ऋषिगण बोले- हे सूतजी! वे राजा पुरूरवा कौन थे तथा वह देवकन्या उर्वशी कौन थी ? उस मनस्वी राजाने किस प्रकार संकट प्राप्त किया ? ॥ 1 ॥ हे लोमहर्षणतनय ! आप इस समय पूरा कथानक विस्तारपूर्वक कहें। हम सभी लोग आपके मुखारविन्दसे निःसृत रसमयी वाणीको सुननेके इच्छुक हैं ॥ 2 ॥
हे सूतजी ! आपकी वाणी अमृतसे भी बढ़कर मधुर एवं रसमयी है। जिस प्रकार देवगण अमृत पानसे कभी तृप्त नहीं होते, उसी प्रकार आपके कथा-श्रवणसे हम तृप्त नहीं होते ॥ 3 ॥
सूतजी बोले- हे मुनियो ! अब आपलोग उस दिव्य तथा मनोहर कथाको सुनिये, जिसे मैंने परम श्रेष्ठ व्यासजीके मुखसे सुना है। मैं उसे अपनी बुद्धिके अनुसार वैसा ही कहूँगा ॥ 4 ॥
सुरगुरु बृहस्पतिकी पत्नीका नाम 'तारा' था। वह रूपयौवनसे सम्पन्न तथा सुन्दर अंगोंवाली थी ॥ 5 ॥
एक बार वह सुन्दरी अपने यजमान चन्द्रमाके घर गयी। उस रूप तथा यौवनसे सम्पन्न चन्द्रमुखी कामिनीको देखते ही चन्द्रमा उसपर आसक्त हो गये। तारा भी चन्द्रमाको देखकर आसक्त हो गयी। इस प्रकार वे दोनों तारा तथा चन्द्रमा एक-दूसरेको देखकर प्रेमविभोर हो गये ॥ 6-8 ॥ वे दोनों प्रेमोन्मत्त एक-दूसरेको चाहनेकी इच्छासे युक्त हो विहार करने लगे। इस प्रकार | उनके कुछ दिन व्यतीत हुए। तब बृहस्पतिने | ताराको घर लानेके लिये अपना एक शिष्य भेजा; परंतु वह न आ सकी ॥ 9-10 ॥
जब चन्द्रमाने बृहस्पतिके शिष्यको कई बार लौटाया, तो वे क्रोधित होकर चन्द्रमाके पास स्वयं गये ॥ 11 ॥
चन्द्रमाके घर जाकर उदारचित्त बृहस्पतिने अभिमानके साथ मुसकराते हुए उस चन्द्रमासे कहा हे चन्द्रमा ! तुमने यह धर्मविरुद्ध कार्य क्यों किया और मेरी इस परम सुन्दरी पत्नीको अपने घरमें क्यों रख लिया ? ।। 12-13 ।।
हे देव! मैं तुम्हारा गुरु हूँ और तुम मेरे यजमान हो। तब हे मूर्ख! तुमने गुरुपत्नीको अपने घरमें क्यों रख लिया ? ।। 14 ।
ब्रह्महत्या करनेवाला, सुवर्ण चुरानेवाला, मदिरापान करनेवाला, गुरुपत्नीगामी तथा पाँचवाँ इन पापियोंके साथ संसर्ग रखनेवाला—ये 'महापातकी' हैं। तुम महापापी, दुराचारी एवं अत्यन्त निन्दनीय हो । यदि तुमने मेरी पत्नीके साथ अनाचार किया है तो तुम | देवलोक में रहनेयोग्य नहीं हो 15-16 ॥
हे दुष्टात्मन्! असितापांगी मेरी इस पत्नीको छोड़ दो जिससे मैं इसे अपने घर ले जाऊँ, अन्यथा गुरुपत्नीका अपहरण करनेवाले तुझको मैं शाप दे दूँगा ॥ 17 ॥
इस प्रकार बोलते हुए स्त्रीविरहसे कातर तथा क्रोधाकुल देवगुरु बृहस्पतिसे रोहिणीपति चन्द्रमाने कहा ।। 18 ।।
चन्द्रमा बोले— क्रोधके कारण ब्राह्मण अपूजनीय होते हैं। क्रोधरहित तथा धर्मशास्त्रज्ञ विप्र पूजाके योग्य हैं और इन गुणोंसे हीन ब्राह्मण त्याज्य होते हैं ॥ 19 ॥
हे अनघ ! वह सुन्दर स्त्री अपनी इच्छा आपके घर चली जायगी और यदि कुछ दिन यहाँ ठहर भी गयी तो इससे आपकी क्या हानि है ? अपनी इच्छासे ही वह यहाँ रहती है। सुखकी इच्छा रखनेवाली वह कुछ दिन यहाँ रहकर अपनी इच्छासे चली जायगी । 20-21 ॥ आपने ही तो पूर्वमें धर्मशास्त्र के इस मतका उल्लेख किया है कि संसर्गसे स्त्री और वेदकर्मसे ब्राह्मण कभी दूषित नहीं होते ॥ 22 ॥
चन्द्रमाके ऐसा कहनेपर बृहस्पति अत्यन्त दुखी हुए एवं चिन्तामग्न होकर शीघ्र ही अपने घर चले गये ॥ 23 ॥
कुछ दिन अपने घर रहकर चिन्तासे व्याकुल गुरु बृहस्पति पुनः उन औषधिपति चन्द्रमाके यहाँ शीघ्र जा पहुँचे। वहाँ द्वारपालने उन्हें भीतर जानेसे रोका, तब वे क्रुद्ध होकर द्वारपर ही रुक गये। [ कुछ देरतक प्रतीक्षा करनेपर ] जब चन्द्रमा वहाँ नहीं आये, तब बृहस्पति अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे ।। 24-25 ।। [वे विचार करने लगे] मेरा शिष्य होते हुए भी इसने माताके समान आदरणीया गुरुपत्नीको बलपूर्वक हर लिया है। इसलिये अब मुझे इस अधर्मीको दण्डित करना चाहिये ॥ 26
तब बाहर द्वारपर खड़े बृहस्पतिने क्रोधके साथ चन्द्रमासे कहा- अरे नीच! पापी! देवाधम ! तुम अपने घरमें निश्चिन्त होकर क्यों पड़े हो ? मेरी स्त्री शीघ्र मुझे लौटा दो, अन्यथा मैं तुम्हें शाप दे दूँगा । यदि तुम मेरी पत्नी नहीं दोगे तो मैं तुझे अभी अवश्य भस्म कर दूँगा ।। 27-28 ॥
सूतजी बोले- बृहस्पतिके इस प्रकारके क्रोधभरे वचन सुनकर द्विजराज चन्द्रमा शीघ्र घरसे बाहर निकले और हँसते हुए उनसे बोले-आप इतना अधिक क्यों बोल रहे हैं? सर्वलक्षणसम्पन्न वह असितापांगी आपके योग्य नहीं है ।। 29-30 ॥
हे विप्र ! आप अपने समान किसी अन्य स्त्रीको ग्रहण कर लीजिये; ऐसी सुन्दरी भिक्षुकके घरमें रहनेयोग्य नहीं है। यह प्रायः कहा जाता है कि अपने समान गुणसम्पन्न पतिपर ही पत्नीका प्रेम स्थिर रहता है। अपने इच्छानुसार अब आप चाहे जहाँ चले जायँ। मैं इसे नहीं दूँगा। आपका शाप मेरे ऊपर नहीं लग सकता। हे गुरो! मैं यह रमणी आपको नहीं दूँगा, अब आप जैसा चाहें वैसा करें ।। 31-34 ॥
सूतजी बोले- चन्द्रमाके ऐसा कहनेपर देवगुरु बृहस्पति रुष्ट होकर चिन्तामें पड़ गये और वे कुपित हो शीघ्रतासे इन्द्रके भवन चले गये ॥ 35 ॥ वहाँ स्थित देवगुरु बृहस्पतिको दुःख व्य | देखकर इन्द्रने पाद्य, अर्घ्य तथा आचमनीय आदि | उनकी विधिवत् पूजा करके बैठाया ॥ 36 ॥
जब बृहस्पति आसनपर बैठकर स्वस्थ हो गये। 'हे | तब परम उदार इन्द्रने उनसे पूछा- महाभाग आपको कौन-सी चिन्ता है ? हे मुनिवर ! आप इतने शोकाकुल किसलिये हैं ? ॥ 37 ॥
मेरे राज्यमें आपका अपमान किसने किया है? | आप मेरे गुरु हैं, अतः हमारी सारी सेना एवं लोकपाल सभी आपके अधीन हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा अन्य देवता भी आपकी सहायता करेंगे। आपको कौन-सी चिन्ता है; इस समय उसे बताइये ॥ 38-39 ॥
बृहस्पति बोले चन्द्रमाने मेरी सुन्दर नेत्रोंवाली पत्नी ताराका हरण कर लिया और वह दुष्ट मेरे बार बार प्रार्थना करनेपर भी उसे लौटाता नहीं है। है देवराज! अब मैं क्या करूँ? अब तो केवल आप ही मेरी शरण हैं। हे शतक्रतो मैं अत्यन्त दुःखी हूँ। हे देवेश! आप मेरी सहायता कीजिये ॥ 40-41 ।।
इन्द्र बोले हे धर्मात्मन्! आप शोक न करें, हे सुव्रत! मैं आपका सेवक हूँ, मैं आपकी पत्नीको | अवश्य लाऊँगा हे महामते। यदि दूत भेजनेपर भी वह मदोन्मत्त चन्द्रमा आपकी स्त्रीको नहीं देगा वो देवसेनाओं सहित मैं स्वयं युद्ध करूंगा ॥ 42-43॥
इस प्रकार गुरु बृहस्पतिको आश्वासन देकर इन्द्रने अपनी बातको सही ढंगसे कहनेवाले, विलक्षण तथा वाक्पटु दूतको चन्द्रमाके पास भेजा ॥ 44 ।।
शीघ्र ही वह चतुर दूत चन्द्रलोक गया और रोहिणीपति चन्द्रमासे यह सन्देश वचन कहने लगा हे महाभाग ! हे महामते इन्द्रने आपसे कुछ कहनेके लिये मुझे भेजा है। अतः उनके द्वारा जो कुछ कहा गया है, वही ज्यों-का-त्यों मैं आपसे कह रहा हूँ ।। 45-46 ।।
हे महाभाग ! हे सुव्रत ! आप धर्मज्ञ हैं, जानते हैं तथा धर्मात्मा अत्रिमुनि आपके पिता है, नीति अतएव आपको कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये |जिससे आप निन्दनीय हो जायें। आलस्यरहित होकर | यथाशक्ति अपनी स्त्रीकी रक्षा सभी प्राणी करते हैं। अतः इस (तारा) के लिये बड़ा कलह होगा; इसमें | सन्देह नहीं है ।। 47-48 ।। हे सुधानिधे। जैसे आप अपनी भार्याकी रक्षा हेतु प्रयत्न करते हैं, वैसे वे गुरु बृहस्पति भी अपनी पत्नीकी रक्षाके लिये प्रयत्नशील हैं। आप अपने ही सदृश सभी प्राणियोंके विषयमें विचार कीजिये ।। 49 ।।
हे सुधानिधे। आपको दक्षप्रजापतिकी सुलक्षणोंसे युक्त अट्ठाईस कन्याएँ पत्नीके रूपमें प्राप्त हैं। आप अपने गुरुकी पत्नीको पानेकी इच्छा क्यों रखते हैं ? स्वर्गलोक में मेनका आदि अनेक मनोरम अप्सराएँ सर्वदा सुलभ हैं, तब उनके साथ स्वेच्छापूर्वक विहार कीजिये और गुरुपत्नी ताराको शीघ्र ही लौटा दीजिये ॥ 50-51 ॥
आप-जैसे महान् लोग यदि अहंकारवश ऐसा निन्दित कर्म करें तो अनभिज्ञ साधारणजन तो उनका अनुकरण करेंगे ही और तब धर्मका नाश हो जायगा। अतः हे महाभाग। गुरुकी इस मनोरमा पत्नीको शीघ्र लौटा दीजिये, जिससे आपके कारण इस समय देवताओंके बीच कलह न उत्पन्न हो ॥ 52-53 ॥
सूतजी बोले- दूतसे इन्द्रका सन्देश सुनकर चन्द्रमा कुछ क्रोधित हो गये और उन्होंने इन्द्रके दूतको इस प्रकार व्यंग्यपूर्वक उत्तर दिया ॥ 54 ॥ चन्द्रमा बोले- हे महाबाहो आप धर्मज्ञ हैं और स्वयं देवताओंके राजा हैं। आपके पुरोहित बृहस्पति भी ठीक आपकी तरह हैं और आप दोनोंकी बुद्धि भी एक समान है ॥ 55 ॥
दूसरोंको उपदेश देनेमें अनेक लोग चतुर होते हैं, परंतु कार्य उपस्थित होनेपर [ उपदेशानुसार] स्वयं आचरण करनेवाला दुर्लभ होता है ॥ 56 ॥
हे देवेश! बृहस्पतिके बनाये शास्त्रको सभी मनुष्य स्वीकार करते हैं। शक्तिशाली लोगोंके लिये सब कुछ अपना होता है, परंतु दुर्बल लोगोंके लिये कुछ भी अपना नहीं होता। तारा जितना प्रेम मुझसे करती है, उतना बृहस्पतिसे नहीं। अतः अनुरक्त स्त्री धर्म अथवा न्यायसे त्याज्य कैसे हो सकती है? गार्हस्थ्य जीवनका वास्तविक सुख तो प्रेम रखनेवाली स्त्रीके साथ ही होता है, उदासीन स्त्रीके साथ नहीं; इसलिये है दूत। तुम जाओ और इन्द्रसे कह दो कि मैं इसे नहीं दूँगा। हे सहस्राक्ष। आप स्वयं समर्थ हैं; आप जो चाहते हों, वह कीजिये ।। 57-61 ॥ सूतजी बोले- चन्द्रमाके ऐसा कहनेपर दू | इन्द्र के पास लौट गया और चन्द्रमाने जो कहा था, वह सब उसने इन्द्रसे कह दिया ॥ 62 ॥
इसे सुनकर प्रतापी इन्द्र भी अत्यन्त क्रोधित हुए और गुरु बृहस्पतिकी सहायताके लिये सेनाकी तैयारी करने लगे ॥ 63 ॥
दैत्यगुरु शुक्राचार्य चन्द्रमा तथा देवगुरुके विरोधकी बात सुनकर बृहस्पतिसे द्वेषके कारण चन्द्रमाके पास गये और उससे बोले कि आप ताराको वापस मत कीजिये ॥ 64 ॥
हे महामते! हे मान्य! यदि इन्द्रके साथ आपका बुद्ध छिड़ जायगा तो मैं भी अपनी मन्त्रशक्तिसे आपकी सहायता करूँगा ॥ 65 ॥
गुरुपत्नीसे अनाचारकी बात सुनकर और शुक्राचार्यको बृहस्पतिका शत्रु जानकर शिवजी भी बृहस्पतिकी सहायताके लिये तैयार हो गये ॥ 66 ॥
तब तारकासुर के साथ हुए युद्धकी भाँति देव दानवों में संग्राम छिड़ गया। यह युद्ध बहुत वर्षोंतक चलता रहा ।। 67 ॥
देव-दानवोंका यह संग्राम देखकर प्रजापति ब्रह्माजी हंसपर सवार होकर उस क्लेशकी शान्तिके लिये रणस्थलमें शीघ्र पहुँचे। तब ब्रह्माजीने चन्द्रमासे कहा कि तुम गुरु बृहस्पतिकी पत्नी लौटा दो, नहीं तो भगवान् विष्णुको बुलाकर मैं तुम्हें समूल नष्ट कर दूँगा। तत्पश्चात् लोकपितामह ब्रह्माजीने भृगुनन्दन शुक्रको भी युद्धसे रोका और उनसे कहा है महामते। दैत्योंके संगसे क्या आपकी भी बुद्धि अन्याययुक्त हो गयी है ? ॥ 68-70 ॥
तत्पश्चात् [ब्रह्माजीकी बात सुनकर शुक्राचार्य चन्द्रमाके पास गये] उन्होंने चन्द्रमाको युद्धसे रोका और कहा कि तुम्हारे पिताने मुझे भेजा है, तुम अपने गुरुकी पत्नीको तत्काल छोड़ दो ॥ 71 ॥
सूतजी बोले – शुक्राचार्यकी वह अद्भुत वाणी सुनकर चन्द्रमाने बृहस्पतिको गर्भवती सुन्दरी प्रिय भार्याको लौटा दिया ॥ 72 ॥
पानीको पाकर देवगुरु बड़े प्रसन्न हुए और आनन्दपूर्वक अपने पर चले गये। तत्पश्चात् सभी | देवता और दैत्य भी अपने-अपने घर चले गये ॥ 73 ॥ पितामह ब्रह्मा अपने लोकको तथा शिवजी भी कैलासपर्वतपर चले गये। इस प्रकार अपनी सुन्दरी स्त्रीको पाकर बृहस्पति सन्तुष्ट हो गये 74 ॥
तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद ताराने शुभ दिन तथा शुभ नक्षत्रमें गुणोंमें चन्द्रमाके समान ही सुन्दर पुत्रको जन्म दिया। पुत्रको उत्पन्न देखकर देवगुरु बृहस्पतिने प्रसन्न मनसे उसके विधिवत् जातकर्म आदि सभी संस्कार किये 75-76
हे श्रेष्ठ मुनियो ! चन्द्रमाने जब सुना कि पुत्र उत्पन्न हुआ है, तब बुद्धिमान् चन्द्रमाने बृहस्पतिके | पास अपना दूत भेजा [ और कहलाया- हे गुरो ! ] यह पुत्र आपका नहीं है; क्योंकि यह मेरे तेजसे उत्पन्न है। तब आपने अपनी इच्छासे बालकका जातकर्मादि संस्कार क्यों कर लिया ? ॥ 77-78 ।।
उस दूतका वचन सुनकर बृहस्पतिने कहा कि यह मेरा पुत्र है; क्योंकि इसकी आकृति मेरे समान है, इसमें सन्देह नहीं ॥ 79 ॥
पुनः दोनोंमें विवाद खड़ा हो गया और देव दानव मिलकर फिर युद्धके लिये आ गये और इस प्रकार उनका बहुत बड़ा समूह एकत्र हो गया ।। 80 ।।
उस समय शान्तिके अभिलाषी स्वयं प्रजापति ब्रह्माजी पुनः वहाँ पहुँचे और रणभूमिमें डटे हुए युद्धोत्सुक देव-दानवोंको उन्होंने युद्धसे रोका ॥ 81 ॥
धर्मात्मा ब्रह्माजीने तारासे पूछा-'हे कल्याणि । यह पुत्र किसका है ? हे सुन्दरि ! तुम सही-सही बता दो, जिससे यह कलह शान्त हो जाय ॥ 82 ॥
तब असितापांगी सुन्दरी ताराने लगाते हुए सिर नीचे करके मन्द स्वरमें कहा - 'यह पुत्र चन्द्रमाका है' ऐसा कहकर वह घरके भीतर चली गयी ॥ 83 ॥ तब प्रसन्नचित्त होकर चन्द्रमाने उस पुत्रको ले लिया। उन्होंने उसका नाम 'बुध' रखा। पुनः वे अपने घर चले गये ॥ 84 ॥
तत्पश्चात् ब्रह्माजी अपने लोकको तथा इन्द्रसहित सभी देवता भी चले गये। इसी प्रकार प्रेक्षक भी जो जहाँसे आये थे, वे सभी अपने-अपने स्थानको चले गये॥ 85 ॥
[हे मुनिजन!] इस प्रकार गुरुके क्षेत्रमें चन्द्रमासे बुधकी उत्पत्तिका यह वृत्तान्त जैसा मैंने पूर्वमें सत्यवती-पुत्र व्यासजीसे सुना था, वैसा आपलोगोंसे कह दिया है ॥ 86 ॥