले मूढ मनुष्य दूसरे किस देवताकी आराधना करते हैं। अहो ! सर्वेश्वर भगवान् विष्णु सम्पूर्ण श्रेष्ठ देवताओंसे भी उत्तम हैं। स्वामिन्! जो आपके भी आदिगुरु हैं, उन्हें गृह मनुष्य सामान्य दृष्टिसे देखते हैं; किन्तु प्रभो ! सर्वेश्वर! यदि मैं अर्थ- कामादिमें आसक्त होने या केवल आपमें ही मन लगाये रहनेके कारण अथवा प्रमादवश ही समूचे सहस्रनामस्तोत्रका पाठ न कर सकूँ, तो उस अवस्थामें जिस किसी भी एक नामसे | मुझे सम्पूर्ण सहस्रनामका फल प्राप्त हो जाय, उसे बताने की कृपा कीजिये। 3

महादेवजी बोले- सुमुखि! मैं तो 'राम ! राम ! राम!' इस प्रकार जप करते हुए परम मनोहरश्रीरामनाममें ही निरन्तर रमण किया करता हूँ। रामनाम सम्पूर्ण सहस्रनामके समान हैं। 4 पार्वती ! यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र भी प्रतिदिन विशेषरूपसे इस श्रीविष्णुसहस्रनामका पाठ करें तो वे धन-धान्यसे युक्त होकर भगवान् विष्णुके परमपदको प्राप्त होते हैं । 5 देवि ! जो लोग पूर्वोक्त अंगन्याससे युक्त श्रीविष्णुसहस्त्रनामका पाठ करते हैं, वे श्रेष्ठ पुरुष अविनाशी पदको प्राप्त होते हैं। सुमुखि ! बार-बार बहुत कहने से क्या लाभ; थोड़ेमें इतना ही जान लो कि भगवान् विष्णुका सहस्रनाम परम मोक्ष प्रदान करनेवाला है। इसके पाठ उतावली नहीं करनी चाहिये। यदि उतावली की जाती है, तो आयु और धनका नाश होता है। इस पृथ्वीपर जम्बूद्वीपके अंदर जितने भी तीर्थ हैं, वे सब सदा वहीं निवास करते हैं, जहाँ श्रीविष्णुसहस्र

नामका पाठ होता है। जहाँ श्रीविष्णुसहस्रनामकी स्थिति होती है, वहीं गंगा, यमुना, कृष्णवेणी, गोदावरी, सरस्वती और समस्त तीर्थ निवास करते हैं। यह परम पवित्र स्तोत्र भक्तोंको सदा प्रिय है। भक्तिभावसे भावित चित्तके द्वारा सदा ही इस स्तोत्रका चिन्तन करना चाहिये। जो मनीषी पुरुष परम उत्तम श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका पाठ करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त होकर श्रीहरिके समीप जाते हैं। जो लोग सूर्योदयके समय इसका पाठ और जप करते हैं, उनके बल, आयु और लक्ष्मीकी प्रतिदिन वृद्धि होती है। एक-एक नामका उच्चारण करके श्रीहरिको तुलसीदल अर्पण करनेसे जो पूजा सम्पन्न होतीहै, उसे कोटि यज्ञोंकी अपेक्षा भी अधिक फल देनेवाली समझना चाहिये। पार्वती ! जो द्विज रास्ता चलते हुए भी श्रीविष्णुसहस्रनामका पाठ करते हैं, उन्हें मार्गजनित दोषनहीं प्राप्त होते । जो लोग भगवान् केशवके इस माहात्म्यका श्रवण करते हैं, वे मनुष्योंमें श्रेष्ठ, पवित्र एवं पुण्यस्वरूप हैं।

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पद्म पुराण को पद्मपुराण और Padma Purana,Padama Purana आदि नामों से भी जाना जाता है।

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार