जनमेजय बोले- [हे मुने!] हिमालयके शिखरपर आविर्भूत जिस परम ज्योतिके विषयमें आप पहले बता चुके हैं, उसे मुझे विस्तारसे बताइये 1 ऐसा कौन बुद्धिमान् मनुष्य होगा, जो भगवतीके कथामृतका पान करता हुआ उससे विरत हो जाय; क्योंकि अमृत पीनेवालोंकी मृत्यु तो सम्भव है, किंतु इस कथामृतका पान करनेवालेकी मृत्यु नहीं हो सकती ॥ 2llव्यासजी बोले- आप धन्य हैं, कृतकृत्य हैं, भाग्यवान् हैं और महात्माओंद्वारा शिक्षित किये गये हैं; इसीसे भगवतीके प्रति आपकी निश्छल भक्ति है ॥ 3 ॥
हे राजन् ! एक प्राचीन कथा सुनिये। अग्निमें सतीदेहके दग्ध हो जानेपर भगवान् शिव व्याकुल होकर इधर-उधर भ्रमण करने लगे और अन्तमें किसी स्थानपर ठहर गये। इसके बाद उन आत्मनिष्ठ शिवने प्रपंचज्ञानसे शून्य होकर मनको समाधिस्थ करके भगवतीके स्वरूपका ध्यान करते हुए कुछ समय वहींपर व्यतीत किया ॥ 4-5 ॥
स्थावर-जंगममय तीनों लोक सौभाग्यसे रहित हो गये। समुद्रों, द्वीपों और पर्वतोंसहित सम्पूर्ण जगत् शक्तिहीन हो गया। सभी प्राणियोंके हृदयमें प्रवहमान आनन्द सूख गया और सभी लोग चिन्तासे पीड़ित मनवाले तथा खिन्नमनस्क हो गये। सभी दुःखरूपी समुद्रमें डूब गये और रोगग्रस्त हो गये । हे राजन्! सतीके अभावसे उस समय ग्रहों, देवताओं, अधिभूत तथा अधिदैवत इन सबका व्यवहार विपरीत हो गया और समस्त प्राणी अपनी मर्यादासे विचलित हो गये ॥ 6-83 ॥
उसी समय तारक नामक एक महान् असुर उत्पन्न हुआ। वह दैत्य ब्रह्माजीसे वरदान पाकर तीनों लोकोंका शासक हो गया। भगवान् शंकरका जो औरस पुत्र होगा, वही तुम्हारा संहारक होगा देवाधिदेव ब्रह्माद्वारा इस प्रकारकी कल्पित मृत्युका वर पाकर वह महासुर तारक शंकरजीके औरस पुत्रके अभावके कारण [निर्भीक होकर] गर्जन तथा निनाद करने लगा ।। 9-11 ॥
इससे सभी देवता अपना-अपना स्थान छोड़कर भाग गये। शिवका कोई औरस पुत्र न होनेके कारण | देवताओंको महान् चिन्ता हुई। वे सोचने लगे कि शंकरजीकी भार्या तो है नहीं, तो पुत्रोत्पत्ति कैसे होगी? ऐसी स्थितिमें हम भाग्यहीनोंका कार्य किस प्रकार सिद्ध होगा ? ॥ 12-13 ॥इस प्रकारकी चिन्तासे व्याकुल सभी देवता वैकुण्ठलोक गये और उन्होंने एकान्तमें भगवान् विष्णुसे सब कुछ बताया। इसपर उन्होंने उपाय बताते हुए कहा-आप सब चिन्तासे व्यग्र क्यों हो रहे हैं? वे भगवती शिवा कामनाएँ पूर्ण करनेवाले कल्पवृक्षके समान हैं। मणिद्वीपमें विराजमान रहनेवाली भगवती भुवनेश्वरी सदा जागती रहती हैं ll 14-15 ll
हमलोगोंके दोषके कारण ही हमारे प्रति उनकी उपेक्षा है, कोई अन्य कारण नहीं है। हमें सीख प्रदान करनेके लिये ही जगदम्बाने हमें यह शिक्षा प्रदान की है ॥ 16 ॥
जिस प्रकार प्यार करने अथवा डाँटने-फटकारने किसी भी स्थितिमें माता बालकके प्रति निर्दयताका व्यवहार नहीं करती, वैसे ही गुण-दोषपर नियन्त्रण करनेवाली जगदम्बाके विषयमें भी जानना चाहिये ॥ 17 ॥
पुत्रसे तो पग-पगपर अपराध होता है, माताको छोड़कर जगत्में दूसरा कौन उसे सह सकता है। अतः आपलोग निष्कपट चित्तवृत्तिके साथ उन भगवती पराम्बाकी शरणमें अविलम्ब जाइये। वे आपलोगोंका कार्य अवश्य सिद्ध करेंगी ॥ 18-19 ॥
सभी देवताओंको यह उपदेश देकर देवेश्वर महाविष्णु अपनी भार्या लक्ष्मी तथा देवताओंके साथ | शीघ्र चल पड़े और महाद्रि गिरिराज हिमालयपर आ गये। वहाँ सभी देवता पुरश्चरण कर्ममें संलग्न हो गये। हे राजन् ! अम्बायज्ञकी विधि जाननेवाले देवतागण अम्बायज्ञ करने लगे। सभी देवता शीघ्रतापूर्वक तृतीया आदि व्रत सम्पादित करनेमें लग गये ॥ 20-22 ॥
कुछ लोग समाधि लगाकर बैठ गये, कुछ लोग भगवतीके नामजपमें लीन हो गये, कुछ लोग सूक्तपाठ करने लगे और कुछ लोग नामोंका पारायण करनेमें निष्णात हो गये। इसी प्रकार कुछ देवता मन्त्रपारायणमें तत्पर हो गये, कुछ कृच्छ्रव्रत करने लगे, कुछ अन्तर्याग करनेमें संलग्न हो गये और कुछ देवता न्यास आदिमें तत्पर हो गये। कुछ देवता सावधान होकर हल्लेखाबीज मन्त्र से पराशक्ति जगदम्बाकी पूजा करने लगे। हे जनमेजय ! इस प्रकार बहुत वर्षोंतक भगवतीकी आराधना करते हुए समय व्यतीत हुआ ॥ 23-25 ॥तदनन्तर चैत्रमासकी शुक्लपक्षकी नवमी | तिथिमें शुक्रवारको श्रुतियोंद्वारा प्रतिपादित एक महान् | ज्योति अकस्मात् सबके समक्ष प्रकट हुई। चारों वेद मूर्तिमान् होकर चारों दिशाओंमें उसकी स्तुति कर रहे थे, वह ज्योति करोड़ों सूर्योकी प्रभाके समान आलोकित थी, उसमें करोड़ों चन्द्रमाओंकी शीतलता विद्यमान थी, वह करोड़ों बिजलियोंके समान अरुण आभासे युक्त थी, वह परम ज्योति न ऊँची, न तिरछी, न मध्यमें अपितु सभी ओर व्याप्त थी। आदि और अन्तसे हीन वह तेज हाथ आदि अंगोंसे युक्त नहीं था। वह तेज न स्त्रीरूप, न पुरुषरूप अथवा न उभयरूपमें ही था ॥ 26-29 ॥
हे राजन् ! उस ज्योतिकी दीप्तिसे उन | देवताओंकी आँखें बन्द हो गयीं। इसके बाद धैर्य धारणकर जब देवताओंने देखा तब वह दिव्य तथा मनोहर आभा उन्हें नव-यौवनसे सम्पन्न अति सुन्दर अंगोंवाली तथा कुमारी अवस्थावाली स्त्रीके रूपमें दृष्टिगोचर हुई ॥ 30-31॥
उनके उन्नत तथा विशाल दोनों वक्षःस्थल पूर्ण विकसित कमलको भी तिरस्कृत कर रहे थे। वे बजती हुई किंकिणी तथा मधुर ध्वनि करती हुई नूपुर एवं करधनी धारण किये हुए थीं। वे सुवर्णके बाजूबन्द, मुकुट तथा कण्ठहारसे सुशोभित थीं। वे बहुमूल्य मणियोंसे जड़ा हुआ हार गलेमें धारण किये हुए थीं। केतकीके नूतन पत्तोंके समान उनके कपोलोंपर काले भ्रमरसदृश केश लटक रहे थे। उनका नितम्बस्थल अत्यन्त मनोहर था। वे सुन्दर रोमावलियोंसे अत्यन्त शोभा पा रही थीं। उनका मुख कर्पूरके छोटे-छोटे टुकड़ोंसे युक्त ताम्बूलसे परिपूर्ण था। उनके कमलसदृश मुखपर | सुवर्णमय कुण्डलकी मधुर ध्वनि हो रही थी। उनका ललाट अष्टमीके चन्द्रमण्डलकी आभाके समान सुशोभित हो रहा था और उसपर उनकी फैली हुई विशाल भौंहें महान् शोभा पा रही थीं। उनके नेत्र लाल कमलके समान थे, नासिका उन्नत थी तथा ओष्ठ मधुर थे ॥ 32-36 ॥वे भगवती कुन्दकी पूर्ण विकसित कलियोंके समान सुन्दर दाँतोंसे सुशोभित थीं। वे मोतियोंकी माला धारण किये हुए थीं। वे रत्नजटित मुकुट पहने हुई थीं। वे चन्द्ररेखारूपी शिरोभूषणसे सुशोभित हो रही थीं; उनके केशकी वेणीमें मल्लिका और मालती पुष्पोंकी माला विद्यमान थी। केसरकी बिन्दीसे उनका ललाट सुशोभित था। वे तीन नेत्रोंसे शोभा पा रही थीं तीन नेत्रोंवाली वे अपनी चारों भुजाओंमें पाश, 1 अंकुश, वर और अभय मुद्राएँ धारण किये हुए थीं। वे लाल रंगका वस्त्र पहने हुए थीं। उनके शरीरकी प्रभा दाडिमके पुष्पके समान थी। वे शृंगारके सभी वेषोंसे अलंकृत थीं और समस्त देवताओंसे नमस्कृत हो रही थीं। इस प्रकार देवताओंने सभी प्राणियोंकी आशाओंको पूर्ण करनेवाली, सभीकी जननी, सबको मोहित करनेवाली, प्रसन्नतायुक्त सुन्दर मुखमण्डलवाली, मन्द मन्द मुसकानयुक्त मुखकमलवाली और विशुद्ध करुणाकी साक्षात् मूर्तिस्वरूपा माता जगदम्बाको अपने सामने देखा ll 37-41 ll
उन करुणामूर्ति भगवतीको देखकर देवताओंने आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। आनन्दा श्रुसे रुँधे हुए कण्ठवाले सभी देवता कुछ भी नहीं बोल सके ॥ 42 ॥
किसी प्रकार धैर्य धारणकर प्रेमके आँसुओंसे परिपूर्ण नेत्रोंवाले वे देवगण शीश झुकाकर भक्तिपूर्वक जगदम्बिकाकी स्तुति करने लगे 43 ॥
देवताओंने कहा- देवीको नमस्कार है, महादेवी शिवाको निरन्तर नमस्कार है, प्रकृति एवं भद्राको नमस्कार है; हमलोग नियमपूर्वक उन्हें प्रणाम करते हैंll 44 ॥
उन अग्निसदृश वर्णवाली, ज्ञानसे जगमगानेवाली, दीप्तिमयी, कर्मफलोंकी प्राप्तिहेतु सेवन की जानेवाली भगवती दुर्गाकी शरण हम ग्रहण करते हैं। पार करनेयोग्य संसार सागरसे तरनेके लिये उन भगवतीको नमस्कार है ।। 45 ।।
विश्वरूप देवताओंने जिस वैखरी वाणीको उत्पन्न किया, उसीको अनेक प्रकारके प्राणी बोलते हैं। वे कामधेनुतुल्य, आनन्ददायिनी और अन्न तथा बल देनेवाली वाररूपिणी भगवती उत्तम स्तुतिसे | संतुष्ट होकर हमारे समीप पधारें ॥ 46 ॥हम सब देवतागण कालरात्रिस्वरूपिणी, वेदोंद्वारा स्तुत विष्णुकी शक्तिस्वरूपा स्कन्दमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति, दक्षपुत्री सती तथा पावन भगवती शिवाको नमस्कार करते हैं ।। 47 ।।
हम महालक्ष्मीको जानते हैं और उन सर्वशक्ति स्वरूपिणीका ध्यान करते हैं। वे भगवती हमें इस ज्ञान-ध्यानमें प्रवृत्त करें ॥ 48 ॥
विराट्रूप धारण करनेवालीको नमस्कार है, है, सूक्ष्मरूप धारण करनेवालीको नमस्कार है अव्यक्तरूप धारण करनेवालीको नमस्कार है और श्रीब्रह्ममूर्तिस्वरूपिणी देवीको नमस्कार है ॥ 49 ॥
जिन भगवतीको न जाननेके कारण यह जगत् मनुष्यको रस्सीमें सर्प, माला आदिकी भाँति प्रतीत होता है और जिसे जान लेनेपर यह भ्रान्ति नष्ट हो जाती है, उन जगदीश्वरीको हम नमस्कार करते हैं ॥ 50 ॥
'तत्' पदकी लक्ष्यार्थ, एकमात्र चिन्मय स्वरूपवाली, अखण्डानन्दस्वरूपिणी तथा वेदोंके तात्पर्यकी भूमिकास्वरूपिणी उन भगवतीको हम नमन करते हैं ॥ 51 ॥
पंचकोशसे अतिरिक्त, तीनों अवस्थाओंकी साक्षिणी, 'त्वम्' पदकी लक्ष्यार्थ तथा प्रत्यगात्मस्वरूपिणी उन जगदम्बाको हम नमस्कार करते हैं ॥ 52 ॥
प्रणवरूपवाली भगवतीको नमस्कार है। ह्रींकारविग्रहवाली भगवतीको नमस्कार है। अनेक मन्त्रोंके स्वरूपवाली आप करुणामयी देवीको बार बार नमस्कार है ॥ 53 ॥
देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर मणिद्वीपमें निवास करनेवाली तथा मत्त कोलके समान ध्वनि करनेवाली भगवती मधुर वाणीमें कहने लगीं ॥ 54 ॥ देवी बोलीं- आप सभी देवतागण अपना वह
कार्य बताइये, जिसके लिये आप सब यहाँ एकत्रित हुए हैं। सर्वदा वर प्रदान करनेवाली में भक्तोंकी कामना पूर्ण करने हेतु कल्पवृक्ष हूँ ॥ 55 ॥
मेरे रहते भक्तिपरायण आप सब देवताओंको कौन-सी चिन्ता है? मैं इस दुःखमय संसारसागरसे | अपने भक्तोंका उद्धार कर देती हूँ। हे श्रेष्ठ देवतागण ! आपलोग मेरी इस प्रतिज्ञाको सत्य समझिये ॥ 563 ॥हे राजन्! भगवतीकी यह स्नेहमयी वाणी सुनकर देवताओंके मनमें अत्यन्त प्रसन्नता हुई औरnवे निर्भय होकर उनसे अपना दुःख कहने लगे ।। 573 ॥
देवता बोले- हे परमेश्वरि इस त्रिलोकीमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जो सब कुछ जाननेवाली तथा सबकीnसाक्षिस्वरूपा आप भगवती के लिये अज्ञात हो ॥ 58 ॥ हे शिवे । असुरराज तारक हमलोगोंको दिन-रात पीड़ित कर रहा है। ब्रह्माजीने शिवजीके औरसपुत्रके द्वारा उसका वध सुनिश्चित किया है। हे महेश्वरि ! आप तो जानती ही हैं कि शिवकी कोई भार्या नहीं है। हम अल्पबुद्धि प्राणी सब कुछ जाननेवाली आपसे क्या कहें, [आप देह धारणकर अवतरित हों] इसी प्रयोजनसे |हमलोगोंने आपसे निवेदन किया है। हे अम्बिके। दूसरी बात भी ध्यान में रखें। आपके चरणकमलमें हमलोगोंकी अविचल भक्ति सर्वदा बनी रहे। देहकी रक्षाके निमित्त यह हमारा दूसरा मुख्य निवेदन है ।। 59-62 ॥
उनकी यह बात सुनकर भगवती परमेश्वरीने कहा 'गौरी' नामक मेरी जो शक्ति है, वह हिमालयके पर आविर्भूत होगी। आपलोग ऐसा प्रयत्न कीजिये कि वह शिवको प्रदान कर दी जाय, वही गौरी आपलोगोंका कार्य सिद्ध करेगी। मेरे चरणकमलमें आपलोगोंकी भक्ति सदा आदरपूर्वक बनी रहे। हिमालय भी अत्यन्त भक्तिके साथ मनोयोगसे मेरी उपासना कर रहे हैं; अतः उनके घर जन्म लेना मैंने प्रियकर माना है । ll 63-65 ॥
व्यासजी बोले- [ वहाँ देवताओंके साथ विद्यमान] हिमालयने भी देवीकी वह अति कृपापूर्ण वाणी सुनकर आँसुओंसे रुंधे कंठ तथा अश्रुपूर्ण नेत्रोंसे महाराज्ञी भगवतीसे यह वचन कहा-आप जिसपर कृपा करना चाहती हैं, उसे अति महान् बना देती हैं अन्यथा कहाँ जड़ तथा स्थाणु मैं और कहाँ सच्चित्स्वरूपिणी आप ॥ 66-67 ।।
हे अनघे! सैकड़ों जन्मोंमें अश्वमेध आदि यज्ञों तथा समाधिसे प्राप्त होनेवाले पुण्योंसे भी आपका पिता बन पाना असम्भव है। अब जगत्में मेरी कीर्ति फैल जायगी। लोग कहेंगे-अहो इस हिमालयकी पुत्रीके रूपमें स्वयं जगज्जननी उत्पन्न हुई हैं, ये बड़े धन्य तथा भाग्यशाली हैं ।। 68-69 ।।जिनके उदरमें करोड़ों ब्रह्माण्ड स्थित हैं, वे ही जगदम्बा जिसकी कन्या होकर जन्म लें, उसके समान इस पृथ्वीपर कौन हो सकता है ? ॥ 70 ॥
जिनके वंशमें मेरे जैसा [ भाग्यशाली ] उत्पन्न हुआ है, मेरे ऐसे उन पूर्वजोंके निवासके लिये कैसा श्रेष्ठ स्थान निर्मित हुआ होगा—यह मैं नहीं जानता ॥ 71 ॥
जिस प्रकार आपने स्नेहपूर्ण कृपा करके मुझे गौरीका पिता होनेका अवसर प्रदान किया, उसी प्रकार अब आप सम्पूर्ण वेदान्तके सिद्धान्तभूत अपने स्वरूपको मुझे बताइये ॥ 72 ॥
हे परमेश्वरि ! वेदसम्मत ज्ञान, भक्ति तथा योगका मुझे उपदेश करें, जिससे मैं आपके स्वरूपको प्राप्त हो जाऊँ ॥ 73 ॥
व्यासजी बोले- उनकी यह बात सुनकर प्रसन्नतासे प्रफुल्लित मुखकमलवाली उन भगवतीने श्रुतियोंमें निहित रहस्यका वर्णन करना आरम्भ किया ।। 74 ।।