अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



जो लोग अरूपकी इच्छा करते हों उनके लिये आप अरूप बनिये। पर मैं तो सरूपका प्रेमी हूँ मैं तो आपके सगुण साकार रूपरसका प्यासा हूँ।


समदर्शी, निरपेक्ष और निरहंकार होकर सब भूतोंमें भगवान् भरे हैं ऐसा जानकर जो लोकोपकार होता है वही उत्तम हरि-भजन है।


वास्तवमें यह सब तमाशा स्वप्नके सदृश है, इसमें कुछ भी सार नहीं है। तुम इस बातको बिना किसी संकोचके ग्रहण कर लो कि संसारकी स्थिति निरन्तर परिवर्तनशील ही रहती है।


भजन, कीर्तन, सत्संग, भगवत्-लीलाओंका स्मरण यही मुख्य धर्म है।


अपने प्रबल शत्रु अभिमानका नाश करो।


तुम प्रभुको तो जानते हो न ? तो अब तुम और कुछ भी न जानो तो कोई हानि नहीं। ईश्वर तुम्हें जानता है न; तो अब कोई दूसरा तुम्हें नहीं जाने तो कोई हानि नहीं।


यह शरीर सैकड़ों प्रकारके जोड़ लगनेके कारण बहुत ही कमजोर बना हुआ है। यह एक न एक दिन अवश्य नष्ट हो जायगा, क्योंकि यह नाशवान् है। अरे! हतभागी नीच! तू शोक क्यों करता है? सब रोगोंको दूर करनेवाले कृष्णरसायनका निरन्तर पान क्यों नहीं करता? उसके पान करनेसे सम्पूर्ण रोग चले जायँगे।


श्रीचरणोंका आलिंगन होते ही अहं सोऽहंकी गाँठें खुल गयीं। सारा संसार आनन्दमय हो गया। सेव्य-सेवक भावोंका कोई चिह्न नहीं रह गया। देवी और देव एक हो गये।


जब आँखोंमें प्यारे कृष्णकी मनमोहिनी छवि समा जाती है तब उसमें और किसीकी छबिके लिये स्थान ही नहीं रहता।


जिस प्रकार वृक्ष जल सींचनेवाले और फल-फूल तोड़नेवाले दोनोंके साथ समान बर्ताव करता है, उसी प्रकार सज्जन भी अपनी भलाई करनेवाले और बुराई करनेवाले दोनोंके साथ एक-सा व्यवहार करते हैं।


पर सबसे मुख्य दुःसंग अपना ही काम हैं, अपनी ही सकामता है। इसे समूल त्याग देनेसे ही दुःसंगता त्यागी जाती है। उस काम कल्पनाको जो नर त्यागता है, उसके लिये संसार सुखरूप होता है।


अपनेको अपने कमरेमें बन्द कर लो और वहाँ अपने प्रियतम प्रभुका आवाहन करो। अपने अन्तःपुरमें उससे हिल मिलकर रहो, क्योंकि इतनी बड़ी शान्ति तुम्हें अन्यत्र नहीं मिलेगी।


द्वारपर खड़ा मैं कबसे पुकार रहा हूँ, पर 'हाँ' तक कहनेकी जरूरत आप नहीं समझते? कोई अतिथि आ जाय तो शब्दोंसे उसको संतोष दिलानेमें क्या खर्च हुआ जाता है।


दुःखमें दुःखी और सुखमें होनेवाला लोहेके समान है, दुःखमें भी सुखी रहनेवाला सोनेके सदृश है, दुःख सुखमें बराबर रहनेवाला रत्नके तुल्य है और जो सुख-दुःखकी भावनासे भी परे है वह सच्चा सम्राट् है।


हे मलिन मन ! तू पराये दिलको प्रसन्न करनेमें किसलिये लगा रहता है? यदि तू तृष्णाको छोड़कर संतोष कर ले, अपनेमें ही संतुष्ट रहे तो तू स्वयं चिंतामणिस्वरूप हो जाय। फिर तेरी कौन-सी इच्छा पूरी न हो।


पवित्र बनो। ईश्वर स्वयं पवित्र है वह पवित्रात्मापर ही अपने प्रेमकी वृष्टि करता है।


जो अपने लिये या किसी दूसरेके लिये पुत्र, धन और राज्य नहीं चाहते और न अधर्मसे ही अपनी उन्नति चाहते हैं वे ही पुरुष सदाचारी, प्रज्ञावान् और धार्मिक हैं।


विषयोंमें आनन्दका स्पर्श मानकर हम प्राणोंकी बाजी लगाकर उन्हींकी ओर दौड़ते हैं और विषय-विषास्वादनसे संतप्त होकर पुनः पुनः जन्म-मृत्युका दुःखान्त नाटक खेलते फिरते हैं।


यदि तुम अध्ययनसे लाभ उठाना चाहते हो तो नम्रता, सादगी और निष्ठाके साथ पढ़ो, अपनी विद्वत्ताके आदरकी इच्छा न रख, लगनके साथ पूछो और संतोंके वचनोंको सुनो। 'बड़ों के सद्वचनोंको उपेक्षाकी दृष्टिसे न देखो; क्योंकि बिना कारण ही उनकी कीमत नहीं होती अर्थात् समयपर उनका महत्त्व प्रकट होगा।


मैं जैसा भी हूँ तुम्हारा दास हूँ। मेरे माँ-बाप ! मुझे उदास न करो।


ईश्वर भीतरकी छोटी-से-छोटी बातको भी देख रहा है-इस बातको एक क्षण भी न भूलो।


मनुष्यो ! आँखें खोलकर देखो और कान लगाकर सुनो ! मिट्टी और पत्थर अथवा लकड़ी वगैरहकी बनी चीजोंकी कुछ उम्र भी है, पर तुम्हारी उम्र कुछ भी नहीं। अतः इस क्षण स्थायी जीवनमें पापकर्म न करो।


भक्तिसे हीन होकर जप, तप, पूजा, पाठ, यज्ञ, दान, अनुष्ठान आदि कैसे भी सत्कर्म क्यों न किये जायँ, सभी व्यर्थ हैं।


कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जो आजीवन प्रलोभनोंसे मुक्त हो; क्योंकि दुर्गुणकी ओर प्रवृत्ति होनेके कारण इसकी जड़ हमारे ही भीतर है।


जो बड़ा सात्त्विक बनता है, पर हृदयमें संतोंके दोष देखता है वह अतिदुष्ट दुःसंग है।


इस मायावी संसारसे सदा सचेत रहना, यह बड़े बड़े पण्डितोंके मनको भी वशमें कर लेता है।


सृष्टिमेंसे मनको खींचकर स्रष्टामें लगाना ही वैराग्य है । ईश्वरेतर सब चीजोंसे परे रहना ईश्वरके समीप जाना है।


प्रभुको सदा सर्वत्र उपस्थित समझकर यथाशक्ति उसका ध्यान, भजन और आज्ञापालन करते रहना। इस मायावी संसारने आजतक असंख्य जनोंका संहार किया है, उसी प्रकार तुम्हारा भी विनाश न हो जाय इसका ध्यान रखना।


जिन भगवान् विष्णुके स्मरणसे ही संसारके जन्म, जरा आदिसे उत्पन्न हुए भय भाग जाते हैं, उन भयहारी भगवान्‌के मेरे मनमें रहते मेरे लिये भय कहाँ है।


बड़प्पनको खोजनेवाला तो हलकाईको ही पाता है।


भगवन् ! तुम्हारी उदारता मैं समझ गया। मैं तो तुम्हारे चरणोंपर मस्तक रखूँ और तुम अपने गलेका हार भी मेरी अंजलिमें न डालो। हाँ, समझा! जो छाछ भी नहीं दे सकता, वह भोजन क्या करावेगा।


वीरताकी परख तीन बातोंमें होती है- (1) असत्यका आचरण न करके जीवन-निर्वाह करना, (2) जरूरी चीज न मिले तब भी प्रभुकी प्रशंसा करना और (3) बिना माँगे दान देना।


श्रीरामके चरणोंकी पहचान हुए बिना मनुष्यके मनकी दौड़ नहीं मिटती, लोग केवल भेष बनाकर दर-दर अलख जगाते। हैं, परंतु भगवान्के चरणोंमें प्रेम नहीं करते, उनका जन्म वृथा है।


साधुकी जाति न पूछो, उससे तो ज्ञानका उपदेश लो; तलवारका मोल करो; म्यानसे क्या काम है।


जगत्में जितने प्रकारके भाव या धाराएँ हैं, उन सबका जो सूक्ष्म सार निष्कर्ष है, उसीका नाम ईश्वर है।


जब शान्त और सत्त्वगुणी होकर चित्त आत्मायें लग जाता है, तब धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यकी प्राप्ति आप ही हो जाती है और जब वही शरीर तथा घर आदि मिथ्या छा पदार्थोंमें लगकर प्रबल रजोगुणी और विषयोंका अनुरागी बन जाता है, तब अधर्म, अज्ञान, विषयलोलुपता और अनीश्वरता जाती है।


घमण्ड या अंहकार मूर्खताकी निशानी है। जिस जगह शरीरमें खूनकी कमी होती है वहाँ वायु भर जानेसे शरीर फूल जाता है, ऐसे ही जहाँ बुद्धिका घाटा है, वहाँ अहंकार भर जानेसे मन फूल उठता है।


सम्पूर्ण भूत परमात्मासे ही उत्पन्न होते हैं, अतएव ये सब ब्रह्म ही हैं। ऐसा निश्चय करना चाहिये।


परधन और परदाराकी इच्छा पामरोंके ही चित्तमें उठा करती है।


जहाँ भी बैठें, खेलें, भोजन करें, वहाँ तुम्हारे नाम गायेंगे। राम-कृष्णके नामकी माला गूँथकर गलेमें डालेंगे।


मूर्खोका संग न करना, विद्वानोंका संग करना और पूजनीय पुरुषोंका सत्कार करना उत्तम और शुभकारक कर्म है।


दूसरोंको सुख पहुँचाना और उनका हित करना भगवान्ने तुम्हारे जिम्मे दिया है। दण्ड देना तो उनका अपना काम है। किसीको दण्ड देनेकी चाह करके भगवान्‌के आसनको छीननेकी चेष्टा मत करो।


यदि तुम धार्मिक जीवन व्यतीत करना चाहते हो तो प्रभुके नामपर इस संसारमें मूर्ख समझा जाकर तुम्हें संतुष्ट रहना चाहिये।


एक ईश्वरप्रेमीके लिये सभी स्थल मन्दिर हैं, सभी दिन पूजाके दिन हैं और सभी महीने व्रतके हैं। वह जहाँ रहता हैं, ईश्वरके साथ रहता है।


ओ मेरे सिरजनहार! तुम्हींमें अनुरक्त हूँ और तुम्हींमें उन्मत्त हूँ। रंग भी तुम्हारा ही लगा हुआ है, तुम्हारे ही साथ खेलता हूँ, तुम्हींसे मिलता हूँ। मेरे मालिक ! मैं तो एक तुम्हींपर आशिक हूँ। इश्क लगाने और कहाँ जाऊँ।


तुम्हारे श्रीमुखके दो शब्द सुन पाऊँ, तुम्हारा श्रीमुख देख लूँ, बस, यही एक आस लगी है।


जिसके आचरणमें वैराग्य उतर आया हो वही सच्चा विरागी है। वाणीका वैराग्य सच्चा वैराग्य नहीं है।


लौ तभी लगी समझो, जब कि वह कभी न छूटे, जिंदगीभर लौ लगी रहे और मरनेपर प्यारेमें ही समा जाय। प्रीति इसीका नाम है।


त्यागी होकर भी जो परमुखापेक्षी बना रहता है, वह तो कुक्कुरके समान है।


जिस हृदयमें ईश्वरका प्रेम प्रवेश कर गया उस हृदयसे काम, क्रोध, अहंकार आदि सब भाग जाते हैं। वे फिर नहीं ठहर सकते।


दुराचारी संक्रामक रोगकी अपेक्षा भी अधिक भयंकर है। दुराचारके समान कोई दूसरा संक्रामक रोग नहीं है।


सम्पत्तिकी ओर न ताककर सारी सम्पत्तिके स्वामी परमात्माकी ओर दृष्टि रखनेका नाम ही कृतज्ञता है।


चित्तको पवित्र करने जैसा कल्याणकारक साधन और कोई है नहीं; क्योंकि चित्त ही चिन्तामणिकी भाँति सब पदार्थोंको उत्पन्न करनेवाली भूमि है।


परमात्माका प्रेम और उसका आशीर्वाद नहीं प्राप्त हुआ और सारे शास्त्र तथा समस्त दार्शनिकोंके वचनोंको पूर्णतः कण्ठस्थ भी कर लिया तो उनसे क्या लाभ।


खटमलभरी खाटपर मीठी नींदका लगना जैसे असम्भव है, वैसे ही अनित्य संसारके भरोसे सुख मिलना भी असम्भव है।


सगुणका स्वरूप देखते ही भूख-प्यास भूल जाती है और मन प्रेममय हो जाता है।


साधुओंका बाना तो बहुत पहन लेते हैं; परंतु ईश्वर तो चाहता है मनकी शुद्धि और व्यवहारकी सात्त्विकताका बाना।


उन वस्तुओंके लिये सिरतोड़ परिश्रम करना जिन्हें भोगकर महान् दुःखदायी दण्ड भोगना पड़ेगा - सरासर धोखा है।


भागते हुए मेघोंके साथ आकाश नहीं दौड़ता, वैसे ही संत पुरुषका मन चलते हुए शरीरके साथ नहीं चला करता, ध्रुव-जैसा स्थिर रहता है।


लोह और काठकी बेड़ियोंसे चाहे कभी छुटकारा हो जाय, पर स्त्री-पुत्रादिकी मोहरूपी बेड़ियोंसे पुरुषका पीछा नहीं छूट सकता। जिनके मुँह देखनेसे पाप लगता है, स्त्रीके लिये उन्हींकी खुशामदें करनी पड़ती हैं।