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अद्भुत पितृ-भक्ति  [हिन्दी कथा]
आध्यात्मिक कथा - शिक्षदायक कहानी (बोध कथा)

मनुष्य कैसा भी हो, उसमें कुछ-न-कुछ दुर्बलता भी होती ही है। देवप्रिय सम्राट् अशोकमें अपार सद्गुण थे; साथ ही एक दुर्बलता भी थी। उन्होंने बुढ़ापेमें विवाह किया था और वे अपनी उस नयी रानी तिष्यरक्षिताके वशमें हो गये थे। उधर तिष्यरक्षिताने महाराज अशोकके ज्येष्ठ पुत्र कुणालको जो देखा तो उसका चित्त उसके वशमें नहीं रहा। उसने कुणालकोअपने यहाँ बुलवाया। राजकुमार कुणालने सौतेली माताका भाव समझा तो एकदम सहम गये। वे तिष्यरक्षिताका घृणित प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सके। तिष्यरक्षिताने उनकी अस्वीकृतिसे क्रोधोन्मत्त होकर पैर पटकते हुए कहा- 'तुम्हारे जिन सुन्दर नेत्रोंने मुझे व्याकुल किया है, उन्हें ज्योतिहीन न कर दूँ तो मेरा नाम तिष्यरक्षिता नहीं।'महाराज अशोक तो छोटी रानीके वश में ही। तक्षशिला के समीप शत्रुओंने कुछ उपद्रव किया है, यह समाचार महाराजके पास आया। तिष्यरक्षिताने महाराजको मन्त्रणा दी 'कुणाल अब बड़ा हो गया है, उसे गुबराज होना है। अतः राज्यकार्य और शत्रु दमनका अनुभव प्राप्त करना चाहिये उसे आप मेरी बात मानें तो उसे तक्षशिला इस समय भेजें।'

•महाराजकी आजारी कुणाल सेनाके साथ तक्षशिला गथे। उनकी पत्नी भी उनके साथ ही गयीं। राजकुमारने अपने नीति कौशलसे बिना शुद्ध किये ही शत्रुओंको में कर लिया। उनके निरीक्षणमें वहाँ सुव्यवस्था स्थापित हो गयी।

इधर राजधानीमें तिष्यरक्षिताने महाराजका पूरा विश्वास प्राप्त कर लिया। वह राजकीय मुहर भी अपने पास रखने लगी। अवसर पाकर उसने तक्षशिलाके मुख्य अधिकारीके नाम महाराजकी ओरसे आज्ञापत्र लिखा- 'कुणालने राज्यका बहुत बड़ा अपराध किया है। आज्ञापत्र पाते ही उसके नेत्र लौहशलाका डालकर फोड़ दिये जायें और उसका सब धन छीनकर उसे राज्यसे निकाल दिया जाय।' आज्ञापत्रपर राजकीय मुहर लगाकर उसने गुप्तरूपसे वह पत्र भेज दिया।

तक्षशिला के सभी अधिकारी राजकुमार कुणालकी सच्चरित्रता तथा उदारताके कारण उनसे प्रेम करतेथे। महाराजका आज्ञापत्र पहुँचनेपर वे चकित रहू गये। आज्ञापत्र कुणालको दिखलाया गया। कुणालने | पत्रको देखकर कहा- 'पत्र किसने लिखा है, यह मैं अनुमान कर सकता हूँ; मेरे पिताको इसका पता भी नहीं होगा, यह भी जानता हूँ। किंतु इस पत्रपर महाराजको मुहर है। अतः राजाज्ञाका सम्मान अवश्य होना चाहिये।'

कोई अधिकारी तत्पर नहीं हुआ और कोई 1 जल्लाद तक तैयार नहीं हुआ कुणालके नेत्रोंमें लोहेकी शलाका डालनेके लिये। जब कोई उद्यत नहीं हुआ, तब उस पितृभक्त राजकुमारने स्वयं अपने नेत्रों लोहे की कीलें घुसेड़ लीं। पिताकी आज्ञाका सम्मान करनेके लिये वह स्वयं अंधा हो गया। स्त्रीको साथ लेकर वह वहाँसे निकल पड़ा। अब वह राहका भिखारी था। अपनी वीणा बजाकर भीख माँगते हुए वह एक स्थानसे दूसरे स्थानपर भटकने लगा।

पाप कबतक छिपा रह सकता है। राजकुमार कुणाल जब भटकता हुआ मगध पहुँचा, पिताद्वारा पहचान लिया गया। उस उदारने प्रार्थना की- 'मेरी सौतेली माताको क्षमा किया जाय।' परंतु अशोक तिष्यरक्षिताको क्षमा नहीं कर सके। उसे प्राणदण्ड मिला। कुणाल पुत्रको महाराजने उत्तराधिकारी बनाया।

- सु0 सिंह



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adbhut pitri-bhakti

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- su0 sinha

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