अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



अभिमानी और लोभीको कभी शान्ति नहीं मिल सकती। दीन और विनम्र हृदय पूर्ण शान्तिमें सदा साथ रहता है।


जन्मके प्रसंगसे स्त्री-देहका जो स्पर्श हुआ सो हुआ, पर उसके बाद सम्पूर्ण जीवनमें कभी वह स्पर्श न हो ऐसा जिसका कठिन ब्रह्मचर्य है वही सच्चा ब्रह्मचारी है।


दो आँखोंसे और अल्पज्ञानसे तुम जितना देख या जान सकते हो, हजारों आँखोंवाले सर्वज्ञ प्रभु तुम्हारे हितकी बात उससे बहुत अच्छी देख और जान सकते हैं। इस बातको कभी मत भूलना।


संसारमें ईश्वरके सिवा और जरा भी सार वस्तु नहीं है। जबतक तुम्हारे हृदयमें यह बात धँस न जाती तबतक सच्चा वैराग्य नहीं मिल सकता।


कवियोंने संतोंके हृदयको नवनीत-जैसा बतलाया है। परंतु उन्होंने भूल की; क्योंकि नवनीत अपने तापसे ही पिघल जाता है, पर संत तो दूसरोंके दुःखसे द्रवित होते हैं।


भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये किसी बाहरी आडम्बरकी, वेष-भूषाकी, बोलचालके खास ढंगकी, आदेश-उपदेशकी, स्वाँग बनानेकी और साधु सजनेकी आवश्यकता नहीं है। भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये तो केवल चाहिये निर्मल और भक्तिपूर्ण मन।


शत्रुसे भी प्रेम रखो। दान अथवा शुभ कर्ममें फलकी कामना न करो, तभी प्रभु प्रसन्न होंगे।


जिस चीजकी जरूरत हो उस चीजके लिये उसीसे जान-पहचान करनी पड़ती है कि जिसके पास वह हो। तुमको मोक्ष और सूख चाहिये तो तुम्हें ईश्वरसे ही परिचय करना होगा; क्योंकि ये उन्हींके पास भरपूर हैं, संसारके भाई-बन्धुओंके पास नहीं।


जब हरिप्रेमका चसका लगता है, तब एक हरिके सिवा और कुछ भी नजर नहीं आता।


संसारमें आकर भगवान्‌के विषयमें तर्क, युक्ति, विचार आदि करनेसे कुछ फल नहीं। जो प्रभुको प्राप्तकर आनन्दानुभव कर सकता है, वही धन्य है।


जगत्में सत्य और प्रिय बोलनेवाले बहुत ही दुर्लभ हैं। कभी वे मिलें तो उनके दर्शनसे, उनको प्रणाम करके, उनको संतुष्ट करके, उनका सत्संग करके पवित्र हो जाओ।


निन्दा और वाद सर्वथा त्याग दे।


जिसका जैसा भाव होता है, उसको वैसा ही फल मिलता है।


सद्गुरुचरणोंका लाभ जिसे हो गया, वह प्रपंचसे मुक्त हो गया।


प्रभुकी प्रसन्नताके लिये दरिद्रता और अपमानको सिर चढ़ाना संतोषका काम है।


तीर्थको जो जल समझता है, प्रतिमामें जो पत्थर देखता है, संतोंको जो मनुष्य समझता है, उसके समान मूर्ख कौन है।


किस उपायसे प्रभु कृपा प्राप्त हो ? प्रभु प्रेममें बाधकरूप इस संसार और बाह्य जीवनमें आसक्ति छोड़ दे।


जो मनुष्य दुःखमें प्रभुका आशीर्वाद देखता है, वह महान् है।


परलोकमें सहायताके लिये माता-पिता, पुत्र-स्त्री और सम्बन्धी कोई नहीं रहते। वहाँ एक धर्म ही काम आता है। मरे हुए शरीरको बन्धु-बान्धव काठ और मिट्टीके ढेलोंके समान पृथ्वीपर पटककर घर चले जाते हैं। एक धर्म ही उसके साथ जाता है।


जिस कर्मके द्वारा भगवान् हरि संतुष्ट हो सकें, वास्तवमें वही कर्म कहा जा सकता है और जिससे मुकुन्दचरणों में रति उत्पन्न हो सके, वही सच्ची विद्या है। जिस वर्णमें, जिस कुलमें और जिस आश्रममें रहकर श्रीकृष्ण-कीर्तन करनेका सुन्दर सुयोग प्राप्त सके, वही वर्ण, कुल, आश्रम शुभ और परम श्रेष्ठ है।


'गुरुजनोंकी सेवा, भक्ति, सब वस्तुओंका भगवान्के प्रति समर्पण, साधु-भक्तोंका संग, ईश्वरकी आराधना, भगवान्की कथामें श्रद्धा, भगवान्के गुण-कर्मोंका कीर्तन, भगवान्‌के चरण कमलका ध्यान, भगवान्की मूर्तियोंके दर्शन और उनका पूजन एवं भगवान् हरि सब प्राणियोंमें स्थित हैं' ऐसा जानकर सब प्राणियों में समदृष्टि रखनेसे भगवान्‌में प्रीति होती है।


जो मनुष्य ईश्वरमें लीन रहता है और सुनने तथा देखने लायक उसीको समझता है, उसने सब कुछ सुन लिया है, देख लिया है और जान लिया है।


आनन्द उसे है जो क्षोभ उत्पन्न करनेवाली सभी वस्तुओंको हटाकर अपनेको एकमात्र पवित्र पश्चात्तापके उद्देश्यमें लगा देता है एवं उन सबको त्याग देता है जो उसकी आत्माको दूषित करते हैं।


फल देकर फूल सूख जाता है, फल रस पकनेपर नष्ट होता है। रस भी तृप्ति देकर समाप्त होता है। आहुतिको अग्निमें डालकर हाथ हट जाता है। गीत आनन्द पाकर मौन हो जाता है। वैसे ही सत्-चित्-आनन्द-पद द्रष्टाको दिखाकर मौन हो जाते हैं।


तुम्हारे बलपर मन वशमें नहीं होगा, भगवान्‌के बलपर विश्वास करो और चुपचाप उनकी याद करते रहो।


वास्तवमें विद्वान् वह है जो अपनी इच्छाको त्यागकर परमात्माकी इच्छासे कार्य करता है।


मैं एक ऐसा मार्ग जानता हूँ कि जिसपर चलनेसे जल्दी से-जल्दी ईश्वरके पास पहुँचा जा सकता है। वह मार्ग है किसीसे कुछ भी न चाहना और अपने पास ऐसा कुछ भी न रखना जिसके लिये दूसरेके मनमें चाह हो।


स्त्री, पुत्र, भाई, बहिन, माता-पिता आदि प्यारे और सगे-सम्बन्धी उसी वक्ततक हैं जबतक कि शरीर नाश नहीं हुआ है।


जिन लोगोंको इन तीन वस्तुओंपर प्रेम है, उनमें और नरकमें ज्यादा दूरी नहीं है - ( 1 ) स्वादिष्ट भोजन, (2) सुन्दर वस्त्र, (3) धनवानोंका सहवास।


हे मन ! सबसे फीका हो, केवल श्रीहरिसे ही सरस रह।


जहाँ ईश्वरकी चर्चा होती है, वहीं स्वर्ग है।


- जो बन्धनमें हेतु नहीं होता वही कर्म है और जो मुक्तिमें हेतु है वही विद्या है। इसके सिवा दूसरे कर्म परिश्रममात्र तथा दूसरी विद्याएँ शिल्पनिपुणतामात्र हैं।


उस बड़प्पनमें आग लगे जिसमें भगवद्भक्ति नहीं।


सद्गुरु शिष्योंके नेत्रोंमें ज्ञानांजन लगाकर उसे दृष्टि देते हैं। ऐसे सद्गुरु बड़े भावसे जब मिलें, तब अत्यन्त नम्रता, विमल सद्भाव और दृढ़ विश्वासके साथ उनकी शरण लो; अपना सम्पूर्ण हृदय उन्हें अर्पण करो, उनके प्रति अपने चित्तमें परम प्रेम धारण करो, उन्हें प्रत्यक्ष परमेश्वर समझो; इससे भक्तिज्ञानका समुद्र प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाओगे।


जब सूर्यनारायण प्राची दिशामें आते हैं तब तारे अस्त हो जाते हैं। वैसे ही भक्तिके प्रबोधकालमें कामादिकोंकी होली हो जाती है।


इस मृत्युके जगत्में अमृतके पानेका एक ही उपाय है जो केवल उसीकी ओर देखता है, दूसरी ओर ताकता ही नहीं, वही मृत्युके हाथसे छुटकारा पा सकता है।


मातासे बच्चेको यह नहीं कहना पड़ता कि तुम मुझे सँभालो। माता तो स्वभावसे ही उसे अपनी छातीसे लगाये रहती है। इसलिये मैं भी सोच-विचार क्यों करूँ? जिसके सिर जो भार है वही सँभाले।


वेदोंका अर्थ, शास्त्रोंका प्रमेय और पुराणोंका सिद्धान्त एक ही है और वह यही है कि सर्वतोभावसे परमात्माकी शरणमें जाओ और निष्ठापूर्वक उसीका नाम गाओ। सब शास्त्रोंके विचारका अन्तिम निरधार यही है।


प्रेमकी एक ही चिनगारी हृदयमें पड़ जाय तो जीव निहाल हो जाय। धन्य है वह हृदय जहाँ ऐसी आग लगी हुई है।


आज तुम्हारा शरीर आरोग्य है, आश्चर्य नहीं कल तुम बीमार होकर मरण-शय्यापर पड़े हो अथवा मर ही जाओ। इसलिये चेत करो, होश सँभालो और आगेकी सफरका इसी क्षण बन्दोबस्त करो।


अभिमान बहुत बड़ा शत्रु है। जिसके अंदर अभिमान आ बसता है, उसका सद्गुणरूप धन नष्ट हो जाता है।


पूरे जागे हुए मनका यही अर्थ है कि ईश्वरके सिवा दूसरी किसी चीजपर चले ही नहीं। जो मन हरिकी प्रीतिमें डूब गया, फिर उसे दूसरे किसीकी क्या जरूरत।


केवल अनुमान और शंकाओंपर निर्भर करके ही किसी उत्तम मनुष्यसे दूर नहीं हटना चाहिये।


जो अपना परिचय ईश्वर - ज्ञानी कहकर देता है वह मिथ्याभिमानी है, जो यह कहता है कि मैं उसे नहीं जानता वही बुद्धिमान् है।


शान्त, धर्ममय, प्रिय और सत्यवचन ही सुभाषण हैं। ऐसी बात कहनी चाहिये जो आत्माके विरुद्ध न हो और जिससे किसीको दुःख न पहुँचे।


संत पहाड़की चोटीपर खड़े होकर पुकार रहे हैं भगवान् की शरण लो, प्राणिमात्रमें उसीका भजन करो। गो, खर, गज, श्वान सबको समानरूपसे वन्दन करो।


जिस हृदयमें प्रभुप्रेमको स्थान नहीं, वह मसानके तुल्य है अथवा श्वास लेनेवाली लोहारकी प्राणरहित धौकनीके समान है।


वीर साधक इस संसारका बोझ सिरपर उठाकर भी भगवान् की ओर निहारते रह सकते हैं।


अपनी आँखें अपनेहीपर डालो और ध्यान रहे, तुम दूसरोंके कर्मोंके सम्बन्धमें अपना निर्णय न दो। दूसरोंके कामको समझनेमें प्रायः मनुष्य व्यर्थहीमें परिश्रम करता है।


हम भगवत्साक्षात्कार भी चाहें और सांसारिक चिन्ताओंको भी न छोड़ें-यह कैसे हो सकता है।


जो वस्तु अतिथिको न खिलावे, उसे आप भी न खाय। अतिथिकी सेवा करनेसे धन, यश, आयु और स्वर्गकी प्राप्ति होती है। भोजन के समय आये हुए अभ्यागतकी जाति न पूछे। उसे भोजन करावे।


जलको मथनेपर घी भले ही निकले, बालूको पेरनेपर उससे तेल भले ही निकले, परंतु भगवान्‌के भजनके बिना इस संसार सागरको तरना सर्वथा असम्भव है- यह अकाट्य सिद्धान्त है।


विपत्तिको सह लेनेमें अचरज नहीं है, अचरज है। वैसी हालतमें भी शान्त और आनन्दमग्न रहनेमें । और यह ईश्वरविश्वासका लक्षण है।


सच्चा प्रेम कभी मरता नहीं, काल भी उसे मार नहीं सकता।


और भजनमें सबसे अधिक उपयोगी और लाभदायक है—भगवान्के नामका जप और कीर्तन! बस, जप और कीर्तनपर विश्वास करके नामकी शरण ले लो, नाम अपनी शक्तिसे अपने आप ही तुम्हें अपना लेगा। और नाम नामीमें अभेद है, इसलिये नामके द्वारा अपनाये जाकर नामी भगवान्के द्वारा तुम सहज ही अपनाये जाओगे। याद रखो, जिसको भगवान्ने अपना लिया, उसीका जन्म और जीवन सफल है, धन्य है!।


विरागीको निरन्तर नाम-जप करते रहना चाहिये।


लोगोंके सामने अपना दोष स्वीकार करनेमें जिसको जरा-सा भी संकोच नहीं होता; इतना ही नहीं, परंतु जो इसीमें अपनी भलाई समझता है तथा अपने अच्छे काम दूसरोंको जनानेकी जो बिलकुल इच्छा नहीं रखता और जो दृढ़ संकल्पवाला है, वही सत्यनिष्ठ और सच्चा साधक है।


डुबकी लगाते ही जाओ, रत्न अवश्य मिलेगा। धीरज रखकर साधना करते रहो, यथासमय अवश्य ही तुम्हारे ऊपर ईश्वरकी कृपा होगी।


ये आँखें फूट जायँ तो क्या हानि है। जब ये पुरुषोत्तमको नहीं देख पातीं। अब प्रभुके बिना एक क्षण भी जीनेकी इच्छा नहीं।


तीनों लोकोंमें इन चार बातोंसे बढ़कर मनुष्यको प्रसन्न करनेवाली और कोई बात नहीं है-दान, मैत्री, सब जीवोंपर दया और मीठे वचन।