व्यासजी बोले- इस प्रकार वरप्राप्त उन देवता और तपस्वी ऋषिगणोंने (परस्पर मन्त्रणा करके वृत्रासुरके उत्तम आश्रमके लिये प्रस्थान किया) वहाँ तेजसे प्रकाशमान वृत्रासुरको देखा, जो तीनों लोकको भस्मसात् करने और देवताओंको निगल जानेके लिये उद्यत प्रतीत होता था ऋषियोंने वृत्रासुरके समीप जाकर देवताओंकी कार्य-सिद्धिके लिये उससे सामनीतिपूर्ण तथा रसमय प्रिय वचन कहा ।। 1-23॥
ऋषि बोले- सब लोकोंके लिये भयंकर हे महाभाग वृत्रासुर! आपने इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको व्याप्त कर लिया है, परंतु इन्द्रके साथ आपका वैर आपके सुखको नष्ट करनेवाला है। यह आप दोनोंके लिये दुःखद और चिन्ता बढ़ानेका परम कारण है। न आप सुखसे सो पाते हैं, न ही इन्द्र सन्तुष्ट होकर सोते हैं; क्योंकि आप दोनोंको शत्रु-जन्य भय बना रहता है। आप दोनोंको युद्ध करते हुए भी बहुत समय व्यतीत हो गया है; इससे देवताओं, राक्षसों तथा मनुष्योंसहित समस्त प्रजाको कष्ट हो रहा है । 3-63 ॥इस संसारमें सुख ही ग्राह्य है और दुःख सर्वधा त्याज्य है-यही परम्परा है। वैर करनेवालेको सुख नहीं प्राप्त होता, यह निश्चित सिद्धान्त है। इसलिये युद्धप्रेमी वीर इन्द्रिय सुखको नष्ट करनेवाले युद्धकी प्रशंसा करते हैं, किंतु शृंगाररसके प्रेमी विद्वान् उसकी प्रशंसा नहीं करते। पुष्पोंसे भी युद्ध नहीं करना चाहिये, फिर तीक्ष्ण बाणोंकी तो बात ही क्या ? ॥ 7-9 ॥
युद्धमें विजय ही हो-यह सन्देहास्पद है, परंतु उसमें बाणोंसे शरीरको पीड़ा प्राप्त होना निश्चित है। यह समस्त विश्व दैवके अधीन है, उसी प्रकार जय पराजय भी उसीके अधीन हैं। अत: इन्हें दैवाधीन जानकर युद्ध कभी नहीं करना चाहिये। समयपर स्नान, भोजन, शय्यापर शयन और सेवा परायण पत्नी ये ही संसारमें सुखके साधन हैं। वाणवर्षासे भयंकर, खड्ग प्रहारसे अत्यन्त रौद्र तथा शत्रुको सुख प्रदान करनेवाले संग्राममें युद्ध करनेसे क्या सुख प्राप्त हो सकता है ? ॥ 10- 123 ॥
ऐसा स्पष्ट कथन है कि युद्धमें मरनेसे स्वर्ग सुखकी प्राप्ति होती है-यह तो प्रलोभन और प्रेरणा | देनेवाला तथा निरर्थक वचन है। ऐसा कौन मन्दबुद्धि है जो शरीरको अस्त्र-शस्त्रोंसे घायल कराकर सियार और कौओंसे नोचवाकर स्वर्गसुखकी प्राप्तिकी कामना करेगा! ।। 13-146 ॥
हे वृत्र ! इन्द्रके साथ तुम्हारी स्थायी मैत्री हो जाय, जिससे तुम्हें और इन्द्र-दोनोंको निरन्तर सुखकी प्राप्ति हो आप दोनोंका वैर शान्त हो जानेसे हम सब तपस्वी और गन्धर्वगण भी अपने-अपने आश्रमोंमें सुखपूर्वक रह सकेंगे। हे धीर! आप दोनोंके दिन-रातके युद्धमें हम सभी मुनियों, गन्धर्वों, किन्नरों और मनुष्योंको कष्ट प्राप्त होता है। सभी लोगोंको शान्ति प्राप्त हो सके इस कामनासे हम सब आप दोनोंमें मैत्री कराना चाहते हैं ।। 15- 18 ॥
हे वृत्र! मुनिगण, तुम्हें और इन्द्रको सुख प्राप्त हो। हमलोग तुम दोनोंकी मित्रता करानेमें मध्यस्थ बनेंगे। हम शपथ कराकर आप दोनोंको एक-दूसरेका प्रिय मित्र बना देंगे। आप जैसा कहेंगे, वैसे ही इन्द्र भी आपके सम्मुख शपथ लेकर आपके मनको प्रेमसेपरिपूर्ण कर देंगे। सत्यके आधारपर ही यह पृथ्वी स्थित है, सत्यसे ही भगवान् सूर्य नित्य तपते हैं, सत्यसे ही समयके अनुसार वायु बहती है और सत्यके कारण ही समुद्र भी अपनी मर्यादाका परित्याग नहीं करता। इसलिये सत्यके आधारपर ही आज आप दोनोंमें मित्रता हो जाय, जिससे आपलोग सुखपूर्वक साथ-साथ शयन, क्रीडा, जलकेलि कर सकें और बैठ सकें। इसलिये आप दोनोंको एकत्रित होकर अवश्य ही मित्रता कर लेनी चाहिये । 19 - 233 ॥ व्यासजी बोले- उन महर्षियोंका वचन सुनकर अत्यन्त बुद्धिमान् वृत्रासुरने कहा- हे भगवन्! आप सभी तपस्वीगण मेरे मान्य हैं। आप मुनिगण कभी असत्य भाषण नहीं करते। आपलोग सदाचारी तथा अति शान्त स्वभाववाले हैं और छल करना नहीं जानते। किंतु वैरी, मूर्ख, जड़, कामी, कलंकित और निर्लज्जसे बुद्धिमान्को मित्रता नहीं करनी चाहिये। यह (इन्द्र) निर्लज्ज, दुराचारी, ब्राह्मणघाती, लम्पट और मूर्ख है इस प्रकारके व्यक्तिका विश्वास नहीं करना चाहिये। आप सभी लोग कुशल हैं, किंतु द्रोह-बुद्धिवाले कभी नहीं हैं। आप सब शान्तचित्त होनेके कारण अतिवादियोंके मनकी बात नहीं जानते ।। 24- 283 ॥
मुनि बोले- प्रत्येक प्राणी अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मोंका फल भोगता है। जिसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी हो, वह द्रोह करके भी क्या शान्ति प्राप्त कर सकता है ? विश्वासघात करनेवाले निश्चय ही नरकमें जाते हैं। विश्वासघाती निश्चितरूपसे दुःख प्राप्त करता है। ब्राह्मणकी हत्या करनेवालों और मद्यपान करनेवालोंके लिये तो प्रायश्चित्त है, परंतु विश्वासघातियों और मित्रद्रोहियोंके लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं है। अतः हे सर्वज्ञ! आपने मनमें जो शर्त निश्चय कर रखी हो, उसे बताइये; जिससे उस शर्तके अनुसार आज ही आप दोनोंमें सन्धि हो जाय ॥ 29-323॥
वृत्रासुर बोला - हे महाभाग ! सभी देवताओं सहित इन्द्र न शुष्क या गीली वस्तुसे, न पत्थरसे, न काष्ठसे, न वज्रसे, न दिनमें और न रातमें मेरा वध कर सकें। हे विप्रेन्द्रो इसी शर्तपर मैं इन्द्रसे सन्धि करना चाहता हूँ, अन्यथा नहीं ॥ 33-343 ॥व्यासजी बोले – ऋषियोंने उससे आदरपूर्वक कहा-'ठीक है' और तत्पश्चात् देवराज इन्द्रको वहाँ बुलाकर उन्हें वह शर्त सुना दी। इन्द्रने भी मुनियोंकी उपस्थितिमें अग्निको साक्षी करके शपथें लीं और वे सन्तापसे मुक्त हो गये। वृत्रासुर भी उनकी बातोंसे विश्वासमें आ गया और इन्द्रके साथ मित्रकी भाँति व्यवहारपरायण हो गया ।। 35-373 ॥
वे दोनों कभी नन्दनवनमें, कभी गन्धमादनपर्वतपर | और कभी समुद्रके तटपर आनन्दपूर्वक विचरण करते थे। इस प्रकार सन्धि हो जानेपर वृत्रासुर बहुत प्रसन्न रहता था। लेकिन वधकी इच्छावाले इन्द्र उसके वधके उपाय सोचा करते थे। इन्द्र उसकी कमजोरी ढूँढ़नेके लिये सदा उद्विग्न रहते थे । ll 38-40 ॥
इन्द्रके इस प्रकार विचार करते हुए कुछ समय बीत गया। वृत्रासुरको अत्यन्त क्रूर इन्द्रपर अत्यधिक विश्वास हो गया। इस प्रकार सन्धिके कुछ वर्ष बीत जानेपर इन्द्रने मन-ही-मन वृत्रासुरके मरणका उपाय | सोच लिया ।। 41-42 ॥
एक बार त्वष्टाने इन्द्रपर बहुत अधिक विश्वास करनेवाले पुत्रसे कहा- हे पुत्र वृत्रासुर! हे महाभाग ! मेरी हितकर बात सुनो, जिसके साथ शत्रुता हो चुकी हो, उसका विश्वास कभी नहीं करना चाहिये इन्द्र तुम्हारा शत्रु है, वह दूसरोंके द्वारा तुम्हारे गुणोंमें सदा दोष ढूँढ़ा करता है ॥ 43-44 ॥
वह सदा लोभसे उन्मत्त रहनेवाला, सबसे द्वेष रखनेवाला, दूसरोंका दुःख देखकर सुखी रहनेवाला, परस्त्रीगामी, पापबुद्धि, कपटी, छिद्रान्वेषी, दूसरोंसे द्रोह करनेवाला, मायावी और अहंकारी है, जिसने कि एक बार माताके उदरमें प्रवेश करके उसके गर्भको | सात भागों में काट डाला। तब उन्हें रोते देखकर उस निर्दयीने उनके भी पृथक् पृथक् सात भाग कर | दिये। * इसलिये हे पुत्र ! उसपर किसी प्रकार भी विश्वास नहीं करना चाहिये। हे पुत्र ! पाप करनेवालेको दुबारा पाप करनेमें क्या लज्जा ! ॥। 45 - 473 ॥व्यासजी बोले- इस प्रकार पिताद्वारा कल्याणकारी वचनोंसे समझाये जानेपर भी आसन्न मृत्यु वृत्रासुरको कुछ भी चेत नहीं हुआ ।। 483 ॥
एक दिन उन्होंने (इन्द्रने) उस महान् दैत्यको समुद्रके तटपर देखा। उस समय संध्याकालका अत्यन्त भयंकर मुहूर्त उपस्थित था। तब इन्द्रने महात्मा मुनियोंद्वारा निर्धारित शर्त-वरदानपर यह विचार करके कि यह भयंकर संध्याकाल है, इस समय न दिन है, न रात है, अतः मुझे आज ही इसे अपनी शक्तिसे मार डालना चाहिये; इसमें सन्देह नहीं है । ll49 - 51 ॥
यहाँ एकान्त है और यह अकेला है तथा समय भी अनुकूल है - ऐसा विचारकर उन्होंने अपने मनमें अविनाशी भगवान् श्रीहरिका स्मरण किया। [स्मरण करते ही] पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु वहाँ अदृश्यरूपसे आ गये और वे प्रभु श्रीहरि इन्द्रके वज्रमें प्रविष्ट होकर विराजमान हो गये ।। 52-53 ॥
तब इन्द्र वृत्रासुरको मारनेकी युक्ति सोचने लगे कि सभी देवताओं तथा दानवोंसे सर्वथा अजेय इस शत्रुको युद्धमें कैसे मारूँ ? यदि छल करके इस | महाबलीको आज नहीं मारता तो इस शत्रुके जीवित रहते किसी भी प्रकार कल्याण नहीं है। इन्द्र ऐसा विचार कर ही रहे थे तभी उन्होंने समुद्रमें पर्वतके समान जलफेनको देखा ।। 54-56 ॥
यह न सूखा है, न गीला है और यह न तो कोई शस्त्र है, [ऐसा विचारकर] इन्द्रने उस समुद्रफेनको लीलापूर्वक उठा लिया ॥ 57 ॥
तदनन्तर उन्होंने परम भक्तिपूर्वक, पराशक्तिbजगदम्बाका स्मरण किया, तब स्मरण करते ही देवीने अपना अंश उस फेनमें स्थापित कर दिया ॥ 58 ॥ इन्द्रने भगवान् श्रीहरिसे युक्त वज्रको उस फेनसे आवृत कर दिया और उस फेनसे आवृत वज्रको वृत्रासुरके ऊपर फेंका ॥ 59 ॥
उस वज्रके अचानक प्रहारसे वह पर्वतकी भाँति गिर पड़ा। तब उसके मर जानेपर इन्द्र अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो उठे और ऋषिगण विविध स्तोत्रोंसे देवराज इन्द्रकी स्तुति करने लगे। उस शत्रुके मारे जानेसे प्रसन्नचित्त इन्द्रने देवताओंके साथ उन भगवतीकीपूजा की तथा विविध स्तोत्रोंसे उन्हें प्रसन्न किया, जिनकी कृपासे शत्रु मारा गया ॥ 60-62 ॥
तत्पश्चात् इन्द्रने देवोद्यान नन्दनवनमें पराशक्ति भगवतीका मन्दिर बनवाया और उसमें पद्मराग मणियोंसे निर्मित मूर्तिकी स्थापना की और सभी देवता भी तीनों समय उनकी महती पूजा करने लगे; तभीसे श्रीदेवी ही उन देवताओंकी कुलदेवी हो गयीं ॥ 63-64॥
तब महापराक्रमी और देवताओंके लिये भयंकर | वृत्रके मारे जानेपर इन्द्रने तीनों लोकोंमें श्रेष्ठ भगवान् विष्णुकी पूजा की। उस वृत्रासुरके मर जानेपर कल्याण कारी वायु बहने लगी तथा देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नरगण हर्षित हो उठे ॥ 65-66 ॥
इस प्रकार भगवती पराशक्तिके समुद्रफेनसे संयुक्त होने और उनके द्वारा ही विमोहित किये जानेके कारण वृत्रासुर सहसा इन्द्रके द्वारा मारा गया। | इसलिये वे भगवती देवी संसारमें 'वृत्रनिहन्त्री' इस नामसे विख्यात हुईं और वह वृत्रासुर चूँकि प्रकटरूपसे इन्द्रके द्वारा मारा गया था, इसलिये उसे इन्द्रके द्वारा मारा गया, ऐसा कहा जाता है ।। 67-68 ॥