ऋषिगण बोले- हे सौम्य ! आपने मधु और कैटभके साथ भगवान् विष्णुद्वारा महासिन्धु पाँच हजार वर्षोंतक युद्ध किये जानेकी पहले चर्चा की थी ॥ 1 ॥
महावीर्यसम्पन्न, किसीसे भी पराभूत न होनेवाले तथा देवताओंसे भी अपराजेय वे दोनों दानव उस | एकार्णवके जलमें किससे प्रादुर्भूत हुए? ॥ 2 ॥
वे असुर क्यों उत्पन्न हुए तथा भगवान्के द्वारा उनका वध क्यों किया गया? हे महामते! आप यह | परम अद्भुत आख्यान हमको सुनाइये ॥ 3 ॥
हमलोग यह कथा सुननेको इच्छुक हैं और आप अति प्रसिद्ध वक्ता हैं। हमारा और आपका यह सम्पर्क दैवयोगसे ही हुआ है ॥ 4 ॥
मूर्खके साथ स्थापित किया गया सम्पर्क विषसे भी अधिक अनिष्टकर होता है और इसके विपरीत विद्वानोंका सम्पर्क पीयूषरसके तुल्य माना गया है ॥ 5 ॥
पशु भी जीवनयापन करते हैं, वे भी आहार ग्रहण करते हैं, मल-मूत्रादिका विसर्जन करते हैं और विषयासक्त होकर इन्द्रियजन्य सुखकी अनुभूति करते हैं; किंतु उनमें अच्छे-बुरेका लेशमात्र भी ज्ञान नहीं होता तथा वे मोक्षकी प्राप्ति करानेवाले विवेकसे भी रहित होते हैं। अतएव उत्तम बातोंको सुननेमें जो लोग श्रद्धा भाव नहीं रखते, उन्हें पशु-तुल्य ही समझना चाहिये ।। 6-7 ।।मृग आदि बहुत-से पशु श्रवण-सुखका अनुभव करते हैं और कानविहीन सर्प भी ध्वनि सुनकर मुग्ध हो जाते हैं ॥ 8 ॥
पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंमें श्रवणेन्द्रिय तथा दर्शनेन्द्रिय दोनों ही शुभ होती हैं; क्योंकि सुननेसे वस्तुओंका ज्ञान प्राप्त होता है और देखनेसे मनोरंजन होता है ॥ 9 ॥
हे महाभाग ! विद्वानोंने निर्धारित करके कहा है कि सात्त्विक, राजस तथा तामस भेदानुसार श्रवण तीन प्रकारका होता है ॥ 10 ॥
वेद-शास्त्रादिका श्रवण सात्त्विक, साहित्यका श्रवण राजस तथा युद्धसम्बन्धी बातों एवं दूसरोंकी निन्दाका श्रवण तामस कहा गया है ॥ 11 ॥
प्रज्ञावान् पण्डितोंद्वारा सात्त्विक श्रवणके भी उत्तम, मध्यम तथा अधम-ये तीन प्रकार बताये गये हैं ll 12 ॥
उत्तम श्रवण मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला, मध्यम श्रवण स्वर्ग देनेवाला तथा अधम श्रवण भोगोंकी उपलब्धि करानेवाला कहा गया है। विद्वानोंने अच्छी तरह सोच-समझकर ऐसा निर्धारण किया है ॥ 13 ॥
साहित्य भी तीन प्रकारका होता है। जिस साहित्यमें स्वकीया नायिकाका वर्णन हो वह उत्तम, जिस साहित्यमें वेश्याओंका वर्णन हो वह मध्यम तथा जिस साहित्यमें परस्त्रीवर्णन हो, वह अधम साहित्य कहा गया है ॥ 14 ll
शास्त्रोंके परम निष्णात विद्वानोंने तामस श्रवणके तीन भेद बतलाये हैं। किसी पापाचारीके संहारसे सम्बन्धित युद्धवर्णनका श्रवण उत्तम, कौरव पाण्डवोंकी तरह द्वेषके कारण शत्रुतामें युद्धवर्णनका श्रवण मध्यम तथा अकारण विवाद एवं कलहसे हुए युद्धके वर्णनका श्रवण अधम कहा गया है। ll15-16 ।।
हे महामते! इनमें पुराणोंके श्रवणकी ही प्रधानता मानी गयी है; क्योंकि इनके श्रवणसे बुद्धिका विकास होता है, पुण्य प्राप्त होता है और समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ 17 ॥ अतएव हे महामते! पूर्वकालमें द्वैपायन महर्षि व्याससे सुनी हुई समस्त कामनाओंको सिद्ध करनेवाली
परम पवित्र पौराणिक कथा कहिये ll 18 ॥सूतजी बोले- हे महाभाग ! इस पृथ्वीलोक में आप लोग धन्य हैं और मैं भी धन्य हैं क्योंकि आपलोगों में कथा-श्रवणके प्रति और मुझमें कथा वाचनके प्रति विवेक जाग्रत् हुआ है ।। 19 ।।
पूर्वकालमें प्रलयावस्थामें जब तीनों लोक महाजलराशिमें विलीन हो गये और देवाधिदेव भगवान् विष्णु शेष- शय्यापर सो गये तब विष्णुके कानोंकी मैलसे मधु-कैटभ नामक दो दानव उत्पन्न हुए और वे महाबली दैत्य उस महासागरमें बढ़ने लगे ॥ 20-21 ॥
वे दोनों दैत्य क्रीडा करते हुए उसी सागरमें इधर-उधर भ्रमण करते रहे। एक बार क्रीडापरायण विशाल शरीरवाले उन दोनों भाइयोंने विचार किया कि बिना किसी कारणके कोई भी कार्य नहीं होता; यह एक सार्वत्रिक परम्परा है ।। 22-23 ।।
बिना किसी आधारके आधेयकी सत्ता कदापि सम्भव नहीं है अतः आधार-आधेयका भाव हमारे मनमें बार-बार आता रहता है ॥ 24 ॥
अति विस्तारवाला तथा सुखद यह जल किस आधारपर स्थित है ? किसने इसका सृजन किया ? यह किस प्रकार उत्पन्न हुआ और इस जलमें निमग्न हमलोग कैसे स्थित हैं ? ।। 25 ।।
हम दोनों कैसे पैदा हुए और किसने हम दोनोंको उत्पन्न किया? हमारे माता-पिता कौन हैं ? - इस बातका भी कोई ज्ञान हम दोनोंको नहीं है ॥ 26 ॥
सूतजी बोले- इस प्रकार चिन्तन करते हुए किसी निश्चयपर नहीं पहुँचे, तब कैटभने जलके भीतर अपने पास स्थित मधुसे कहा ॥ 27 ॥
कैटभ बोला- हे भाई मधु हम दोनोंके इस जलमें स्थित रहनेका कारण कोई अचल महाबली शक्ति है, ऐसा ही मैं मानता हूँ। ll28 ॥
उसीसे समुद्रका सम्पूर्ण जल व्याप्त है और उसी शक्तिके आधारपर यह जल टिका हुआ है तथा वे ही परात्परा देवी हम दोनोंकी भी स्थितिका कारण हैं ॥ 29 ॥इस प्रकार विविध चिन्तन करते हुए वे दोनों दानव जब सचेत हुए तब उन्हें आकाशमें अत्यन्त मनोहारी वाग्बीजस्वरूप (ऐं) वाणी सुनायी पड़ी ॥ 30 ॥
उसे सुनकर उन दोनोंने सम्यक् रूपसे हृदयंगम कर लिया और वे उसका दृढ़ अभ्यास करने लगे। तदनन्तर उन्हें आकाशमें कौंधती हुई सुन्दर विद्युत् दिखलायी पड़ी ॥ 31 ॥
तब उन्होंने सोचा कि निःसन्देह यह मन्त्र ही है और यह सगुण ध्यान ही आकाशमें प्रत्यक्ष दृष्टिगत हुआ है ॥ 32॥
तदनन्तर वे दोनों दैत्य आहारका परित्यागकर इन्द्रियोंको आत्मनियन्त्रित करके उसी विद्युज्ज्योतिमें मन केन्द्रित किये हुए समाधिस्थ भावसे जप ध्यान करनेमें लीन हो गये ॥ 33 ॥
इस प्रकार उन दोनोंने एक हजार वर्षोंतक कठोर तपस्या की, जिससे वे परात्परा शक्ति उन दोनोंपर अतिशय प्रसन्न हो गयीं ॥ 34 ॥
घोर तपस्याके लिये अपने निश्चयपर दृढ़ रहनेवाले उन दोनों दानवोंको अत्यन्त परिश्रान्त देखकर उनपर कृपाके निमित्त यह आकाशवाणी हुई ।। 35 ।।
हे दैत्यो! तुम दोनोंकी कठोर तपश्चर्यासे मैं परम प्रसन्न हूँ अतएव तुम दोनों अपना मनोवांछित वरदान माँगो; मेँ अवश्य दूँगी 36 ॥
सूतजी बोले- तदनन्तर उस आकाशवाणीको सुनकर उन दानवोंने कहा – हे देवि ! हमारी मृत्यु हमारे इच्छानुसार हो; हे सुव्रते ! हमें आप यही वरदान दीजिये ॥ 37 ॥
वाणीने कहा- हे दैत्यो! मेरी कृपासे अब तुम दोनों अपनी इच्छासे ही मृत्युको प्राप्त होओगे। दानव और देवता कोई भी तुम दोनों भाइयोंको पराजित नहीं कर सकेंगे; इसमें सन्देह नहीं है ॥ 38 ॥
सूतजी बोले- भगवतीसे ऐसा वरदान प्राप्तकर वे दोनों दैत्य मदोन्मत्त होकर उस महासागरमें जलचर जीवोंके साथ क्रीड़ातत्पर हो गये॥ 39 ॥
हे विप्रो ! कुछ समय व्यतीत होनेपर उन दानवोंने संयोगवश जगत्स्रष्टा ब्रह्माजीको कमलके आसनपर बैठे हुए देखा ll 40 ॥उन्हें देखकर युद्धकी लालसासे वे दोनों महाबली दैत्य प्रसन्न हो उठे और ब्रह्माजीसे बोले - हे सुव्रत ! आप हमलोगोंके साथ युद्ध कीजिये; अन्यथा यह पद्मासन छोड़कर आप अविलम्ब जहाँ जाना चाहें, वहाँ चले जाइये। यदि आप दुर्बल हैं तो इस शुभ आसनपर बैठनेका आपका अधिकार कहाँ! कोई वीर ही इस आसनका उपभोग कर सकता है। आप कायर हैं, अतः अतिशीघ्र इस आसनको छोड़ दीजिये। उन दोनों दैत्योंकी यह बात सुनकर प्रजापति ब्रह्मा चिन्तामें पड़ गये। तब उन दोनों बलशाली वीरोंको देखकर ब्रह्माजी चिन्ताकुल हो उठे और मन-ही लगे कि मुझ जैसा तपस्वी इनका क्या कर सकता -मन सोचने है ? ।। 41–44 ॥