श्रीनारायण बोले- हे परन्तप। मनु एवं मरीचि आदि श्रेष्ठ मुनियोंके द्वारा चारों ओरसे घिरे हुए उन पद्मयोनि ब्रह्माजीके मनमें अनेक प्रकारके विचार उत्पन्न हो रहे थे। हे अनघ! इस प्रकार ध्यान करते हुए उन ब्रह्माजीकी नासिकाके अग्रभागसे अंगुष्ठमात्र परिमाणवाला एक वराह-शिशु सहसा प्रकट हो गया ।। 1-2॥हे नारद! उन ब्रह्माजीके देखते-देखते वह वराह-शिशु आकाशमें स्थित होकर क्षणभरमें बढ़कर एक विशालकाय हाथीके आकारका हो गया। वह एक महान् आश्चर्यजनक घटना थी ॥ 3 ॥
हे नारद! उस समय मरीचि आदि प्रधान विप्रवरों तथा सनक आदि ऋषियोंके साथ बैठे ब्रह्माजी वह वराहरूप देखकर मन-ही-मन विचार करने लगे कि सूकरके व्याजसे यह कौन-सा दिव्य प्राणी मेरी नासिकासे निकलकर मेरे सम्मुख उपस्थित हो गया। यह तो महान् आश्चर्य है। अभी-अभी अँगूठेके पोरके बराबर दिखायी पड़नेवाला यह क्षणभरमें ही पर्वतराजके सदृश हो गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि स्वयं यज्ञरूप भगवान् विष्णु ही मेरे मनको खिन्न करते हुए इस रूपमें प्रकट हुए हों ॥ 4-6 ॥
परमात्मा ब्रह्माजी ऐसा सोच ही रहे थे कि उसी समय पर्वतके समान आकृतिवाले वाराहरूपधारी उन भगवान्ने गर्जना की ॥ 7 ॥
उन्होंने अपने गर्जनमात्रसे समस्त दिशाओंको निनादित करते हुए ब्रह्माजी तथा वहाँ उपस्थित उत्तम ब्राह्मणोंके समुदायको हर्षित कर दिया ॥ 8 ॥
अपने खेदको नष्ट करनेवाली घुरघुराहटकी ध्वनि सुनकर जनलोक, तपलोक तथा सत्यलोकमें निवास करनेवाले उन श्रेष्ठ देवताओं और विप्रवरोंने छन्दोबद्ध उत्तम स्तोत्रों तथा ऋक्, साम और अथर्ववेदसे सम्भूत पवित्र सूक्तोंसे आदिपुरुषकी स्तुति प्रारम्भ कर दी ।। 9-10 ॥
उनकी स्तुति सुनकर ऐश्वर्यसम्पन्न वाराहरूप भगवान् श्रीहरि अपनी कृपादृष्टिमात्रसे उन्हें अनुगृहीत करके जलमें प्रविष्ट हो गये ॥ 11 ॥
जलमें प्रविष्ट होते हुए उन भगवान्की सटाके आघातसे अत्यन्त पीड़ित समुद्रने उनसे कहा शरणागतोंके दुःख दूर करनेवाले हे देव! मेरी रक्षा कीजिये ॥ 12 ॥
समुद्रके द्वारा कथित यह वचन सुनकर भगवान् श्रीहरि जलचर जीवोंको इधर-उधर हटाते हुए अथाह जलमें चले गये ॥ 13 ॥इधर-उधर भ्रमण करते हुए, पृथ्वीको खोजते हुए उन सर्वेश्वरने धीरे-धीरे सूँघ-सूँघकर अन्तमें सबको धारण करनेवाली उस पृथ्वीको पा लिया ॥ 14 ॥ उस समय अगाध जलके भीतर प्रविष्ट तथा सभी प्राणियोंको आश्रय देनेवाली उस पृथ्वीको | देवदेवेश्वर श्रीहरिने अपने दाढ़ोंपर उठा लिया ॥ 15 ॥
उस पृथ्वीको अपने दाढ़पर रखे हुए यज्ञेश्वर तथा यज्ञपुरुष भगवान् श्रीहरि ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो कोई दिग्गज कमलिनीको [अपने दाँतपर] उठाये हो ॥ 16 ॥
अपने दाढ़पर पृथ्वीको उठाये हुए उन देवेश्वरको देखकर स्वराट् मनुसहित देवाधिदेव ब्रह्मा उनकी स्तुति करने लगे ॥ 17 ॥
ब्रह्माजी बोले- भक्तोंके कष्ट दूर करनेवाले, देवताओंके आवास स्वर्गको तिरस्कृत करनेवाले तथा समस्त मनोभिलषित फल प्रदान करनेवाले हे कमलनयन ! आपकी जय हो ॥ 18 ॥ हे देव! आपके दाढ़पर स्थित यह पृथ्वी उसी भाँति सुशोभित हो रही है, जैसे सुन्दर पत्रोंसे युक्त कमलिनी किसी मतवाले हाथीकी सूँड़पर विराजमान हो ॥ 19 ॥
पृथ्वीके साथ आपका यह शरीर कमलको उखाड़कर उसे अपनी सूँड़के अग्रभागपर धारण किये गजराजके शरीरकी भाँति शोभायमान हो रहा है ॥ 20 ॥
सृष्टि तथा संहार करनेवाले और दानवोंके विनाशके लिये अनेकविध रूप धारण करनेवाले हे देवेश्वर! हे प्रभो! आपको बार-बार नमस्कार है ॥ 21 ॥ सभी देवताओंके आधारभूत! आपको आगेसे नमस्कार है, आपको पीछेसे बार-बार नमस्कार है। हे बृहद्धाम! आपको नमस्कार है ॥ 22 ॥
मैं आपके द्वारा शक्तिशाली बनाकर प्रजा सृष्टिके कार्यमें नियुक्त किया गया हूँ। आपकी आज्ञाके वशमें होकर ही मैं सृष्टि करता हूँ और उसे बिगाड़ता हूँ ॥ 23 ॥
हे हरे ! आपकी सहायतासे ही पूर्व कालमें देवेश्वर तथा देवता बल तथा कालके अनुसार अमृतके विभाजनमें सफल हुए थे ॥ 24 ॥आपके ही निर्देशसे इन्द्र त्रिलोकीका साम्राज्य प्राप्त कर सके हैं, देवसमुदायसे भलीभाँति पूजित होकर विपुल वैभवका उपभोग करते हैं और अग्निदेव दाहकताका गुण पाकर जठराग्नि आदिके भेदसे देवताओं, असुरों और मनुष्योंकी तृप्ति करते हैं ।। 25-26 ॥
आपके ही नियोगसे धर्मराज पितरोंके अधिपति, समस्त कर्मोंके साक्षी, कर्मोंका फल देनेवाले तथा अधीश्वर बने हुए हैं ॥ 27 ॥
विघ्नोंको दूर करनेवाले, सभी प्राणियोंके कर्मक साक्षी और राक्षसोंके ईश्वर यक्षरूप नैर्ऋत भी आपसे ही उत्पन्न हुए हैं ॥ 28 ॥
आपकी ही आज्ञाका आश्रय लेकर लोकपाल वरुणने जलचर जीवोंके स्वामी, जलाधिपति और लोकपालका पद प्राप्त किया है ।। 29 ।।
गन्ध प्रवाहित करनेवाले तथा सभी प्राणियों में प्राण-संचार करनेवाले वायु आपकी ही आज्ञासे लोकपाल और जगद्गुरु हो सके हैं॥ 30 ॥
किन्नरों और यक्षोंके जीवनके आधारस्वरूप कुबेर आपकी आज्ञाके वशवर्ती रहकर ही समस्त लोकपालोंमें सम्मान प्राप्त करते हैं ॥ 31 ॥
सभी देवताओंका अन्त करनेवाले, सभी देवोंके अधिपालक तथा तीनों लोकोंके ईश्वरके भी वन्दनीय भगवान् ईशान आपकी ही आज्ञासे सभी रुद्रोंमें प्रधान हो गये हैं ॥ 32 ॥
आप जगदीश्वर परमात्माको हम नमस्कार करते हैं, जिनके अंशमात्रसे हजारों देवता उत्पन्न हुए हैं ॥ 33 ॥
नारदजी बोले- इस प्रकार विश्वकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजीके द्वारा स्तुत होनेपर आदिपुरुष भगवान् श्रीहरि अपनी लीला प्रदर्शित करते हुए उनपर अनुग्रह करनेके लिये तत्पर हो गये॥ 34 ॥
भगवान् श्रीहरिने उस समय वहाँ आये हुए महान् असुर तथा भयंकर दैत्य हिरण्याक्षको, जिसने उनका मार्ग रोक रखा था, अपनी गदासे मार डाला ॥ 35 ॥तत्पश्चात् उसके रक्तपंकसे लिप्त अंगोंवाले आदिपुरुष भगवान् श्रीहरिने पृथ्वीको अपने दाढ़से उठाकर लीलापूर्वक उसे जलके ऊपर स्थापित कर दिया। इसके बाद वे लोकनाथेश्वर भगवान् अपने धामको चले गये। जो मनुष्य पृथ्वीके उद्धारसे सम्बन्धित इस परम विचित्र तथा उत्तम भगवच्चरितको सुनेगा और पढ़ेगा, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर वैष्णवपद प्राप्त करेगा ॥ 36-38 ॥