सावित्री बोली [हे प्रभो!] आप मुझे भगवतीकी भक्ति प्रदान कीजिये; वह देवीभक्ति समस्त तत्त्वोंका तत्त्व, मनुष्योंके लिये मुक्तिद्वारका मूल कारण, नरकरूपी समुद्रसे तारनेवाली, मुक्तिके तत्त्वोंका आधार, सभी अशुभोंका नाश करनेमें समर्थ, समस्त कर्मवृक्षोंको काटनेवाली तथा मनुष्यके द्वारा किये गये पापोंका हरण करनेवाली है ॥ 1-2 ॥
[हे भगवन्!] मुक्ति कितने प्रकारकी होती है। और उनके क्या लक्षण हैं? देवीभक्तिके स्वरूप, भक्तिके भेद तथा किये हुए कर्मोंके भोगके नाशके विषयमें मुझे बताइये। हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! ब्रह्माके द्वारा निर्मित स्त्रीजाति तत्त्वज्ञानसे रहित होती है, अतः आप संक्षेपमें मुझे सारभूत बात बताइये ll3-4 ॥
हे प्रभो! दान, यज्ञ, तीर्थ, स्नान, व्रत और तप ये सब मनुष्यको ज्ञान देनेसे होनेवाले पुण्यफलकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हैं। पिताकी अपेक्षा माता सौ गुनी श्रेष्ठ हैं, यह निश्चित है, किंतु ज्ञान प्रदान करनेवाला गुरु मातासे भी सौ गुना अधिक श्रेष्ठ होता है ॥ 5-6 ॥
धर्मराज बोले- हे वत्से! तुम्हारे मनमें पहले जो भी अभिलषित वर था, वह सब मैं दे चुका हूँ. अब जो तुम भगवतीकी भक्ति चाहती हो, वह भी मेरे वरके प्रभावसे तुम्हें प्राप्त हो जाय ॥ 7 ॥
हे कल्याणि तुम जो श्रीदेवीका गुणकीर्तन सुनना चाहती हो, वह उसे करनेवाले, सुननेवाले तथा इसके विषयमें पूछनेवाले इन सभीके कुलका उद्धार - कर देता है॥ 8 ॥
भगवान् शेषनाग अपने हजार मुखोंसे उसे बता नहीं सकते और मृत्युंजय महादेव भी अपने पाँच मुखसे उसका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हैं ॥ 9 ॥
चारों वेदोंकी उत्पत्ति तथा सम्पूर्ण लोकोंका विधान करनेवाले ब्रह्मा अपने चार मुखोंसे उसका वर्णन नहीं कर सकते, उसी प्रकार सर्वज्ञ विष्णु भी उसका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हैं ॥ 10 ॥भगवान् कार्तिकेय अपने छः मुखोंसे उसका वर्णन नहीं कर सकते और योगीश्वरोंके गुरुके भी गुरु श्रीगणेश भी भगवतीकी महिमाका वर्णन कर सकने में समर्थ नहीं हैं-यह निश्चित है ॥ 11 ॥
सम्पूर्ण शास्त्रोंके सारभूत चारों वेद तथा उन्हें जाननेवाले जो विद्वान् हैं ये सब उन भगवतीके गुणोंकी एक कलातकको नहीं जानते ॥ 12 ॥
सरस्वती भी जड़के समान होकर उन भगवतीके गुणों का वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हैं। सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, धर्म, कपिल तथा सूर्य- ये लोग तथा ब्रह्माजीके अन्य बुद्धिमान् पुत्रगण भी उनकी महिमाका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हैं, तो फिर अन्य जड़बुद्धिवाले लोगोंकी बात ही क्या ! ॥ 13-14 ॥
श्रीदेवीके जिन गुणोंका वर्णन करनेमें सिद्ध, मुनीन्द्र तथा योगीजन भी समर्थ नहीं हैं, उनका वर्णन करनेमें हम तथा अन्य लोग भला किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं? 15
ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवगण भगवतीके जिस चरणकमलका ध्यान करते हैं, वह उनके भक्तोंके लिये तो अति सुगम है, किंतु अन्य लोगोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है ॥ 16 ॥
कोई व्यक्ति उन भगवतीके पवित्र गुण कीर्तनको कुछ-कुछ जान सकता है, किंतु ब्रह्मज्ञानी ब्रह्माजी उससे अधिक जानते हैं ज्ञानियोंके भी गुरु गणेशजी उन ब्रह्मासे भी कुछ विशेष जानते हैं और सब कुछ जाननेवाले भगवान् शिव सबसे अधिक जानते हैं । 17-18 ॥
पूर्वकालमें गोलोकमें अत्यन्त निर्जन वनमें रासमण्डलके मध्य परमेश्वर श्रीकृष्णने उन शिवको ज्ञान प्रदान किया था वहाँपर भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें भगवतीके कुछ पवित्र गुण बताये थे । ll 193 ॥
तत्पश्चात् स्वयं भगवान् शिवने शिवलोकमें धर्मके प्रति उसका उपदेश किया था। उसके बाद सूर्यके पूछनेपर धर्मने उनसे भगवतीके गुणोंका वर्णन किया था। हे साध्वि मेरे पिता सूर्यने भी तपस्याके द्वारा उन देवीकी आराधना करके उस ज्ञानको प्राप्त किया था ॥ 20-21 ॥हे सुव्रते! पूर्वसमयमें मेरे पिताजी यत्नपूर्वक मुझे अपना राज्य देना चाहते थे, किंतु मैंने स्वीकार नहीं किया। उस समय वैराग्ययुक्त होनेके कारण मैं तपस्याके लिये जाना चाहता था। तब पिताजीने मेरे सामने भगवतीके गुणोंका वर्णन किया। उस समय मैंने उनसे जो प्राप्त किया, उसी परम दुर्लभ तत्त्वको तुम्हें बता रहा है, ध्यानपूर्वक सुनो ll22-23॥
हे वरानने! जैसे आकाश अपना ही अन्त नहीं जानता, उसी प्रकार वे भगवती भी अपने सभी गुण नहीं जानतीं, तो अन्य व्यक्तिकी बात ही क्या है ! ॥ 24 ॥
सर्वात्मा, सबके भगवान्, सभी कारणोंके भी कारण, सर्वेश्वर, सबके आदिरूप, सर्वज्ञ, परिपालक, नित्यस्वरूप, नित्य देहवाले, नित्यानन्द निराकार, स्वतन्त्र, निशंक, निर्गुण, निर्विकार, अनासक, सर्वसाक्षी, सर्वाधार, परात्पर तथा मायाविशिष्ट परमात्मा ही मूलप्रकृतिके रूपमें अभिव्यक्त हो जाते हैं; सभी प्राकृत पदार्थ उन्हींसे आविर्भूत हैं ।। 25-27 स्वयं परम पुरुष ही प्रकृति हैं। वे दोनों परस्पर उसी प्रकार अभिन्न हैं, जैसे अग्निसे उसकी शक्ति कुछ भी भिन्न नहीं है ॥ 28 ॥
वे ही सच्चिदानन्दस्वरूपिणी शक्ति महामाया हैं। वे निराकार होते हुए भी भक्तोंपर कृपा करनेके लिये रूप धारण करती हैं ॥ 29 ॥
उन भगवतीने सर्वप्रथम गोपालसुन्दरीका रूप धारण किया था। वह रूप अत्यन्त कोमल, सुन्दर तथा मनोहर था। किशोर गोपवेषवाला वह रूप नवीन मेघके समान श्यामवर्णका था वह करोड़ों कामदेवों के समान सुन्दर था, वह मनोहर लीलाधामस्वरूप था उस विग्रहके नेत्र शरद ऋतुके मध्याहकालीन कमलोंकी शोभाको तुच्छ बना देनेवाले थे, मुख शरत्पूर्णिमाके करोड़ों चन्द्रमाकी शोभाको तिरस्कृत कर देनेवाला था, अमूल्य रत्नोंसे निर्मित अनेक प्रकारके आभूषणोंसे उनका विग्रह सुशोभित था, मुसकानयुक्त मुखमण्डलवाला वह विग्रह निरन्तर अमूल्य पीताम्बर से शोभित हो रहा था, परब्रह्मस्वरूप वह विग्रह ब्रह्मतेजसे प्रकाशित था, वह रूप देखनेमें बड़ा ही सुखकर था, वह शान्तरूपराधाको अत्यधिक प्रसन्न करनेवाला था, मुसकराती वह हुई गोपियाँ उस रूपको निरन्तर निहार रही थीं, भगवदविग्रह रासमण्डलके मध्य रत्नजटित सिंहासनपर विराजमान था, उनकी दो भुजाएँ थीं, वे वंशी बजा रहे थे, उन्होंने वनमाला धारण कर रखी थी, उनके वक्षःस्थलपर मणिराज श्रेष्ठ कौस्तुभमणि निरन्तर प्रकाशित हो रही थी, उनका विग्रह कुमकुम अगुरु-कस्तूरीसे मिश्रित दिव्य चन्दनसे लिप्त था वह चम्पा और मालतीकी मनोहर मालाओंसे सुशोभित था, वह कान्तिमान् चन्द्रमाकी शोभासे परिपूर्ण तथा मनोहर चूडामणिसे सुशोभित था । भक्तिरससे आप्लावित भक्तजन उनके इसी रूपका ध्यान करते हैं । ll 30-38 ॥
जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्मा उन्हींके भवसे सृष्टिका विधान करते हैं तथा कर्मानुसार सभी प्राणियोंके कमका उल्लेख करते हैं और उन्हींकी आज्ञासे वे मनुष्योंको तपों तथा कमका फल देते हैं। उन्होंके भयसे सभी प्राणियोंके रक्षक भगवान् विष्णु सदा रक्षा करते हैं और उन्होंके भयसे कालाग्निके समान भगवान् रुद्र सम्पूर्ण जगत्का संहार करते हैं। ज्ञानियोंके गुरुके भी गुरु मृत्युंजय शिव उसी परब्रह्मरूप विग्रहको जान लेनेपर ज्ञानवान्, योगीश्वर, ज्ञानविद् परम आनन्दसे परिपूर्ण तथा भक्ति-वैराग्यसे सम्पन्न हो सके हैं ।। 39-42 ॥
हे साध्वि उन्हींके भयसे तीव्र चलनेवालोंमें प्रमुख पवनदेव प्रवाहित होते हैं और उन्होंके भवसे सूर्य निरन्तर तपते रहते हैं ॥ 43 ॥
उन्हींकी आज्ञासे इन्द्र वृष्टि करते हैं, मृत्यु प्राणियोंपर अपना प्रभाव डालती है, उन्हींकी आज्ञासे अग्नि जलाती है और जल शीतल करता है॥ 44 ॥
उन्होंकि आदेश से भयभीत दिक्पालगण दिशाओंकी रक्षा करते हैं और उन्होंके भयसे ग्रह तथा राशियाँ अपने मार्गपर परिभ्रमण करती हैं ।। 45 ।।
उन्होंके भयसे वृक्ष फलते तथा फूलते हैं और उन्हींकी आज्ञा स्वीकार करके भयभीत काल निश्चित समयपर प्राणियोंका संहार करता है ॥ 46॥उनकी आज्ञाके बिना जल तथा स्थलमें रहनेवाले कोई भी प्राणी जीवन धारण नहीं कर सकते और संग्राममें आहत तथा विषम स्थितियोंमें पड़े प्राणीकी भी अकाल मृत्यु नहीं होती ll 47 ॥
उन्होंकी आज्ञासे वायु जलराशिको जल कच्छपको, कच्छप शेषनागको, शेष पृथ्वीको और पृथ्वी सभी समुद्रों तथा पर्वतोंको धारण किये रहती है जो सब प्रकारसे क्षमाशालिनी हैं, वे पृथ्वी उन्हींकी आज्ञासे नानाविध रत्नोंको धारण करती हैं। उन्हींकी आज्ञासे पृथ्वीपर सभी प्राणी रहते हैं तथा नष्ट होते हैं ll 48-49 ।।
[हे] साध्वि]] देवताओंके इकहत्तर युगोंकी इन्द्रकी आयु होती है; ऐसे अट्ठाईस इन्द्रोंके समाप्त होनेपर ब्रह्माका एक दिन-रात होता है। ऐसे तीस दिनोंका एक महीना होता है और इन्हीं दो महीनोंकी एक ऋतु कही गयी है। इन्हीं छः ऋतुओंका एक वर्ष होता है और ऐसे (सौ वर्षों) की ब्रह्माकी आयु कही गयी है ।। 50-51 ll
ब्रह्माकी आयु समाप्त होनेपर श्रीहरि आँखें मूँद लेते हैं। श्रीहरिके आँखें मूंद लेनेपर प्राकृत प्रलय हो जाता है। उस प्राकृतिक प्रलयके समय समस्त चराचर प्राणी, देवता, विष्णु तथा ब्रह्मा ये सब श्रीकृष्णके नाभिकमलमें लीन हो जाते हैं ।। 52-53 ll
क्षीरसागरमें शयन करनेवाले तथा वैकुण्ठवासी चतुर्भुज भगवान् श्रीविष्णु प्रलयके समय परमात्मा श्रीकृष्णके वाम पार्श्वमें विलीन होते हैं ज्ञानके अधिष्ठाता सनातन शिव उनके ज्ञानमें विलीन हो जाते हैं। सभी शक्तियाँ विष्णुमाया दुर्गामें समाविष्ट हो जाती हैं और वे बुद्धिको अधिष्ठात्री देवता दुर्गा भगवान् श्रीकृष्णकी बुद्धिमें प्रविष्ट हो जाती हैं। नारायणके अंश स्वामी कार्तिकेय उनके वक्षःस्थलमें लीन हो जाते हैं ll54-56 ॥
हे सुव्रते। श्रीकृष्णके अंशस्वरूप तथा गणोंके स्वामी देवेश्वर गणेश श्रीकृष्णकी दोनों भुजाओं में समाविष्ट हो जाते हैं। श्रीलक्ष्मीकी अंशस्वरूपा देवियाँ भगवती लक्ष्मीमें तथा वे देवी लक्ष्मी राधामेंविलीन हो जाती हैं। इसी प्रकार समस्त गोपिकाएँ तथा देवपलियाँ भी उन्हीं श्रीराधामें अन्तर्हित हो जाती हैं और श्रीकृष्णके प्राणोंकी अधीश्वरी वे राधा उन श्रीकृष्णके प्राणोंमें अधिष्ठित हो जाती हैं ।। 57-58 ॥
सावित्री तथा जितने भी वेद और शास्त्र हैं, वे सब सरस्वतीमें प्रवेश कर जाते हैं और सरस्वती उन परमात्मा श्रीकृष्णकी जिह्वामें विलीन हो जाती हैं ॥ 59 ॥ गोलोकके सभी गोप उनके रोमकूपों में प्रवेश कर जाते हैं। सभी प्राणियोंकी प्राणवायु उन श्रीकृष्णके प्राणोंमें, समस्त अग्नियाँ उनकी जठराग्निमें तथा जल उनकी जिह्वाके अग्रभागमें विलीन हो जाते हैं। सारके भी सारस्वरूप तथा भक्तिरसरूपी अमृतका पान करनेवाले वैष्णवजन परम आनन्दित होकर उनके चरणकमलमें समाहित हो जाते हैं ।। 60-613 ॥
विराट्के अंशस्वरूप क्षुद्रविराट् महाविराट्में और महाविराट् उन श्रीकृष्णमें विलीन हो जाते हैं, जिनके रोमकूपोंमें सम्पूर्ण विश्व समाहित हैं, जिनके आँख मीचनेपर प्राकृतिक प्रलय हो जाता है और जिनके नेत्र खुल जानेपर पुनः सृष्टिकार्य आरम्भ हो जाता है। जितना समय उनके पलक गिरनेमें लगता है, उतना ही समय उनके पलक उठानेमें लगता है। ब्रह्माके सौ वर्ष बीत जानेपर सृष्टिका सूत्रपात और पुनः लय होता है। हे सुव्रते! जैसे पृथ्वीके रजः कणोंकी संख्या नहीं है, वैसे ही ब्रह्माकी सृष्टि तथा प्रलयकी कोई संख्या नहीं है ।। 62-653 ॥
जिन सर्वान्तरात्मा परमेश्वरकी इच्छासे उनके पलक झपकते ही प्रलय होता है तथा पलक खोलते ही पुनः सृष्टि आरम्भ हो जाती है, वे श्रीकृष्ण प्रलयके समय उन परात्पर मूलप्रकृतिमें लीन हो जाते हैं; उस समय एकमात्र पराशक्ति ही शेष रह जाती है, यही निर्गुण परम पुरुष भी है। यही सत्स्वरूप तत्त्व सर्वप्रथम विराजमान था - ऐसा वेदोंके ज्ञाताओंने कहा है ।। 66-68 ॥
अव्यक्तस्वरूपी मूलप्रकृति 'अव्याकृत' नामसे कही जाती हैं। चैतन्यस्वरूपिणी वे ही केवल प्रलयकालमें विद्यमान रहती हैं। उनके गुणोंका वर्णन | करनेमें ब्रह्माण्डमें कौन समर्थ है ? ।। 693 ॥चारों वेदोंने चार प्रकारको मुक्तियाँ बतलायी हैं। भगवान्की भक्ति प्रधान है; क्योंकि वह मुक्तिसे श्रेष्ठ है। एक मुक्ति सालोक्य प्रदान करनेवाली, दूसरी सारूप्य देनेवाली तीसरी सामीप्यकी प्राप्ति करानेवाली और चौथी निर्वाण प्रदान करनेवाली है; इस प्रकार मुक्ति चार तरहकी होती है। भक्तजन उन परमात्मप्रभुकी सेवा छोड़कर उन मुक्तियोंकी कामना नहीं करते हैं। वे शिवत्व, अमरत्व तथा ब्रह्मत्वतककी अवहेलना करते हैं। वे जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, भय, शोक, धन, दिव्यरूप धारण करना, निर्वाण तथा मोक्षकी अवहेलना करते हैं। मुक्ति सेवारहित है तथा भक्ति सेवाभावमें वृद्धि करनेवाली है-भक्ति तथा मुक्तिमें यही भेद है; अब निषेकखण्डनका प्रसंग सुनो ll 70 - 743 ॥
विद्वान् पुरुषोंने निषेक (जन्म) एवं भोगके खण्डनका कल्याणकारी उपाय श्रीप्रभुकी एकमात्र परम सेवाको ही कहा है। हे साध्वि! यह तत्त्वज्ञान लोक और वेदमें प्रतिष्ठित है। इसे विघ्नरहित तथा शुभप्रद बताया गया है। हे वत्से ! अब तुम सुखपूर्वक जाओ ।। 75-76 ll
ऐसा कहकर सूर्यपुत्र धर्मराज उसके पतिको जीवितकर और उसे आशीर्वाद प्रदान करके वहाँसे जानेके लिये उद्यत हो गये। धर्मराजको जाते देखकर सावित्री उन्हें प्रणाम करके उनके दोनों चरण पकड़कर साधुवियोगके कारण उत्पन्न दुःखसे व्याकुल हो रोने लगी ।। 77-783 ॥
सावित्रीका विलाप सुनकर कृपानिधि धर्मराज भी स्वयं रोने लगे और सन्तुष्ट होकर उससे इस प्रकार कहने लगे- 793 ॥
धर्मराज बोले- [हे] सावित्रि।] तुम पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में एक लाख वर्षतक सुखका भोग करके अन्तमें उस लोकमें जाओगी, जहाँ साक्षात् भगवती विराजमान रहती हैं ॥ 80 ॥
हे भद्रे अब तुम अपने घर जाओ और स्त्रियोंके लिये मोक्षके कारणरूप सावित्रीव्रतका चौदह वर्षतक पालन करो। ज्येष्ठमास के शुक्लपक्षकी चतुर्दशी तिथिको किया गया सावित्रीव्रत उसी प्रकारअत्यन्त मंगलकारी होता है, जैसे भाद्रपद महीनेके शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथिको महालक्ष्मीव्रत कल्याणप्रद होता है। हे शुचिस्मिते। इस महालक्ष्मीव्रतको सोलह वर्षतक करना चाहिये। जो स्त्री इस व्रतका अनुष्ठान करती है, वह भगवान् श्रीहरिके चरणोंकी सन्निधि प्राप्त कर लेती है। ll 81-8230 ll
प्रत्येक मंगलवारको मंगलकारिणी भगवती मंगलचण्डिकाका व्रत करना चाहिये। प्रत्येक मासकी शुक्तपष्ठी के दिन व्रतपूर्वक मंगलदायिनी देवी पष्ठीको पूजा करनी चाहिये। उसी प्रकार आषाढ़ इ-संक्रान्तिके अवसरपर समस्त सिद्धियाँ प्रदान करनेवाली देवी मनसाकी पूजा करनी चाहिये ।। 84-85 ।।
कार्तिक पूर्णिमाको रासके अवसरपर श्रीकृष्णके लिये प्राणोंसे भी अधिक प्रिय श्रीराधाकी उपासना करनी चाहिये। प्रत्येक मासके शुक्लपक्षको अष्टमी तिथिको उपवासपूर्वक व्रत करके वर प्रदान करनेवाली भगवती दुर्गाकी पूजा करनी चाहिये। पति-पुत्रवती तथा पुण्यमयी पतिव्रताओं, प्रतिमाओं तथा यन्त्रों दुर्गतिनाशिनी विष्णुमाया भगवती दुर्गाकी भावना करके जो स्त्री धन-सन्तानकी प्राप्ति के लिये भक्ति पूर्वक उनका पूजन करती है, वह इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें ऐश्वर्यमयी भगवतीके परम पदको प्राप्त होती है। इस प्रकार साधकको भगवतीकी विभूतियोंकी निरन्तर पूजा करनी चाहिये। उन सर्वरूपा परमेश्वरीकी निरन्तर उपासना करनी चाहिये; इससे बढ़कर कृतकृत्यता प्रदान करनेवाला और नहीं है ll 86 - 90 ll
[ हे नारद!] उससे ऐसा कहकर धर्मराज अपने लोकको चले गये और अपने पतिको साथ लेकर सावित्री भी अपने घर चली गयी ॥ 91 ॥
हे नारद! सावित्री और सत्यवान् जब घरपर आ गये तब सावित्रीने अपने अन्य बन्धु सारा वृत्तान्त कहा ॥ 92 ॥ - बान्धवोंसे यह धर्मराजके वरके प्रभावसे सावित्रीके पिताने पुत्र प्राप्त कर लिये, उसके ससुरको दोनों आँखें ठीक हो गर्यो और उन्हें अपना राज्य मिल गया तथा उससावित्रीको भी पुत्रोंकी प्राप्ति हुई। इस प्रकार पुण्यक्षेत्र भारतवर्षमें एक लाख वर्षतक सुख भोगकर वह पतिव्रता सावित्री अपने पतिके साथ देवीलोक चली गयी ।। 93-94 ॥
सविताकी अधिष्ठात्री देवी होने अथवा सूर्यके ब्रह्मप्रतिपादक गायत्री मन्त्रकी अधिदेवता होने तथा सम्पूर्ण वेदोंकी जननी होनेसे ये जगत् में सावित्री नामसे प्रसिद्ध हैं ॥ 95 ॥
हे वत्स ! इस प्रकार मैंने सावित्रीके श्रेष्ठ उपाख्यान तथा प्राणियोंके कर्मविपाकका वर्णन कर दिया, अब आगे क्या सुनना चाहते हो ॥ 96 ॥