व्यासजी बोले [हे महाराज जनमेजय ।] इस प्रकार पिताके समझानेपर राजकुमार त्रिशंकुने हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक गद्गद वाणीमें पितासे कहा 'मैं वैसा ही करूँगा' ॥ 1 ॥तत्पश्चात् महाराज अरुणने वेदशास्त्र के पारगामी विद्वान् तथा मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणोंको बुलाकर अभिषेककी सारी सामग्रियाँ तुरंत एकत्र करायी और सम्पूर्ण तीर्थोंका जल मँगाकर तथा सभी मन्त्रियों, सामन्तों और नरेशोंको बुलाकर शुभ दिनमें उस राजकुमारको विधिपूर्वक श्रेष्ठ राज्यासनपर आसीन कर दिया ॥ 2-33 ॥
इस प्रकार पिताने पुत्र त्रिशंकुको राज्यपर विधिपूर्वक अभिषिक्त करके अपनी धर्मपत्नीके साथ पवित्र तीसरे आश्रम ( वानप्रस्थ) - को ग्रहण किया और वे वनमें गंगाके तटपर कठोर तप करने लगे ॥ 4-5 ॥
आयु समाप्त हो जानेपर वे स्वर्गको चले गये। वहाँ वे देवताओंके द्वारा भी पूजित हुए और इन्द्रके समीप स्थित रहते हुए सदा सूर्यकी भाँति सुशोभित होने लगे ॥ 6 ॥
राजा [जनमेजय] बोले- [हे व्यासजी!] आप पूज्यवरने कथाके प्रसंगमें अभी-अभी बताया कि गुरुदेव वसिष्ठने पयस्विनी गौका वध कर देनेके कारण राजकुमार सत्यव्रतको कुपित होकर शाप दे दिया और वह पिशाचत्वको प्राप्त हो गया। हे प्रभो! | तदनन्तर पैशाचिकतासे उसका कैसे उद्धार हुआ ? इस विषयमें मुझे संशय हो रहा है। शापग्रस्त मनुष्य सिंहासनके योग्य नहीं होता। सत्यव्रतके दूसरे किस कर्मके प्रभावसे मुनि वसिष्ठने उसे अपने शापसे मुक्त कर दिया। हे विप्रर्षे! शापसे मुक्तिका कारण बताइये और मुझे यह भी बताइये कि वैसे [निन्द्य] आकृतिवाले पुत्रको उसके पिता [राजा अरुण] ने अपने घर वापस क्यों बुला लिया ? ॥ 7-10 ॥
व्यासजी बोले- [हे राजन्!] मुनि वसिष्ठके द्वारा शापित वह सत्यव्रत तत्काल पैशाचिकताको प्राप्त हो गया। इसके फलस्वरूप वह कुरूप, दुर्धर्ष | तथा सभी प्राणियोंके लिये भयंकर हो गया, किंतु हे राजन् जब उस सत्यव्रतने भक्तिपूर्वक भगवतीकी उपासना की, तब भगवतीने प्रसन्न होकर क्षणभरमें उसे दिव्य शरीरवाला बना दिया ।। 11-12 ॥
भगवतीके कृपारूपी अमृतसे उसकी पैशाचिकता समाप्त हो गयी और उसका पाप विनष्ट हो गया। अब वह पापरहित तथा अतितेजस्वी हो गया 13॥भगवतीकी कृपासे वसिष्ठजी भी प्रसन्नचित्त हो गये और उसके पिता [अरुण] भी प्रेमसे परिपूर्ण हो गये ॥ 14 ॥
पिताके मृत हो जानेपर धर्मात्मा राजा सत्यव्रत राज्यपर सम्यक् शासन करने लगा। वह अनेक प्रकारके यज्ञोंद्वारा देवेश्वरी सनातनी भगवतीकी उपासनामें तत्पर रहने लगा ॥ 15 ॥
उस त्रिशंकु (सत्यव्रत ) - के पुत्र हरिश्चन्द्र हुए, जो शास्त्रोक्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न तथा परम सुन्दर स्वरूपवाले थे ॥ 16 ॥
[कुछ समयके बाद] राजा त्रिशंकुने अपने पुत्र हरिश्चन्द्रको युवराज बनाकर मानव शरीरसे ही स्वर्ग सुख भोगनेका निश्चय किया ॥ 17 ॥
तब राजा त्रिशंकु वसिष्ठके आश्रममें गये और उन्हें विधिवत् प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर प्रसन्नतापूर्वक उनसे यह वचन कहने लगे ॥ 18 ॥ राजा बोले- हे ब्रह्मपुत्र ! हे महाभाग हे सर्वमन्त्र विशारद हे तापस! आप प्रसन्नतापूर्वक मेरी प्रार्थना सुननेकी कृपा कीजिये। अब स्वर्ग लोकका सुख भोगनेकी इच्छा मेरे मनमें उत्पन्न हुई है। अप्सराओंके साथ रहने, नन्दनवनमें क्रीड़ा करने तथा देव गन्धर्वोंका मधुर गीत सुनने आदि दिव्य भोगोंको मैं इसी मानव शरीरसे भोगना चाहता हूँ ॥ 19-21॥
हे महामुने ! आप शीघ्र ही मुझसे ऐसा यज्ञ सम्पन्न कराइये, जिससे मैं इसी मानव-शरीरसे स्वर्ग लोकमें निवास कर सकूँ। हे मुनिश्रेष्ठ! आप सर्वसमर्थ हैं, अतः मेरा यह कार्य अब पूर्ण कर दीजिये; यज्ञ सम्पन्न कराकर मुझे अत्यन्त दुर्लभ देवलोककी प्राप्ति करा दीजिये ॥ 22-23॥
वसिष्ठजी बोले- हे राजन् मानव शरीरसे स्वर्ग लोकमें निवास अत्यन्त दुर्लभ है। मरनेके पश्चात् ही पुण्य कर्मके प्रभावसे स्वर्गकी सुनिश्चित प्राप्ति कही गयी है। अतः हे सर्वज्ञ ! तुम्हारे इस दुर्लभ मनोरथको पूर्ण करनेमें मैं डर रहा हूँ। जीवित प्राणीके लिये अप्सराओंके साथ निवास दुर्लभ है। अतः हे महाभाग ! आप अनेक यज्ञ कीजिये, मृत्युके अनन्तर आप स्वर्ग प्राप्त कर लेंगे ।। 24-253 ॥व्यासजी बोले- [हे राजन्!] वसिष्ठजीका यह वचन सुनकर अत्यन्त उदास मनवाले राजा त्रिशंकुने पहलेसे ही कुपित उन मुनिवर वसिष्ठसे कहा- हे ब्रह्मन् ! यदि आप अभिमानवश मेरा यज्ञ नहीं करायेंगे, तो मैं किसी दूसरेको अपना पुरोहित बनाकर इसी समय यज्ञ करूँगा ॥ 26-2763 ॥
उनका यह वचन सुनते ही वसिष्ठजीने क्रोधित होकर राजाको शाप दे दिया- 'हे दुर्बुद्धि ! चाण्डाल हो जाओ। इसी शरीरसे तुम अभी नीच योनिको प्राप्त हो जाओ। स्वर्गको नष्ट करनेवाले तथा सुरभीके वधके दोषसे युक्त हे पापिष्ठ! विप्रकी भार्याका हरण करनेवाले तथा धर्ममार्गको दूषित करनेवाले हे पापी! मरनेके बाद भी तुम किसी प्रकार स्वर्ग नहीं प्राप्त कर सकते ।। 28-303 ॥
व्यासजी बोले- हे राजन्! गुरु वसिष्ठके ऐसा कहते ही त्रिशंकु तत्क्षण उसी शरीरसे चाण्डाल हो गये। उनके रत्नमय कुण्डल उसी क्षण पत्थर हो गये तथा शरीरमें लगा हुआ सुगन्धित चन्दन दुर्गन्धयुक्त हो गया। उनके शरीरपर धारण किये हुए दिव्य पीताम्बर कृष्ण वर्णके हो गये। महात्मा वसिष्ठके शापसे उनका शरीर गजवर्ण-जैसा धूमिल हो गया । ll 31 - 336 ॥
हे राजन् भगवतीके उपासक मुनि वसिष्ठके रोषके कारण ही त्रिशंकुको यह फल प्राप्त हुआ। इसलिये भगवती जगदम्बाके भक्तका कभी भी अपमान नहीं करना चाहिये। मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ बड़ी निष्ठाके साथ गायत्रीजपमें संलग्न रहते थे । ll 34-35 ॥
[हे राजन्!] उस समय अपना कलंकित शरीर | देखकर राजा त्रिशंकु अत्यन्त दुःखित हुए। इस प्रकार दीन-दशाको प्राप्त वे राजा घर नहीं गये, अपितु जंगलकी ओर चले गये ॥ 36 ॥
शोक-सन्तप्त वे त्रिशंकु दुःखित होकर सोचने लगे-अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ? मेरा शरीर तो अत्यन्त निन्दित हो गया। मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं सूझ रहा है, जिससे मेरा दुःख दूर हो सके। यदि मैं आज घर जाता है तो मुझे इस स्वरूपमें देखकर पुत्रको महान् पीड़ा होगी और भार्या भी मुझे चाण्डालकेरूपमें देखकर स्वीकार नहीं करेगी। इस प्रकारके चाण्डाल रूपवाले मुझ निन्द्यको देखकर मेरे | मन्त्रीगण तथा जातिवाले भी आदर नहीं करेंगे और भाई-बन्धु भी संगमें नहीं रहेंगे। इस प्रकार सभी लोगोंके द्वारा परित्यक्त किये जानेवाले मेरे लिये तो जीनेकी अपेक्षा मर जाना ही अच्छा है। अतः अब मैं विष खाकर, जलाशयमें कूदकर या गलेमें फाँसी लगाकर देह त्याग कर दूँ अथवा विधिवत् प्रज्वलित अग्निमें अपने देहको जला डालूँ या फिर अनशन करके अपने कलंकित प्राणोंका त्याग कर दूँ ॥ 37-42 ॥
[ऐसा विचार आते ही उन्होंने पुनः सोचा ] आत्महत्या करनेसे मुझे निश्चय ही जन्म-जन्मान्तरमें पुन: चाण्डाल होना पड़ेगा और आत्महत्या दोषके परिणामस्वरूप मैं शापसे कभी सकूँगा ॥ 43 ॥ मुक्त नहीं हो ऐसा सोचनेके बाद राजाने अपने मनमें पुनः विचार किया कि इस समय मुझे किसी भी स्थिति में आत्महत्या नहीं करनी चाहिये, अपितु वनमें रहकर मुझे अपने द्वारा किये गये कर्मका फल इसी शरीरसे भोग लेना चाहिये; क्योंकि इससे इस कुकर्मका फल सर्वथा समाप्त हो जायगा ll 44-45 ॥
भोगसे ही प्रारब्ध कर्मोंका क्षय होता है, अन्यथा इनका क्षय नहीं होता। इसलिये अब यहींपर तीर्थों का सेवन, भगवती जगदम्बाका स्मरण तथा साधुजनोंकी सेवा करते हुए मुझे अपने द्वारा किये गये शुभ तथा अशुभ कर्मोंका फल भोग लेना चाहिये। इस प्रकार वनमें रहते हुए मैं अपने कर्मोंका क्षय अवश्य ही करूँगा। साथ ही, सम्भव है कि भाग्यवश किसी साधुजनसे मिलनेका भी कभी अवसर प्राप्त हो जाय ll 46 - 48 ।।
मनमें ऐसा सोचकर राजा [त्रिशंकु ] अपना नगर छोड़कर गंगाके तटपर चले गये और अत्यधिक चिन्तित रहते हुए वहीं रहने लगे ॥ 49 ll
उसी समय पिताके शापका कारण जानकर राजा हरिश्चन्द्र अत्यन्त दुःखित हुए और उन्होंने अपने मन्त्रियोंको पिता त्रिशंकुके पास भेजा ॥ 50 ॥मन्त्रीगण वहाँ शीघ्र पहुँचकर बार-बार दीर्घ | श्वास ले रहे चाण्डालकी आकृतिवाले राजा त्रिशंकुको प्रणामकर विनम्रतापूर्वक उनसे बोले हे राजन्! आपके पुत्र हरिश्चन्द्रकी आज्ञासे यहाँ आये हुए हमलोगोंको आप मन्त्री समझिये हे महाराज ! आपके पुत्र युवराज हरिश्चन्द्रने [हमसे] जो कहा है, उसे आप सुनिये - 'आपलोग मेरे पिता राजा त्रिशंकुको सम्मानपूर्वक यहाँ ले आइये ' ॥ 51-53 ॥
अतः हे राजन्! अब आप सारी चिन्ता छोड़कर अपने राज्य वापस लौट चलिये। वहाँ सभी मन्त्रीगण तथा प्रजाजन आपकी सेवा करेंगे ॥ 54 ॥
हमलोग भी गुरु वसिष्ठको प्रसन्न करेंगे, जिससे वे आपके ऊपर दया करें। प्रसन्न हो जानेपर वे महान् | तेजस्वी आपका कष्ट अवश्य दूर कर देंगे ॥ 55 ॥ हे राजन्! इस प्रकार आपके पुत्रने बहुत प्रकारसे कहा है। अतः अब शीघ्रतापूर्वक अपने घर लौट चलनेकी कृपा कीजिये ll 56 ll
व्यासजी बोले - [ हे जनमेजय!] उनकी बात सुनकर चाण्डालकी आकृतिवाले राजा त्रिशंकुने अपने घर चलनेका कोई विचार मनमें नहीं किया। उस समय राजाने उनसे कहा- हे सचिवगण! आपलोग नगरको लौट जाइये और हे महाभाग ! वहाँ जाकर [हरिश्चन्द्रसे] मेरे शब्दोंमें कह दीजिये - 'हे पुत्र ! मैं नहीं आऊँगा। तुम अनेकविध यज्ञोंके द्वारा ब्राह्मणोंका सम्मान करते हुए तथा देवताओंकी पूजा करते हुए सदा सावधान होकर राज्य करो' ॥ 57-59 ॥
[हे सचिवगण!] महात्माओंके द्वारा सर्वथा निन्दित इस चाण्डाल-वेशसे अब मैं अयोध्या नहीं जाऊँगा । आप सभी लोग यहाँसे शीघ्र लौट जाइये। [ वहाँ जाकर ] मेरे महाबली पुत्र हरिश्चन्द्रको सिंहासनपर बिठाकर आपलोग मेरी आज्ञासे राज्यके समस्त कार्य कीजिये ।। 60-61 ॥
इस प्रकार त्रिशंकुके उपदेश देनेपर सभी मन्त्री अत्यधिक दुःखी होकर रोने लगे और उन्हें प्रणाम करके वानप्रस्थ आश्रममें जीवन व्यतीत करनेवाले उन [ राजा त्रिशंकु]-के पाससे लौट आये। अयोध्यामें आकर उन मन्त्रियोंने शुभ दिनमें हरिश्चन्द्रके मस्तकपर विधिपूर्वक अभिषेक किया ॥ 62-63 ॥राजा [त्रिशंकु ] -की आज्ञासे मन्त्रियोंके द्वारा राज्याभिषिक्त होकर तेजस्वी तथा धर्मपरायण हरिश्चन्द्र अपने पिताका निरन्तर स्मरण करते हुए राज्य करने लगे ॥ 64॥