अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



अपने गुप्त-स-गुप्त विचारोंको भी पवित्र रखो; क्योंकि उनमें भी अद्भुत शक्ति भरी है। तुम्हारे मुखसे निकलते हुए शब्दोंमें उन विचारोंके भावका पता लग जाता है और तुम्हारे भविष्यके निर्माणकर्ता भी वे गुप्त विचार ही होते हैं।


ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे संत स्वभावतः सह न ले; और वह सह लेता है इसका उसे कोई स्मरण भी नहीं रहता।


एक छोटे-से जीवको भी अपनेसे नीचा मत समझो। बाहरी दुनियाको देखो भी तो ऊपर-ही-ऊपरसे । भीतरी आँखोंको तो उस प्रभुकी ओर लगाये रहो।


भगवान्‌की शरण होना और उनके दर्शनके लिये हृदयसे प्रार्थना करना साधकका परम कर्तव्य है। जिसको ईश्वरका साक्षात् हो चुका है उसके लिये तो आशा या याचनाकी कोई वस्तु ही नहीं रह जाती।


जिसका हृदय भगवान्‌के प्रेमसे कोमल हो गया है, उसके पास पापरूपी असुर नहीं आ सकता।


सहनशील ऋषि और कृतज्ञ धनवान्में श्रेष्ठ कौन ? सहनशील ऋषि । धनवान् चाहे जितना भला हो, पर उसका मन लक्ष्मीमें लिप्त रहता है; किंतु एक ऋषिका हृदय तो लगा रहता है अपने प्रभु।


इन भोरी अहीरिनोंके पूर्वपुण्यका हिसाब कौन लगा सकता है, जिन्होंने मुरारिको खेलाया- अन्तः सुखसे खेलाया और बाह्यसुखसे भी उन्हें पाकर अपनेको अर्पण कर दिया। भगवान्ने उन्हें अन्तःसुख दिया, जिन्होंने एकनिष्ठभावसे उन्हें जाना। श्रीकृष्णमें जिनका तन-मन लग गया, जो घर-द्वार और पति पुत्रतकको भूल गयी, जिनके लिये धन, मान और स्वजन विष से हो गये, वे एकान्तवनमें भगवान्‌के साथ जा मिलीं।


मुक्त रहना, वीर बनना और बाहरी सुख-वैभवसे अलग रहना; ईश्वरको पानेके लिये पशुवृत्तियोंकी गुलामी छोड़ देना - यह सच्चे संतका स्वभाव है। इस उत्तम स्वभावसे संसारकी मित्रताको छोड़कर ईश्वरसे स्नेह जोड़नेकी शक्ति आती है।


बहुत प्रश्न करना मूर्खताकी निशानी है। मूर्ख घंटेभरमें जितने प्रश्न कर बैठता है, बुद्धिमान् उनका पूरा उत्तर सात वर्षों में भी नहीं दे सकता।


दोस्तोंसे दोस्ती और दुश्मनोंसे दुश्मनी छोड़कर एवं संसारसे उदासीन होकर भगवान्से प्रीति करो।


जो मनुष्य सांसारिक विषयों तथा विषयी लोगोंके संसर्गसे दूर रहता है और साधुजनोंका ही संग करता है, वही सच्चा प्रभु प्रेमी है, कारण, भगवत्परायण साधुजनोंसे प्रीति करना और ईश्वरसे प्रीति करना एक ही समान है।


संसारमें रहकर सब काम करो, पर खयाल रखो कहीं ईश्वरके लक्ष्यसे मन हट न जाय।


महादेव ही हमारा एक देव हो, जाह्नवी-जल ही हमारा पेय हो, एक गुफा ही हमारा घर हो, दिशा ही हमारे वस्त्र हों, समय ही हमारा मित्र हो, किसीके सामने दीन न होना ही हमारा चित्त हो और वटवृक्ष ही हमारी अर्द्धांगिनी हो।


भगवान् सर्वत्र हैं, पर जो भक्त नहीं हैं, उन्हें नहीं दिखायी देते। जलमें, थलमें, पत्थरमें कहाँ नहीं हैं, जिधर देखो उधर ही भगवान् हैं, पर अभक्तोंको केवल शून्य दिखायी देता है।


संग किसीका करना ही न चाहिये। सभी प्रकारके संगोंका एकदम परित्याग कर देना चाहिये; किंतु यदि सब प्रकारके संगका परित्याग करनेमें समर्थ न हो सके तो सज्जन और संत-महात्माओंका ही संग करना चाहिये, क्योंकि संगसे जो काम उत्पन्न होता है, उसकी ओषधि संत ही हैं।


अपनी आँखोंको परमात्माकी ओर उठाओ और उससे अपने पापों और प्रमादोंके लिये क्षमा-प्रार्थना करो।


घर-बाहरकी सब उपाधि दूर करनेके लिये एकान्तवास ही सर्वोत्तम उपाय है।


हठका सामना हितसे करो तो सफलता प्राप्त होगी। तलवारकी तीक्ष्णधार मुलायम रेशमको नहीं काट सकती।


जिसकी साधना करनेकी तीव्र उत्कण्ठा होती है, भगवान् उसके पास सद्गुरु भेज देते हैं। गुरुके लिये साधकोंको चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती।


अपने मनमें सोचकर देखो, क्या वास्तवमें तुम्हें प्रभुको प्राप्त करनेकी अभिलाषा है? यदि यथार्थ ही उन्हें पाने की अभिलाषा है तो अवश्यमेव पूरी होगी।


मूर्ख मनुष्य भाग्यपर संतोष नहीं करता, धनके लिये मारा-मारा फिरता है। जब कुछ हाथ नहीं लगता, तब रोता और कलपता है।


ईश्वरपर अपनी मर्जी मत चलाओ। शारीरिक आवश्यकताओंके सम्बन्धमें ईश्वरकी इच्छाको पूर्ण होने दो। सांसारिक आवश्यकताओंमें ईश्वरकी मर्जीको ही अपनी मर्जी बना लो।


बिना ईश्वरका नाम लिये कोई भी बात विचारने अथवा करनेसे बड़ी विपत्तिका सामना करना पड़ता है।


चीनी और मिठास जैसे एक हैं, वैसे ही नाम और नामी भी एक ही हैं, पर वह अनुभव नामस्मरणानन्द भोगनेवालोंको ही प्राप्त होता है।


जिस किसीने साधु पुरुषोंका सहवास किया है, वही ईश्वरको पा सका है।


जो पुरुष वनमें या घरमें कहीं भी रहकर विश्वके स्वामी, विश्वके हितैषी, विश्वके धारण-पोषण करनेवाले परमात्मामें मन लगाता है, वही पुण्यात्मा है और वही कृतार्थ है।


जिसका मन भगवान्‌में लगा रहता है, भगवान् उसकी सँभाल रखते हैं।


सच्चा दार्शनिक सदा संयमसे रहता है और शारीरिक सुखोंसे दूर भागता है, वह कदापि अपनेको विषयसुखोंमें मग्न नहीं होने देता।


सच्चा साधक जबतक प्रभु प्रेमी नहीं बन जाता - वहाँतक लोगोंको मुँह नहीं दिखाता। लोग बुलवाना चाहें तो भी नहीं बोलता, विपत्तिमें खेद नहीं करता, सम्पत्तिमें फूलता नहीं, डरता नहीं और डराता भी नहीं, किसीको वचन देता नहीं और किसीसे वचन माँगता भी नहीं। गुप-चुप अपनी सीधी राह जाता है। यह साधककी बात है, सिद्धकी सिद्ध जानें।


पेटमें अन्न न हो तो श्रृंगारकी क्या शोभा। उसी प्रकार श्रीहरिके प्रेम बिना कोई ज्ञान किसी कामका नहीं।


वह कुल पवित्र है, वह देश पावन है, जहाँ हरिके दास जन्म लेते हैं।


जिसे किसी चीजकी जरूरत नहीं, वह किसीकी खुशामद क्यों करेगा? निःस्पृहके लिये तो जगत् तिनकेके समान है। इसलिये सुख चाहो तो इच्छाओंको त्यागो।


रागके समान संसारमें दुःखका अन्य कोई कारण नहीं है, राग ही सबसे बढ़कर दुःख देनेवाला है और त्यागके समान कोई सुखदाता नहीं है।


जो मनुष्य अपनी बड़ाई सुनकर उसका विरोध करता हुआ भी मन-ही-मन प्रसन्न होता है, वह मूर्ख है और प्रायः दूसरोंके द्वारा ठगा जाता है।


जैसे सूर्यमें रात और दिनका भेद नहीं है, वैसे ही विचार करनेपर अखण्डचित्स्वरूप केवल शुद्ध आत्मतत्त्वमें न बन्धन है और न तो मोक्ष। कितने आश्चर्यकी बात है कि प्रभुको जो हमारे आत्माके आत्मा हैं, हम पराया मानकर बाहर - बाहर ढूँढ़ते फिरते हैं।


भगवान् जीवको पापमें लिपटा रहने नहीं देता। वह दयाकर झट उसका उद्धार कर देता है।


कोई भजन गाता हो, व्याख्यान देता हो, नाचता कूदता हो और गाता - गवाता हो, पर यदि वह सदाचारी न हो तो उसका त्याग कर देना चाहिये।


प्रभु और जीवके बीचमें अभिमानके समान अन्तराय दूसरा नहीं है।


सबके साथ भलाई करो, यदि तुम्हारे साथ कोई बुराई करता है तो उसकी जिम्मेवारी उसपर है, तुम उसकी देखा-देखी अपने मनको कलुषित करके कर्तव्यसे न हटो।


हे प्रभो! मैं तो तुम्हींको चाहता हूँ और कुछ भी नहीं। तुम महान्-से-महान् हो; परम कृपालु हो; मुझे तुमसे शान्ति मिलेगी। मुझे अपनेसे जरा भी अलग न करना, मेरे सामने अपने सिवा और किसीको न आने देना।


अपने गरीब कुटुम्बी भाई और दूसरे दुःखी लोगोंकी यथासाध्य सहायता करना, भूले हुएको मार्ग बतलाना और भूखेको अपनी रोटीका आधा हिस्सा बाँटकर फिर खाना । सब लोग एक ही परमात्माकी संतान होनेके कारण ऐसा करना मनुष्यका धर्म है।


चिरकालतक जीते रहनेकी कामना कितनी ओछी बात है और उत्तम जीवन व्यतीत करके प्रमाद करना कितना बड़ा पाप है।


2- जिनका मन मलिनतासे मुक्त और सद्विचारोंसे युक्त है, ईश्वरकी समीपतासे जिसके मायाके बन्धन कट गये हैं और जिसकी नजरमें धूल और सोना समान है, वही सच्चा ज्ञानी है।


इन असंख्य तारों और नभमण्डलके सिरजनहारकी नजर तू जहाँ कहीं भी होगा वहीं रहेगी-ऐसा विचारकर सदा सर्वदा, सावधान और पवित्र रहना।


साधुजनोंके लिये सत्संग श्रेयस्कर है। जो सत्संगसे दूर रहता है वह रोगरहित नहीं। मान-अपमान, कृपा- अकृपा इन सबको एक समान समझे बिना मनुष्यमें सम्पूर्णता नहीं आती।


जैसे नींद छूटनेके साथ ही स्वप्नका भी नाश हो जाता है वैसे ही इस देहके नाश होनेके साथ ही सब सम्बन्धी भी छूट जाते हैं।


भगवत्कृपाकी, एकमात्र भगवत्कृपाकी ही बाट देखते हुए भगवानका भजन करो।


मनुष्यो ! अभ्यास करो, अभ्याससे सब कठिनाइयाँ हल हो जाती हैं। जैसे भी हो मनको वासनाहीन बनाओ। वासनाहीन, निर्मल चित्तवाले व्यक्तिपर उपदेश जल्दी असर करता है। और ईश्वरानुराग शीघ्र ही उत्पन्न हो जाता है।


यदि मेरे दिलमें तीरकी नोंक नहीं चुभती तो तीरका क्या दोष है? क्योंकि मेरे दिलमें जो प्रेमकी आग जलती है, वह इतनी भड़क रही है कि उसमें लोहा भी पड़े तो वह गल जाता है।


जो मनुष्य अपनी वर्तमान स्थितिपर भलीभाँति विचार नहीं करता और इस विचारसे कि अन्तमें मुक्ति हो ही जायगी, पुरुषार्थकी ओर कोई ध्यान नहीं देता; वह मृत्युके अनिवार्य चक्रसे कभी नहीं बच सकता।


मनुष्यको, जहाँतक बने, अपने दोष देखने चाहिये, उनके लिये मन-ही-मन अपनी निन्दा करनी चाहिये और अपनेको निर्दोष बनानेका सतत प्रयत्न करना चाहिये।


वास्तवमें बड़ा वह है जो उदारतामें बड़ा है।


परमात्मदेवको जान लेनेपर सारे बन्धनका नाश हो जाता है। क्लेशोंके क्षीण हो जानेसे जन्म-मृत्युका अभाव हो जाता है। परमात्माका ध्यान करनेसे तीनों देहोंका भेदन हो जाता। है और वह केवल आप्तकाम विश्वके ऐश्वर्यको प्राप्त होता है।


स्पृहा तीन प्रकारकी होती है-भोगने, बोलने और देखनेकी। भोग भोगते समय ध्यान रखना कि ईश्वर देख रहा है, बोलते समय ध्यान रखना कि सत्यका विनाश न हो और देखते समय ध्यान रखना कि साधुता दूषित न हो जाय।


जो कोई नारायणका प्रिय हो गया, उसका उत्तम या कनिष्ठ वर्ण क्या? चारों वर्णोंका यह अधिकार है, उसे नमस्कार करनेमें कोई दोष नहीं।


विलम्ब न करो, श्रीरामको तुरंत भज लो, तनरूप तरकससे श्वासरूपी तीर निकला जा रहा है। फिर पछताना पड़ेगा।


सच्चा संत ईश्वरकी गोदमें हँसने, खेलनेवाला सुन्दर बालक है । ईश्वरकी गोदमें संत बिना किसी संकोचके खेलता-कूदता और गाता-बजाता रहता है।


विषयासक्ति जितनी ही घटेगी ईश्वरके प्रति प्रेम भी उतना ही बढ़ता जायगा।


मनुष्य नितान्त निकम्मा और जर्जरशरीर होनेपर श्री तृष्णाको नहीं त्यागता, यही बड़े आश्चर्यकी बात है।


विरागकी प्राप्तिसे ही मनुष्य विरक्त होता है, विरक्त होनेपर ज्ञान होता है, तभी उसका जन्म-क्षय होता है, तभी उसे ब्रह्मचर्यका फल मिलता है, तब उसका कर्तव्य समाप्त हो जाता है, फिर उसे यहाँ आकर जन्म नहीं लेना पड़ता।