View All Puran & Books

श्री नृसिंह अवतार कथा (नृसिंह अवतार की कहानी)

Narasimha Avatar Katha (Narasingha Story)

भाग 2 - Part 2

Previous Page 2 of 8 Next

श्री नृसिंह अवतार- कथा

ऐसा देखा जाता है कि इस मायाके झपेटेमें आकर बड़े-बड़े लोग भी चक्कर खाने लगते हैं। पहले चाहे जितने धैर्यशाली बनते रहे हों, विपत्तिकी चोट उन्हें विचलित कर देती है । सम्मान पाते पाते आदत इतनी बिगड़ जाती है कि अपमान होते ही वे अपनेको काबूमें नहीं रख पाते। शत्रुताका चिन्तन करते-करते वे उसके प्रवाहमें इतने बह जाते हैं कि अपनेको सम्हाल नहींपाते। उनके धैर्यका बाँध टूट जाता है। उनके काम पशुओं जैसे होने लगते हैं। यह दैवी सम्पत्तिका लक्षण नहीं है। दैवी सम्पत्तिका अर्थ है-अखण्ड धैर्य! परंतु भगवान् अपने जनोंकी रक्षा करते आये हैं, करते हैं और करेंगे।

हिरण्यकशिपुके तपस्या करनेके लिये चले जानेपर देवताओंको अवसर मिला। प्रतिहिंसाके भावसे उनकी दैवी सम्पत्तिपर पर्दा पड़ गया था। उन्होंने दैत्योंसे कम नोंच-खसोट नहीं की। जहाँ कामना है, वहाँ यही होता है। प्रसिद्ध है कि 'काम क्रोधका पिता है और क्रोध जीवको अंधा बना देता है।' देवताओंमें स्वर्गके सुखोंके भोगकी कामना है, उसमें अड़चन पड़नेपर उन्हें क्रोध आना ही चाहिये और क्रोध आनेपर वे कोई कुकृत्य कर डालें तो इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है। इसीसे सकाम पुरुषमें दैवी सम्पत्तिकी पूर्ण प्रतिष्ठा नहीं होती, वह तो उसीमें होती है जो निष्काम भावसे भगवद्धजन करता है।

क्रोधके आवेशमें आकर देवताओंने एक-एक दैत्यकी खबर ली। माथेपर कोई था नहीं, वे लड़ते भी तो किसके भरोसे ? विन गड़रियेकी भेड़ोंकी तरह वे सब तितर-बितर हो गये। दैत्योंके भग जानेपर उन्होंने स्त्रियोंपर आक्रमण किया। हिरण्यकशिपुकी स्त्री कयाधू भी उनकी दृष्टिसे नहीं बच सकी। वह उस समय गर्भवती थी। देवताओंको मनमें यह बात बैठी हुई थी कि अब दैत्योंको निर्बीज कर दिया जाय। अतएव बालक होनेपर उसे मार डालनेके लिये वे कयाधूको स्वर्गकी और ले चले। कयाधूके रोने-गिड़गिड़ानेपर उन लोगोंने तनिक भी ध्यान नहीं दिया।

भगवान्के भक्त बड़े दयालु होते हैं। चाहे कोई भी हो, कैसा भी हो, वे किसीको दुखी देख हो नहीं सकते। उनका हृदय पिघलकर पानी हो जाता है। वे उसकी रक्षाके लिये दौड़ पड़ते हैं। कयाधूके हरणको बात देवर्षि नारदको मालूम हो गयी। यद्यपि वे उस समय अपनी वीणा बजाते हुए भगवान्‌के सुमधुर नामोंके संकीर्तनमें मस्त थे, तथापि एक दुखी जीवको संकटसे मुक्त करनेके लिये वे दौड़ पड़े। भजन और खियोंकी उपेक्षा ये दोनों बातें इकट्ठी नहीं रह सकती। संकटमें पड़कर कराहते हुए दुखियोंको टुकुरटुकुर देखता रहता है, वह कभी भक्त हो ही नहीं सकता। नारद दौड़ पड़े। उनकी वीणा आश्रममें ही लुढ़कती रह गयी। उन्होंने डाँटते हुए देवताओंसे कहा-'देवताओ! आज तुम्हारी बुद्धिमें क्या हो गया। है ? तुम्हारा देवत्व कहाँ हवा खाने चला गया है? तुम्हारी दैवी सम्पत्ति क्या लुप्त हो गयी है? वे दैत्य थे. उन्होंने जो कुछ किया अपने स्वभावके अनुसार किया परंतु तुमलोग वैसा क्यों कर रहे हो? तुमलोग भी दैत्य बन गये ? यह तुम्हें शोभा नहीं देता। कोई चोरी करे तो क्या साहूकारको भी उसके घरमें चोरी करके बदला लेना चाहिये? यह सर्वथा अनुचित है। माना कि उन्होंने तुम्हारे साथ क्रूरता की, परंतु तुम्हें तो वैसा नहीं करना चाहिये! तुम कामसे, क्रोधसे अंधे क्यों हो रहे हो ?'

नारदकी फटकार सुनकर देवताओंका होश कुछ ठिकाने आया। वे देवर्षिके प्रभावसे अनभिज्ञ नहीं थे। और वास्तवमें तो देवर्षिके दर्शन, वार्तालाप और सांनिध्यसे ही देवताओंके मनमें परिवर्तन हो गया था। सत्सङ्गका प्रभाव ऐसा होता ही है। जब देवताओंने आँखें नीची कर लीं, उनसे कुछ बोला न गया, नये अपराधीकी यह दशा होती ही है; तब नारदने पुनः कहा- 'अच्छा, जो हो गया, अच्छा ही हुआ। भगवान्‌की ऐसी ही इच्छा थी। इसके लिये अब विषाद करनेकी जरूरत नहीं है। इस कयाभूको तुमलोग छोड़ दो। तुम्हें पता नहीं, इसके गर्भमें परम भागवत भक्तरत्न प्रह्लाद हैं। यदि कयाधूको किसी प्रकारका कष्ट हुआ तो अनर्थ हो जायगा। भगवान् सब कुछ सह लेते हैं, परंतु अपने भक्तका अपमान नहीं सह सकते। इससे तुम्हें कोई भय नहीं है। तुम्हारा कल्याण होगा।'

नारदकी बात सुनकर देवताओंने प्रसन्नताके साथ कयाधूको छोड़ दिया। वे भगवान्‌का परम अनुग्रह मानते हुए स्वर्गमें चले गये। उन्होंने सोचा कि आज भगवान्ने कितनी कृपा की है कि नारदको भेजकर हमारे अंदर बढ़ते हुए आसुर भावको दबा दिया है। यदि वे ऐसा न करते तो आज एक भक्तका अपमान हो जाता और हम फिर भगवान् के सामने जाने लायक नहीं रहते। आज हमारी मनोवृत्तियाँ कैसी हो गयी थीं! दैत्योंकी शत्रुताका चिन्तन करते-करते हमलोग भी दैत्यभावसे पूर्ण हो गये थे। भगवान्ने कृपा करकेहमें बचा लिया। वे भगवान्‌की कृपाका स्मरण करके तन्मय हो गये। आखिर देवता ही थे न!

उधर देवर्षि नारदने कयाधूको ले जाकर एक सुन्दर आश्रम में ठहरा दिया। वह वहाँके पवित्र वायुमण्डलमें रहकर अपना समय प्रसन्नतापूर्वक बिताने लगी। जंगलके हरे-भरे वृक्ष, उनके सुन्दर सुन्दर पुष्पोंको देखने में उसका मन खूब लगता था। नदीके किनारे बैठकर उसकी हर-हर ध्वनि सुननेमें और तरंगोंको गिननेमें वह तन्मय हो जाती थीं पवित्र वायु, पवित्र जल, पवित्र आश्रम और पवित्र व्यक्तियोंके संसर्गसे उसके मनमें भी पवित्रताका संचार हो गया। वह सत्सङ्गके अवसरपर मुनियोंकी बात बड़े ध्यानसे सुनती थी। देवर्षि नारद प्रायः आ आकर उसे उपदेश दे जाया करते थे।

एक दिन देवर्षि नारदने कहा- 'बेटी! तुम्हारा अन्तःकरण शुद्ध है। तुम्हारे हृदयमें भगवद्भक्त है। भगवान्की लीला सुननेमें तुम्हारा मन लगता है, यह बड़े सौभाग्यकी बात है। तुम अपने गर्भस्थ बालककी चिन्ता मत करो। वह भगवान्का अपना पार्षद है। उसे कोई कष्ट नहीं हो सकता। जब तुम चाहोगी तभी उसका जन्म होगा। भगवान्‌की कृपासे तुम्हें इच्छाप्रसवकी शक्ति होगी।'

'बेटी। संसारमें चिन्ता करनेकी तो कोई बात ही नहीं। हम सब परम पिता परमात्मासे सम्बद्ध हैं। उनके अंश हैं और इतना ही नहीं, वास्तवमें हम उनके स्वरूप हैं। जन्म-मरण, संयोग-वियोग आदि शरीरके ही होते हैं, जिनसे आत्माका कोई सम्बन्ध नहीं है। सारे दुःख शोक इस शरीरसे सम्बन्ध मान लेनेके कारण ही हैं। अपने वास्तविक स्वरूपका विचार करके इन झूठे सम्बन्धोंको छोड़ देना चाहिये। ये सम्बन्ध ही झूठे हों, केवल इतनी ही बात नहीं है, बल्कि जिन पदार्थोंसे सम्बन्ध है वे भी झूठे हैं। ज्ञानदृष्टिसे इस बातको जानकर इनके हानि-लाभ सत्यता-असत्यता आदिका विचार न करके परमात्मा के ही चिन्तनमें महा रहना चाहिये। "यों तो भगवान्‌को प्राप्त करनेके बहुत से उपाय हैं और सब अच्छे हैं परंतु यह उपाय स्वयं भगवान्ने बनाया है कि 'जिन साधनोंसे मुझ आत्म-स्वरूप भगवान्में प्रेम हो वही सर्वोत्तम उपाय है।' गुरुजनोंकी सेवा, दुखी प्राणियोंपर दया, जो कुछ अपने पास होउसका भगवान्के चरणों समर्पण, सत्सङ्गति, भगवद्विग्रहकी पूजा, उनकी कथामें श्रद्धा, उनके गुण-कर्मोंका कीर्तन, उनके चरणकमलोंका ध्यान और उनकी स्मृति दिलानेवाले तीर्थस्थान मन्दिर आदिके दर्शनसे उनके चरणोंमें अनन्य प्रेम प्राप्त होता है।

नारदने कयाधूको सम्बोधन करते हुए फिर कहा 'बेटी। इस जीवनका एकमात्र लक्ष्य भगवत्प्रेम प्राप्त करना है। जब उनकी मधुर लीला, दिव्य नाम और अनिर्वचनीय स्वरूपके वर्णनको सुनकर इतना आनन्द होता है कि शरीरकी सुधि नहीं रहती, रोमाञ्च हो आता है, आँखों आँसू बहने लगते हैं और सुननेवाला मस्त होकर जोर-जोर से रोने, गाने, चिल्लाने तथा नाचने लगता है। मानो उसे किसी भूतने ही पकड़ लिया हो ! वह कभी हँसता है, कभी चिल्लाता है, कभी ध्यान करने लगता है तो कभी लोगोंको दण्डवत् नमस्कार करने लगता है। बारम्बार श्वास-श्वासपर नारायण, गोविन्द, माधव, मुकुन्द कहकर मस्त हो जाता है, उसे किसीकी लज्जा-शर्म नहीं रहती जैसे पिघला हुआ लाह जैसे साँचेमें डाल दिया जाय वैसा ही हो जाता है वैसे ही पिघला हुआ हृदय भी भगवान्‌के पास जाकर भगवान् सा ही वन जाता है। जन्म-जन्मके उसके संस्कार नष्ट हो जाते हैं, बन्धन कट जाता है, आवागमनकी समाप्ति हो जाती है, मोक्ष प्राप्त हो जाता है और भगवान् मिल जाते हैं। इसलिये एकमात्र उन्हींका भजन करना हमारा कर्तव्य है।

"बेटी! भगवान्‌की आराधनामें कोई कष्ट भी तो नहीं उठाना पड़ता ! उन्हें ढूँढ़नेके लिये कहीं जाना भी तो नहीं पड़ता। वे हमारे हृदयमें ही आकाशकी भाँति आत्माके रूपमें विराज रहे हैं। ये लौकिक और पारलौकिक वस्तुएँ उनके सामने कुछ नहीं हैं, तुच्छ हैं। आज हैं, कल नहीं रहेंगी। इनकी चिन्ता छोड़कर उन्हींका भजन करना चाहिये। वे कितने दयालु हैं, वे नीची-ऊँची जात-पाँत नहीं देखते; ब्राह्मण, ऋषि, दैत्योंमें भेदभाव नहीं रखते; पण्डित, मूर्ख दोनों ही उनके लिये समान हैं। दान, तपस्या, यज्ञ, पवित्रता और व्रतोंकी उनके लिये अनिवार्य आवश्यकता नहीं है। दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियाँ, शूद्र, पशु, पक्षी सभी उनका भजन करके उन्हें प्राप्त कर चुके हैं, इसलिये तुम उन्हींका भजन करो, उन्हींकी शरणमें जाओ। यहीस्वार्थ और यही परमार्थ है।'

नारदकी बातें सुनकर कयाधूके हृदयमें भक्तिभाव जाग्रत हो गया और वह उन्हीं बातोंका स्मरण- चिन्तन करती हुई तदनुसार आचरण करने लगी।

Previous Page 2 of 8 Next

श्री नृसिंह अवतार कथा को नृसिंह अवतार की कहानी, Narasimha Avatar Katha, Narasingha Story, विष्णु अवतार नृसिंह कथा, Vishnu Avatar Narasimha कथा, विष्णु अवतार कथा, Vishnu Avatar Katha, विष्णु कथा और Vishnu Katha आदि नामों से भी जाना जाता है।