View All Puran & Books

श्री नृसिंह अवतार कथा (नृसिंह अवतार की कहानी)

Narasimha Avatar Katha (Narasingha Story)

भाग 3 - Part 3

Previous Page 3 of 8 Next

श्री नृसिंह अवतार-कथा

महात्माओंके और उनके बतलाये हुए मार्गपर चलनेवालोंके अतिरिक्त सभी साधारण जीव कामनाके चलाये हुए चल रहे हैं। उनका स्वामी काम है, वे कामकी पूर्ति के लिये ही सारी चेष्टा करते हैं और यहाँ तक कि उनका जीवन, उनकी आत्मा काममय हो जाती है। वे कल्पना भी नहीं कर सकते कि कामरहित जीवन भी होता होगा; परंतु यह काम भी ऐसा है कि कभी पूरा नहीं होता आगमें जितना घी डालिये, वह बढ़ती ही जायगी।

दैत्यराज हिरण्यकशिपुको किस बातकी कमी थी ! बल - पौरुष था; आज्ञाकारिणी सेना थी, पत्नी-पुत्र थे और था त्रिलोकीपर एकच्छत्र शासन! परंतु इतनेसे उसकी कामना तृप्त न हुई। उसने सोचा कि विष्णु भगवान्‌की सहायतासे इन्द्र आक्रमण कर दे तो सम्भव है अपने भाईकी भाँति मुझे भी मौतका शिकार होना पड़े ! बस अब क्या था, मौतसे बचनेकी कामना हुई और वह घोर तपस्यामें लग गया। उसकी कामनाका रूप था कि 'मुझे कोई जीत न सके, मैं अजर-अमर हो जाऊँ, मेरा कोई शत्रु न हो और एकमात्र मेरा ही राज्य हो ।'

मन्दराचलकी गहन गुफामें पैरकी एक अंगुलीपर खड़ा होकर, दोनों हाथोंको ऊपर उठाकर, अपलक नयनोंसे ऊपरकी ओर देखता हुआ, हिरण्यकशिपु अत्यन्त दारुण तपस्या करने लगा। उसके सिरपर बड़ी-बड़ी जटाएँ हो गयीं। इसी हालतमें न जाने कितना समय व्यतीत हो गया। दाना-पानीकी तो बात ही क्या, वह शरीरतक नहीं हिलाता था। उसकी तपस्या अग्रिका रूप धारण करके उसके सिरसे निकलने लगी और उसके धुएँ तथा तापसे तीनों लोक व्यथित होने लगे। समुद्र क्षुब्ध हो गया, नदियाँ करार तोड़कर गाँवोंको डुबाने लगीं, पृथ्वी काँपने लगी, ग्रह-ताराएँ टूट-टूटकर आकाशसे गिरने लगीं, दसों दिशाएँ जल उठीं और देवता भयभीत हो गये। देवताओंने सर्वसम्मतिसे निश्चय किया कि 'अबब्रह्माके पास चलना चाहिये।' तदनुसार ब्रह्मा के पास जाकर सबने निवेदन किया- 'लोकपितामह हिरण्यकशिपुकी तपस्याकी ज्वालासे स्वर्ग झुलस रहा है। हमलोगों में इतनी शक्ति नहीं है कि वहाँ शान्तिसे रह सकें। जबतक उसकी तपस्याकी अग्रिसे तीनों लोक जलकर भस्म नहीं हो जाते तभीतक भगवन्! उसकी शान्तिका उपाय हो जाना चाहिये। आप तो जानते ही हैं कि उसका संकल्प बड़ा भयंकर है। उसने संकल्प किया है कि तपस्याके बलसे ही तो ब्रह्मा ब्रह्मा बने हुए हैं! मैं भी तपस्याके बलपर अपनेको वैसा ही बनाऊँगा नहीं तो, एक ऐसी सृष्टिका निर्माण करूँगा, जैसी कभी नहीं हुई थी। वह वैकुण्ठसे भी उत्तम लोक निर्माण करनेकी चेष्टामें है। आप लोगोंके कल्याणके लिये शीघ्र ही कुछ-न-कुछ उपाय कीजिये।'

देवताओंकी प्रार्थना सुनकर ब्रह्माने कहा- 'तुमलोग घबराओ मत ! जो होगा, अच्छा ही होगा। प्रत्येक विधानमें भगवान्‌का मङ्गलमय हाथ रहता ही है।'

ब्रह्माका आश्वासन सुनकर देवताओंको कुछ संतोष हुआ और वे अपने-अपने धामको चले गये। इधर ब्रह्मा भी भृगु, दक्ष आदिके साथ हिरण्यकशिपुके पास पधारे। उन्होंने देखा कि हिरण्यकशिपुका शरीर लापता है। खर-पात, दीमककी मिट्टी और बाँसके झुरमुटोंसे वह छिप गया है। शरीरमें चीटियाँ लग रही है। जैसे बादलसे ढके हुए सूर्यकी किरणें चमकती हैं, वैसे ही उसके शरीरसे अद्भुत ज्योति निकल रही है। उसकी यह दशा देखकर ब्रह्माने हँसते हुए कहा-'कश्यपनन्दन ! उठो, उठो! तुम्हारी तपस्या पूर्ण हो गयी। बेटा ! देखो, आँखें खोलो, मैं तुम्हें वर देनेके लिये तुम्हारे सामने खड़ा हूँ तुम्हारी जो इच्छा हो मुझसे माँग लो मैंने 1 तुम्हारे हृदयका बल देखा । तुम्हारी शक्तिकी परीक्षा कर ली। कितनी आश्चर्यजनक बात है कि तुम्हारा शरीर हँस-मस खा गये और तुम्हारे प्राण हड्डियों में रह रहे हैं। ऐसी तपस्या पहले किसीने नहीं की थी और न तो आगे करनेकी सम्भावना है। भला, किसमें इतना साहस और शक्ति है कि दिव्य सहस्र वर्षतक बिना जलके प्राणोंको धारण कर सके! तुम्हारे इस निश्चयसे, इस घोर तपस्यासे मैं तुम्हारे अधीन हो गया हूँ। मैं तुम्हारी सब अभिलाषाओंको पूर्ण करूंगा। मेरेदर्शन व्यर्थ नहीं जाते।'

ब्रह्माकी बात समाप्त हो जानेपर भी हिरण्यकशिपु न तो उठा और न बोला। उसमें शक्ति ही नहीं थी। ब्रह्माने मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके अपने कमण्डलुका जल उसपर छिड़का। देखते-ही-देखते उसका शरीर सर्वाङ्गसुन्दर एवं वज्रकी भाँति कठोर हो गया। वह अपूर्व शक्तिसम्पन्न होकर उठ खड़ा हुआ। अपने सामने ही ब्रह्माको देखकर उसके शरीरमें रोमाञ्च हो आया, हृदय आनन्दसे भर गया। चरणोंमें साष्टाङ्ग दण्डवत् करनेके बाद उसने प्रार्थना की- 'भगवन्! आप ही इस सृष्टिको बनानेवाले हैं। आप ही इस सृष्टिके धाता विधाता हैं। सारे व्यवहार आपकी ही कृपासे चलते हैं आपने ही अव्यक्तको व्यक्त किया है। सम्पूर्ण सृष्टिके प्रभु आप ही हैं। आपसे परे और कुछ नहीं है। यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो कृपया पहले मुझे अमर बना दें।'

ब्रह्माने कहा- 'बेटा! मैं अमर बनानेकी शक्ति नहीं रखता। इस जगत्‌का यह नियम है कि जो जनमता है उसे मरना पड़ता है। सारे देवता और कहनेके लिये मैं भी अमर हूँ। परंतु यह केवल कहनेकी बात है। हम केवल सौ वर्षतक जीते हैं। हमारा माप बड़ा होनेके कारण दूसरे लोग हमें अमर कहा करते हैं। परंतु मृत्यु तो हमारी भी होती ही है इसलिये कोई दूसरा वर माँगो।'

हिरण्यकशिपुने कहा- 'अच्छा, यदि आप अमर नहीं कर सकते तो मुझे यही वर दीजिये कि आपकी बनायी हुई सृष्टिका कोई व्यक्ति मुझे मार न सके। बाहर या भीतर, दिन या रातमें मेरी मौत न हो। आकाश या भूमिमें, मनुष्य, पशु, देवता, दैत्य, सर्प, प्राणी, अप्राणी अथवा किसी शस्त्रसे मेरी मृत्यु न हो, युद्धमें मेरे सामने कोई ठहर न सके सम्पूर्ण सृष्टिपर मेरा एकाधिपत्य हो और मेरा महत्त्व किसीसे कम न हो।'

ब्रह्मा उसकी तपस्यासे प्रसन्न थे और यह बात भी थी कि उसे वर देनेके सिवा और कोई चारा भी न था। उसकी तपस्यासे तीनों लोक जल रहे थे, वर न देते तो उनकी क्या दशा होती, इसका कुछ-कुछ अनुमान किया जा सकता है। अन्ततः भगवान्के विधानकी मङ्गलमयतापर विश्वास रखते हुए ब्रह्माने कहा- 'दितिनन्दन। यद्यपि तुम्हारे माँगे हुए वर दुर्लभहैं, तथापि तुम्हारी घोर तपस्यासे प्रसन्न होकर मैं उन्हें दिये देता हूँ तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हो।'

हिरण्यकशिपुने विधिपूर्वक ब्रह्माकी पूजा की और स्तुति की। ब्रह्मा अपने मानस पुत्रोंके साथ ब्रह्मलोक को गये। हिरण्यकशिपुने अपनी राजधानी हिरण्यपुरीकी यात्रा की। उसे देवताओंने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। केवल कुछ खँडहर बचे हुए थे। उसके आनेपर समस्त दैत्य दानव, उसके मन्त्री, पुत्र आदि सब इकट्ठे हुए। राजधानीका पुनः निर्माण हुआ शस्त्रास्त्र एकत्रित हुए। देवताओंका अत्याचार देख-सुनकर हिरण्यकशिपु जल-भुन गया। उसकी आँखें लाल-लाल हो गयीं, चेहरा तमतमा उठा। उनसे बदला लेनेके भावसे उसने स्वर्गपर चढ़ाई कर दी। देवताओंको स्वर्गसे मार भगाया, लोकपाल दिक्पालोंको अपने वशमें कर लिया, त्रिलोकी उसके वशमें हो गयी ऐसा कोई नहीं था, जो उसके सामने युद्धमें ठहर सके। उसने अपनी राजधानी स्वर्ग में बनायी। वह इन्द्रके महलमें रहता, नन्दनवनका उपभोग करता और देवतालोगोंसे अपनी सेवा कराता । गन्धर्व, विद्याधर उसकी स्तुति करते, अप्सराएँ नाचकर उसे रिझात, विश्वावसु तुम्बरु आदि उसे गाना सुनाते और संसारमें जो यज्ञ होते, उनका भाग वह स्वयं लेता ।। पृथ्वी डरकर बिना जोते-बोये अन्न पैदा कर देती, समुद्र रत्न दे देते, छहों ऋतुएँ एक ही साथ उसे प्रसन्न करती रहतीं, सभी लताएँ वृक्ष आदि बारहों मास फलते-फूलते। कहनेका तात्पर्य यह कि चर-अचर सम्पूर्ण जगत्पर उसका एकाधिपत्य था।

उसके इच्छानुसार न जलनेपर अग्रिको दण्ड भोगना पड़ता, उसके आज्ञानुसार न तपनेपर सूर्यको बंदी होना पड़ता और उसके प्रसन्नतानुसार पंखा न झलनेपर वायु देवतापर फटकार पड़ती। पद्मरागके आसन, दूधके फेनकी भाँति शय्या, स्फटिककी भीत वैदूर्यके खम्भे और सर्वाश्चर्यमय वितान तने थे। वह संसारके सर्वोत्कृष्ट भोगोंको भोगता था। उसकी इच्छा पूर्ण होनेमें कोई रुकावट नहीं थी।

उसे चिन्ता थी तो केवल एक यही कि कहीं विष्णु मिल जाय तो उसका कचूमर निकाल डालें। रात-दिन सोचा करता कि अब देखें वह कौन-सा कुचक्र रचता है वेदोंका पाठ बंद कर दिया गया, ढ़कर वैष्णवोंके सिर काटे जाने लगे। ब्राद्ध, मूर्तिपूजा, अवतारआदिको माननेवाले फाँसीपर लटकाये जाने लगे। किसीके मुँहसे धोखेसे भी भगवान्का नाम निकल जाय तो उसकी जीभ निकलवायी जाने लगी। यदि कोई देवता कहीं चीं-चपड़ करते तो उन्हें कुत्तोंसे नुचवा लिया जाता । स्वतन्त्र विचारवालोंके ओठ सी दिये गये। सारे संसारमें हाहाकार मच गया!

देवताओंने विष्णु भगवान्‌की शरण ली। उन्हें उत्तर मिला कि 'अभी समयकी प्रतीक्षा करें। वह अभिमानमें फूला हुआ है। इसका लड़का ही इसकी बोलती बंद कर देगा।' यह सबपर शासन करता है पर अपने लड़केका ही शासन न कर सकेगा। इसकी स्त्रीके गर्भमें मेरा परम भक्त प्रह्लाद है। उसकी पुकारपर मैं प्रकट होऊँगा और इसकी खबर लूँगा । तुमलोग घबराओ मत। मेरी लीला देखो, मेरी प्रतीक्षा करो।' अबतक देवर्षि नारद कयाधूको हिरण्यकशिपुके पास पहुँचा गये थे।

Previous Page 3 of 8 Next

श्री नृसिंह अवतार कथा को नृसिंह अवतार की कहानी, Narasimha Avatar Katha, Narasingha Story, विष्णु अवतार नृसिंह कथा, Vishnu Avatar Narasimha कथा, विष्णु अवतार कथा, Vishnu Avatar Katha, विष्णु कथा और Vishnu Katha आदि नामों से भी जाना जाता है।