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श्री नृसिंह अवतार कथा (नृसिंह अवतार की कहानी)

Narasimha Avatar Katha (Narasingha Story)

भाग 8 - Part 8

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श्री नृसिंह अवतार- कथा

भगवान्‌की लीला भी क्या अद्भुत है! वे कब, कैसे, क्या करना चाहते हैं, इसे वही समझ सकते हैं। दूसरा कोई समझ नहीं सकता। मङ्गलमें अमङ्गल और अमङ्गलमें मङ्गल पैदा कर देना तो उनका मनोरञ्जन है, नित्यका खिलवाड़ है। जहाँ विष्णुभक्तिका नाम नहीं था, यहाँतक कि भगवान्‌का नाम लेना अपराध था, वहीं आज नाम संकीर्तनकी धूम मची हुई हैं।

उस दिन हिरण्यकशिपुने बड़ा भयंकर स्वप्न देखा था शुक्राचार्यने तीर्थयात्रासे लौटकर हिरण्यकशिपुको अनिष्टकी सूचना दी थी। उसका मन चिन्तित था । वह कभी भयभीत होकर आकाशकी ओर देखने लगता तो कभी अपने बल-पौरुषकी याद करके घमंडसे फूल उठता। कभी अपने-आप ही बड़बड़ाने लगता कि 'कौन करेगा मेरा अनिष्ट ! मैं उसे देखूँगा ! इन्द्र ! इन्द्र तो मेरा बंदी है! विष्णु ! वह तो भागा फिरता है! मेरे डरसे छिपा हुआ है! वह मेरे सामने आ ही नहीं सकता। आ जाय तो उसे मैं मजा चखाऊँ!' यही सब न जाने क्या-क्या वह बक रहा था।

इतनेमें ही किसीने आकर घर-घर संकीर्तन और मूर्तिपूजाकी बात सुनायी। एक तो वह पहलेसे ही भयभीत था, उत्तेजित था, दूसरे यह बात भी आज ही उसके कानमें पड़ी। वह आगबबूला हो गया।उसकी आँखोंसे आगकी चिनगारियाँ छिटकने लगीं। उसने कहा- 'प्रह्लादको बुलाओ देखें उसका विष्णु कहाँ है? आज उसकी कैसे रक्षा करता है? अबतक मुझसे पाला नहीं पड़ा था, आज मैं अपने हाथों ही उसकी खबर लूँगा।'

प्रह्लाद उपस्थित किये गये। प्रणाम करके अञ्जलि बाँधे हुए वे सिर नीचा करके खड़े हो गये। हिरण्यकशिपुने तिरछी नजरसे देखा पैरसे मारे हुए सौंपकी भाँति वह खलबला उठा। लंबी साँस चलने लगी। उसने डाँटते हुए कहा- ' ढीठ! नीच! कुलकलंक! मैंने समझा था, अब तू विष न बोयेगा। मेरे राज्यमें रहकर मेरी आज्ञाकी अवहेलना मूर्ख तुझे पता नहीं, मेरे क्रोध करनेपर तीनों लोक मुझसे थर-थर काँपने लगते हैं। इन्द्र मेरे पैरोंपर गिरते हैं और विष्णु तो इसके मारे छिपे ही हुए हैं। बता, तू किसके बलपर मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन करता है ?"

प्रह्लादने बड़ी नम्रतासे कहा-'पिताजी। केवल मैं ही नहीं, जिसके बलपर ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, रुद्र संहार करते हैं, आप बोलते हैं, सब-के-सब चराचर जिनकी शक्तिके भरोसे जीवित हैं, वही भगवान् विष्णु मेरे स्वामी हैं। वे पिताओंके भी पिता हैं। मैं उन्हींका भजन करता हूँ और मुझे कुछ पता नहीं।' हिरण्यकशिपुने कहा- 'बस, अब तू मरना चाहता है। मेरे सामने इतना बहक रहा है? ठीक है, मौत पास आ जानेपर लोगोंकी बुद्धि मारी जाती है। जिसे तूने मेरे अतिरिक्त ईश्वर बतलाया है, वह कहाँ रहता है? यदि वह सर्वत्र है तो इस खंभेमें क्यों नहीं दीखता तू इतना बक रहा है, अभी इस खड्गसे मैं तेरा सिर काटता हूँ देखें, वह कैसे तेरी रक्षा करता है ?'

प्रह्लादने कहा-'बाबूजी! मेरे, आपके और इस खड्गके भीतर जिससे आप मुझे मारने आ रहे हैं तथा इस खंभेमें भी वे हैं देखिये, आँखें खोलकर देखिये, वे इससे प्रकट होंगे।' हिरण्यकशिपु कुछ भयभीत हो गया। एक ही समय दोनोंके हृदय खंभे में परमात्माको देखना चाहते हैं. परंतु एक शत्रुभावसे, एक मित्रभावसे हिरण्यकशिपुने साहस करके एक बड़े जोरका घूँसा खंभेपर लगाया, वह तड़तड़ाकर टूट गया, बड़ी भयंकर आवाज हुई और एक भीषण मूर्ति वहाँ प्रकट हो गयी।कितना विकराल रूप था ! मुँह सिंहका और शेष शरीर मनुष्यका ! बिखरे हुए बाल आकाशमें लहरा रहे थे, तपाये हुए सोनेकी भाँति आँखोंसे किरणें निकल रही थीं, बड़े-बड़े दाँत बाहर निकले हुए थे, तलवारकी तरह जीभ घूम रही थी, भीहें बड़ी भीषण थीं, लंबे-लंबे कान ऊपरको उठे हुए थे। मुँह, नाक कन्दराके समान जान पड़ते थे, शरीर आकाशसे बात कर रहा था। ऊँची छाती, मोटा गला और पतली कमर ! हाथोंमें बड़े भीषण नख! उनके इस अद्भुत रूपको देखकर सभी दैत्य-दानव डर गये, स्वयं हिरण्यकशिपुकी आँखें बंद हो गयीं। उनके भीषण हुंकारसे त्रिलोको काँप उठी!

अपने भक्तकी वाणी सत्य करनेके लिये अपनेको सर्वत्र व्यापक प्रकट करनेके लिये भगवान् नृसिंहरूपमें खंभेसे प्रकट हुए। उनके अद्भुत रूपको देखकर हिरण्यकशिपु डरके मारे आँखें बंद करके सोचने लगा-'अरे, मेरो मृत्यु आ गयी क्या? यह न मनुष्य है, न पशु विलक्षण जीव है। इस समय न दिन है न रात! संध्या है। मैं न बाहर हूँ, न भीतर, दरवाजेपर हूँ! यह ब्रह्माका बनाया हुआ नहीं जान पड़ता। इसके नख इतने कठोर हैं कि वे शस्त्रका काम दे सकते हैं तब क्या यह मुझे मार डालेगा?' हिरण्यकशिपुको मालूम हुआ कि मेरी मृत्यु आ गयी।

उसने सोचा 'अच्छा! मृत्यु ही सही। जब मरना है तो वीरताके साथ मरें!' उसने बड़े वेगसे अपनी गदा चलायी। नृसिंह भगवान्ने हँसकर उसे छीन लिया। पुनः खड्ग लेकर उसने प्रहार किया। भगवान्ने धीरेसे उसे पकड़कर उठा लिया और चौकठपर बैठकर उसे अपनी जाँघोंपर सुलाकर अपने नखोंसे उसका कलेजा चीर डाला। सारा शरीर खूनसे लथपथ हो गया। उन्होंने अंतड़ियाँ निकालकर माला पहन लीं। क्षणभरमें उस भयंकर असुरको मारकर सिंहासनपर जा विराजे।

बात की बातमें सारा समाचार तीनों लोकोंमें फैल गया। देवतालोग पुष्पोंकी वर्षा करने लगे, गन्धर्व गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं। ब्रह्मा, शिव, लक्ष्मी आदि वहाँ उपस्थित हुए। भगवान्के तेजसे त्रिलोकी जल रही थी। उनके बालोंसे बादल गिर रहे थे, श्वाससे समुद्र क्षुब्ध हो रहा था, घरघराहटसे डरकर दिग्गज चिल्ला रहे थे। सारे संसारमें हाहाकार मचाहुआ था। ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, पितर, ऋषि, सिद्ध, विद्याधर आदिने आ-आकर पृथक् पृथक् स्तुति की; परंतु किसीकी हिम्मत न पड़ी कि उनके पास जाय। आज भगवान्का भयानक रूप देखकर सब-के-सब भयभीत हो रहे थे।

सबने सलाह करके लक्ष्मीको भेजा कि ये जाकर भगवान्‌को शान्त कर सकती हैं परंतु भगवान्के इस रूपको देखकर वे भी भयभीत हो गयीं। भगवान्के पास जानेकी उनकी हिम्मत नहीं हुई।

देवाधिदेव महादेवने कहा-'नृसिंह भगवान् प्रह्लादके लिये प्रकट हुए हैं। आज बिना उनके वे प्रसन्न होते नहीं दीखते।' सबके मनमें यह बात बैठ गयी। ब्रह्माने कहा- 'प्रह्लाद ! जाओ। तुम्हारे स्वामी तुम्हारे पिताके कारण क्रुद्ध हुए हैं। वे तुमसे ही शान्त होंगे।' प्रह्लाद तो न जाने कबसे लालायित थे। उनके प्रभु चाहे जितने भरवेश आवे, वे उन्हें पहचानते हैं वे प्रेम होकर उनके पास चले गये और अञ्जलि बाँधकर चरणोंमें लोट गये।

अपने चरणों में लोट-पोट हुए प्रह्लादको देखकर नृसिंहभगवान्ने झपटकर उठा लिया और उनके सिरपर हाथ फेरकर प्रेमभरी दृष्टिसे देखने लगे। उन्होंने कहा 'बेटा प्रह्लाद! मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मैंने तुम्हारे पास आने में बड़ा विलम्ब कर दिया। कहाँ तो तुम्हारा यह सुकुमार शरीर और कहाँ इस क्रूरकी दारुण यन्त्रणाएँ ! कहाँ यह नन्हा सा सुकोमल शरीर और कहाँ साँपोंसे हँसाना, आगमें जलाना। मुझसे बड़ा अपराध हुआ। बेटा! तुम मुझे क्षमा कर दो। इस बातको भूल जाओ।'

नृसिंह भगवान्की यह बात सुनकर तथा उनके कर-कमलोंका स्पर्श पाकर प्रह्लादकी दशा ही बदल गयी। वे परमानन्दमें मग्न हो गये। शरीर पुलकित हो गया, आँखों में आँसू भर आये, हृदय द्रवित हो गया। थोड़ी देरमें सँभलकर वे एकाग्र मनसे हृदय और आँखोंको नृसिंह भगवान्‌ के दर्शनमें लगाकर प्रेमभरी वाणीसे स्तुति करने लगे। प्रह्लादने कहा- 'प्रभो! ब्रह्मादि देवगण, ऋषि, मुनि, सिद्ध, जिनके अन्तःकरण में सर्वदा सत्त्वगुण ही रहता है, वे भी अपनी विशुद्ध वाणीके द्वारा आपकी स्तुति नहीं कर सके तो मेरे जैसा दैत्यबालक आपकी क्या स्तुति कर सकता है ?परंतु धन, जन, जप, तप, पाठ, पूजा, बल, पौरुष आदिके द्वारा आप प्रसन्न नहीं होते, आप केवल भक्तिसे प्रसन्न होते हैं। आप प्रेमके भूखे हैं, आप गजेन्द्रकी पुकारपर दौड़े गये थे। भजन न करनेवाले ब्राह्मणकी अपेक्षा भजन करनेवाला चाण्डाल उत्तम है। मैं नीच हूँ, मायामें भटक रहा हूँ, फिर भी आपकी स्तुति करता हूँ। यह इसलिये नहीं कि आपकी स्तुति होगी। बल्कि इसलिये कि उससे मेरी वाणी पवित्र होगी।'

'प्रभो! बहुत से लोग आपके इस भीषण रूपको देखकर भयभीत हो गये हैं; परंतु मैं तो आपको देख देखकर प्रसन्न हो रहा हूँ। आप तो हमारे परम प्रेमास्पद हैं, भयास्पद नहीं। मैं डरता हूँ तो केवल इस संसारसे। यह अपने चक्करमें डालकर मुझे न जाने कहाँ ले जाना चाहता है। प्रभो! मैं आपके चरणोंकी शरण लेता हूँ। आप मुझे अपना दास स्वीकार कीजिये। मुझे और किसीका भरोसा नहीं है। आप ही मेरे पिता हैं, आप ही मेरी माता हैं। मैं आपकी लीला गा-गाकर अपने जीवनको बिताऊँ, यह आशीर्वाद दीजिये।'

"स्वर्गमें क्या रखा हुआ है। मैंने तो अपनी आँखोंसे देखा है कि मेरे पिता हँसी-हँसीमें क्रोधित होकर जब भौंहें टेढ़ी कर देते थे, तब देवता लोग भाग भागकर जंगलोंमें शरण लेते थे। ऐसे क्षणिक और भयपूर्ण स्थानके लिये तो इच्छा ही क्यों होनी चाहिये ? प्रभो! जगत्के जीव संसारके अंधेरे में पड़कर सड़ रहे हैं। मैं इनकी ही भाँति सड़ना नहीं चाहता। मैं तो आपके भक्तोंकी सङ्गति चाहता हूँ। आप अनन्त हैं, आप ज्ञानस्वरूप हैं, आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है। मैं आपकी शरण हूँ।'

'भगवन्! इस मनको आपकी कथा सुनकर जितना प्रफुल्ल होना चाहिये, नहीं होता। अनेक प्रकारकी कामनाएँ हर्ष - शोकके भाव इसे व्यथित किया करते हैं। ऐसे मनसे आपको कैसे कैसे पाऊँ? एक ओर जीभ खींचती है, एक ओर स्पर्श-सुखका प्रलोभन खींचता है, एक ओर जननेन्द्रिय विवश करती है, कहाँतक कहूँ, सभी इन्द्रियाँ मुझे परेशान किया करती हैं। यह केवल मेरी ही बात नहीं, साधारण जीवमात्रकीबात है। जैसे बहुत-सी सौतें एक पतिको चारों ओरसे नोचती-खसोटती रहती हैं, वैसे ही जीव इन इन्द्रियोंके पंजे में पड़कर परेशान हो रहे हैं। अनेक ऋषि, महर्षि इन्हें छोड़कर तपस्या करते हैं, वे केवल अपनी मुक्ति चाहते हैं। उनका ऐसा चाहना भी ठीक है, परंतु प्रभो! मुझसे ऐसा नहीं होता। ऐसी कृपा कीजिये कि सबका उद्धार हो जाय।'

'प्रभो! अब इतने उग्र तेजकी कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती। आपके भयंकर रूपको देखकर लोग डर रहे हैं, अब उन्हें भयभीत करनेसे क्या लाभ? ऐसी कृपा कीजिये कि उनका भय मिट जाय। मेरा मन आपका स्मरण करे, मेरी वाणी आपका गुणगान करे, मेरा शरीर आपकी सेवामें लग जाय।'

प्रार्थना करते-करते प्रह्लाद तन्मय हो गये और बहुत सुन्दर प्रार्थना, जिसका वर्णन भागवतके सप्तम स्कन्धमें है, उन्होंने की। अपने भक्तकी मधुर वाणी सुनकर भगवान् प्रसन्न हो रहे थे। उन्होंने कहा- 'बेटा! तुम्हारा कल्याण हो। तुमपर मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो माँग लो। मेरे दर्शनके पश्चात् किसी बातका ताप संताप नहीं रह जाता।' भगवान्की यह प्रलोभन वाणी सुनकर प्रह्लादका मन तनिक भी विचलित नहीं हुआ। उन्होंने मुसकराते हुए कहा- 'भगवन्! मैं तो जन्मसे ही सांसारिक विषयोंमें फँसा हुआ हूँ। वरदानके बहाने आप मुझे उनमें ही और अधिक न फँसावें । मैं उनसे डरकर, दुखी होकर उनसे मुक्त होनेके लिये आपकी शरण में आया हूँ। प्रभो! आप मेरा हृदय टटोलनेके लिये ही ऐसी बात कहते होंगे। नहीं तो आप करुणा सागर हैं, सबको कल्याणके मार्गपर चलानेवाले हैं। ऐसी बात आप कैसे कह सकते हैं। जो आपसे किसी वस्तुको पाना चाहता है, वह सेवक नहीं, व्यापारी है। सकाम पुरुष कभी सच्चा सेवक नहीं हो सकता। मैं आपसे कुछ नहीं चाहता। आपकी सेवा करना चाहता हूँ। राजा और नौकरकी भाँति हमारा लेन-देनका कुछ सम्बन्ध नहीं। यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो कृपा करके यही वरदान दीजिये कि कभी किसी वस्तुका वरदान माँगनेकी कामना हीन हो, कामना ही आपसे अलग किये हुए है। कामना नष्ट होते ही पुरुष आपके पास पहुँच जाता है। भगवन्! मैं आपके चरणोंमें कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ।'

प्रह्लादके वचन सुनकर नृसिंह भगवान्ने कहा 'प्रह्लाद वास्तवमें जो तुम्हारे जैसे मेरे सच्चे भक्त हैं, वे कभी लौकिक या पारलौकिक वस्तु मुझसे नहीं चाहते। फिर भी एक मन्वन्तरके लिये मैं तुम्हें दैत्योंका राजा बनाये देता हूँ। डरो मत। मेरी कथा सुनते रहना। सर्वत्र मुझे देखते रहना और मेरी आराधनासे प्रारब्ध कर्मको नष्ट करते रहना। पुण्योंका भोग कर लो। ज्ञानसे पापको नष्ट कर दो। सारे संसारमें मेरी भक्तिका विस्तार करो। समय आनेपर शरीर छोड़कर मेरे लोकमें आ जाना।"

प्रह्लादने कहा-'प्रभो! मुझे एक बातकी चिन्ता है। मेरे पिताजीकी सद्गति हुई या नहीं? आपसे वे द्वेष करते थे, मुझपर उनकी क्रोधदृष्टि थी, उन्हें इसके फलस्वरूप दुर्गति तो नहीं भोगनी पड़ेगी ?'

नृसिंह भगवान्ने कहा—'प्रह्लाद ! जिस वंशमें तुम्हारे जैसे भगवद्भक्तका जन्म होता है, उसकी इक्कीस पीढ़ियाँ तर जाती हैं, तुम्हारा पिता तो तुम्हारा पिता ही है। उसके सम्बन्धमें क्या कहना है? जिस देशमें मेरे भक्त रहते हैं, वह मगध होनेपर भी दूसरोंको पवित्र करनेवाला हो जाता है। अब तुम जाकर अपने पिताको अन्त्येष्टि क्रिया करो।' भगवान्‌की आज्ञा पाकर प्रह्लाद पिताको अन्त्येष्टि क्रिया करने चले गये। ब्रह्माने देवताओंके साथ आकर नृसिंह भगवान्की स्तुति की। भगवान्ने ब्रह्माको सावधान किया कि अब आगेसे दैत्योंको ऐसा वर मत देना ब्रह्माने आज्ञा शिरोधार्य की। तदनन्तर शुक्राचार्य आदिके साथ भगवान् नृसिंहने प्रह्लादका राज्याभिषेक किया। कुछ समयतक उन्हें समझा-बुझाकर वे अन्तर्धान हो गये।

भगवान्के अन्तर्धान हो जानेपर उनके आज्ञानुसारप्रह्लाद राज-काज करने लगे। उनके राजत्वकालमें भूमण्डलपर चारों और भक्त ही भक्त दिखायी देते थे। ये संत-महात्माओं को ईद-इंदकर उनका सत् करते, प्रजाकी एक-एक इच्छा पूर्ण करते। उनके राज्यमें सभी लोग सुखी थे, कभी किसीको किसी प्रकारका कष्ट हुआ ही नहीं। वे निरन्तर इसी चेष्टाम रहते थे कि सभी लोगोंका कल्याण हो, सब आनन्दसे रहें, सब भगवान्‌को प्राप्त करें। वे भगवान नृसिंहका स्मरण करते हुए प्रतिदिन इस मन्त्रका जप किया करते थे

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥

नृसिंह भगवान्के बहुत से मन्त्र हैं और बहुत-सी मूर्तियाँ हैं। उनमें कुछ तो इतने भयंकर हैं कि उनका प्रयोग गृहस्थोंके लिये उचित नहीं है। यहाँ केवल एक लक्ष्मीनृसिंहमन्त्रका वर्णन किया जाता है, जो यह है

'ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं जय लक्ष्मीप्रियाय नित्यप्रमुदितचेतसे लक्ष्मीश्रितार्धदेहाय श्रीं ह्रीं श्रीं नमः ।" इसके ऋषि प्रजापति हैं, अनुप छन्द है और लक्ष्मीनृसिंह देवता हैं। श्रीबीजसे पडङ्गन्यास करना चाहिये। इनका ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है

सर्पेन्द्र भोगशयनः सर्पेन्द्राभोगछत्रवान्।

आलिङ्गितश्च रमया दीप्तभासेन्दुसंनिभःl

पद्मचक्रवराभीतिधरस्त्र्यक्षेन्दुशेखरः ll

भगवान् नृसिंह शेषशय्यापर शयन कर रहे हैं, शेष अपने फणोंसे छाया किये हुए हैं, भगवती लक्ष्मी उनकी सेवा कर रही हैं और उनके शरीरसे शीतल प्रकाश फैल रहा है। एक हाथमें कमल है, दूसरेमें चक्र। एक हाथसे वरदान कर रहे हैं और दूसरे हाथ से निर्भय कर रहे हैं। आँखें तीन हैं और ललाटपर चन्द्रमा हैं। इस प्रकार ध्यान करते हुए विधिपूर्वक उपर्युक्त मन्त्रका जप करनेसे अभीष्टसिद्धि होती है। बोलो श्रीनृसिंह भगवान्‌की जय !

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