View All Puran & Books

पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 135 - Khand 4, Adhyaya 135

Previous Page 135 of 266 Next

भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा

महादेवजी कहते हैं— देवि! एक समयकी बात है, भगवान् श्रीकृष्ण द्वारकासे मथुरामें आये और वहाँसे यमुना पार करके नन्दके व्रजमें गये। वहाँ उन्होंने अपने पिता नन्दजी तथा यशोदा मैयाको प्रणाम करके उन्हें भलीभाँति सान्त्वना दी, फिर पिता-माताने भी उन्हें छाती से लगाया। इसके बाद वे बड़े-बड़े गोपसे मिले। उन सबको आश्वासन दिया तथा बहुत से वस्त्र और आभूषण आदि भेंटमें देकर वहाँ रहनेवाले सब लोगोंको सन्तुष्ट किया ।

तत्पश्चात् पावन वृक्षोंसे भरे हुए यमुनाके रमणीय तटपर गोपांगनाओंके साथ श्रीकृष्णने तीन राततक वहाँ सुखपूर्वक निवास किया। उस समय उस स्थानपर अपने पुत्रों और स्त्रियाँसहित नन्दगोप आदि सब लोग, यहाँतक कि पशु, पक्षी और मृग आदि भी भगवान् वासुदेवकी कृपासे दिव्य रूप धारण कर विमानपर आरूढ़ हुए और परम धाम- वैकुण्ठलोकको चले गये। इस प्रकार नन्दके व्रजमें निवास करनेवाले सब लोगोंको अपना निरामय पद प्रदान करके भगवान् श्रीकृष्ण देवियों और देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए शोभा सम्पन्न द्वारकापुरीमें आये।

वहाँ वसुदेव, उग्रसेन, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और अक्रूर आदि यादव प्रतिदिन उनकी पूजा करते थे तथा वे विश्वरूपधारी भगवान् दिव्य रत्नोंद्वारा बने लतागृहों में पारिजात-पुष्प बिछाये हुए मृदुल पलंगोंपर शयन करके अपनी सोलह हजार आठ रानियोंके साथ विहार किया करते थे। इस प्रकार सम्पूर्ण देवताओंका हित और समस्त भूभारका नाश करनेके लिये भगवान् यदुवंशमें अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने सभी राक्षसोंका संहार करके पृथ्वीके महान् भारको दूर किया तथा नन्दकेव्रज और द्वारकापुरीमें निवास करनेवाले समस्त चराचर प्राणियोंको भवबन्धनसे मुक्त करके उन्हें योगियोंके ध्येयभूत परम सनातन धाममें स्थापित कर दिया।

तदनन्तर वे स्वयं भी अपने परम धामको पधारे। पार्वतीने कहा- भगवन्! वैष्णवोंका जो यथार्थ धर्म है, जिसका अनुष्ठान करके सब मनुष्य भवसागर से पार हो जाते हैं, उसका मुझसे वर्णन कीजिये।

महादेवजीने कहा- देवि ! प्रथम वैष्णवोंकी द्वादश प्रकारकी शुद्धि बतायी जाती है। भगवान्‌के मन्दिरको लीपना, भगवान्की प्रतिमाके पीछे-पीछे जाना तथा भक्तिपूर्वक उनकी प्रदक्षिणा करना-ये तीन कर्म चरणोंकी शुद्धि करनेवाले हैं। भगवान्‌की पूजाके लिये भक्तिभावके साथ पत्र और पुष्पोंका संग्रह करना यह हाथोंकी शुद्धिका उपाय है। यह शुद्धि सब प्रकारकी शुद्धियोंसे बढ़कर है। भक्तिपूर्वक भगवान् श्रीकृष्णके नाम और गुणोंका कीर्तन वाणीकी शुद्धिका उपाय बताया गया है। उनकी कथाका श्रवण और उत्सवका दर्शन-ये दो कार्य क्रमशः कानों और नेत्रोंकी शुद्धि करनेवाले कहे गये हैं। मस्तकपर भगवान्‌का चरणोदक, निर्माल्य तथा माला धारण करना-ये भगवान्के चरणोंमें पड़े हुए पुरुषके लिये सिरको शुद्धिके साधन हैं। भगवान्के निर्माल्यभूत पुष्प आदिको सूँघना अन्तःशुद्धि तथा घ्राणशुद्धिका उपाय माना गया है। श्रीकृष्णके युगल चरणोंपर चढ़ा हुआ पत्र-पुष्प आदि संसारमें एकमात्र पावन है, वह सभी अंगोंको शुद्ध कर देता है।

भगवान की पूजा पाँच प्रकारकी बतायी गयी है; उन पाँचों भेदोंको सुनो-अभिगमन, उपादान, योग, स्वाध्याय और इज्या—ये ही पूजाके पाँच प्रकार हैं: अब तुम्हें इनका क्रमशः परिचय दे रहा हूँ। देवताके स्थानकोझाड़-बुहारकर साफ करना, उसे लीपना तथा पहलेके चढ़े हुए निर्माल्यको दूर हटाना - 'अभिगमन' कहलाता है। पूजाके लिये चन्दन और पुष्पादिके संग्रहका नाम 'उपादान' है। अपने साथ अपने इष्टदेवकी आत्मभावना करना अर्थात् मेरा इष्टदेव मुझसे भिन्न नहीं है, वह मेरा ही आत्मा है; इस तरहकी भावनाको दृढ़ करना 'योग' कहा गया है। इष्टदेवके मन्त्रका अर्थानुसन्धानपूर्वक जप करना 'स्वाध्याय' है। सूक्त और स्तोत्र आदिका पाठ, भगवान्का कीर्तन तथा भगवत्तत्त्व आदिका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंका अभ्यास भी 'स्वाध्याय' कहलाता है। अपने आराध्यदेवकी यथार्थ विधिसे पूजा करनेका नाम 'इज्या' है। सुव्रते! यह पाँच प्रकारकी पूजा मैंने तुम्हें बतायी। यह क्रमशः साष्टि, सामीप्य, सालोक्य, सायुज्य और सारूप्य नामक मुक्ति प्रदान करनेवाली है।

अब प्रसंगवश शालग्राम शिलाकी पूजाके सम्बन्धर्मे कुछ निवेदन करूँगा। चार भुजाधारी भगवान् विष्णुके दाहिनी एवं ऊर्ध्वभुजाके क्रमसे अस्त्रविशेष ग्रहण करनेपर केशव आदि नाम होते हैं अर्थात् दाहिनी ओरका ऊपरका हाथ, दाहिनी ओरका नीचेका हाथ, बार्थी ओरका ऊपरका हाथ और बायीं ओरका नीचेका हाथ इस क्रमसे चारों हाथोंमें शंख, चक्र आदि आयुधों को क्रम वा व्यतिक्रमपूर्वक धारण करनेपर भगवान्‌की भिन्न-भिन्न संज्ञाएँ होती हैं। उन्हीं संज्ञाओंका निर्देश करते हुए यहाँ भगवान्का पूजन बतलाया जाता है। उपर्युक्त क्रमसे चारों हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले विष्णुका नाम 'केशव' है। पद्म, गदा, चक्र और शंखके क्रमसे शस्त्र धारण करनेपर उन्हें 'नारायण' कहते हैं। क्रमशः चक्र, शंख, पद्म और गदा ग्रहण करनेसे वे 'माधव' कहलाते हैं। गदा, पद्म, शंख और चक्र - इस क्रमसे आयुध धारण करनेवाले भगवान्का नाम 'गोविन्द' है। पद्म, शंख, चक्र और गदाधारी विष्णुरूप भगवान्‌को प्रणाम है। शंख, पद्म, गदा और चक्र धारण करनेवाले मधुसूदन-विग्रहको नमस्कार है। गदा, चक्र, शंख और पद्मसे युक्तत्रिविक्रमको तथा चक्र, गदा, पद्म और शंखधारी वामनमूर्तिको प्रणाम है। चक्र, पद्म, शंख और गदा धारण करनेवाले श्रीधररूपको नमस्कार है। चक्र, गदा, शंख तथा पद्मधारी हृषीकेश! आपको प्रणाम है। पद्म, शंख, गदा और चक्र ग्रहण करनेवाले पद्मनाभविग्रहको नमस्कार है। शंख, गदा, चक्र और पद्मधारी दामोदर! आपको मेरा प्रणाम है। शंख, कमल, चक्र तथा गदा धारण करनेवाले संकर्षणको नमस्कार है। चक्र, शंख गदा तथा पद्मसे युक्त भगवान् वासुदेव! आपको प्रणाम है। शंख, चक्र, गदा और कमल आदिके द्वारा प्रद्युम्नमूर्ति धारण करनेवाले भगवान्को नमस्कार है। गदा, शंख, कमल तथा चक्रधारी अनिरुद्धको प्रणाम है। पद्म, शंख, गदा और चक्रसे चिलित पुरुषोत्तमरूपको नमस्कार है। गदा, शंख, चक्र और पद्म ग्रहण करनेवाले अधोक्षजको प्रणाम है। पद्म, गदा, शंख और चक्र धारण करनेवाले नृसिंह भगवान्‌को नमस्कार है। पद्म, चक्र, शंख और गदा लेनेवाले अच्युतस्वरूपको प्रणाम है। गदा, पद्म, चक्र और शंखधारी श्रीकृष्णविग्रहको नमस्कार है।

जिस शालग्राम शिलामें द्वार स्थानपर परस्पर सटे हुए दो चक्र हों, जो शुक्लवर्णकी रेखासे अंकित और शोभासम्पन्न दिखायी देती हो, उसे भगवान् श्रीगदाधरका स्वरूप समझना चाहिये। संकर्षणमूर्तिमें दो सटे हुए चक्र होते हैं, लाल रेखा होती है और उसका पूर्वभाग कुछ मोटा होता है। प्रद्युम्नके स्वरूपमें कुछ-कुछ पीलापन होता है और उसमें चक्रका चिह्न सूक्ष्म रहता है। अनिरुद्धकी मूर्ति गोल होती है और उसके भीतरी भागमें गहरा एवं चौड़ा छेद होता है; इसके सिवा, वह द्वारभागमें नीलवर्ण और तीन रेखाओंसे युक्त भी होती है भगवान् नारायण श्यामवर्णके होते हैं, उनके मध्यभागमै गदाके आकारकी रेखा होती है और उनका नाभि-कमल बहुत ऊँचा होता है। भगवान् नृसिंहकी मूर्ति चक्रका स्थूल चिह्न रहता है, उनका वर्ण कपिल होता है तथा वे तीन या पाँच विन्दुओंसे युक्त होते हैं। ब्रह्मचारीके लिये उन्हींका पूजन विहित है। वे भोंकी रक्षा करनेवाले हैं। जिस शालग्राम शिलामें दो चक्रकेचिह्न विषमभावसे स्थित हों, तीन लिंग हों तथा तीन रेखाएँ दिखायी देती हों; वह वाराहभगवान्का स्वरूप हैं, उसका वर्ण नील तथा आकार स्थूल होता है। भगवान् वाराह भी सबकी रक्षा करनेवाले हैं। कच्छपकी मूर्ति श्यामवर्णकी होती है। उसका आकार पानीकी भँवरके समान गोल होता है। उसमें यत्र-तत्र विन्दुओंके चिह्न देखे जाते हैं तथा उसका पृष्ठभाग श्वेत रंगका होता है। श्रीधरको मूर्तिमें पाँच रेखाएँ होती हैं, वनमालीके स्वरूपमें गदाका चिह्न होता है। गोल आकृति, मध्यभागमें चक्रका चिन तथा नीलवर्ण, यह वामनमूर्तिकी पहचान है। जिसमें नाना प्रकारको अनेकों मूर्तियों तथा सर्प शरीरके चिह्न होते हैं, वह भगवान् अनन्तकी प्रतिमा है। दामोदरकी मूर्ति स्थूलकाय एवं नीलवर्णकी होती है। उसके मध्यभागमें चक्रका चिह्न होता है। भगवान् दामोदर नील चिह्नसे युक्त होकर संकर्षणके द्वारा जगत्की रक्षा करते हैं। जिसका वर्ण लाल है, तथा जो लम्बी-लम्बी रेखा, छिद्र, एक चक्र और कमल आदिसे युक्त एवं स्थूल है, उस शालग्रामको ब्रह्माकी मूर्ति समझनी चाहिये। जिसमें वृहत् छिद्र, स्थूल चक्रका चिह्न और कृष्ण वर्ण हो, वह श्रीकृष्णका स्वरूप है। वह विन्दुयुक्त और विन्दुशून्य दोनों ही प्रकारका देखा जाता है। हयग्रीव मूर्ति अंकुशके समान आकारवाली और पाँच रेखाओंसे युक्त होती है। भगवान् वैकुण्ठ कौस्तुभमणि धारण किये रहते हैं। उनकी मूर्ति बड़ी निर्मल दिखायी देती। है। वह एक चक्रसे चिह्नित और श्याम वर्णकी होती है। मत्स्य भगवान्की मूर्ति बृहत् कमलके आकार की होती है। उसका रंग श्वेत होता है तथा उसमें हारकी रेखा देखी जाती है। जिस शालग्रामका वर्ण श्याम हो, जिसके दक्षिण भागमें एक रेखा दिखायी देती हो तथा जो तीन चक्रोंके चिह्नसे युक्त हो, वह भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका स्वरूप है, वे भगवान् सबकी रक्षा करनेवाले हैं। द्वारकापुरीमें स्थित शालग्रामस्वरूप भगवान् गदाधरको नमस्कार है, उनका दर्शन बड़ा ही उत्तम है। वे भगवान् गदाधर एक चक्रसे चिह्नित देखे जाते हैं। लक्ष्मीनारायण दो चक्रोंसे, त्रिविक्रम तीनसे,चतुर्व्यूह बारसे, वासुदेव पाँचसे, प्रद्युम्न छ: से, संकर्षण सातसे, पुरुषोत्तम आठसे, नवव्यूह नवसे, दशावतार दससे, अनिरुद्ध ग्यारहसे और द्वादशात्मा बारह चक्रोंसे युक्त होकर जगत्की रक्षा करते हैं। इससे अधिक चक्र-चिह्न धारण करनेवाले भगवान्‌का नाम अनन्त है। दण्ड, कमण्डलु और अक्षमाला धारण करनेवाले चतुर्मुख ब्रह्मा तथा पाँच मुख और दस भुजाओंसे सुशोभित वृषध्वज महादेवजी अपने आयुधसहित शालग्राम शिलामें स्थित रहते हैं। गौरी, चण्डी, सरस्वती और महालक्ष्मी आदि माताएँ हाथमें कमल धारण करनेवाले सूर्यदेव, हाथीके समान कंधेवाले गजानन गणेश, छः मुखोंवाले स्वामी कार्तिकेय तथा और भी बहुत से देवगण शालग्राम प्रतिमामें मौजूद रहते हैं, अतः मन्दिरमें शालग्राम शिलाकी स्थापना अथवा पूजा करनेपर ये उपर्युक्त देवता भी स्थापित और पूजित होते हैं। जो पुरुष ऐसा करता है, उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदिकी प्राप्ति होती है।

गण्डकी अर्थात् नारायणी नदीके एक प्रदेशमें शालग्रामस्थल नामका एक महत्त्वपूर्ण स्थान है; वहाँसे निकलनेवाले पत्थरको शालग्राम कहते हैं। शालग्राम शिलाके स्पर्शमात्र से करोड़ों जन्मोंके पापका नाश हो जाता है। फिर यदि उसका पूजन किया जाय, तब तो उसके फलके विषयमें कहना ही क्या है वह भगवान्‌के समीप पहुँचानेवाला है। बहुत जन्मोंके पुण्यसे यदि कभी गोष्पदके चिनसे युक्त श्रीकृष्ण-शिला प्राप्त हो जाय तो उसीके पूजनसे मनुष्यके पुनर्जन्मकी समाप्ति हो जाती है। पहले शालग्राम शिलाको परीक्षा करनी चाहिये यदि वह काली और चिकनी हो तो उत्तम है। यदि उसकी कालिमा कुछ कम हो तो वह मध्यम श्रेणीकी मानी गयी है और यदि उसमें दूसरे किसी रंगका सम्मिश्रण हो तो वह मिश्रित फल प्रदान करनेवाली होती है जैसे सदा काठके भीतर छिपी हुई आग मन्थन करनेसे प्रकट होती है, उसी प्रकार भगवान् विष्णु सर्वत्र व्याप्त होनेपर भी शालग्राम शिलामें विशेषरूपसे अभिव्यक होते हैं। जो प्रतिदिन द्वारकाकी शिला - गोमतीचक्रसे युक्त बारहशालग्राममूर्तियोंका पूजन करता है, वह वैकुण्ठलोकमें प्रतिष्ठित होता है जो मनुष्य शालग्राम शिलाके भीतर गुफाका दर्शन करता है, उसके पितर तृप्त होकर कल्पके अन्ततक स्वर्गमें निवास करते हैं। जहाँ द्वारकापुरीकी शिला अर्थात् गोमतीचक्र रहता है, वह स्थान वैकुण्ठलोक माना जाता है; वहाँ मृत्युको प्राप्त हुआ मनुष्य विष्णुधाममें जाता है। जो शालग्राम शिलाकी कीमत लगाता है, जो बेचता है, जो विक्रयका अनुमोदन करता है तथा जो उसकी परीक्षा करके मूल्यका समर्थन करता है, वे सब नरकमें पड़ते हैं। इसलिये देवि ! शालग्राम शिला और गोमतीचक्रकी खरीद-बिक्री छोड़ देनी चाहिये। शालग्राम-स्थलसे प्रकट हुए भगवान् शालग्राम और द्वारकासे प्रकट हुए गोमतीचक्र- इन दोनों देवताओंका जहाँ समागम होता है, वहाँ मोक्ष मिलनेमें तनिक भी सन्देह नहीं है। द्वारकासे प्रकट हुए गोमतीचक्रसे युक्त, अनेकों चक्रोंसे चिह्नित तथा चकासन-शिलाके समान आकारवाले भगवान् शालग्राम साक्षात् चित्स्वरूप निरंजन परमात्मा ही हैं। ओंकाररूप तथा नित्यानन्दस्वरूप शालग्रामको नमस्कार है। महाभाग शालग्राम ! मैं आपका अनुग्रह चाहता हूँ। प्रभो! मैं ऋणसे ग्रस्त हूँ, मुझ भक्तपर अनुग्रह कीजिये।

अब मैं प्रसन्नतापूर्वक तिलककी विधिका वर्णन करता हूँ। ललाटमें केशव, कण्ठमें श्रीपुरुषोत्तम, नाभिमें नारायणदेव, हृदयमें वैकुण्ठ, बायीं पसलीमें दामोदर, दाहिनी पसलीमें त्रिविक्रम, मस्तकपर इषीकेश, पीठमें पद्मनाभ, कानोंमें गंगा-यमुना तथा दोनों भुजाओंमें श्रीकृष्ण और हरिका निवास समझना चाहिये। उपर्युक्त स्थानों में तिलक करनेसे ये बारह देवता संतुष्ट होते हैं। तिलक करते समय इन बारह नामोंका उच्चारण करना चाहिये। जो ऐसा करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर विष्णुलोकको जाता है। भगवान्‌के चरणोदकको पीना चाहिये और पुत्र, मित्र तथा स्त्री आदि समस्त परिवारके शरीरपर उसे छिड़कना चाहिये। श्रीविष्णुका चरणोदकयदि पी लिया जाय तो वह करोड़ों जन्मोंके पापका नाश करनेवाला होता है। भगवान के मन्दिरमें खड़ाऊँ या सवारीपर चढ़कर जाना, भगवत् सम्बन्धी उत्सवोंका सेवन न करना, भगवान् के सामने जाकर प्रणाम न करना, उच्छिष्ट या अपवित्र अवस्थामें भगवान्की वन्दना करना एक हाथसे प्रणाम करना, भगवान् के सामने ही एक स्थानपर खड़े-खड़े प्रदक्षिणा करना, भगवान् के आगे पाँव फैलाना, पलंगपर बैठना, सोना, खाना, झूठ बोलना, जोर-जोर से चिल्लाना, परस्पर बात करना, रोना, झगड़ा करना, किसीको दण्ड देना, अपने बलके घमंड में आकर किसीपर अनुग्रह करना, स्त्रियोंके प्रति कठोर बात कहना, कम्बल ओढ़ना, दूसरेकी निन्दा, परायी स्तुति गाली बकना, अधोवायुका त्याग (अपशब्द) करना, शक्ति रहते हुए गौण उपचारोंसे पूजा करना-मुख्य उपचारोंका प्रबन्ध न करना, भगवान्‌को भोग लगाये बिना ही भोजन करना, सामयिक फल आदिको भगवान्की सेवामें अर्पण न करना, उपयोगमें लानेसे बचे हुए भोजनको भगवान्‌के लिये निवेदन करना, भोजनका नाम लेकर दूसरेकी निन्दा तथा प्रशंसा करना, गुरुके समीप मौन रहना, आत्म-प्रशंसा करना तथा देवताओंको कोसना-ये विष्णुके प्रति बत्तीस अपराध बताये गये हैं मधुसूदन! मुझसे प्रतिदिन हजारों अपराध होते रहते हैं; किन्तु मैं आपका ही सेवक हूँ, ऐसा समझकर मुझे उनके लिये क्षमा करें।' इस मन्त्रका उच्चारण करके भगवान्‌के सामने पृथ्वीपर दण्डकी भाँति पड़कर साष्टांग प्रणाम करना चाहिये। ऐसा करनेसे भगवान् श्रीहरि सदा हजारों अपराध क्षमा करते हैं। द्विजातियोंके लिये सबेरे और शाम-दो ही समय भोजन करना वेदविहित है। गोल लौकी, लहसुन, ताड़का फल और भाँटा - इन्हें वैष्णव पुरुषोंको नहीं खाना चाहिये। वैष्णवके लिये बड़, पीपल, मदार, कुम्भी, तिन्दुक, कोविदार (कचनार) और कदम्बकेपत्ते में भोजन करना निषिद्ध है। जला हुआ तथा भगवान्‌को अर्पण न किया हुआ अन्न, जम्बीर और बिजौरा नीबू, शाक तथा खाली नमक भी वैष्णवको नहीं खाना चाहिये। यदि दैवात् कभी खा ले तो भगवन्नामका स्मरण करना चाहिये। हेमन्त ऋतु में उत्पन्न होनेवाला सफेद धान जो सड़ा हुआ न हो, मूँग, तिल, यव, केराव, कंगनी, नीवार (तीना), शाक, हिलमोचिका ( हिलसा), कालशाक, बथुवा, मूली, दूसरे दूसरे मूल-शाक, सेंधा और साँभर नमक, गायका दही, गायका घी, बिना माखन निकाला हुआ गायका दूध, कटहल, आम, हर्रे, पिप्पली, जीरा, नारंगी, इमली, केला, लवली (हरफा रेवरी), आँवलेका फल, गुड़के सिवा ईंखके रससे तैयार होनेवाली अन्य सभी वस्तुएँ तथा बिना तेलके पकाया हुआ अन्न इन सभी खाद्य पदार्थोंको मुनिलोग हविष्यान्न कहते हैं। जो मनुष्य तुलसीके पत्र और पुष्प आदिसे युक्त माला धारण करता है, उसको भी विष्णु ही समझना चाहिये। आँवलेका वृक्ष लगाकर मनुष्य विष्णुके समान जाता है। आँवलेके चारों ओर साढ़े तीन सौ हाथकीभूमिको कुरुक्षेत्र जानना चाहिये। तुलसीकी लकड़ीके रुद्राक्षके समान दाने बनाकर उनके द्वारा तैयार की हुई माला कण्ठमें धारण करके भगवान्का पूजन आरम्भ करना चाहिये। भगवान्‌को चढ़ायी हुई तुलसीकी माला मस्तकपर धारण करे तथा भगवान्को अर्पण किये हुए चन्दनके द्वारा अपने अंगोंपर भगवान्का नाम लिखे। यदि तुलसीके काष्ठकी बनी हुई मालाओंसे अलंकृत होकर मनुष्य देवताओं और पितरोंके पूजनादि कार्य करे तो वह कोटिगुना फल देनेवाला होता है। जो मनुष्य तुलसीके काष्ठकी बनी हुई माला भगवान् विष्णुको अर्पित करके पुनः प्रसादरूपसे उसको भक्तिपूर्वक धारण करता है, उसके पातक नष्ट हो जाते हैं। पाद्य आदि उपचारोंसे तुलसीकी पूजा करके इस मन्त्रका उच्चारण करे- जो दर्शन करनेपर सारे पापसमुदायका नाश कर देती है, स्पर्श करनेपर शरीरको पवित्र बनाती है, प्रणाम करनेपर रोगोंका निवारण करती है, जलसे सींचनेपर यमराजको भी भय पहुँचाती है, आरोपित करनेपर भगवान् श्रीकृष्णके समीप ले जाती है और भगवान्‌के चरणोंमें चढ़ानेपर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी देवीको नमस्कार है। *

Previous Page 135 of 266 Next

पद्म पुराण को पद्मपुराण और Padma Purana,Padama Purana आदि नामों से भी जाना जाता है।

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार