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श्री नृसिंह अवतार कथा (नृसिंह अवतार की कहानी)

Narasimha Avatar Katha (Narasingha Story)

भाग 5 - Part 5

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श्री नृसिंह अवतार-कथा

संसारके सभी काम नियमसे होते हैं। रात-दिन, पक्ष-महीना, ऋतु- वर्ष सब-के-सब नियमित गतिसे चल रहे हैं। सबके जीवनमें एक नियम काम कर रहा है। जो लोग अपनी वासनाओंके कारण नियमकी अवहेलना कर देते हैं, वे प्रकृतिके निदारुण प्रहारसे विताड़ित होकर चूर-चूर हो जाते हैं। सभी समाजके, चाहे वह दैत्यके हों या देवताके - एक प्रकारके अपने नियम होते हैं और उनपर चलना ही पड़ता है। चलनेमें ही हित भी है।

उस दिन नियमके अनुसार राजराजेश्वर हिरण्यकशिपुके प्रिय पुत्रको एक लँगोटी पहनकर भीख माँगनी पड़ीऔर पहली भीख उसकी माता कयाधूको ही देनी पड़ी। उसने अपने हृदयके टुकड़े प्रह्लादको भिक्षुक ब्रह्मचारीके वेशमें देखा और उसे अपनी आँखोंसे ओझल गुरुकुलमें बहुत दिनोंके लिये भेज दिया। कहा जा सकता है कि यदि नियमको पाबंदी न होती, अपने बच्चेके हितका ध्यान न होता तो वह माता, जो अपने लड़केको देखे बिना दो घड़ी भी सुखसे नहीं रह सकती थी, इस प्रकार इतने दिनोंके लिये कभी न भेजती अस्तु, प्रह्लाद चले गये।

यह बात देखी गयी है कि जो भगवान्‌का स्मरण करते हैं, संध्या-वन्दन, गायत्री जप और नाम-जप आदि करते हैं उनकी बुद्धि शुद्ध रहती है, स्मृति शक्ति प्रबल रहती है, वे किसी बातको और विद्यार्थियोंकी अपेक्षा शीघ्र समझ लेते हैं, बिना विशेष रटे ही उन्हें पुस्तकें याद हो जाया करती हैं प्रह्लादपर तो भगवान्की कृपा थी। वे निरन्तर भगवान्‌के स्मरणमें तल्लीन रहते। गुरुजीसे पाठ सुनते ही उन्हें सब हृदयङ्गम हो जाता था। अतिरिक्त समयमें वे भगवान्‌का ध्यान करते रहते। उनकी प्रतिभासे गुरुजी भी प्रसन्न रहते और प्रह्लाद उनकी सेवा भी खूब करते उनके सहपाठी उनकी विद्या, बुद्धि, प्रतिभा, सरल स्वभाव देखकर मुग्ध रहते थे 'मैं राजकुमार हूँ'- इस बातका अभिमान तो उन्हें छू भी नहीं गया था। वे बड़ोंके सामने सेवकों की भाँति रहते, गरीबोंपर पिताकी भाँति स्नेह करते, बराबरीवालोंसे सगे भाईकी तरह व्यवहार करते और गुरुजनोंको तो ईश्वर ही समझते थे। माता सरस्वतीकी उनपर अपार अनुकम्पा थी थोड़े ही दिनोंमें उन्होंने वेद-वेदाङ्गोंका अध्ययन समाप्त कर लिया। जब गुरुपुत्रोंने देखा कि प्रह्लादका सम्पूर्ण विद्याओंमें पूर्णतः प्रवेश हो गया, तब उन्होंने अपनी कुशलता प्रकट करनेके लिये उसको राजसभामें ले जानेका विचार किया।

एक दिन राजसभाके विशाल मण्डपमें सभी सभासद् अपने-अपने स्थानपर बड़ी नम्रताके साथ बैठे हुए थे। राज काजसम्बन्धी अनेक बातें हो रही थीं, तबतक दोनों पुरोहित प्रह्लादको साथ लिये हुए वहाँ पहुँच गये। हिरण्यकशिपुने यथायोग्य पुरोहितोंका सम्मान किया और अपने चरणोंमें साष्टाङ्ग प्रणाम करते हुए प्रह्लादको उठाकर हृदयसे लगा लिया। सिर चकर गोदमें बैठा लिया। यह प्रेमभरी एकटक प्रह्लादकोदेखने लगा । यों तो वह पाठशाला दूर न थी प्रह्लाद कई बार वहाँ अपने पुरोहितोंके साथ आते भी परंतु आजकी बात कुछ दूसरी ही थी। उनके अध्यापक प्रह्लादको सुयोग्य विद्वान् बताकर समावर्तन कराना चाहते थे। इतने थोड़े दिनोंमें राजकुमारको महान् विद्वान् बना दिया। यह वाहवाही भी लूटनी थी। हिरण्यकशिपु भी अपने पुत्रको योग्यतम देखकर प्रसन्न हो रहा था।

हिरण्यकशिपुने दुलार करते हुए प्रह्लादसे पूछा 'बेटा! तुमने विद्या पढ़ ली। अब समावर्तनका समय आया। भला बताओ तो सबके साररूपसे तुमने कौन सी बात ग्रहण की ?' प्रह्लादने कहा- 'पिताजी! यह संसार असार है। इसमें कोई वस्तु ग्रहण करने योग्य नहीं है। इनकी ओरसे उदासीन होकर भगवान्‌का भजन करना ही सार है। यही सम्पूर्ण विद्याओंका सार है, संसारका सार है और जीवनका सार है।' प्रह्लादकी यह बात सुनकर हिरण्यकशिपु चौंक गया। उसने उनको अपनी गोदसे नीचे उतार दिया, बड़े जोरसे डाँटा-'अरे कुलाङ्गार! तुम्हें ऐसी भोंडी बात किसने सिखायी है ? मैं त्रिलोकीका स्वामी हूँ। मेरे अतिरिक्त और कोई ईश्वर नहीं है। क्या इन अध्यापकोंने तुम्हें यही पढ़ाया है ? मैं इन्हें अभी दण्ड देता हूँ।' दोनों पुरोहित थर-थर काँप रहे थे। प्रह्लादने कहा-'पिताजी! मेरे ईश्वर, आपके | ईश्वर और सारे संसारके ईश्वर एकमात्र भगवान् विष्णु हैं। वे सर्वत्र रहते हैं, सबकी रक्षा करते हैं। यह बात मैं किसीके सिखानेसे नहीं कह रहा हूँ, मेरे अध्यापकोंने यह बात मुझे कभी नहीं सिखायी, सबको सिखानेवाले तो वही भगवान् विष्णु हैं।'

हिरण्यकशिपु क्रोधके मारे जल-भुन रहा था। तबतक पुरोहितोंने निवेदन किया-'राजेन्द्र वास्तवमें हमारी असावधानीसे ही ऐसा हुआ है। यदि हम ध्यान रखते तो हमारी पाठशालामें ऐसा नहीं हो सकता था। अतः इस बार प्रह्लादको क्षमा किया जाय, हम फिर इन्हें ले जाते हैं। ये बहुत पढ़ गये तो क्या, आखिर तो अभी बालक ही हैं। इन्हें राजनीतिका अध्ययन कराया जायगा।'

हिरण्यकशिपुने और सावधानी रखनेकी आज्ञा देकर इन्हें विदा किया। प्रह्लाद अपने अध्यापकोंके साथ गुरुकुलमें आये। कई विद्यार्थी बड़े प्रेमसे मिले, किसीने कहा- 'भैया तुम मुझे बड़े प्रिय लगते हो।तुम्हारे साथ रहे बिना मेरा जी नहीं लगता। सुना है, तुमने राजसभामें कुछ ऐसी बात कह दी कि दैत्यराज नाराज हो गये। भैया! जो कुछ करना हो, उनसे छिपकर ही किया करो, नहीं तो क्या पता ये न 'जाने क्या कर बैठें ?' प्रह्लादने कहा- 'मेरे भगवान् बड़े दयालु हैं, बड़े शक्तिमान् हैं ये सबकी रक्षा करते हैं और अपने भक्तकी तो विशेषरूपसे रक्षा करते हैं। मुझे किसीका क्या डर है? मैं तो प्रेमसे भजन करूँगा।' एक बालकने कहा- 'भैया! तुम्हें देखकर भजन करनेकी हमारी इच्छा भी होती है, फिर सोचते हैं कि अभी तो सारा जीवन पड़ा हुआ है, 'खा लें, तब भजन करेंगे।' प्रह्लादने कहा-'ऐसा सोचना कुछ खेल ठीक नहीं। पता नहीं, मृत्यु कब आ जाय। फिर ऐसी बुद्धि रहे, न रहे समय किसीके अधीन थोड़े ही है। बचपनमें ही भजन करना चाहिये।'

जब-जब गुरुजी वहाँसे टल जाते, तब-तब सब विद्यार्थी इकट्ठे होकर भगवद्भक्तिकी चर्चा करते। धीरे धीरे प्रह्लादके अनुयायियोंकी संख्या बढ़ने लगी। मुसरूपसे सभी भजन करने लगे। एक-दो लड़कोंने जाकर गुरुजीसे सारा हाल कह सुनाया। उन्हें क्रोध तो बहुत आया; परंतु प्रत्यक्षरूपसे उन्होंने प्रह्लादकी भर्त्सना नहीं की। उन्हें एकान्तमें बुलाकर कहा- 'प्रह्लाद ! क्या तुम सचमुच यह अनर्थ कर रहे हो? तुम्हें गुरुजनोंकी आज्ञा माननी चाहिये, पिताको प्रसन्न रखना चाहिये, कुल धर्मकी रीति रिवाजको निभाना चाहिये, यह सब क्या कर रहे हो? क्या हमने जो तुम्हारी शिकायत सुनी है, वह झूठ तो नहीं है ?'

प्रह्लादने कहा- 'गुरुदेव आपने जो कुछ कहा, सब मेरे हितके लिये कहा और वह सब ठीक है। आपने जो कुछ सुना है, वह झूठ नहीं है। जिसने आपसे कहा है, वह मेरा बड़ा हितैषी है; क्योंकि आपकी पाठशालामें, आपके विचारके विरुद्ध कोई बात कहकर मैं अपराध ही कर रहा था और उसने आपसे कहकर मुझे निरपराध कर दिया। कुलधर्म भी ठीक है, पिताकी आज्ञा भी ठीक है और गुरुजनोंके उपदेश भी हमारे भलेके लिये ही है, परंतु गुरुदेव मेरा मन मेरे हाथमें नहीं है। मैं दूसरी कोई बात सोचना चाहता हूँ तो मेरे सामने एक साँवरा-सलोना सुन्दर-सा बालक आकर बाँसुरी बजाने लगता है, नाच-नाचकर प्रेमभरीचितवनसे मेरी ओर देखता है, इशारेसे मुझे अपने पास बुलाता है, मैं उसकी मन्द मुसकान देखकर सब कुछ भूल जाता हूँ-विचलित हो जाता हूँ। गुरुदेव दूसरी बात मुझे सुहाती ही नहीं।"

कहते-कहते प्रह्लाद बेसुध हो गये। उनका शरीर पुलकित हो गया, शरीरसे आनन्दकी ज्योति छिटकने लगी। दोनों पुरोहित अवाक् हो गये। उन्होंने सोचा कि अब डाँट-डपटसे काम नहीं चल सकता। इसे किसी ऐसे पचड़े में लगाया जाय कि इसका ध्यान ही उधर न जाय। प्रह्लादके होशमें आनेपर राजनीतिका अध्यापन प्रारम्भ हुआ। सारी शुक्रनीति विस्तारके साथ पढ़ायी गयी, शत्रु-मित्र आदिके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये, इस बातकी शिक्षा दी गयी। प्रह्लादने बड़े ध्यानसे सुना, विचार किया, समझ लिया और वे गुरुपुत्रोंकी परीक्षामें पास हो गये।

इस बार जब प्रह्लादको गुरुपुत्र राजसभायें लेकर गये तब वे बहुत प्रसन्न थे। उनकी प्रसन्नता देखकर हिरण्यकशिपुको भी बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने प्रेमसे प्रह्लादको अपने पास बैठाया और उनके प्रणामका अभिनन्दन करके पूछा- 'बेटा! तुम इस बार राजनीतिकी शिक्षा प्राप्त करके आये हो। मुझे उसका सार सुनाओ।' प्रह्लादने कहा- 'पिताजी! गुरुजनोंने बड़े प्रेमसे मुझे राजनीतिकी शिक्षा दी और मैंने एक विद्यार्थीको भाँति ईमानदारीके साथ उसका अध्ययन भी किया, परंतु मुझे उनकी बात जँची नहीं। शत्रुके साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिये, मित्रके साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिये, ये बातें तभी ठीक उतरती है, जब कोई शत्रु-मित्र हो ये भेद अज्ञानकल्पित हैं। भगवान्‌को भूल जाने के कारण हैं। जब सब रूपोंमें हमारे प्यारे भगवान् हो प्रकट हो रहे हैं तब शत्रु-मित्रका भेद कैसा? उनके साथ विभिन्न व्यवहार कैसे ? इसलिये पिताजी! केवल राजनीति ही नहीं, सब नीतियोंका सार यह है कि भगवान्का ही भजन करना चाहिये।'

हिरण्यकशिपु आग-बबूला हो रहा था। उसने आज्ञा की कि 'अब तो अनर्थ हो गया। ऐसे लड़केसे तो बिना लड़केका रहना ही अच्छा है। मैं तुम्हें अभी मार डालता; परंतु अपने लड़के हो, सम्भव है दया आ जाय इसलिये तुम्हें बे मौत मरवा डालता हूँ। देखो, विष्णुभतिका मजा!"उसने प्रह्लादको मारनेके लिये दैत्योंको आज्ञा दे दी ।

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