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श्रीमद्भागवत महापुरण (भागवत पुराण)

Shrimad Bhagwat Purana (Bhagwat Katha)

स्कन्ध 8, अध्याय 16 - Skand 8, Adhyay 16

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कश्यपनीके द्वारा अदितिको पयोव्रतका उपदेश

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब देवता इस प्रकार भागकर छिप गये और दैत्योंने स्वर्गपर अधिकार कर लिया; तब देवमाता अदितिको बड़ा दुःख हुआ। वे अनाथ-सी हो गयीं ॥ 1 ॥ एक बार बहुत | दिनोंके बाद जब परमप्रभावशाली कश्यप मुनिकी समाधि टूटी, तब वे अदितिके आश्रमपर आये। उन्होंने देखा कि न तो वहाँ सुख-शान्ति है और न किसी प्रकारका उत्साह या सजावट हीं ॥ 2 ॥ परीक्षित्! जब वे वहाँ जाकर आसनपर बैठ गये और अदितिने विधिपूर्वक उनका सत्कार कर लिया, तब वे अपनी पत्नी अदितिसे | जिसके चेहरेपर बड़ी उदासी छायी हुई थी - बोले ॥ 3 ॥ "कल्याणी! इस समय संसारमें ब्राह्मणोंपर कोई विपत्ति तो नहीं आयी है ? धर्मका पालन तो ठीक-ठीक होता है ? | कालके कराल गालमें पड़े हुए लोगोंका कुछ अमङ्गल तो नहीं हो रहा है ? ॥ 4 ॥ प्रिये ! गृहस्थाश्रम तो, जो लोग योग नहीं कर सकते, उन्हें भी योगका फल देनेवाला है। इस गृहस्थाश्रममें रहकर धर्म, अर्थ और कामके सेवनमें किसी प्रकारका विघ्न तो नहीं हो रहा है ? ॥ 5 ॥ यह भी सम्भव है कि तुम कुटुम्बके भरण-पोषणमें व्यग्र रही हो, अतिथि आये हों और तुमसे बिना सम्मान पाये ही लौट गये हों; तुम खड़ी होकर उनका सत्कार करनेमें भी असमर्थ रही हो। इसीसे तो तुम उदास नहीं हो रही | हो ? || 6 || जिन घरोंमें आये हुए अतिथिका जलसे भी सत्कार नहीं किया जाता और वे ऐसे ही लौट जाते हैं, वे घर अवश्य ही गीदड़ोंके घरके समान हैं ॥ 7 ॥प्रिये सम्भव है, मेरे बाहर चले जानेपर कभी तुम्हारा चित्त उद्विग्न रहा हो और समयपर तुमने हविष्यसे अभियों में हवन न किया हो ॥ 8 ॥ सर्वदेवमय भगवान्‌के मुख हैं—ब्राह्मण और अनि गृहस्थ पुरुष यदि इन दोनोंकी पूजा करता है तो उसे उन लोकोंकी प्राप्ति होती है, जो समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले है ॥ 9 ॥ प्रिये ! तुम तो सर्वदा प्रसन्न रहती हो; परन्तु तुम्हारे बहुत-से लक्षणोंसे मैं देख रहा हूँ कि इस समय तुम्हारा चित्त अस्वस्थ है । तुम्हारे सब लड़के तो कुशल-मङ्गलसे हैं न ?' ॥ 10 ॥

अदितिने कहा- भगवन्! ब्राह्मण, गौ, धर्म और आपकी यह दासी सब सकुशल हैं। मेरे स्वामी! यह गृहस्थ आश्रम हो अर्थ, धर्म और कामकी साधनामें परम सहायक है ॥ 11 ॥ प्रभो! आपके निरन्तर स्मरण और कल्याण-कामनासे अग्नि, अतिथि, सेवक, भिक्षुक और दूसरे याचकोका भी मैंने तिरस्कार नहीं किया है ।। 12 ।। भगवन् ! जब आप जैसे प्रजापति मुझे इस प्रकार धर्म पालनका उपदेश करते हैं; तब भला मेरे मनकी ऐसी कौन-सी कामना है जो पूरी न हो जाय ? ॥ 13 ॥ आर्यपुत्र! समस्त प्रजा- -वह चाहे सत्त्वगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी हो– आपकी ही सन्तान है। कुछ आपके सङ्कल्पसे उत्पन्न हुए हैं और कुछ शरीरसे! भगवन् ! इसमें सन्देह नहीं कि आप सब सन्तानोंके प्रति — चाहे असुर हों या देवता – एक-सा भाव रखते हैं, सम हैं। तथापि स्वयं परमेश्वर भी अपने भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण किया करते हैं || 14 || मेरे स्वामी! मैं आपकी दासी हूँ। आप मेरी भलाईके सम्बन्धमें विचार कीजिये। मर्यादापालक प्रभो। शत्रुओंने हमारी सम्पत्ति और रहनेका स्थानतक छीन लिया है। आप हमारी रक्षा कीजिये ।। 15 ।। बलवान् दैत्योंने मेरे ऐश्वर्य, धन, यश और पद छीन लिये हैं तथा हमें घरसे बाहर निकाल दिया है। इस प्रकार मैं दुःखके समुद्रमें डूब रही हूँ 16 ॥ आपसे बढ़कर हमारी भलाई करनेवाला और कोई नहीं है। इसलिये मेरे हितैषी स्वामी। आप सोच-विचारकर अपने सङ्कल्पसे ही मेरे कल्याणका कोई ऐसा उपाय कीजिये जिससे कि मेरे पुत्रोंको वे वस्तुएँ फिरसे प्राप्त हो जायें ।। 17 ।।श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार अदितिने जब कश्यपजीसे प्रार्थना की, तब वे कुछ | होकर बोले- बड़े आश्चर्यकी बात है। भगवान्‌की माया भी कैसी प्रबल है ! यह सारा जगत् स्नेहकी रज्जुसे वैधा | हुआ है ॥ 18 ॥ कहाँ यह पञ्चभूतोंसे बना हुआ अनात्मा शरीर और कहाँ प्रकृतिसे परे आत्मा ? न किसीका कोई पति है, न पुत्र है और न तो सम्बन्धी ही है। मोह ही दुःख मनुष्यको नचा रहा है ।॥ 19 ॥ प्रिये ! तुम सम्पूर्ण प्राणियों के हृदयमें विराजमान अपने भक्तोंके मिटानेवाले जगद्गुरु भगवान् वासुदेवकी आराधना | करो ॥ 20 ॥ वे बड़े दीनदयालु हैं। अवश्य ही श्रीहरि तुम्हारी कामनाएँ पूर्ण करेंगे। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि भगवान्‌को भक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती। इसके सिवा कोई दूसरा उपाय नहीं है' ॥ 21 ॥

अदितिने पूछा- भगवन्! मैं जगदीश्वर भगवान्‌की आराधना किस प्रकार करूँ, जिससे वे | सत्यसङ्कल्प प्रभु मेरा मनोरथ पूर्ण करें ॥ 22 ॥ पतिदेव ! मैं अपने पुत्रोंके साथ बहुत ही दुःख भोग रही हूँ। जिससे वे शीघ्र ही मुझपर प्रसन्न हो जायँ, उनकी आराधनाकी वही विधि मुझे बतलाइये ॥ 23 ॥

कश्यपजीने कहा- देवि! जब मुझे सन्तानकी कामना हुई थी, तब मैंने भगवान् ब्रह्माजीसे यही बात पूछो थी। उन्होंने मुझे भगवान्‌को प्रसन्न करनेवाले जिसका उपदेश किया था, वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ ॥ 24 ॥ फाल्गुनके शुरूपक्षमें बारह दिनतक केवल दूध पीकर रहे और परम भक्तिसे भगवान् कमलनयनको पूज करे ।। 25 ।। अमावस्याके दिन यदि मिल सके तो सूअरकी खोदी हुई मिट्टीसे अपना शरीर मलकर नदीमें | स्नान करे। उस समय यह मन्त्र पढ़ना चाहिये ॥ 26 ॥हे देवि! प्राणियोंको स्थान देनेकी इच्छासे वराहभगवान्ने रसातलसे तुम्हारा उद्धार किया था। तुम्हें मेरा नमस्कार है। तुम मेरे पापोको नष्ट कर दो ॥ 27 ॥ इसके बाद अपने नित्य और नैमित्तिक नियमोंको पूरा करके एकाग्रचित्तसे मूर्ति, वेदी, सूर्य, जल, अग्नि और गुरुदेवके रूपमें भगवान ‌की पूजा करे ।। 28 ।। (और इस प्रकार स्तुति करे) 'प्रभो! आप सर्वशक्तिमान् हैं। अन्तर्यामी और आराधनीय है। समस्त प्राणी आपमें और आप समस्त प्राणियोंमें निवास करते हैं। इसीसे आपको 'वासुदेव' कहते हैं। आप समस्त चराचर जगत् और उसके कारणके भी साक्षी हैं। भगवन्! मेरा आपको नमस्कार है ।। 29 ।। आप अव्यक्त और सूक्ष्म हैं। प्रकृति और पुरुषके रूपमें भी आप ही स्थित है। आप चौबीस गुणोके जाननेवाले और गुणोंकी संख्या करनेवाले सांख्यशास्त्रके प्रवर्तक हैं। आपको मेरा नमस्कार है ।। 30 ।। आप वह यज्ञ हैं, जिसके प्रायणीय और उदयनीय — ये दो कर्म सिर है। प्रातः, मध्याह्न और सायं- ये तीन सवन ही तीन पाद हैं। चारों वेद चार सींग हैं। गायत्री आदि सात छन्द ही सात हाथ हैं। यह धर्ममय वृषभरूप यज्ञ वेदोंके द्वारा प्रतिपादित है और इसकी आत्मा हैं स्वयं आप! आपको मेरा नमस्कार हैं ।। 31 । आप ही लोककल्याणकारी शिव और आप हो प्रलयकारी रुद्र हैं। समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार है। आप समस्त विद्याओंके अधिपति एवं भूतोंके स्वामी हैं। आपको मेरा नमस्कार ।। 32 ।। आप ही सबके प्राण और आप ही इस जगत्के स्वरूप भी हैं। आप योगके कारण तो हैं ही स्वयं योग और उससे मिलनेवाला ऐश्वर्य भी आप ही हैं। हे हिरण्यगर्भ ! आपके लिये मेरे नमस्कार ।। 33 ।। आप ही आदिदेव हैं। सबके साक्षी हैं। आप ही नरनारायण ऋषिके रूपमें प्रकट स्वयं भगवान् हैं। आपको मेरा नमस्कार ।। 34 ।। आपका शरीर मरकतमणिके समान साँवला है। समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्यकी देवी लक्ष्मी आपकी सेविका है। पीताम्बरधारी केशव ! आपको मेरा बार-बार नमस्कार ।। 35 ।। आप सब प्रकारके वर देनेवाले हैं। वर देनेवालोंमें श्रेष्ठ है तथा जीवोंके एकमात्र है वरणीय हैं। यही कारण है कि धीर विवेकी पुरुष अपने कल्याणके लिये आपके चरणोंकी रजकी उपासना करते हैं ॥ 36 ॥ जिनके चरणकमलोंकी सुगन्ध प्राप्त करनेकी लालसासे समस्त देवता और स्वयं लक्ष्मीजी भी सेवामें लगी रहती हैं, वे भगवान् मुझपर प्रसन्न हों ॥ 37 ॥प्रिये ! भगवान् हृषीकेशका आवाहन पहले ही कर ले। फिर इन मन्त्रोंके द्वारा पाद्य, आचमन आदिके साथ श्रद्धापूर्वक मन लगाकर पूजा करे ॥ 38 ॥ गन्ध, माला | आदिसे पूजा करके भगवान्‌को दूधसे स्नान करावे। उसके बाद वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पाद्य, आचमन, गन्ध, धूप आदिके द्वारा द्वादशाक्षर मलसे भगवानको पूज करे ॥ 39 ॥ यदि सामर्थ्य हो तो दूधमें पकाये हुए तथा | और गुड़ मिले हुए शालिके चावलका नैवेद्य लगावे और उसीका द्वादशाक्षर मन्त्रसे हवन करे ॥ 40 ॥ उ नैवेद्यको भगवान् के भक्तोंमें बाँट दे या स्वयं पा ले। आचमन और पूजाके बाद ताम्बूल निवेदन करे ।। 41 ।। एक सौ आठ बार द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करे और स्तुतियोंके द्वारा भगवान् ‌का स्तवन करे। प्रदक्षिणा करके बड़े प्रेम और आनन्दसे भूमिपर लोटकर दण्डवत् प्रणाम करे ॥ 42 ॥ निर्माल्यको सिरसे लगाकर देवताका विसर्जन करे। कम-से-कम दो ब्राह्मणोंको यथोचित रीतिसे स्वीरका भोजन करावे ।। 43 ।। दक्षिणा आदि उनका सत्कार करे। इसके बाद उनसे आज्ञा लेकर अपने इष्ट-मित्रोंके साथ बचे हुए अन्नको स्वयं ग्रहण करे। उस दिन ब्रह्मचर्य से रहे और दूसरे दिन प्रातःकाल ही खान आदि करके पवित्रतापूर्वक पूर्वोक्त विधिसे एकाग्र होकर भगवान् की पूजा करे। इस प्रकार जबतक व्रत समाप्त न हो, तबतक दूधसे स्नान कराकर प्रतिदिन भगवान्‌को पूजा करे ।। 44-45 ।।

भगवान्‌की पूजामें आदर-बुद्धि रखते हुए केवल |पयोजती रहकर यह व्रत करना चाहिये पूर्ववत् प्रतिदिन हवन और ब्राह्मण भोजन भी कराना चाहिये ॥ 46 इस प्रकार पयोव्रती रहकर बारह दिनतक प्रतिदिन भगवान की आराधना, होम और भोजन कराता रहे ॥ 47 ॥ पूजा करे तथा ब्राह्मण फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदासे लेकर त्रयोदशीपर्यन्त ब्रह्मचर्यसे। रहे, पृथ्वीपर शयन करे और तीनों समय स्नान करे ॥ 48 ॥झूठ न बोले। पापियोंसे बात न करे। पापकी बात न करे। छोटे-बड़े सब प्रकारके भोगोका त्याग कर दे। किसी भी प्राणीको किसी प्रकारसे कष्ट न पहुँचावे। भगवान्‌की आराधनामें लगा ही रहे ।। 49 ।। त्रयोदशीके दिन विधि जाननेवाले ब्राह्मणोंके द्वारा शास्त्रोक्त विधिसे भगवान् विष्णुको पञ्चामृतस्नान करावे ॥ 50 ॥ उस दिन धनका सङ्कोच छोड़कर भगवान्की बहुत बड़ी पूजा करनी चाहिये और दूधमें चरु (खीर) पकाकर विष्णुभगवान्‌को अर्पित करना चाहिये ॥ 51 ॥ अत्यन्त एकाग्र चित्तसे उसी पकाये हुए चरुके द्वारा भगवान्‌का यजन करना चाहिये और उनको प्रसन्न करनेवाला गुणयुक्त तथा स्वादिष्ट नैवेद्य अर्पण करना चाहिये ॥ 52 ॥ इसके बाद ज्ञानसम्पन्न आचार्य और ऋत्विजोंको वस्त्र, आभूषण और गौ आदि | देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। प्रिये! इसे भी भगवान्‌की ही आराधना समझो ॥ 53 ॥ प्रिये ! आचार्य और ऋत्विजोंको शुद्ध, सात्त्विक और गुणयुक्त भोजन कराना ही चाहिये; दूसरे ब्राह्मण और आये हुए अतिथियों को भी अपनी शक्तिके अनुसार भोजन कराना चाहिये ॥ 54 ॥ गुरु और ऋत्विजोंको यथायोग्य दक्षिणा देनी चाहिये। जो चाण्डाल आदि अपने-आप वहाँ आ गये हों, उन सभीको तथा दीन, अंधे और असमर्थ पुरुषोंको भी अन्न आदि | देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। जब सब लोग खा चुकें, तब उन सबके सत्कारको भगवान्‌की प्रसन्नताका साधन समझते हुए अपने भाई-बन्धुओंके साथ स्वयं भोजन करे ।। 55-56 ॥ प्रतिपदासे लेकर त्रयोदशीतक प्रतिदिन नाच-गान, बाजे-गाजे, स्तुति, स्वस्तिवाचन और भगवत्कथाओंसे भगवान्‌की पूजा करे करावे ।। 57 ।।

प्रिये ! यह भगवान्की श्रेष्ठ आराधना है। इसका नाम है 'पयोव्रत' । ब्रह्माजीने मुझे जैसा बताया था, वैसा ही मैंने तुम्हें बता दिया ।। 58 ॥ देवि! तुम भाग्यवती हो। अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके शुद्ध भाव एवं श्रद्धापूर्ण चित्तसे इस व्रतका भलीभांति अनुष्ठान करो और इसके द्वारा अविनाशी भगवान्‌की आराधना करो ॥ 59 ॥कल्याणी ! यह व्रत भगवान्‌को सन्तुष्ट करनेवाला है, इसलिये इसका नाम है 'सर्वयज्ञ' और 'सर्वव्रत' । यह समस्त तपस्याओंका सार और मुख्य दान है ॥ 60 ॥ जिनसे भगवान् प्रसन्न हों—वे ही सच्चे नियम हैं, वे ही उत्तम यम हैं, वे ही वास्तवमें तपस्या, दान, व्रत और यज्ञ हैं ॥ 61 ॥ इसलिये देवि ! संयम और श्रद्धासे तुम इस व्रतका अनुष्ठान करो। भगवान् शीघ्र ही तुमपर प्रसन्न होंगे और तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करेंगे ॥ 62 ॥

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श्रीमद्भागवत महापुरण को भागवत पुराण, Shrimad Bhagwat Purana, Bhagwat Katha, भागवत पुराण कथा, Bhagwat Katha, भागवत पुराण, Bhagwat Purana, भागवत महापुराण और Bhagvat Mahapurana आदि नामों से भी जाना जाता है।

श्रीमद्भागवत महापुरण
Index


  1. [अध्याय 1] श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न
  2. [अध्याय 2] भगवत् कथा और भगवदत भक्ति का माहात्य
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महर्षि व्यासका असन्तोष
  5. [अध्याय 5] भगवान् के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का चरित्र
  6. [अध्याय 6] नारदजी के पूर्वचरित्रका शेष भाग
  7. [अध्याय 7] अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
  8. [अध्याय 8] गर्भ में परीक्षित्की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान की स्तुति
  9. [अध्याय 9] युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना
  10. [अध्याय 10] श्रीकृष्णका द्वारका-गमन
  11. [अध्याय 11] द्वारकामें श्रीकृष्ण का स्वागत
  12. [अध्याय 12] परीक्षितका जन्म
  13. [अध्याय 13] विदुरजीके उपदेशसे धृतराष्ट्र और गान्धारीका वन गमन
  14. [अध्याय 14] अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिरका शङ्का करना
  15. [अध्याय 15] पाण्डवों का परीक्षित‌ को राज्य देकर स्वर्ग प्रस्थान
  16. [अध्याय 16] परीक्षित्की दिग्विजय तथा धर्म-पृथ्वी संवाद
  17. [अध्याय 17] महाराज परीक्षितद्वारा कलियुगका दमन
  18. [अध्याय 18] राजा परीक्षितको शृङ्गी ऋषिका शाप
  19. [अध्याय 19] परीक्षितका अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन
  1. [अध्याय 1] उद्भव और विदुरकी भेंट
  2. [अध्याय 2] उद्धवजीद्वारा भगवान्की बाललीलाओंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अन्य लीलाचरित्रोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
  5. [अध्याय 5] विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्ण
  6. [अध्याय 6] विराट् शरीरकी उत्पत्ति
  7. [अध्याय 7] विदुरजीके प्रश्न
  8. [अध्याय 8] ब्रह्माजीकी उत्पत्ति
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीद्वारा भगवान्‌की स्तुति
  10. [अध्याय 10] दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] मन्वन्तरादि कालविभागका वर्णन
  12. [अध्याय 12] सृष्टिका विस्तार
  13. [अध्याय 13] वाराह अवतारकी कथा
  14. [अध्याय 14] दितिका गर्भधारण
  15. [अध्याय 15] जय-विजयको सनकादिका शाप
  16. [अध्याय 16] जय-विजयका वैकुण्ठसे पतन
  17. [अध्याय 17] हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षका जन्म
  18. [अध्याय 18] हिरण्याक्षके साथ वाराहभगवान्‌का युद्ध
  19. [अध्याय 19] हिरण्याक्षवध
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टि
  21. [अध्याय 21] कर्दमजीकी तपस्या और भगवान्‌का वरदान
  22. [अध्याय 22] देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह
  23. [अध्याय 23] कर्दम और देवहूतिका विहार
  24. [अध्याय 24] श्रीकपिलदेवजीका जन्म
  25. [अध्याय 25] देवहूतिका प्रश्न तथा भगवान् कपिलद्वारा भक्तियोग का वर्णन
  26. [अध्याय 26] महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  27. [अध्याय 27] प्रकृति-पुरुषके विवेकसे मोक्ष प्राप्तिका वर्णन
  28. [अध्याय 28] अष्टाङ्गयोगकी विधि
  29. [अध्याय 29] भक्तिका मर्म और कालकी महिमा
  30. [अध्याय 30] देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
  31. [अध्याय 31] मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए जीवकी गतिका वर्णन
  32. [अध्याय 32] धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गति
  33. [अध्याय 33] देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति
  1. [अध्याय 1] स्वायम्भुव मनुकी कन्याओंके वंशका वर्णन
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिव और दक्ष प्रजापतिका मनोमालिन्य
  3. [अध्याय 3] सतीका पिताके यहाँ यज्ञोत्सवमें जानेके लिये आग्रह
  4. [अध्याय 4] सतीका अग्निप्रवेश
  5. [अध्याय 5] वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध
  6. [अध्याय 6] ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
  7. [अध्याय 7] दक्षयज्ञकी पूर्ति
  8. [अध्याय 8] ध्रुवका वन-गमन
  9. [अध्याय 9] ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
  10. [अध्याय 10] उत्तमका मारा जाना, ध्रुवका यक्षोंके साथ युद्ध
  11. [अध्याय 11] स्वायम्भुव मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करने
  12. [अध्याय 12] ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति
  13. [अध्याय 13] ध्रुववंशका वर्णन, राजा अङ्गका चरित्र
  14. [अध्याय 14] राजा वेनकी कथा
  15. [अध्याय 15] महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक
  16. [अध्याय 16] बन्दीजनद्वारा महाराज पृथुकी स्तुति
  17. [अध्याय 17] महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना
  18. [अध्याय 18] पृथ्वी - दोहन
  19. [अध्याय 19] महाराज पृथुके सौ अश्वमेध यज्ञ
  20. [अध्याय 20] महाराज पृथुकी यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान‌ का आगमन
  21. [अध्याय 21] महाराज पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
  22. [अध्याय 22] महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश
  23. [अध्याय 23] राजा पृथुकी तपस्या और परलोकगमन
  24. [अध्याय 24] पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान् रुद्र का उपदेश
  25. [अध्याय 25] पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ
  26. [अध्याय 26] राजा पुरञ्जनका शिकार खेलने वनमें जाना
  27. [अध्याय 27] पुरञ्जनपुरीपर चण्डवेगकी चढ़ाई
  28. [अध्याय 28] पुरञ्जनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति
  29. [अध्याय 29] पुरञ्जनोपाख्यानका तात्पर्य
  30. [अध्याय 30] प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान
  31. [अध्याय 31] प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश
  1. [अध्याय 1] प्रियव्रत चरित्र
  2. [अध्याय 2] आग्नीध्र-चरित्र
  3. [अध्याय 3] राजा नाभिका चरित्र
  4. [अध्याय 4] ऋषभदेवजीका राज्यशासन
  5. [अध्याय 5] ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना
  6. [अध्याय 6] ऋषभदेवजीका देहत्याग
  7. [अध्याय 7] भरत चरित्र
  8. [अध्याय 8] भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना
  9. [अध्याय 9] भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म
  10. [अध्याय 10] जडभरत और राजा रहूगणकी भेंट
  11. [अध्याय 11] राजा रहूगणको भरतजीका उपदेश
  12. [अध्याय 12] रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान
  13. [अध्याय 13] भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश
  14. [अध्याय 14] भवाटवीका स्पष्टीकरण
  15. [अध्याय 15] भरतके वंशका वर्णन
  16. [अध्याय 16] भुवनकोशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] गङ्गाजीका विवरण
  18. [अध्याय 18] भिन्न-भिन्न वर्षोंका वर्णन
  19. [अध्याय 19] किम्पुरुष और भारतवर्षका वर्णन
  20. [अध्याय 20] अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोकपर्वतका वर्णन
  21. [अध्याय 21] सूर्यके रथ और उसकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22] भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गतिका वर्णन
  23. [अध्याय 23] शिशुमारचक्रका वर्णन
  24. [अध्याय 24] राहु आदिकी स्थिति, अतलादि नीचेके लोकोंका वर्ण
  25. [अध्याय 25] श्रीसङ्कर्षणदेवका विवरण और स्तुति
  26. [अध्याय 26] नरकोंकी विभिन्न गतियोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] अजामिलोपाख्यानका प्रारम्भ
  2. [अध्याय 2] विष्णुदूतोंद्वारा भागवतधर्म-निरूपण
  3. [अध्याय 3] यम और यमदूतोंका संवाद
  4. [अध्याय 4] दक्षके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  5. [अध्याय 5] श्रीनारदजीके उपदेशसे दक्षपुत्रोंकी विरक्ति तथा
  6. [अध्याय 6] दक्षप्रजापतिकी साठ कन्याओंके वंश का विवरण
  7. [अध्याय 7] बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओंका त्याग
  8. [अध्याय 8] नारायण कवच का उपदेश
  9. [अध्याय 9] विश्वरूपका वध, वृत्रासुरद्वारा देवताओंकी हार
  10. [अध्याय 10] देवताओं द्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र बनाना
  11. [अध्याय 11] वृत्रासुरकी वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] वृत्रासुरका वध
  13. [अध्याय 13] इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण
  14. [अध्याय 14] वृत्रासुरका पूर्वचरित्र
  15. [अध्याय 15] चित्रकेतुको अङ्गिरा और नारदजीका उपदेश
  16. [अध्याय 16] चित्रकेतुका वैराग्य तथा सङ्कर्षणदेव के दर्शन
  17. [अध्याय 17] चित्रकेतुको पार्वतीजीका शाप
  18. [अध्याय 18] अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति
  19. [अध्याय 19] पुंसवन-व्रतकी विधि
  1. [अध्याय 1] नारद युधिष्ठिर संवाद और जय-विजयकी कथा
  2. [अध्याय 2] हिरण्याक्षका वध होनेपर हिरण्यकशिपुका अपनी माता को समझाना
  3. [अध्याय 3] हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति
  4. [अध्याय 4] हिरण्यकशिपुके अत्याचार और प्रह्लादके गुणोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] हिरण्यकशिपुके द्वारा प्रहादजीके वधका प्रयत्न
  6. [अध्याय 6] प्रह्लादजीका असुर बालकोंको उपदेश
  7. [अध्याय 7] प्रह्लादजीद्वारा माताके गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन
  8. [अध्याय 8] नृसिंहभगवान्‌का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपुका वध
  9. [अध्याय 9] प्रह्लादजीके द्वारा नृसिंहभगवान्की स्तुति
  10. [अध्याय 10] प्रहादजीके राज्याभिषेक और त्रिपुरदहनकी कथा
  11. [अध्याय 11] मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्मका निरूपण
  12. [अध्याय 12] ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमोंके नियम
  13. [अध्याय 13] यतिधर्मका निरूपण और अवधूत प्रह्लाद-संवाद
  14. [अध्याय 14] गृहस्थसम्बन्धी सदाचार
  15. [अध्याय 15] गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन
  1. [अध्याय 1] मन्वन्तरोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना
  3. [अध्याय 3] गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌की स्तुति और उसका संकट मुक्त होना
  4. [अध्याय 4] गज और ग्राहका पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार
  5. [अध्याय 5] देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और स्तुति
  6. [अध्याय 6] देवताओं और दैत्योका मिलकर समुद्रमन्थन का विचार
  7. [अध्याय 7] समुद्रमन्थनका आरम्भ और भगवान् शङ्करका विषपान
  8. [अध्याय 8] समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌का मोहिनी अवतार
  9. [अध्याय 9] मोहिनीरूपसे भगवान्के द्वारा अमृत बाँटा जाना
  10. [अध्याय 10] देवासुर संग्राम
  11. [अध्याय 11] देवासुर संग्रामकी समाप्ति
  12. [अध्याय 12] मोहिनीरूपको देखकर महादेवजीका मोहित होना
  13. [अध्याय 13] आगामी सात मन्वन्तरोका वर्णन
  14. [अध्याय 14] मनु आदिके पृथक्-पृथक् कर्मोंका निरूपण
  15. [अध्याय 15] राजा बलिकी स्वर्गपर विजय
  16. [अध्याय 16] कश्यपनीके द्वारा अदितिको पयोव्रतका उपदेश
  17. [अध्याय 17] भगवान्‌का प्रकट होकर अदितिको वर देना
  18. [अध्याय 18] वामनभगवान्‌का प्रकट होकर राजा बलिकी यज्ञशाला में जाना
  19. [अध्याय 19] भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना
  20. [अध्याय 20] भगवान् वामनजीका विराट् रूप होकर दो ही पगसे पृथ
  21. [अध्याय 21] बलिका बाँधा जाना
  22. [अध्याय 22] बलिके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और भगवान्‌ का प्रसन्न होना
  23. [अध्याय 23] बलिका बन्धनसे छूटकर सुतल लोकको जाना
  24. [अध्याय 24] भगवान्के मत्स्यावतारकी कथा
  1. [अध्याय 1] वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युनकी कथा
  2. [अध्याय 2] पृषध, आदि मनुके पाँच पुत्रोंका वंश
  3. [अध्याय 3] महर्षि च्यवन और सुकन्याका चरित्र, राजा शर्याति
  4. [अध्याय 4] नाभाग और अम्बरीषकी कथा
  5. [अध्याय 5] दुर्वासाजीकी दुःखनिवृत्ति
  6. [अध्याय 6] इक्ष्वाकु वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषिकी कथा
  7. [अध्याय 7] राजा त्रिशत्रु और हरिचन्द्रकी कथा
  8. [अध्याय 8] सगर-चरित्र
  9. [अध्याय 9] भगीरथ चरित्र और गङ्गावतरण
  10. [अध्याय 10] भगवान् श्रीरामकी लीलाओंका वर्णन
  11. [अध्याय 11] भगवान् श्रीरामकी शेष लीलाओंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] इक्ष्वाकुवंशके शेष राजाओंका वर्णन
  13. [अध्याय 13] राजा निमिके वंशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] चन्द्रवंशका वर्णन
  15. [अध्याय 15] ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजीका चरित्र
  16. [अध्याय 16] क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओंके वंशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] ययाति चरित्र
  18. [अध्याय 18] ययातिका गृहत्याग
  19. [अध्याय 19] पूरुके वंश, राजा दुष्यन्त और भरतके चरित्रका वर्णन
  20. [अध्याय 20] भरतवंशका वर्णन, राजा रन्तिदेवकी कथा
  21. [अध्याय 21] पाञ्चाल, कौरव और मगधदेशीय राजाओंके वंशका वर्ण
  22. [अध्याय 22] अनु, ह्यु, तुर्वसु और यदुके वंशका वर्णन
  23. [अध्याय 23] विदर्भके वंशका वर्णन
  24. [अध्याय 24] परशुरामजीके द्वारा क्षत्रियसंहार
  1. [अध्याय 1] भगवानके द्वारा पृथ्वीको आश्वासन और कंस के अत्याचार
  2. [अध्याय 2] भगवान्का गर्भ-प्रवेश और देवताओंद्वारा गर्भ-स्तुति
  3. [अध्याय 3] भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य
  4. [अध्याय 4] कंसके हाथसे छूटकर योगमायाका आकाशमें जाकर भविष्यवाणी करना
  5. [अध्याय 5] गोकुलमें भगवान्‌का जन्ममहोत्सव
  6. [अध्याय 6] पूतना- उद्धार
  7. [अध्याय 7] शकट-भञ्जन और तृणावर्त - उद्धार
  8. [अध्याय 8] नामकरण संस्कार और बाललीला
  9. [अध्याय 9] श्रीकृष्णका ऊखलसे बाँधा जाना
  10. [अध्याय 10] यमलार्जुनका उद्धार
  11. [अध्याय 11] गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
  12. [अध्याय 12] अघासुरका उद्धार
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माजीका मोह और उसका नाश
  14. [अध्याय 14] ब्रह्माजीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  15. [अध्याय 15] धेनुकासुरका उद्धार और ग्वालबालोंको कालियनाग के विश से बचाना
  16. [अध्याय 16] कालिय पर कृपा
  17. [अध्याय 17] कालियके कालियदहमें आनेकी कथा तथा भगवान्‌ का दावानल पान
  18. [अध्याय 18] प्रलम्बासुर - उद्धार
  19. [अध्याय 19] गौओं और गोपोंको दावानलसे बचाना
  20. [अध्याय 20] वर्षा और शरदऋतुका वर्णन
  21. [अध्याय 21] वेणुगीत
  22. [अध्याय 22] चीरहरण
  23. [अध्याय 23] यज्ञपत्त्रियोंपर कृपा
  24. [अध्याय 24] इन्द्रयज्ञ-निवारण
  25. [अध्याय 25] गोवर्धनधारण
  26. [अध्याय 26] नन्दबाबासे गोपोंकी श्रीकृष्णके प्रभावके विषय में सुनना
  27. [अध्याय 27] श्रीकृष्णका अभिषेक
  28. [अध्याय 28] वरुणलोकसे नन्दजीको छुड़ाकर लाना
  29. [अध्याय 29] रासलीलाका आरम्भ
  30. [अध्याय 30] श्रीकृष्णके विरहमें गोपियोंकी दशा
  31. [अध्याय 31] गोपिकागीत
  32. [अध्याय 32] भगवान्‌का प्रकट होकर गोपियोंको सान्त्वना देन
  33. [अध्याय 33] महारास
  34. [अध्याय 34] सुदर्शन और शङ्खचूडका उद्धार
  35. [अध्याय 35] युगलगीत
  36. [अध्याय 36] अरिष्टासुरका उद्धार और कंसका श्री अक्रूर को व्रज भेजना
  37. [अध्याय 37] केशी और व्योमासुरका उद्धार तथा नारदजीके द्वारा भगवान की स्तुति
  38. [अध्याय 38] अक्रूरजीकी व्रजयात्रा
  39. [अध्याय 39] श्रीकृष्ण-बलरामका मथुरागमन
  40. [अध्याय 40] अक्रूरजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
  41. [अध्याय 41] श्रीकृष्णका मथुराजीमें प्रवेश
  42. [अध्याय 42] कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट
  43. [अध्याय 43] कुवलयापीडका उद्धार और अखाड़ेमें प्रवेश
  44. [अध्याय 44] चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानोंका तथा कंसका उद्धार
  45. [अध्याय 45] श्रीकृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
  46. [अध्याय 46] उद्धवजीकी ब्रजयात्रा
  47. [अध्याय 47] उद्धव तथा गोपियोंकी बातचीत और भ्रमरगीत
  48. [अध्याय 48] भगवान्‌का कुब्जा और अक्रूरजीके घर जाना
  49. [अध्याय 49] अक्कुरजीका हस्तिनापुर जाना
  50. [अध्याय 50] जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण
  51. [अध्याय 51] कालयवनका भस्म होना, मुचुकुन्दकी कथा
  52. [अध्याय 52] द्वारकागमन, श्रीबलरामजीका विवाह और रुक्मणी जी का संदेश
  53. [अध्याय 53] रुक्मिणीहरण
  54. [अध्याय 54] शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मीकी हार तथा कृष्ण-रुक्मणी विवाह
  55. [अध्याय 55] प्रद्युम्नका जन्म और शम्बरासुरका वध
  56. [अध्याय 56] स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामाके साथ श्रीकृष्ण का विवाह
  57. [अध्याय 57] स्यमन्तक- हरण, शतधन्वाका उद्धार
  58. [अध्याय 58] भगवान् श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा
  59. [अध्याय 59] भौमासुरका उद्धार और सोलह हजार एक सौ राज कन्याओं से भगवान का विवाह
  60. [अध्याय 60] श्रीकृष्ण-रुक्मिणी संवाद
  61. [अध्याय 61] भगवान्की सन्ततिका वर्णन तथा अनिरुद्ध विवाह में रुकमी का मारा जाना
  62. [अध्याय 62] ऊषा-अनिरुद्ध मिलन
  63. [अध्याय 63] भगवान् श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
  64. [अध्याय 64] नृग राजाकी कथा
  65. [अध्याय 65] श्रीबलरामजीका व्रजगमन
  66. [अध्याय 66] पौण्ड्रक और काशिराजका उद्धार
  67. [अध्याय 67] द्विविदका उद्धार
  68. [अध्याय 68] कौरवोंपर बलरामजीका कोप और साम्बका विवाह
  69. [अध्याय 69] देवर्षि नारदजीका भगवान्‌की गृहचर्या देखना
  70. [अध्याय 70] भगवान् श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और जरासंध के कैदी राजाओं के दूत का आना
  71. [अध्याय 71] श्रीकृष्णभगवान्‌का इन्द्रप्रस्थ पधारना
  72. [अध्याय 72] पाण्डवोंके राजसूययज्ञका आयोजन और जरासन्धका उद्धार
  73. [अध्याय 73] जरासन्धके जेलसे छूटे हुए राजाओंकी बिदाई
  74. [अध्याय 74] भगवान् की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार
  75. [अध्याय 75] राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान
  76. [अध्याय 76] शाल्वके साथ यादवोंका युद्ध
  77. [अध्याय 77] शाल्व उद्धार
  78. [अध्याय 78] दन्तवका और विदूरथका उद्धार तथा बलराम जी द्वारा सूत जी का वध
  79. [अध्याय 79] बल्वलका उद्धार और बलरामजीकी तीर्थयात्रा
  80. [अध्याय 80] श्रीकृष्णके द्वारा सुदामाजीका स्वागत
  81. [अध्याय 81] सुदामाजीको ऐश्वर्यकी प्राप्ति
  82. [अध्याय 82] भगवान् श्रीकृष्ण-बलरामसे गोप-गोपियोंकी भेंट
  83. [अध्याय 83] भगवान्‌की पटरानियोंके साथ द्रौपदीकी बातचीत
  84. [अध्याय 84] वसुदेवजीका यज्ञोत्सव
  85. [अध्याय 85] श्रीभगवान्के का वसुदेवजीको ब्रह्मज्ञान-उपदेश और देवकी के पुत्रों को लौटाना
  86. [अध्याय 86] सुभद्राहरण और भगवान्‌का राजा जनक उर श्रुतदेव ब्राह्मण के यहाँ जाना
  87. [अध्याय 87] वेदस्तुति
  88. [अध्याय 88] शिवजीका सङ्कटमोचन
  89. [अध्याय 89] भृगुजीके द्वारा त्रिदेवोंकी परीक्षा
  90. [अध्याय 90] भगवान् कृष्णके लीला-विहारका वर्णन
  1. [अध्याय 1] यदुवंशको ऋषियोंका शाप
  2. [अध्याय 2] वसुदेवजी को श्रीनारदजीका राजा जनक और नौ योगेश्वरों का संवाद सुनना
  3. [अध्याय 3] माया, मायासे पार होनेके उपाय
  4. [अध्याय 4] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] भक्तिहीन पुरुषोंकी गति और भगवान्‌की पूजाविधि
  6. [अध्याय 6] देवताओंकी भगवान्‌ले स्वधाम सिधारनेके लिये प्रार्थना करना
  7. [अध्याय 7] अवधूतोपाख्यान – पृथ्वीसे लेकर कबूतर तक आठ गुरु
  8. [अध्याय 8] अवधूतोपाख्यान अजगरसे लेकर पिंगला तक नौ गुरु
  9. [अध्याय 9] अवधूतोपाख्यान – क्रूररसे लेकर भृङ्गीतक सात गुरु
  10. [अध्याय 10] लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी असारताका निरूपण
  11. [अध्याय 11] बद्ध, मुक्त और भक्तजनोंके लक्षण
  12. [अध्याय 12] सत्सङ्गकी महिमा और कर्म तथा कर्मत्यागकी विधि
  13. [अध्याय 13] हंसरूपसे सनकादिको दिये हुए उपदेशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] भक्तियोगकी महिमा तथा ध्यानविधिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण
  16. [अध्याय 16] भगवान्‌की विभूतियोंका वर्णन
  17. [अध्याय 17] वर्णाश्रम धर्म-निरूपण
  18. [अध्याय 18] वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म
  19. [अध्याय 19] भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनोंका वर्णन
  20. [अध्याय 20] ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
  21. [अध्याय 21] गुण-दोष-व्यवस्थाका स्वरूप और रहस्य
  22. [अध्याय 22] तत्त्वोंकी संख्या और पुरुष प्रकृति-विवेक
  23. [अध्याय 23] एक तितिक्षु ब्राह्मणका इतिहास
  24. [अध्याय 24] सांख्ययोग
  25. [अध्याय 25] तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका निरूपण
  26. [अध्याय 26] पुरूरवाकी वैराग्योक्ति
  27. [अध्याय 27] क्रियायोगका वर्णन
  28. [अध्याय 28] परमार्थनिरूपण
  29. [अध्याय 29] भागवतधर्मोका निरूपण और उद्धवजीका बदरिकाश्रम गमन
  30. [अध्याय 30] यदुकुलका संहार
  31. [अध्याय 31] श्रीभगवान्का स्वधामगमन
  1. [अध्याय 1] कलियुगके राजवंशोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] कलियुगके धर्म
  3. [अध्याय 3] राज्य युगधर्म और कलियुगके दोषोंसे बचनेका उपाय
  4. [अध्याय 4] चार प्रकारके प्रलय
  5. [अध्याय 5] श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश
  6. [अध्याय 6] परीक्षित्की परमगति, जनमेजयका सर्पसत्र
  7. [अध्याय 7] अथर्ववेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण
  8. [अध्याय 8] मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति
  9. [अध्याय 9] मार्कण्डेयजीका माया दर्शन
  10. [अध्याय 10] मार्कण्डेयजीको भगवान् शङ्करका वरदान
  11. [अध्याय 11] भगवान् के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधोंका रहस्य तथा
  12. [अध्याय 12] श्रीमद्भागवतकी संक्षिप्त विषय-सूची
  13. [अध्याय 13] विभिन्न पुराणोंकी श्लोक संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा