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श्रीमद्भागवत महापुरण (भागवत पुराण)

Shrimad Bhagwat Purana (Bhagwat Katha)

स्कन्ध 6, अध्याय 18 - Skand 6, Adhyay 18

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अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! सविताकी पीके गर्भ से आठ सत्ताने हुई सावित्री, व्यति त्रयी, अग्निहोत्र, पशु सोम, चातुर्मास्य और |पञ्चमहायज्ञ ॥ 1 ॥ भगकी पत्नी सिद्धिने महिमा, विभु और प्रभु ये तीन पुत्र और आशिष नामकी एक कन्या उत्पन्न की। यह कन्या बड़ी सुन्दरी और सदाचारिणी थी । ॥ धाताकी चार पत्नियाँ थीं— कुहू, सिनीवाली, राका और अनुमति। उनसे क्रमशः सायं दर्श, प्रातः और | पूर्णमास-ये चार पुत्र हुए ॥ 3 ॥धाताके छोटे भाईका नाम था- विधाता, उनकी पत्नी क्रिया थी उससे पुरीष्य नामके पाँच अग्नियोंकी उत्पत्ति हुई। वरुणजीकी पत्नीका नाम चर्षणी था। उससे भृगुजीने पुनः जन्म ग्रहण किया। इसके पहले वे ब्रह्माजीके पुत्र थे ॥ 4 ॥ महायोगी वाल्मीकिजी भी वरुणके पुत्र थे। वल्मीकसे पैदा होनेके कारण ही उनका नाम वाल्मीकि पड़ | गया था। उर्वशीको देखकर मित्र और वरुण दोनोंका वीर्य स्खलित हो गया था। उसे उन लोगोंने घड़ेमें रख दिया। उसीसे मुनिवर अगस्त्य और वसिष्ठजीका जन्म हुआ। मित्रकी पत्नी थी रेवती। उसके तीन पुत्र हुए- उत्सर्ग, अरिष्ट और पिप्पल ।। 5-6 ।। प्रिय परीक्षित् । देवराज इन्द्रकी पत्नी थीं पुलोमनन्दिनी शची उनसे हमने सुना है, उन्होंने तीन पुत्र उत्पन्न किये -जयन्त, ऋषभ और मीवान् ॥ 7 ॥ स्वयं भगवान् विष्णु ही (बलिपर अनुग्रह करने और इन्द्रका राज्य लौटानेके लिये) मायासे वामन (उपेन्द्र) के रूपमें अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने तीन पग पृथ्वी माँगकर तीनों लोक नाप लिये थे। उनकी पत्नीका नाम था कीर्ति। उससे बृहच्छ्लोक नामका पुत्र हुआ। उसके सौभग आदि कई सन्तानें हुईं ॥ 8 ॥ कश्यपनन्दन भगवान् वामनने माता अदितिके गर्भसे क्यों जन्म लिया और इस अवतार में उन्होंने कौन-से गुण, लीलाएँ और पराक्रम प्रकट किये—इसका वर्णन मैं आगे (आठवें स्कन्धमें) करूँगा ॥ 9 ॥

प्रिय परीक्षित् अब मैं कश्यपजीकी दूसरी पत्नी दितिसे उत्पन्न होनेवाली उस सन्तान परम्पराका वर्णन सुनाता हूँ, जिसमें भगवान्‌के प्यारे भक्त श्रीप्रह्लादजी और बलिका जन्म हुआ ॥ 10 ॥ दितिके दैत्य और दानवोंके कन्दनीय दो ही पुत्र हुए हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष इनकी संक्षिप्त कथा मैं तुम्हें (तीसरे स्कन्धमें) सुना चुका हूँ ॥ 11 ॥ हिरण्यकशिपुकी पत्नी दानवी कयाधु थी उसके पिता जम्भने उसका विवाह हिरण्यकशिपुसे कर दिया था। कयाधुके चार पुत्र हुए—संहाद, अनुहाद, हाद और प्रह्लाद। इनकी सिंहिका नामकी एक बहिन भी थी। उसका विवाह विप्रचित्ति नामक दानवसे हुआ। | उससे राहु नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई ।। 12-13 ॥ यह वही राहु है, जिसका सिर अमृतपान के समय मोहिनी रूपधारी भगवान्ने चक्रसे काट लिया था हादकी पत्नी | थी कृति। उससे पञ्चजन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ll 14 llहादकी पत्नी थी धमनि उसके दो पुत्र हुए वातापि और इल्वल । इस इल्वलने ही महर्षि अगस्त्यके आतिथ्य के समय वातापिको पकाकर उन्हें खिला दिया था ॥ 15 ॥ अनुहादकी पत्नी सूयी थी, उसके दो पुत्र हुए बाष्कल और महिषासुर प्रह्लादका पुत्र था विरोचन। उसकी पत्नी देवीके गर्भ से दैत्यराज बलिका जन्म हुआ ।। 16 ।। बलिकी पत्नीका नाम अशना था। उससे बाण आदि सौ पुत्र हुए। दैत्यराज बलिकी महिमा गान करनेयोग्य है। उसे मैं आगे (आठवें स्कन्धमें सुनाऊंगा ॥ 17 ॥ बलिका पुत्र बाणासुर भगवान् शङ्करकी आराधना करके उनके गणोंका मुखिया बन गया। आज भी भगवान् शङ्कर उसके नगरकी रक्षा करनेके लिये उसके पास ही रहते हैं ।। 18 ।। दितिके हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षके अतिरिक्त उनचास पुत्र और थे उन्हें मरुद्रण कहते हैं वे सब निःसन्तान रहे। देवराज इन्द्रने उन्हें अपने ही समान देवता बना लिया ।। 19 ।।

राजा परीक्षित्ने पूछा- भगवन्! मरुद्गणने ऐसा कौन-सा सत्कर्म किया था, जिसके कारण वे अपने जन्मजात असुरोचित भावको छोड़ सके और देवराज | इन्द्रके द्वारा देवता बना लिये गये ? ॥ 20 ॥ ब्रह्मन् ! मेरे साथ यहाँको सभी समण्डली यह बात जाननेके लिये अत्यन्त उत्सुक हो रही है। अतः आप कृपा करके विस्तारसे वह रहस्य बतलाइये 21 ॥

सूतजी कहते हैं— शौनकजी राजा परीक्षित्का प्रश्न थोड़े शब्दों में बड़ा सारगर्भित था। उन्होंने बड़े आदरसे पूछा भी था। इसलिये सर्वज्ञ श्रीशुकदेवजी महाराजने बड़े ही प्रसन्न चित्तसे उनका अभिनन्दन करके यो कहा ।। 22 ।।

श्रीशुकदेवजी कहने लगे- परीक्षित्! भगवान् विष्णुने इन्द्रका पक्ष लेकर दितिके दोनों पुत्र हिरण्यकशिपु | और हिरण्याक्षको मार डाला। अतः दिति शोककी आगसे उद्दीप्त क्रोधसे जलकर इस प्रकार सोचने लगी ॥ 23 ॥'सचमुच इन्द्र बड़ा विषयों, क्रूर और निर्दयी है। राम ! राम ! उसने अपने भाइयोंको ही मरवा डाला। वह दिन कब होगा, जब मैं भी उस पापीको मरवाकर आरामसे सोऊँगी ।। 24 ।। लोग राजाओं के देवताओंके शरीरको 'प्रभु' कहकर पुकारते हैं; परन्तु एक दिन वह कीड़ा, विष्ठा या राखका ढेर हो जाता है, इसके लिये जो दूसरे प्राणियोंको सताता है, उसे अपने सच्चे स्वार्थ या परमार्थका पता नहीं है; क्योंकि इससे तो नरकमें जाना पड़ेगा ।। 25 ।। मैं समझती हूँ इन्द्र अपने शरीरको नित्य मानकर मतवाला हो रहा है। उसे अपने विनाशका पता ही नहीं है। अब मैं वह उपाय करूँगी, जिससे मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो इन्द्रका घमण्ड चूर-चूर कर दे ॥ 26 ॥ दिति अपने मनमें ऐसा विचार करके सेवा-शुश्रूषा, विनय प्रेम और जितेन्द्रियता आदिके द्वारा निरन्तर अपने पतिदेव कश्यपजीको प्रसन्न रखने लगी ॥ 27 ॥ वह अपने पतिदेवके हृदयका एक-एक भाव जानती रहती थी और परम प्रेमभाव, मनोहर एवं मधुर भाषण तथा मुसकानभरी तिरछी चितवनसे उनका मन अपनी ओर आकर्षित करती | रहती थी ॥ 28 ॥ कश्यपजी महाराज बड़े विद्वान् और विचारवान् होनेपर भी चतुर दितिकी सेवासे मोहित हो गये और उन्होंने विवश होकर यह स्वीकार कर लिया कि 'मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा।' स्त्रियोंके सम्बन्धमें यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है 29 ॥ सृष्टिके प्रभातमें ब्रह्माजीने | देखा कि सभी जीव असङ्ग हो रहे हैं, तब उन्होंने अपने आधे शरीरसे स्त्रियोंकी रचना की और स्त्रियोंने पुरुषोंकी मति अपनी ओर आकर्षित कर ली 30 ॥ हाँ तो भैया ! मैं कह रहा था कि दितिने भगवान् कश्यपकी बड़ी सेवा की। इससे वे उसपर बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने दितिका अभिनन्दन करते हुए उससे मुसकराकर कहा ॥ 31 ॥

कश्यपजीने कहा- अनिन्द्यसुन्दरी प्रिये! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो। रहूँ। पतिके प्रसन्न हो जानेपर पालीके लिये लोक या परलोकमें कौन-सी अभीष्ट वस्तु दुर्लभ है ।। 32 ।। शास्त्रोंमें यह बात स्पष्ट कही गयी है कि पति ही स्त्रियोंका परमाराध्य इष्टदेव है प्रिये लक्ष्मीपति भगवान् वासुदेव ही समस्त प्राणियोंकि हृदयमें विराजमान है। 33 विभिन्न देवताओंके रूपमें नाम और रूपके भेदसे उन्हींकी कल्पना | हुई है। सभी पुरुष चाहे किसी भी देवताको उपासनाकरें— उन्हींकी उपासना करते हैं। ठीक वैसे ही स्त्रियोंके लिये भगवान्ने पतिका रूप धारण किया है। वे उनकी उसी रूपमें पूजा करती हैं ।। 34 ।। इसलिये प्रिये ! अपना कल्याण चाहनेवाली पतिव्रता स्त्रियाँ अनन्य प्रेमभावसे अपने पतिदेवकी ही पूजा करती हैं; क्योंकि पतिदेव ही उनके परम प्रियतम आत्मा और ईश्वर हैं ॥ 35 ॥ कल्याणी तुमने बड़े प्रेमभावसे, भक्तिसे मेरी वैसी ही पूजा की है। अब मैं तुम्हारी सब अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूंगा। असतियोंके जीवनमें ऐसा होना अत्यन्त दुर्लभ है ।। 36 ।।

दितिने कहा- ब्रह्मन् ! इन्द्रने विष्णुके हाथों मेरे दो पुत्र मरवाकर मुझे निपूती बना दिया है। इसलिये यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना चाहते हैं तो कृपा करके एक ऐसा अमर पुत्र दीजिये, जो इन्द्रको मार डाले ॥ 37 ॥

परीक्षित्! दितिकी बात सुनकर कश्यपजी खिन्न होकर पछताने लगे। वे मन-ही-मन कहने लगे- 'हाय ! हाय! आज मेरे जीवनमें बहुत बड़े अधर्मका अवसर आ पहुँचा ॥ 38 ॥ देखो तो सही, अब मैं इन्द्रियोंके विषयों में सुख मानने लगा हूँ। स्त्रीरूपिणी मायाने मेरे चित्तको अपने वशमें कर लिया है। हाय! हाय! आज मैं कितनी दीन हीन अवस्थामें हूँ। अवश्य ही अब मुझे नरकमें गिरना पड़ेगा ॥ 39 ॥ इस स्त्रीका कोई दोष नहीं है; क्योंकि इसने अपने जन्मजात स्वभावका ही अनुसरण किया है। दोष मेरा है—जो मैं अपनी इन्द्रियोंको अपने वशमें न रख सका, अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थको न समझ सका। मुझ मूढको बार-बार धिक्कार है ॥ 40 ॥ सच है, स्त्रियोंके चरित्रको कौन जानता है। इनका मुँह तो ऐसा होता है जैसे शरदका खिला हुआ कमल बातें सुननेमें ऐसी मोटी होती हैं, मानो अमृत घोल रखा हो। परन्तु हृदय, वह तो इतना तीखा होता है कि मानो छुरेकी पैनी धार हो । 41 ।। इसमें सन्देह नहीं कि खियाँ अपनी लालसाओ | कठपुतली होती हैं। सच पूछो तो वे किसीसे प्यार नहीं करतीं। स्वार्थवश वे अपने पति, पुत्र और भाईतकको मार | डालती है या मरवा डालती हैं ॥ 42 ॥ अब तो मैं कह चुका हूँ कि जो तुम माँगोगी, दूँगा। मेरी बात झूठी नहीं होनी चाहिये। परन्तु इन्द्र भी वध करनेयोग्य नहीं है। अच्छा, | अब इस विषय में मैं यह युक्ति करता हूँ ॥ 43 ॥प्रिय परीक्षित् । सर्वसमर्थ कश्यपजीने इस प्रकार मन-ही-मन अपनी भर्त्सना करके दोनों बात बनानेका उपाय सोचा और फिर तनिक रुष्ट होकर दितिसे कहा ।। 44 ।।

कश्यपजी बोले- कल्याणी! यदि तुम मेरे बतलाये हुए व्रतका एकवर्षतक विधिपूर्वक पालन करोगी तो तुम्हें इन्द्रको मारनेवाला पुत्र प्राप्त होगा। परन्तु यदि किसी प्रकार नियमोंमें त्रुटि हो गयी तो वह देवताओंका मित्र बन जायगा ॥ 45 ॥

दितिने कहा -ब्रह्मन्! मैं उस व्रतका पालन - करूंगी। आप बतलाइये कि मुझे क्या-क्या करना चाहिये, कौन-कौनसे काम छोड़ देने चाहिये और कौन-से काम ऐसे हैं, जिनसे व्रत भङ्ग नहीं होता ।। 46 ।।

कश्यपजीने उत्तर दिया-प्रिये! इस व्रतमें किसी भी प्राणीको मन, वाणी या क्रियाके द्वारा सताये नहीं, किसीको शाप या गाली न दे, झूठ न बोले, शरीरके नख और रोएँ न काटे और किसी भी अशुभ वस्तुका स्पर्श न करे ।। 47 ।। जलमें घुसकर स्नान न करे, क्रोध न करे, दुर्जनोंसे बातचीत न करे, बिना धुला वस्त्र न पहने और किसीकी पहनी हुई माला न पहने ॥ 48 ॥ जूठा न खाय, भद्रकालीका प्रसाद या मांसयुक्त अन्नका भोजन न करे। शूद्रका लाया हुआ और रजस्वलाका देखा हुआ अन्न भी न खाय और अञ्जलिसे जलपान न करे ।। 49 ।। जूठे मुँह, बिना आचमन किये, सन्ध्याके समय, बाल खोले हुए, बिना शृङ्गारके, वाणीका संयम किये बिना और बिना चद्दर ओढ़े घरसे बाहर न निकले ॥ 50 ॥ बिना पैर धोये, अपवित्र अवस्थामें गीले पाँवोंसे, उत्तर या पश्चिम सिर करके, दूसरेके साथ, नग्नावस्थामें तथा सुबह-शाम सोना नहीं चाहिये ॥ 51 ॥ इस प्रकार इन निषिद्ध कर्मका त्याग करके सर्वदा पवित्र रहे, भुला वस्त्र धारण करे और सभी सौभाग्यके चिह्नोंसे सुसज्जित रहे । प्रातःकाल कलेवा करनेके पहले ही गाय, ब्राह्मण, लक्ष्मीजी और भगवान् नारायणकी पूजा करे॥ 52 ॥इसके बाद पुष्पमाला, चन्दनादि सुगन्धद्रव्य, नैवेद्य और आभूषणादिसे सुहागिनी स्त्रियोंकी पूजा करे तथा पतिकी पूजा करके उसकी सेवामें संलग्न रहे और यह भावना करती रहे कि पतिका तेज मेरी कोखमें स्थित है ।। 53 ।। प्रिये ! इस व्रतका नाम 'पुंसवन' है। यदि एक वर्षतक तुम इसे बिना किसी त्रुटिके पालन कर सकोगी तो तुम्हारी कोखसे इन्द्रघाती पुत्र उत्पन्न होगा ।। 54 ।।

परीक्षित्! दिति बड़ी मनस्विनी और दृढ़ निश्चयवाली थी। उसने 'बहुत ठीक' कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। अब दिति अपनी कोख में भगवान् कश्यपका वीर्य और जीवनमें उनका बतलाया हुआ व्रत धारण करके अनायास ही नियमोंका पालन करने लगी ।। 55 ।। प्रिय परीक्षित् । देवराज इन्द्र अपनी मौसी दितिका अभिप्राय जान बड़ी बुद्धिमानीसे अपना वेष बदलकर दितिके आश्रमपर आये और उसकी सेवा करने लगे ॥ 56 ॥ वे दितिके लिये प्रतिदिन समय-समयपर वनसे फूल-फल, कन्दमूल, समिधा, कुश, पत्ते, दूब, मिट्टी और जल लाकर उसकी सेवामें समर्पित करते ॥ 57 ॥ राजन्! जिस प्रकार बहेलिया हरिनको मारनेके लिये हरिनकी-सी सूरत बनाकर उसके पास जाता है, वैसे ही देवराज इन्द्र भी कपट-वेष धारण करके व्रतपरायणा दिति प्रत पालनकी त्रुटि पकड़नेके लिये उसकी सेवा करने लगे 58 ॥ सर्वदा पैनी दृष्टि रखनेपर भी उन्हें उसके व्रतमें किसी प्रकारकी त्रुटि न मिली और वे पूर्ववत् उसकी सेवा टहलमें लगे रहे। अब तो इन्द्रको बड़ी चिन्ता हुई वे सोचने लगे मैं ऐसा कौन-सा उपाय करूँ जिससे मेरा कल्याण हो ? ।। 59 ।।

दिति व्रतके नियमोंका पालन करते-करते बहुत दुर्बल हो गयी थी। विधाताने भी उसे मोहमें डाल दिया। | इसलिये एक दिन सन्ध्याके समय जूठे मुँह, बिना आचमन किये और बिना पैर धोये ही वह सो गयी ॥ 60 ॥ योगेश्वर इन्द्रने देखा कि यह अच्छा अवसर हाथ लगा। वे योगबलसे झटपट सोयी हुई दितिके गर्भ में प्रवेश कर गये ॥ 61 ॥ उन्होंने वहाँ जाकर सोनेके समान चमकते हुए गर्भके वज्रके द्वारा सात टुकड़े कर दिये। जब वह गर्भ रोने लगा, तब उन्होंने 'मत रो, मत रो' यह कहकर सातोंटुकड़ोंगे एक-एकके और भी सात टुकड़े कर दिये ॥ 62 ॥ राजन् ! जब इन्द्र उनके टुकड़े-टुकड़े करने लगे, तब उन सबने हाथ जोड़कर इन्द्रसे कहा 'देवराज! तुम हमें क्यों मार रहे हो ? हम तो तुम्हारे भाई | मरुद्रण हैं ।। 63 ।। तब इन्द्रने अपने भावी अनन्यप्रेमी पार्षद मरुद्रणसे कहा- 'अच्छी बात है, तुमलोग मेरे भाई हो। अब मत डरो ! ॥ 64 ॥ परीक्षित्! जैसे अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ, वैसे ही भगवान् श्रीहरिकी कृपासे दितिका वह गर्भ वज्रके द्वारा टुकड़े-टुकड़े होनेपर भी मरा नहीं ।। 65 । इसमें तनिक भी आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि जो मनुष्य एक बार भी आदि पुरुष भगवान् नारायणकी आराधना कर लेता है, वह उनकी समानता प्राप्त कर लेता है; फिर दितिने तो कुछ ही दिन कम एक वर्षतक भगवान्‌की आराधना की थी ॥ 66 ॥ अब वे उनचास मरुद्रण इन्द्रके साथ मिलकर पचास हो गये। इन्द्रने भी सौतेली माताके पुत्रोंके साथ शत्रुभाव न रखकर उन्हें सोमपायी देवता बना लिया ॥ 67 ॥ जब दितिकी आँख खुली तब उसने देखा कि उसके अग्रिके समान तेजस्वी उनचास बालक इन्द्रके साथ हैं। इससे सुन्दर स्वभाववाली दितिको बड़ी प्रसन्नता हुई ।। 68 ।। उसने इन्द्रको सम्बोधन करके कहा 'बेटा! मैं इस इच्छासे इस अत्यन्त कठिन व्रतका पालन कर रही थी कि तुम अदितिके पुत्रोंको भयभीत करनेवाला पुत्र उत्पन्न हो ॥ 69 मैंने केवल एक ही पुत्रके लिये सङ्कल्प किया था, फिर ये उनचास पुत्र कैसे हो गये ? बेटा इन्द्र ! यदि तुम्हें इसका रहस्य मालूम हो, तो सच-सच मुझे बतला दो । झूठ न बोलना' ॥ 70 ॥

इन्द्रने कहा- माता ! मुझे इस बातका पता चल गया था कि तुम किस उद्देश्यसे व्रत कर रही हो। इसीलिये अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके उद्देश्यसे मैं स्वर्ग छोड़कर तुम्हारे पास आया। मेरे मनमें तनिक भी धर्म-भावना नहीं। थी। इसीसे तुम्हारे व्रतमें त्रुटि होते ही मैंने उस गर्भके टुकड़े टुकड़े कर दिये ।। 71 ।। पहले मैंने उसके सात टुकड़े किये थे। तब वे सातों टुकड़े सात बालक बन गये। इसके बाद मैंने फिर एक-एकके सात-सात टुकड़े कर दिये। तब भी वे न मरे, बल्कि उनचास हो गये ॥ 72 ॥यह परम आश्चर्यमयी घटना देखकर मैंने ऐसा निश्चय किया कि परमपुरुष भगवान्‌ की उपासनाकी यह कोई स्वाभाविक सिद्धि है || 73 ॥ जो लोग निष्काम भावसे भगवान्की आराधना करते हैं और दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या, मोक्षकी भी इच्छा नहीं करते, वे ही अपने स्वार्थ और परमार्थमें निपुण हैं 74 ॥ भगवान् जगदीश्वर सबके आराध्यदेव और अपने आत्मा ही हैं। वे प्रसन्न होकर अपने-आपतकका दान कर देते हैं। भला ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो उनकी आराधना करके विषयभोगोंका वरदान माँगे। माताजी ! ये विषयभोग तो नरकमें भी मिल सकते हैं ॥ 75 ॥ मेरी स्नेहमयी जननी! तुम सब प्रकार मेरी पूज्या हो। मैंने मूर्खतावश बड़ी दुष्टताका काम किया है। तुम मेरे अपराधको क्षमा कर दो। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारा गर्भ खण्ड-खण्ड हो जानेसे एक प्रकार मर जानेपर भी फिरसे जीवित हो गया ।। 76 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! दिति | देवराज इन्द्रके शुद्धभावसे सन्तुष्ट हो गयी। उससे आज्ञा | लेकर देवराज इन्द्रने मरुद्गणोंके साथ उसे नमस्कार किया और स्वर्गमें चले गये ॥ 77 ॥ राजन् ! यह मरुद्गणका जन्म बड़ा ही मङ्गलमय है। इसके विषयमें तुमने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर समग्ररूपसे मैंने तुम्हें दे दिया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ 78 ॥

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श्रीमद्भागवत महापुरण को भागवत पुराण, Shrimad Bhagwat Purana, Bhagwat Katha, भागवत पुराण कथा, Bhagwat Katha, भागवत पुराण, Bhagwat Purana, भागवत महापुराण और Bhagvat Mahapurana आदि नामों से भी जाना जाता है।

श्रीमद्भागवत महापुरण
Index


  1. [अध्याय 1] श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न
  2. [अध्याय 2] भगवत् कथा और भगवदत भक्ति का माहात्य
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महर्षि व्यासका असन्तोष
  5. [अध्याय 5] भगवान् के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का चरित्र
  6. [अध्याय 6] नारदजी के पूर्वचरित्रका शेष भाग
  7. [अध्याय 7] अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
  8. [अध्याय 8] गर्भ में परीक्षित्की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान की स्तुति
  9. [अध्याय 9] युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना
  10. [अध्याय 10] श्रीकृष्णका द्वारका-गमन
  11. [अध्याय 11] द्वारकामें श्रीकृष्ण का स्वागत
  12. [अध्याय 12] परीक्षितका जन्म
  13. [अध्याय 13] विदुरजीके उपदेशसे धृतराष्ट्र और गान्धारीका वन गमन
  14. [अध्याय 14] अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिरका शङ्का करना
  15. [अध्याय 15] पाण्डवों का परीक्षित‌ को राज्य देकर स्वर्ग प्रस्थान
  16. [अध्याय 16] परीक्षित्की दिग्विजय तथा धर्म-पृथ्वी संवाद
  17. [अध्याय 17] महाराज परीक्षितद्वारा कलियुगका दमन
  18. [अध्याय 18] राजा परीक्षितको शृङ्गी ऋषिका शाप
  19. [अध्याय 19] परीक्षितका अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन
  1. [अध्याय 1] उद्भव और विदुरकी भेंट
  2. [अध्याय 2] उद्धवजीद्वारा भगवान्की बाललीलाओंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अन्य लीलाचरित्रोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
  5. [अध्याय 5] विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्ण
  6. [अध्याय 6] विराट् शरीरकी उत्पत्ति
  7. [अध्याय 7] विदुरजीके प्रश्न
  8. [अध्याय 8] ब्रह्माजीकी उत्पत्ति
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीद्वारा भगवान्‌की स्तुति
  10. [अध्याय 10] दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] मन्वन्तरादि कालविभागका वर्णन
  12. [अध्याय 12] सृष्टिका विस्तार
  13. [अध्याय 13] वाराह अवतारकी कथा
  14. [अध्याय 14] दितिका गर्भधारण
  15. [अध्याय 15] जय-विजयको सनकादिका शाप
  16. [अध्याय 16] जय-विजयका वैकुण्ठसे पतन
  17. [अध्याय 17] हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षका जन्म
  18. [अध्याय 18] हिरण्याक्षके साथ वाराहभगवान्‌का युद्ध
  19. [अध्याय 19] हिरण्याक्षवध
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टि
  21. [अध्याय 21] कर्दमजीकी तपस्या और भगवान्‌का वरदान
  22. [अध्याय 22] देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह
  23. [अध्याय 23] कर्दम और देवहूतिका विहार
  24. [अध्याय 24] श्रीकपिलदेवजीका जन्म
  25. [अध्याय 25] देवहूतिका प्रश्न तथा भगवान् कपिलद्वारा भक्तियोग का वर्णन
  26. [अध्याय 26] महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  27. [अध्याय 27] प्रकृति-पुरुषके विवेकसे मोक्ष प्राप्तिका वर्णन
  28. [अध्याय 28] अष्टाङ्गयोगकी विधि
  29. [अध्याय 29] भक्तिका मर्म और कालकी महिमा
  30. [अध्याय 30] देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
  31. [अध्याय 31] मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए जीवकी गतिका वर्णन
  32. [अध्याय 32] धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गति
  33. [अध्याय 33] देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति
  1. [अध्याय 1] स्वायम्भुव मनुकी कन्याओंके वंशका वर्णन
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिव और दक्ष प्रजापतिका मनोमालिन्य
  3. [अध्याय 3] सतीका पिताके यहाँ यज्ञोत्सवमें जानेके लिये आग्रह
  4. [अध्याय 4] सतीका अग्निप्रवेश
  5. [अध्याय 5] वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध
  6. [अध्याय 6] ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
  7. [अध्याय 7] दक्षयज्ञकी पूर्ति
  8. [अध्याय 8] ध्रुवका वन-गमन
  9. [अध्याय 9] ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
  10. [अध्याय 10] उत्तमका मारा जाना, ध्रुवका यक्षोंके साथ युद्ध
  11. [अध्याय 11] स्वायम्भुव मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करने
  12. [अध्याय 12] ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति
  13. [अध्याय 13] ध्रुववंशका वर्णन, राजा अङ्गका चरित्र
  14. [अध्याय 14] राजा वेनकी कथा
  15. [अध्याय 15] महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक
  16. [अध्याय 16] बन्दीजनद्वारा महाराज पृथुकी स्तुति
  17. [अध्याय 17] महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना
  18. [अध्याय 18] पृथ्वी - दोहन
  19. [अध्याय 19] महाराज पृथुके सौ अश्वमेध यज्ञ
  20. [अध्याय 20] महाराज पृथुकी यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान‌ का आगमन
  21. [अध्याय 21] महाराज पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
  22. [अध्याय 22] महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश
  23. [अध्याय 23] राजा पृथुकी तपस्या और परलोकगमन
  24. [अध्याय 24] पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान् रुद्र का उपदेश
  25. [अध्याय 25] पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ
  26. [अध्याय 26] राजा पुरञ्जनका शिकार खेलने वनमें जाना
  27. [अध्याय 27] पुरञ्जनपुरीपर चण्डवेगकी चढ़ाई
  28. [अध्याय 28] पुरञ्जनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति
  29. [अध्याय 29] पुरञ्जनोपाख्यानका तात्पर्य
  30. [अध्याय 30] प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान
  31. [अध्याय 31] प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश
  1. [अध्याय 1] प्रियव्रत चरित्र
  2. [अध्याय 2] आग्नीध्र-चरित्र
  3. [अध्याय 3] राजा नाभिका चरित्र
  4. [अध्याय 4] ऋषभदेवजीका राज्यशासन
  5. [अध्याय 5] ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना
  6. [अध्याय 6] ऋषभदेवजीका देहत्याग
  7. [अध्याय 7] भरत चरित्र
  8. [अध्याय 8] भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना
  9. [अध्याय 9] भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म
  10. [अध्याय 10] जडभरत और राजा रहूगणकी भेंट
  11. [अध्याय 11] राजा रहूगणको भरतजीका उपदेश
  12. [अध्याय 12] रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान
  13. [अध्याय 13] भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश
  14. [अध्याय 14] भवाटवीका स्पष्टीकरण
  15. [अध्याय 15] भरतके वंशका वर्णन
  16. [अध्याय 16] भुवनकोशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] गङ्गाजीका विवरण
  18. [अध्याय 18] भिन्न-भिन्न वर्षोंका वर्णन
  19. [अध्याय 19] किम्पुरुष और भारतवर्षका वर्णन
  20. [अध्याय 20] अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोकपर्वतका वर्णन
  21. [अध्याय 21] सूर्यके रथ और उसकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22] भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गतिका वर्णन
  23. [अध्याय 23] शिशुमारचक्रका वर्णन
  24. [अध्याय 24] राहु आदिकी स्थिति, अतलादि नीचेके लोकोंका वर्ण
  25. [अध्याय 25] श्रीसङ्कर्षणदेवका विवरण और स्तुति
  26. [अध्याय 26] नरकोंकी विभिन्न गतियोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] अजामिलोपाख्यानका प्रारम्भ
  2. [अध्याय 2] विष्णुदूतोंद्वारा भागवतधर्म-निरूपण
  3. [अध्याय 3] यम और यमदूतोंका संवाद
  4. [अध्याय 4] दक्षके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  5. [अध्याय 5] श्रीनारदजीके उपदेशसे दक्षपुत्रोंकी विरक्ति तथा
  6. [अध्याय 6] दक्षप्रजापतिकी साठ कन्याओंके वंश का विवरण
  7. [अध्याय 7] बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओंका त्याग
  8. [अध्याय 8] नारायण कवच का उपदेश
  9. [अध्याय 9] विश्वरूपका वध, वृत्रासुरद्वारा देवताओंकी हार
  10. [अध्याय 10] देवताओं द्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र बनाना
  11. [अध्याय 11] वृत्रासुरकी वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] वृत्रासुरका वध
  13. [अध्याय 13] इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण
  14. [अध्याय 14] वृत्रासुरका पूर्वचरित्र
  15. [अध्याय 15] चित्रकेतुको अङ्गिरा और नारदजीका उपदेश
  16. [अध्याय 16] चित्रकेतुका वैराग्य तथा सङ्कर्षणदेव के दर्शन
  17. [अध्याय 17] चित्रकेतुको पार्वतीजीका शाप
  18. [अध्याय 18] अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति
  19. [अध्याय 19] पुंसवन-व्रतकी विधि
  1. [अध्याय 1] नारद युधिष्ठिर संवाद और जय-विजयकी कथा
  2. [अध्याय 2] हिरण्याक्षका वध होनेपर हिरण्यकशिपुका अपनी माता को समझाना
  3. [अध्याय 3] हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति
  4. [अध्याय 4] हिरण्यकशिपुके अत्याचार और प्रह्लादके गुणोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] हिरण्यकशिपुके द्वारा प्रहादजीके वधका प्रयत्न
  6. [अध्याय 6] प्रह्लादजीका असुर बालकोंको उपदेश
  7. [अध्याय 7] प्रह्लादजीद्वारा माताके गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन
  8. [अध्याय 8] नृसिंहभगवान्‌का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपुका वध
  9. [अध्याय 9] प्रह्लादजीके द्वारा नृसिंहभगवान्की स्तुति
  10. [अध्याय 10] प्रहादजीके राज्याभिषेक और त्रिपुरदहनकी कथा
  11. [अध्याय 11] मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्मका निरूपण
  12. [अध्याय 12] ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमोंके नियम
  13. [अध्याय 13] यतिधर्मका निरूपण और अवधूत प्रह्लाद-संवाद
  14. [अध्याय 14] गृहस्थसम्बन्धी सदाचार
  15. [अध्याय 15] गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन
  1. [अध्याय 1] मन्वन्तरोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना
  3. [अध्याय 3] गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌की स्तुति और उसका संकट मुक्त होना
  4. [अध्याय 4] गज और ग्राहका पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार
  5. [अध्याय 5] देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और स्तुति
  6. [अध्याय 6] देवताओं और दैत्योका मिलकर समुद्रमन्थन का विचार
  7. [अध्याय 7] समुद्रमन्थनका आरम्भ और भगवान् शङ्करका विषपान
  8. [अध्याय 8] समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌का मोहिनी अवतार
  9. [अध्याय 9] मोहिनीरूपसे भगवान्के द्वारा अमृत बाँटा जाना
  10. [अध्याय 10] देवासुर संग्राम
  11. [अध्याय 11] देवासुर संग्रामकी समाप्ति
  12. [अध्याय 12] मोहिनीरूपको देखकर महादेवजीका मोहित होना
  13. [अध्याय 13] आगामी सात मन्वन्तरोका वर्णन
  14. [अध्याय 14] मनु आदिके पृथक्-पृथक् कर्मोंका निरूपण
  15. [अध्याय 15] राजा बलिकी स्वर्गपर विजय
  16. [अध्याय 16] कश्यपनीके द्वारा अदितिको पयोव्रतका उपदेश
  17. [अध्याय 17] भगवान्‌का प्रकट होकर अदितिको वर देना
  18. [अध्याय 18] वामनभगवान्‌का प्रकट होकर राजा बलिकी यज्ञशाला में जाना
  19. [अध्याय 19] भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना
  20. [अध्याय 20] भगवान् वामनजीका विराट् रूप होकर दो ही पगसे पृथ
  21. [अध्याय 21] बलिका बाँधा जाना
  22. [अध्याय 22] बलिके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और भगवान्‌ का प्रसन्न होना
  23. [अध्याय 23] बलिका बन्धनसे छूटकर सुतल लोकको जाना
  24. [अध्याय 24] भगवान्के मत्स्यावतारकी कथा
  1. [अध्याय 1] वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युनकी कथा
  2. [अध्याय 2] पृषध, आदि मनुके पाँच पुत्रोंका वंश
  3. [अध्याय 3] महर्षि च्यवन और सुकन्याका चरित्र, राजा शर्याति
  4. [अध्याय 4] नाभाग और अम्बरीषकी कथा
  5. [अध्याय 5] दुर्वासाजीकी दुःखनिवृत्ति
  6. [अध्याय 6] इक्ष्वाकु वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषिकी कथा
  7. [अध्याय 7] राजा त्रिशत्रु और हरिचन्द्रकी कथा
  8. [अध्याय 8] सगर-चरित्र
  9. [अध्याय 9] भगीरथ चरित्र और गङ्गावतरण
  10. [अध्याय 10] भगवान् श्रीरामकी लीलाओंका वर्णन
  11. [अध्याय 11] भगवान् श्रीरामकी शेष लीलाओंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] इक्ष्वाकुवंशके शेष राजाओंका वर्णन
  13. [अध्याय 13] राजा निमिके वंशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] चन्द्रवंशका वर्णन
  15. [अध्याय 15] ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजीका चरित्र
  16. [अध्याय 16] क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओंके वंशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] ययाति चरित्र
  18. [अध्याय 18] ययातिका गृहत्याग
  19. [अध्याय 19] पूरुके वंश, राजा दुष्यन्त और भरतके चरित्रका वर्णन
  20. [अध्याय 20] भरतवंशका वर्णन, राजा रन्तिदेवकी कथा
  21. [अध्याय 21] पाञ्चाल, कौरव और मगधदेशीय राजाओंके वंशका वर्ण
  22. [अध्याय 22] अनु, ह्यु, तुर्वसु और यदुके वंशका वर्णन
  23. [अध्याय 23] विदर्भके वंशका वर्णन
  24. [अध्याय 24] परशुरामजीके द्वारा क्षत्रियसंहार
  1. [अध्याय 1] भगवानके द्वारा पृथ्वीको आश्वासन और कंस के अत्याचार
  2. [अध्याय 2] भगवान्का गर्भ-प्रवेश और देवताओंद्वारा गर्भ-स्तुति
  3. [अध्याय 3] भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य
  4. [अध्याय 4] कंसके हाथसे छूटकर योगमायाका आकाशमें जाकर भविष्यवाणी करना
  5. [अध्याय 5] गोकुलमें भगवान्‌का जन्ममहोत्सव
  6. [अध्याय 6] पूतना- उद्धार
  7. [अध्याय 7] शकट-भञ्जन और तृणावर्त - उद्धार
  8. [अध्याय 8] नामकरण संस्कार और बाललीला
  9. [अध्याय 9] श्रीकृष्णका ऊखलसे बाँधा जाना
  10. [अध्याय 10] यमलार्जुनका उद्धार
  11. [अध्याय 11] गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
  12. [अध्याय 12] अघासुरका उद्धार
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माजीका मोह और उसका नाश
  14. [अध्याय 14] ब्रह्माजीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  15. [अध्याय 15] धेनुकासुरका उद्धार और ग्वालबालोंको कालियनाग के विश से बचाना
  16. [अध्याय 16] कालिय पर कृपा
  17. [अध्याय 17] कालियके कालियदहमें आनेकी कथा तथा भगवान्‌ का दावानल पान
  18. [अध्याय 18] प्रलम्बासुर - उद्धार
  19. [अध्याय 19] गौओं और गोपोंको दावानलसे बचाना
  20. [अध्याय 20] वर्षा और शरदऋतुका वर्णन
  21. [अध्याय 21] वेणुगीत
  22. [अध्याय 22] चीरहरण
  23. [अध्याय 23] यज्ञपत्त्रियोंपर कृपा
  24. [अध्याय 24] इन्द्रयज्ञ-निवारण
  25. [अध्याय 25] गोवर्धनधारण
  26. [अध्याय 26] नन्दबाबासे गोपोंकी श्रीकृष्णके प्रभावके विषय में सुनना
  27. [अध्याय 27] श्रीकृष्णका अभिषेक
  28. [अध्याय 28] वरुणलोकसे नन्दजीको छुड़ाकर लाना
  29. [अध्याय 29] रासलीलाका आरम्भ
  30. [अध्याय 30] श्रीकृष्णके विरहमें गोपियोंकी दशा
  31. [अध्याय 31] गोपिकागीत
  32. [अध्याय 32] भगवान्‌का प्रकट होकर गोपियोंको सान्त्वना देन
  33. [अध्याय 33] महारास
  34. [अध्याय 34] सुदर्शन और शङ्खचूडका उद्धार
  35. [अध्याय 35] युगलगीत
  36. [अध्याय 36] अरिष्टासुरका उद्धार और कंसका श्री अक्रूर को व्रज भेजना
  37. [अध्याय 37] केशी और व्योमासुरका उद्धार तथा नारदजीके द्वारा भगवान की स्तुति
  38. [अध्याय 38] अक्रूरजीकी व्रजयात्रा
  39. [अध्याय 39] श्रीकृष्ण-बलरामका मथुरागमन
  40. [अध्याय 40] अक्रूरजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
  41. [अध्याय 41] श्रीकृष्णका मथुराजीमें प्रवेश
  42. [अध्याय 42] कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट
  43. [अध्याय 43] कुवलयापीडका उद्धार और अखाड़ेमें प्रवेश
  44. [अध्याय 44] चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानोंका तथा कंसका उद्धार
  45. [अध्याय 45] श्रीकृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
  46. [अध्याय 46] उद्धवजीकी ब्रजयात्रा
  47. [अध्याय 47] उद्धव तथा गोपियोंकी बातचीत और भ्रमरगीत
  48. [अध्याय 48] भगवान्‌का कुब्जा और अक्रूरजीके घर जाना
  49. [अध्याय 49] अक्कुरजीका हस्तिनापुर जाना
  50. [अध्याय 50] जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण
  51. [अध्याय 51] कालयवनका भस्म होना, मुचुकुन्दकी कथा
  52. [अध्याय 52] द्वारकागमन, श्रीबलरामजीका विवाह और रुक्मणी जी का संदेश
  53. [अध्याय 53] रुक्मिणीहरण
  54. [अध्याय 54] शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मीकी हार तथा कृष्ण-रुक्मणी विवाह
  55. [अध्याय 55] प्रद्युम्नका जन्म और शम्बरासुरका वध
  56. [अध्याय 56] स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामाके साथ श्रीकृष्ण का विवाह
  57. [अध्याय 57] स्यमन्तक- हरण, शतधन्वाका उद्धार
  58. [अध्याय 58] भगवान् श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा
  59. [अध्याय 59] भौमासुरका उद्धार और सोलह हजार एक सौ राज कन्याओं से भगवान का विवाह
  60. [अध्याय 60] श्रीकृष्ण-रुक्मिणी संवाद
  61. [अध्याय 61] भगवान्की सन्ततिका वर्णन तथा अनिरुद्ध विवाह में रुकमी का मारा जाना
  62. [अध्याय 62] ऊषा-अनिरुद्ध मिलन
  63. [अध्याय 63] भगवान् श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
  64. [अध्याय 64] नृग राजाकी कथा
  65. [अध्याय 65] श्रीबलरामजीका व्रजगमन
  66. [अध्याय 66] पौण्ड्रक और काशिराजका उद्धार
  67. [अध्याय 67] द्विविदका उद्धार
  68. [अध्याय 68] कौरवोंपर बलरामजीका कोप और साम्बका विवाह
  69. [अध्याय 69] देवर्षि नारदजीका भगवान्‌की गृहचर्या देखना
  70. [अध्याय 70] भगवान् श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और जरासंध के कैदी राजाओं के दूत का आना
  71. [अध्याय 71] श्रीकृष्णभगवान्‌का इन्द्रप्रस्थ पधारना
  72. [अध्याय 72] पाण्डवोंके राजसूययज्ञका आयोजन और जरासन्धका उद्धार
  73. [अध्याय 73] जरासन्धके जेलसे छूटे हुए राजाओंकी बिदाई
  74. [अध्याय 74] भगवान् की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार
  75. [अध्याय 75] राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान
  76. [अध्याय 76] शाल्वके साथ यादवोंका युद्ध
  77. [अध्याय 77] शाल्व उद्धार
  78. [अध्याय 78] दन्तवका और विदूरथका उद्धार तथा बलराम जी द्वारा सूत जी का वध
  79. [अध्याय 79] बल्वलका उद्धार और बलरामजीकी तीर्थयात्रा
  80. [अध्याय 80] श्रीकृष्णके द्वारा सुदामाजीका स्वागत
  81. [अध्याय 81] सुदामाजीको ऐश्वर्यकी प्राप्ति
  82. [अध्याय 82] भगवान् श्रीकृष्ण-बलरामसे गोप-गोपियोंकी भेंट
  83. [अध्याय 83] भगवान्‌की पटरानियोंके साथ द्रौपदीकी बातचीत
  84. [अध्याय 84] वसुदेवजीका यज्ञोत्सव
  85. [अध्याय 85] श्रीभगवान्के का वसुदेवजीको ब्रह्मज्ञान-उपदेश और देवकी के पुत्रों को लौटाना
  86. [अध्याय 86] सुभद्राहरण और भगवान्‌का राजा जनक उर श्रुतदेव ब्राह्मण के यहाँ जाना
  87. [अध्याय 87] वेदस्तुति
  88. [अध्याय 88] शिवजीका सङ्कटमोचन
  89. [अध्याय 89] भृगुजीके द्वारा त्रिदेवोंकी परीक्षा
  90. [अध्याय 90] भगवान् कृष्णके लीला-विहारका वर्णन
  1. [अध्याय 1] यदुवंशको ऋषियोंका शाप
  2. [अध्याय 2] वसुदेवजी को श्रीनारदजीका राजा जनक और नौ योगेश्वरों का संवाद सुनना
  3. [अध्याय 3] माया, मायासे पार होनेके उपाय
  4. [अध्याय 4] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] भक्तिहीन पुरुषोंकी गति और भगवान्‌की पूजाविधि
  6. [अध्याय 6] देवताओंकी भगवान्‌ले स्वधाम सिधारनेके लिये प्रार्थना करना
  7. [अध्याय 7] अवधूतोपाख्यान – पृथ्वीसे लेकर कबूतर तक आठ गुरु
  8. [अध्याय 8] अवधूतोपाख्यान अजगरसे लेकर पिंगला तक नौ गुरु
  9. [अध्याय 9] अवधूतोपाख्यान – क्रूररसे लेकर भृङ्गीतक सात गुरु
  10. [अध्याय 10] लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी असारताका निरूपण
  11. [अध्याय 11] बद्ध, मुक्त और भक्तजनोंके लक्षण
  12. [अध्याय 12] सत्सङ्गकी महिमा और कर्म तथा कर्मत्यागकी विधि
  13. [अध्याय 13] हंसरूपसे सनकादिको दिये हुए उपदेशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] भक्तियोगकी महिमा तथा ध्यानविधिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण
  16. [अध्याय 16] भगवान्‌की विभूतियोंका वर्णन
  17. [अध्याय 17] वर्णाश्रम धर्म-निरूपण
  18. [अध्याय 18] वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म
  19. [अध्याय 19] भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनोंका वर्णन
  20. [अध्याय 20] ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
  21. [अध्याय 21] गुण-दोष-व्यवस्थाका स्वरूप और रहस्य
  22. [अध्याय 22] तत्त्वोंकी संख्या और पुरुष प्रकृति-विवेक
  23. [अध्याय 23] एक तितिक्षु ब्राह्मणका इतिहास
  24. [अध्याय 24] सांख्ययोग
  25. [अध्याय 25] तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका निरूपण
  26. [अध्याय 26] पुरूरवाकी वैराग्योक्ति
  27. [अध्याय 27] क्रियायोगका वर्णन
  28. [अध्याय 28] परमार्थनिरूपण
  29. [अध्याय 29] भागवतधर्मोका निरूपण और उद्धवजीका बदरिकाश्रम गमन
  30. [अध्याय 30] यदुकुलका संहार
  31. [अध्याय 31] श्रीभगवान्का स्वधामगमन
  1. [अध्याय 1] कलियुगके राजवंशोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] कलियुगके धर्म
  3. [अध्याय 3] राज्य युगधर्म और कलियुगके दोषोंसे बचनेका उपाय
  4. [अध्याय 4] चार प्रकारके प्रलय
  5. [अध्याय 5] श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश
  6. [अध्याय 6] परीक्षित्की परमगति, जनमेजयका सर्पसत्र
  7. [अध्याय 7] अथर्ववेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण
  8. [अध्याय 8] मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति
  9. [अध्याय 9] मार्कण्डेयजीका माया दर्शन
  10. [अध्याय 10] मार्कण्डेयजीको भगवान् शङ्करका वरदान
  11. [अध्याय 11] भगवान् के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधोंका रहस्य तथा
  12. [अध्याय 12] श्रीमद्भागवतकी संक्षिप्त विषय-सूची
  13. [अध्याय 13] विभिन्न पुराणोंकी श्लोक संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा