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श्री नृसिंह अवतार कथा (नृसिंह अवतार की कहानी)

Narasimha Avatar Katha (Narasingha Story)

भाग 6 - Part 6

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श्री नृसिंह अवतार-कथा

द्वेप अन्तःकरणको कलुषित कर देता है। क्रोध आँखवालोंको अंधा बना देता है। लोग दूसरे शत्रुओंसे बदला लेनेके लिये, उनपर शासन करनेके लिये द्वेष और क्रोधसे काम लेते हैं, परंतु उन्हें यही मालूम नहीं होता कि मैं द्वेष और क्रोधरूपी महान् शत्रुके अधीन हो रहा हूँ। आज हिरण्यकशिपु विष्णुको अधीनता न स्वीकार करके क्रोधकी अधीनता स्वीकार कर रहा है। यह क्रोधान्धता नहीं तो और क्या है ?

प्रह्लादको मारनेकी आज्ञा सुनकर कुछ लोगोंको जो उस सभामें उपस्थित थे, दुःख अवश्य हुआ होगा, परंतु किसीके मुँहसे हिरण्यकशिपुके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं निकल सका। असुरका राज्य, असुरोंका मन्त्रित्व और असुर ही सभासद् ! वहाँ तो वैष्णवोंके सिर नित्य ही कटते थे, प्रह्लादको मारनेकी आज्ञासे लोगोंको अधिक आश्चर्य नहीं हुआ। यदि किसीको आश्चर्य हुआ भी तो उसे मन मसोसकर रह जाना पड़ा। क्या करता, मालूम हो जानेपर उसे भी माँतके मुँहमें जाना पड़ता।

बहुत-से दैत्य प्रह्लादको पकड़कर ले गये। प्रह्लाद निर्विकार भावसे, मानो कुछ हो ही नहीं रहा है, उनके साथ चले गये। जब उन्होंने अपने शस्त्रोंसे प्रहार किया और प्रह्लादके शरीर कटने की जगह उनके शस्त्र हो टुकड़े-टुकड़े हो गये, तब उनके आश्चर्यको सीमा न रही! प्रह्लादका शरीर एक दिव्य प्रभासे दमकने लगा। दैव प्रह्लादको लेकर हिरण्यकशिपुके पास आये उसने दातुमलोग झूठ बोलते हो मेरे सामने मारो तो!" उन सर्वोने आक्रमण किया, परंतु सब विफल। उनकी एक न चली! प्रह्लादने कहा- 'पिताजी! सम्पूर्ण भयको भयभीत करनेवाले और भयाँका भय छुड़ानेवाले भगवान् मेरे हृदयमें स्थित हैं, शस्त्रोंमें हैं, आक्रमण करनेवालोंमें हैं। इसी सत्यके बलपर वे हथियार मुझपर आक्रमण नहीं कर सकते।"

अब तो हिरण्यकशिपु और भी भयभीत हो गया। उसने सोचा- 'अब कौन-सा उपाय किया जाय!' साँपोंको आज्ञा हुई कि 'इसे नष्ट कर दो।' उन्होंने अपने सम्पूर्ण विषका प्रयोग किया; परंतु उनको दाड़ें। टूट गयी, मणियाँ चटख गर्यो, फलोंमें पीड़ा होने लगीकलेजा काँपने लगा, किंतु प्रह्लादका बाल भी बाँका नहीं हुआ ये सब हिरण्यकशिपुसे आज्ञा लेकर भग गये। हिरण्यकशिपुने बड़े-बड़े हाथियोंको आज्ञा दी कि 'इसे पीस डालो !' हाथियोंने अपना सम्पूर्ण बल लगा दिया, उनके दाँत टूट गये, शक्ति शिथिल पड़ गयी किंतु प्रह्लाद जैसा का तैसा मस्त! वह भगवान्‌के स्मरणमें तन्मय था।

ढुण्ढा राक्षसी गोदमें लेकर बैठी, दैत्योंने चिता बनाकर
आग लगा दी। डुण्डा समझती थी कि 'मैं बच जाऊँगी,
प्रह्लाद जल जायगा।' परंतु हुआ उलटा, वह जल गयी
और प्रह्लाद मस्त होकर भगवन्नामका जप कर रहा था।

अब षण्ड और अमर्क दोनों दैत्यराजको चिन्तित देखकर बोले-'महाराज! इस बालकको तो हमलोग ही ठीक कर सकते हैं। हमें एक बार और अवसर दीजिये। यदि यह नहीं मानेगा तो हम कृत्याको उत्पन्न करके इसे नष्ट कर डालेंगे हिरण्यकशिपुने स्वीकृति दे दी, वे दोनों प्रह्लादको लेकर पाठशालापर आये। इस बार प्रह्लादका प्रभाव बढ़ गया था। भजन करनेवाले प्रह्लादको महाराज हिरण्यकशिपु भी नहीं मार सके, यह बात विद्यार्थियोंतक पहुँच चुकी थी। सबने बड़े आदरसे प्रह्लादका स्वागत किया और गुरुजीके चले जानेपर भगवत्प्रेमकी बात करने लगे। प्रह्लादने कहा 'भाइयो! मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूँ अपना हृदय तुम्हारे सामने रख रहा हूँ। मैं लोभसे, मोहसे, किसी कामनासे ऐसा नहीं कह रहा हूँ। इसे प्रेमके साथ सुनो, जँचे तो अपनाओ। हमलोग बाहर बाहर तो बहुत सोचते-विचारते हैं, परंतु अपने जीवनपर दृष्टि नहीं डालते। बचपन खेल-कूदमें गँवा दिया, जवानी विषयोंके सेवनमें और बुढ़ापा व्यर्थको चिन्ताओंमें रोने-धोनेमें। क्या यही जीवन है ? क्या इसीके लिये हमारा जन्म हुआ है। सोचो, विचार करो, इस शरीरमें क्या है? यह अपवित्र वस्तुओंकी एक पुड़िया है। यह जीवन क्या है ? वासनाओंकी उधेड़-बुन है। इसमें कहीं सुख नहीं, केवल दुःख ही दुःख है छोड़ दो इसका मोह, तोड़ दो संसारका बन्धन और मोड़ दो अपना मन भगवान्की ओर! भगवान् बड़े सुन्दर हैं। बड़े दयालु हैं, उनके भजनमें कोई कष्ट नहीं है। वे अपने हृदयमें हैं, अपने सगे-सम्बन्धी हैं और अपने आत्मा ही हैं। उनका भजन करो, केवल उनका भजन करो।'"मित्रो! वे ही सब रूपोंमें प्रकट हैं। किसीसे द्वेष मत करो। किसीसे बुरा मत मानो, सबके प्रति समान प्रेम रखो। यह समता ही उनकी आराधना है। वे तुम्हारी रक्षा करेंगे, वे तुम्हारा कल्याण करेंगे। डरो मत! किसीसे मत डरो। उनके कर कमलोंकी छत्रछाया तुम्हारे सिरपर है। जानते ही हो, मेरी क्या साँसत नहीं की गयी, साँपोंसे डँसवाया गया, आगमें जलाया गया, मारा-पीटा गया, परंतु मुझे जरा भी कष्ट नहीं हुआ। मेरे रक्षक भगवान् थे। मारनेवालोंके प्रति मेरे मनमें जरा भी द्वेष नहीं है। मेरे प्यारे मित्रो! उन्हींकी शरण में जाओ, उन्हींका भजन करो, वे तुम्हारा कल्याण करेंगे।'

प्रह्लादकी बात सुनकर सभी छात्र जोर-जोरसे भगवन्नाम-कीर्तन करने लगे। हिरण्यपुरीमें भक्ति-भागीरथीको धारा बह गयी। गुरुपुत्रोंने बहुत समझाया, उनकी एक न चली। आखिर वे हिरण्यकशिपुके पास गये। उसने रसोइयोंको विष देनेकी आज्ञा दी। प्रह्लादको बड़ा भयंकर हालाहल विष दिया गया। भगवान्‌के नामका उच्चारण करके प्रह्लादने विषके साथ सारा अन्न खा लिया और बिना किसी वित्र बाधाके वह सब पच भी गया। हिरण्यकशिपुने आज्ञा दी - 'पुरोहितो! अब इसकी मृत्युमें विलम्ब नहीं होना चाहिये। इसको मारनेके लिये कृत्या उत्पन्न करो। दैत्यराजकी यह आज्ञा पाकर दोनों पुरोहित प्रह्लादके पास गये। उन्होंने प्रह्लादकी प्रशंसा करते हुए कहा- 'आयुष्मन्! तुम ब्रह्माके वंशमें दैत्यराज हिरण्यकशिपुके पुत्र हो तुम्हे विष्णुकी क्या आवश्यकता है। जैसे तुम्हारे पिता त्रिलोकीके राजा हैं, वैसे तुम भी होनेवाले हो। छोड़ दो यह बखेड़ा शत्रुकी स्तुति नहीं करनी चाहिये। प्रह्लादने बड़ी नम्रताके साथ कहा- 'भगवन्! आपकी बात अधिकांश सत्य है। मेरा वंश उत्तम है, मेरे पिता त्रिलोकीके अधिपति हैं, मैं उनका उत्तराधिकारी हूँ, यह सब ठीक है। उनकी बात मुझे माननी भी चाहिये, परंतु मुझे भगवान्की क्या आवश्यकता है, आपकी यह बात मेरी समझमें नहीं आती।'

* चाहे किसी भी दृष्टिसे देखें, भगवान् के बिना यह जीवन असार है। उनके बिना इसका उद्देश्य ही पूरा नहीं होता। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थीके मूल भगवान्के चरणोंकी आराधना है।' कहनेके लिये तो प्रह्लाद बहुत कुछ कह गये; परंतु अन्तमें गुरुजनोंकेसामने इतना अधिक बोलनेके लिये क्षमा माँगकर वे चुप हो गये।

पुरोहितोंने कहा- 'बालक! तुम बहुत बढ़-चढ़कर बात करते हो, हमने तुम्हें आगमें जलनेसे बचाया और अनेक आपत्तियोंसे तुम्हारी रक्षा की हम समझते थे कि तुम हमारी बात मानोगे। परंतु तुम एक भी नहीं सुनते। अब तुम्हारी मृत्युके लिये हम कृत्या उत्पन्न करते हैं।' प्रह्लादने कहा- भगवन्! कौन किसे मारता है ? कौन किसे जिलाता है? सब अपने-अपने कर्मोंका फल भोग रहे हैं। न कोई किसीको मार सकता है। और न जिला सकता है।' पुरोहितोंको अब क्रोध आ गया। उन्होंने अपने मन्त्रबलसे कृत्या उत्पन्न की। वह भयंकर राक्षसी अपने पैरोंसे जमीनको रौंदती हुई. आगकी लपटके समान चमकती हुई, त्रिशूल लेकर प्रह्लादपर टूट पड़ी। बड़े जोरसे उसने त्रिशूल चलाया। परंतु प्रह्लादकी छातीपर लगते ही वह त्रिशूल खण्ड खण्ड होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। भला जिस हृदयमें निरन्तर भगवान् निवास करते हैं, वहाँ लगकर वज्र तो कुछ कर ही नहीं सकता, त्रिशूल क्या कर सकता है ? कृत्याकी यह रीति है कि जिसपर उसका प्रयोग किया जाता है, यदि उसे न मार सके तो प्रयोग करनेवालेको ही वह मार डालती है। उसने लौटकर पुरोहितोंपर आक्रमण किया और वे दोनों मर गये। उन्हें कृत्याकी आग जलते देखकर कृष्ण ! कृष्ण ! त्राहि त्राहि !' कहते हुए प्रह्लाद दौड़ पड़े। प्रह्लादने कहा- 'भगवन्! आप सर्वव्यापक हैं, सर्वरूप हैं, इस मन्त्रकी आगसे जलते हुए इन ब्राह्मणोंकी रक्षा कीजिये। भगवान्को, आपको सर्वस्वरूप जानकर जैसे मैं शत्रुओंमें भी भगवद्भावना करता हूँ, उन्हें भी भगवद्रूप ही देखता हूँ, उसी प्रकार इनको भी देखता 'हूँ तो ये पुरोहित भी कृत्याकी ज्वालासे बच जायें। जिन्होंने मुझे विष दिया, मुझपर आक्रमण किया, आगमें जलाया, साँपोंसे हँसाया, हाथियोंसे कुचलवाया, उनके प्रति भी यदि हमारे हृदयमें भगवद्भाव एवं समान प्रेम - रहा हो, यदि उनके प्रति मेरे मनमें कभी पाप बुद्धि न हुई हो तो ये मेरे पुरोहित जी उठें।'

यों कहकर प्रह्लादके स्पर्श करते ही दोनों पुरोहित भले चंगे होकर उठ खड़े हुए और विनयी प्रह्लादको आशीर्वाद देने लगे। 'बेटा! तू दीर्घायु हो, ऐश्वर्यशालीहो। तेरा मङ्गल-ही-मङ्गल हो । तत्पश्चात् हिरण्यकशिपुके पास जाकर पुरोहितोंने सारी बात कह सुनायी।

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