श्रीनारायण बोले- हे नारद! ऐसा कहकर जगत्के स्वामी भगवान् विष्णु चुप हो गये। तब वे तीनों देवियाँ एक-दूसरेका आलिंगन करके बहुत रोने लगीं ॥ 1 ॥
भगवान् की ओर देखकर भय तथा शोकसे काँपती हुई वे सभी देवियाँ अश्रुपूरित नेत्रोंसे उनसे बारी-बारीसे कहने लगीं ॥ 2 ॥
सरस्वती बोलीं- हे नाथ! मुझे जीवनभर सन्ताप देनेवाला कोई भी कठोर शाप दे दें (किंतु मेरा त्याग न करें); क्योंकि श्रेष्ठ स्वामीके द्वारा परित्यक्त वे स्त्रियाँ कैसे जीवित रह सकती हैं। भारतवर्षमें जाकरमैं निश्चय ही योगके द्वारा देह त्याग कर दूँगी। जिसकी भी अत्यधिक उन्नति होती है, उसका अधोपतन भी अवश्यम्भावी है ।। 3-4 ll
गंगा बोली- हे जगत्पते! आपने मेरे किस अपराधके कारण मेरा त्याग कर दिया। मैं तो अपने देहको त्याग दूँगी और इस प्रकार आपको एक निरपराध स्त्रीके वधका पाप लगेगा। जो मनुष्य इस पृथ्वीपर निर्दोष पत्नीका परित्याग कर देता है, वह घोर नरककी यात्रा करता है, चाहे वह सर्वेश्वर ही क्यों न हो । ll 5-6 ll
पद्मा बोलीं- हे नाथ! आप तो सत्त्वस्वरूप हैं। अहो, आपको ऐसा कोप कैसे हो गया! आप अपनी इन दोनों पत्नियोंको प्रसन्न कीजिये, क्योंकि एक उत्तम पतिके लिये क्षमा ही श्रेष्ठ है ॥ 7 ॥
मैं सरस्वतीका शाप स्वीकार करके अपनी एक कलासे भारतवर्षमें जाऊँगी, किंतु मैं यहाँ कितने समयतक रहूँगी और आपके चरणोंका दर्शन कब कर पाऊँगी ? ॥ 8 ॥
पापीजन स्नान तथा अवगाहन करके शीघ्र ही अपना पाप मुझे दे देंगे। तब किस उपायके द्वारा उस पापसे मुक्त होकर आपके चरणोंमें मैं पुनः स्थान पाऊँगी ? ॥ 9 ॥ हे अच्युत अपनी एक कलासे धर्मध्वजकी साध्वी पुत्री होकर तुलसीरूप प्राप्त करके मैं आपके चरणकमल पुन: कब प्राप्त कर सकूँगी ? ॥ 10 ॥
आप जिसके अधिष्ठातृदेवता हैं, ऐसे वृक्षरूप तुलसीके रूपमें मैं प्रकट होऊँगी। किंतु हे कृपानिधान। आप मुझे यह बता दीजिये कि मेरा उद्धार कब करेंगे ? ॥। 11 ॥
यदि गंगा सरस्वतीके शापसे भारतमें जायँगी, तब पुनः कब शाप तथा पापसे मुक्त होकर ये आपको प्राप्त करेंगी ? ॥ 12 ॥
साथ ही, गंगाके शापसे ये सरस्वती भी यदि भारतमें जायँगी, तब पुनः कब शापसे मुक्त होकर ये आपके चरणोंका सांनिध्य प्राप्त कर सकेंगी ? ॥ 13 ॥
हे नाथ! आप जो उन सरस्वतीको ब्रह्माके तथा गंगाको शिवके भवन जानेके लिये कह रहे हैं, तो मैं आपके इन वचनोंके लिये आपसे क्षमा चाहती हूँ। ll14 ll[हे नारद!] ऐसा कहकर लक्ष्मीने अपने पति श्रीविष्णु के चरण पकड़कर उन्हें प्रणाम किया और अपने केशोंसे उनके चरणोंको वेष्टित करके वे बार बार रोने लगीं ll 15 ll
(भक्तोंपर कृपा करनेके लिये सदा व्याकुल | रहनेवाले तथा मन्द मुसकानस युक्त प्रसन्न मुखमण्डलवाले भगवान् विष्णु लक्ष्मीको अपने वक्ष्यो लगाकर उनसे कहने लगे।)
श्रीभगवान् बोले—हे सुरेश्वरि ! मैं तुम्हारे तथा अपने दोनोंके वचन सत्य सिद्ध करूँगा है कमलेक्षणे! सुनो, मैं तुम तीनोंमें समता कर दूंगा ॥ 16 ॥
ये सरस्वती अपनी कलाके एक अंशसे नदीरूप होकर भारतवर्षमें जायँ, आधे अंशसे ब्रह्माके भवन जायें और पूर्ण अंशसे स्वयं मेरे पास रहें ॥ 17 ॥
इसी प्रकार भगीरथके द्वारा ले जायी गयी ये गंगा तीनों लोकोंको पवित्र करनेके लिये अपने कलांशसे भारतवर्षमें जायेंगी और स्वयं पूर्ण अंशसे मेरे भवनमें रहें वहाँपर ये चन्द्रशेखर शिवके दुर्लभ मस्तकको प्राप्त करेंगी। वहाँ जानेपर स्वभावतः पवित्र ये गंगा और भी पवित्र हो जायेंगी ।। 18-19 ।।
हे वामलोचने। तुम अपनी कलाके अंशांशसे पद्मावती नामक नदीके रूपमें तथा तुलसी नामक वृक्षके रूपमें भारतवर्ष में जाओ ll 20 ll
कलिके पाँच हजार वर्ष व्यतीत हो जानेपर नदीरूपिणी तुम सब देवियोंकी मुक्ति हो जायगी और इसके बाद तुमलोग पुनः मेरे भवन आ जाओगी ॥ 21 ॥
हे पद्मभवे! विपत्ति सभी प्राणियोंकी सम्पदाओंका हेतुस्वरूप है। विना विपत्तिके भला किन लोगोंको गौरव प्राप्त हो सकता है ॥ 22 ॥
मेरे मन्त्रोंकी उपासना करनेवाले सत्पुरुषों के द्वारा तुम्हारे जलमें स्नान तथा अवगाहनसे और उनके दर्शन तथा स्पर्शसे तुमलोगोंकी पापसे मुक्ति हो जायगी ॥ 23 ॥ हे सुन्दरि जितने भी असंख्य तीर्थ पृथ्वीपर हैं, वे सब मेरे भक्तोंके स्पर्श तथा दर्शनमात्रसे पवित्र हो जायँगे ॥ 24 ॥मेरे मन्त्रोंकी उपासना करनेवाले भक्त पृथ्वीको अत्यन्त पवित्र करने तथा वहाँ रहनेवाले प्राणियोंको पावन करने तथा तारनेके लिये ही भारतवर्षमें निवास करते हैं ॥ 25 ॥
मेरे भक्त जहाँ रहते तथा अपना पैर धोते हैं, वह स्थान निश्चितरूपसे अत्यन्त पवित्र महातीर्थके रूपमें हो जाता है ॥ 26 ॥
स्त्रीवध करनेवाला, गोहत्या करनेवाला, कृतघ्न, ब्राह्मणका वध करनेवाला तथा गुरुपत्नीके साथ | व्यभिचार करनेवाला प्राणी भी मेरे भक्तके दर्शन तथा स्पर्शसे पवित्र तथा जीवन्मुक्त हो जाता है ॥ 27 ॥
एकादशीव्रत तथा सन्ध्यासे विहीन, नास्तिक तथा मनुष्यका वध करनेवाला भी मेरे भक्तके दर्शन तथा स्पर्श मात्रसे पवित्र हो जाता है ॥ 28 ॥
शस्त्रसे आजीविका चलानेवाला, लेखनवृत्तिसे जीवनयापन करनेवाला, धावक, भिक्षावृत्तिसे निर्वाह करनेवाला तथा बैल हाँकनेवाला भी मेरे भक्तके दर्शन और स्पर्शसे पवित्र हो जाता है ॥ 29 ॥
विश्वासघात करनेवाला, मित्रका वध करनेवाला, झूठी गवाही देनेवाला तथा धरोहर सम्पत्तिका हरण कर लेनेवाला मनुष्य भी मेरे भक्तके दर्शन तथा स्पर्शसे पवित्र हो जाता है ॥ 30 ॥
अत्यन्त उग्र, दूषित करनेवाला, जार पुरुष, व्यभिचारिणी स्त्रीका पति और शूद्रा स्त्रीका पुत्र ऐसा प्राणी भी मेरे भक्तके दर्शन तथा स्पर्शसे पवित्र हो जाता है ॥ 31 ॥
शूद्रोंका रसोइया, देवधनका उपभोग करनेवाला, सभी वर्णोंका पौरोहित्य कर्म करानेवाला ब्राह्मण तथा दीक्षाविहीन मनुष्य भी मेरे भक्तके दर्शन तथा स्पर्शसे पवित्र हो जाता है ॥ 32 ॥
हे सुन्दरि जो पिता, माता, पत्नी, भाई, पुत्र, पुत्री, गुरुकुल, बहन, नेत्रहीन, बन्धु-बान्धव, सास तथा श्वसुरका भरण-पोषण नहीं करता, वह महापापी भी मेरे भक्तके दर्शन तथा स्पर्शसे पवित्र जाता है ॥ 33-34 ॥
पीपलका वृक्ष काटनेवाला, मेरे भक्तोंकी निन्दा करनेवाला तथा शूद्रोंका अन्न खानेवाला ब्राह्मण भी मेरे भक्तके दर्शनसे पवित्र हो जाता है ॥ 35 ॥देवधन तथा विप्रधनका हरण करनेवाला, लाह लोहा-रस तथा कन्याका विक्रय करनेवाला, महान् पातकी तथा शूद्रोंका शव जलानेवाला- ये सभी मेरे भक्तके | स्पर्श तथा दर्शनसे पवित्र हो जाते हैं ।। 36-37 ॥
महालक्ष्मी बोलीं- भक्तोंपर कृपा करनेहेतु आतुर रहनेवाले हे प्रभो! अब आप अपने भक्तोंका लक्षण बतलाइये जिनके दर्शन तथा स्पर्शसे हरिभक्ति रहित, महान् अहंकारी, सदा अपनी प्रशंसामें लगे रहनेवाले, धूर्त, शठ, साधुनिन्दक तथा अत्यन्त अधम | मनुष्य भी तत्काल पवित्र हो जाते हैं; जिनके स्नान तथा अवगाहनसे सभी तीर्थ पवित्र हो जाते हैं; जिनके चरणरज तथा चरणोदकसे पृथ्वी पवित्र हो जाती है एवं जिनके दर्शन तथा स्पर्शकी इच्छा भारतवर्ष में सभी लोग करते रहते हैं। विष्णुभकोंका समागम सभीके लिये परम लाभकारी होता है। जलमय तीर्थ तीर्थ नहीं है और मृण्मय तथा प्रस्तरमय देवता भी देवता नहीं है; क्योंकि वे बहुत समय बाद पवित्र करते हैं, किंतु यह आश्चर्य है कि विष्णुभक्त क्षणभरमें ही पवित्र कर देते हैं ॥ 38- 42 ॥ सूतजी बोले- महालक्ष्मीकी बात सुनकर कमलाकान्त श्रीहरि मुसकरा दिये और इसके बाद श्रेष्ठ तथा गूढ रहस्य कहनेके लिये उद्यत हुए ।। 43 ।।
श्रीभगवान् बोले- हे लक्ष्मि ! भक्तोंके लक्षण वेदों तथा पुराणोंमें रहस्यरूपमें प्रतिपादित हैं। वे पुण्यस्वरूप, पापोंका नाश करनेवाले, सुखप्रद तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। ऐसे सारभूत तथा गोपनीय लक्षणोंको दुष्टोंके समक्ष प्रकट नहीं करना चाहिये। तुम शुद्धस्वरूपा एवं प्राणप्रियासे इसे कह रहा हूँ, सुनो ll 44-45 ll
गुरुके मुखसे निकले विष्णुमन्त्र जिस मनुष्यके कानमें पड़ते हैं, वेद उसीको पवित्र तथा नरोंमें श्रेष्ठ कहते हैं। उस मनुष्यके जन्ममात्रसे पूर्वके सौ पुरुष चाहे वे स्वर्गमें हों या नरकमें हो, उसी क्षण मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं, उनमें जो कोई भी जिन योनियोंमें जहाँ कहीं भी जन्म प्राप्त किये रहते हैं, वे वहाँपर पवित्र तथा जीवन्मुक्त हो जाते हैं और समयानुसार भगवान् विष्णुके परमधाम पहुँच जाते हैं ॥ 46-48 ॥जो मेरे गुणोंके अनुसार आचरण करता है तथा निरन्तर मेरी कथाओंमें ही आसक्त रहता है, मेरी भक्तिसे युक्त वह मनुष्य मेरे गुणोंसे युक्त होकर मुक्त हो जाता है। मेरे गुणोंके श्रवणमात्रसे वह आनन्दविभोर हो जाता है, उसका शरीर पुलकित हो उठता है, हर्षातिरेकके कारण उसका गला भर आता है, उसकी आँखोंमें आँसू आ जाते हैं और वह अपनेको भूल जाता है। वह सुख, सालोक्य आदि चार प्रकारकी मुक्ति, ब्रह्माका पद अथवा अमरत्व आदि कुछ भी नहीं चाहता है। वह सदा मेरी ही सेवामें लगा रहना चाहता है। वह स्वप्नमें भी इन्द्र, मनु, ब्रह्मा आदिके अत्यन्त दुर्लभ पदों तथा स्वर्गके राज्य आदिके भोगोंकी कामना नहीं करता है ।। 49-52॥
मेरे भक्त भारतवर्षमें भ्रमण करते रहते हैं, भक्तोंका वैसा जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। वे सदा मेरे गुणोंका श्रवण करते हुए तथा सुनानेयोग्य गीतोंको हुए नित्य आनन्दित रहते हैं। अन्तमें वे मनुष्यों, तीर्थों तथा पृथ्वीको पवित्र करके मेरे धाम चले जाते हैं। हे पद्मे ! इस प्रकार मैंने तुमसे यह सब कह दिया। अब तुम्हें जो उचित प्रतीत हो, वह करो। तत्पश्चात् उन श्रीहरिकी आज्ञाके अनुसार वे कार्य करनेमें संलग्न हो गयीं और स्वयं भगवान् सुखदायक आसनपर विराजमान हो गये ।। 53-54 ॥