अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



प्रिय क्या है? करना और न कहना । अप्रिय क्या है ? कहना और न करना।


श्रीकृष्ण दयामय हैं। वे दीनोंपर अत्यन्त ही शीघ्र कृपा करते हैं। तुम उनका ही भजन करो, उन्हींकी शरणमें जाओ, तुम्हारा कल्याण होगा।


आपके बिना इस मनका दूसरा कौन चालक है, है नारायण ! यह तो बताइये।


संसारमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं, जिसमें ईश्वर न दीखता हो।


कोरे तर्कसे आजतक क्या सधा है।


पतंग एक बार रोशनी देखनेपर फिर अन्धकारमें नहीं जाता, चींटियाँ गुड़में प्राण दे देती हैं पर वहाँसे लौटती नहीं। इसी प्रकार भक्त जब एक बार प्रभुदर्शनका रसास्वादन कर लेते हैं, तो उसके लिये प्राण दे देते हैं, पर लौटते नहीं।


दूसरोंके दोष-दर्शन, परनिन्दा और वृद्धों तथा सत्पुरुषका अपमान करनेमें मनुष्यका अभिमान ही प्रधान कारण है।


भगवान्‌के गुणानुवाद तीन प्रकारसे गाये जाते हैं— (1) केवल जीभसे अन्तःकरणको साथ जोड़े बिना ही, (2) जीभसे अन्तःकरणको साथ जोड़कर, ऐसे ही गुणगानसे शीघ्र प्रभुकृपा मिलती है, (3) केवल अन्तःकरणसे मतलब यह है कि प्रभुके गुणगानमें मन, बुद्धिका गर्क हो जाना ही सर्वोत्तम गुणगान है। ऐसे गुणगानकी महिमा प्रभु ही जानते हैं।


प्रभु- प्रेमी ही प्रभुको पाता है और जो प्रभुको पा लेता है, वह अपने-आपको भूल जाता है। उसका अहंभाव नष्ट हो जाता है।


दो बातोंपर पूरा विश्वास करना (1) तुम्हारे लिये जो कुछ रचा हुआ है, तुम दूर भागोगे तो भी वह तुम्हें मिलेगा ही और (2) जो दूसरेके लिये रचा गया है, वह करोड़ यतन करनेपर भी तुम्हें नहीं मिलेगा।


अहंकार करना व्यर्थ है। जीवन, यौवन कुछ भी यहाँ नहीं रहेगा। सब दो घड़ीका सपना है।


भगवान्‌की कथामें श्रद्धा करे, भगवान्‌की प्रतिमाकी पूजा करे, भगवान्का स्मरण करे, भगवान्‌के ही चरणकमलों में सिर झुकावे, भगवान्को ही संसारमें सबसे बड़ा साथी माने, भगवान्का ही सेवक बने और भगवान्के ही चरणकमलों में सम्पूर्णरूपसे आत्मसमर्पण कर दे। जो पुरुष इस प्रकार भगवान्‌की भक्ति करते हैं, वे इस असार संसारके बन्धनसे मुक्त होकर परमपद पाते हैं।


सब दानोंमें श्रेष्ठ अन्नदान है और उससे भी श्रेष्ठ ज्ञानदान है।


यदि ईश्वरप्रीत्यर्थ ही सब कुछ किया जाय या अपनेको निमित्तमात्र मानकर अपने ऊपर कर्तृत्वका अभिमान लादा जाय तो कोई भी कर्म मनुष्यको बाँध नहीं सकता।


प्रेमके बिना श्रुति, स्मृति, ज्ञान, ध्यान, पूजन, श्रवण, कीर्तन सब व्यर्थ है।


धान जबतक सीजता नहीं तभीतक उग सकता है. लेकिन एक बार भी सीज जानेपर वह नहीं उगता, ऐसे ही जीव एक बार ज्ञानाग्निमें पक गया तो फिर उसे जन्म लेना नहीं पड़ता। जबतक अज्ञान है तभीतक आना-जाना है।


गहरे उतरकर तुम उसकी खोज नहीं करते, इसीलिये तो उसे नहीं पा सकते।


अनेक जन्मोंकी बिगड़ी हुई आज अभी सुधर जाय, यदि तू बुरी संगति छोड़कर श्रीरामका होकर श्रीराम-नामका जप करने लगे।


जो परस्त्रियोंको माताके समान, पराये धनको मिट्टीके ढेलेके समान और सब प्राणियोंको अपने समान समझता है, वही देखता है और तो सब अन्धे हैं।


भगवान्‌की मूर्तिका दर्शन, स्पर्श, भजन-पूजन, कथन कीर्तन, मनन-चिन्तन करते रहनेसे जिन उपास्यदेवकी वह मूर्ति है, वह उपास्यदेव ध्यानमें बैठकर चित्तमें खेलने लगते हैं, स्वप्न देकर आदेश सुनाते हैं। ऐसी प्रतीति होती है कि वह पीठपर हैं और उनका प्रेम बढ़ता जाता है, तब उनसे मिलनेके लिये जी छटपटाने लगता है, तब प्रत्यक्ष दर्शन भी होते हैं और यह अनुभूति होती है कि वह निरन्तर हमारे समीप हैं और अन्तमें यह अवस्था आती है कि अन्दर-बाहर वही हैं और वही सब भूतोंके हृदयमें हैं। उन्हें छोड़ ब्रह्माण्डमें और कोई नहीं, मेरे अन्दर वही हैं और मैं भी वही हूँ।


जो अपना जीवन सुखसे बिताना चाहें, वे विषयोंका संग न करें और जो परमपदके अभिलाषी हों, वे तो उनका नाम भी न लें।


भक्तिकी जाति ऐसी है कि सर्वस्वसे हाथ धोना पड़ता है।


इस संसारमें एक ईश्वरका भय दूसरे सब भयोंसे मुक्त करता है।


भाग्यश्रीका जब उदय होना होता है, तभी संत मिलते हैं।


नाम लेनेसे कण्ठ आर्द्र और शरीर शीतल होता है। इन्द्रियाँ अपना व्यापार भूल जाती हैं। यह मधुर सुन्दर नाम अमृतको भी मात करता है। इसने मेरे चित्तपर अधिकार कर लिया है। प्रेमरससे शरीरकी कान्तिको प्रसन्नता और पुष्टि मिली। यह नाम ऐसा है कि इससे क्षणमात्रमें विविध ताप नष्ट होते हैं।


जबतक मैं-मेरा तबतक तुम उलटी ही राहपर हो। जहाँ निःस्वार्थ और सच्ची श्रद्धा है, वहीं धर्मका बल है।


शान्तस्वभाव रहो, किसीके द्वारा अपनेपर कैसा भी लांछन लगाये जानेपर भी अपने मनको मत बिगाड़ो।


खाली पेट भरनेके लिये कौएकी तरह पराया मुँह ताकना अच्छा नहीं। मुँह ही ताकना है तो उस परमात्माका ताको, जो अभावशून्य है और सबका दाता है।


जो मनुष्य विपत्तिमें भी ईश्वरकृपाका अनुभव करता है, वह कभी मृत्युके अधीन नहीं होता।


मुँहसे झूठ तो कभी बोलो ही मत, पर सत्य भी अनावश्यक न बोलो। बहुत बोलनेसे वाणीकी शक्ति नष्ट होती है।


दृढ़निश्चयी, कोमलस्वभाव, इन्द्रियविजयी, क्रूर कर्म करनेवालोंका संग न करनेवाला अहिंसक पुरुष इन्द्रियदमन और दानके द्वारा स्वर्गको जीत लेता है।


यह शरीर रहे या जाय, जिसकी वृत्ति आनन्दस्वरूप ब्रह्ममें लीन हो गयी है, वह तत्त्ववेत्ता पुरुष फिर इसकी ओर ध्यान नहीं देता।


जो मनुष्य सत्यके लिये धीरजको बचा सकता है, वही आगे बढ़ता है।


अगर आपको साँप डँसे, बिच्छू काटे और हाथी मारे तो कुछ हर्ज मत समझो। आगमें जलने, जलमें डूबने और पहाड़से गिरनेमें भी कोई हानि न समझो, सब भले हैं- इनसे हानि नहीं, हानि और खतरा है दुष्टकी संगतिसे, इसलिये दुर्जनकी सोहबत मत करो।


शरीरका त्याग करनेसे भगवान्‌की प्राप्ति नहीं होती, उनकी प्राप्तिका एकमात्र सहज उपाय है निष्काम भजन अहैतुकी भक्ति।


बुद्धिमान् मित्र, विद्वान् पुत्र, पतिव्रता स्त्री, दयालु मालिक, सोच-विचारकर बोलनेवाला और विचारकर काम करनेवाला - इन छ: से हानि नहीं हो सकती।


अन्यायसे प्राप्त की हुई वस्तुका उपभोग करनेवालेके तमाम अंगोंमें पाप लिपट जाता है। अपनी इच्छा न होनेपर भी ऐसा आदमी पापमें ही डूबता जाता है। जो मनुष्य न्यायपूर्वक मिली हुई पवित्र वस्तुका उपभोग करता है, उसके तमाम अंग साधनके अनुकूल ही बर्तते हैं।


मनकी तरंगोंको रोकनेमें बड़ा सुख है, इनके बिना रोके मनुष्य ऐसे बह जाता है, जैसे हवाके झोंकेमें बिना पतवारकी नाव।


एक महात्माकी कृपासे कितने ही जीवोंका उद्धार हो जाता है।


संतोंके द्वारपर श्वान होकर पड़े रहना भी बड़ा भाग्य है, क्योंकि वहाँ प्रसाद मिलता है और भगवान्‌का गुणगान सुननेमें आता है।


फलके परिपक्व होते ही तोता बिना बुलाये ही आकर उसपर चोंच मारता है। उसी प्रकार विरक्त जीवको देखते ही दयाकुल गुरु दौड़े आते हैं और आत्मरहस्य बतलाकर उसे कृतार्थ करते हैं।


धन्य है नरदेहका मिलना, धन्य है साधुओंका सत्संग, धन्य हैं वे भक्त जो भगवद्भक्तिमें रँग गये।


सभीके सामने अपना हृदय मत खोलो। जो बुद्धिमान् हैं और परमात्मासे डरनेवाले है, उनसे अपने व्यवहारके सम्बन्धमें बातें करो।


अन्तःकरणमें एक भण्डार है, उस भण्डारमें एक रत्न है, वह रत्न है प्रभु-प्रेम। इस रत्नको पानेवाला ही ऋषि है।


चार मनुष्य प्रभुको विशेष प्रिय होते हैं- (1) अहंकाररहित विद्वान्, (2) तत्त्व जाननेवाले संत, (3) विनयी धनवान् और (4) प्रभुकी महिमा जाननेवाला त्यागी।


जो असंतोषी हैं, वही दरिद्र है; जो इन्द्रियोंके वशमें है, वही कृपण है; जिसकी बुद्धि विषयोंमें फँसी हुई नहीं है, वही स्वतन्त्र है।


किसीके आत्मज्ञानका माप वह ईश्वरके समीप कितना पहुँच गया है, इसीसे हो सकता है।


जो मनुष्य संसारकी तरफ वासनाकी नजरसे देखा करता है, उसके अन्तःकरणमेंसे ईश्वर-प्रेम, दीनता और वैराग्यकी ज्योति निकल जाती है।


सहनशीलता और सत्यपरायणताके संयोगके बिना प्रभु प्रेम पूर्णताको प्राप्त नहीं होता।


जो निराधार और नीच-से-नीच मनुष्यकी सेवा करता है वह प्रभुकी सेवा करता है।


जब एक प्रलोभन या विपदा चली जाती है; उसके स्थानमें दूसरी चली आती है; अतएव हमें किसी-न-किसी उलझनमें फँसे ही रहना पड़ता है, क्योंकि हम अपने आनन्दकी स्थितिसे गिर गये हैं।


किसीके मनमें सच्चा प्रेम पैदा हो और वह साधन भजन करनेके लिये अत्यन्त उत्सुक हो जाय तो उसे मार्ग बतलानेवाले सद्गुरु आप ही मिल जाते हैं, उसे गुरुकी खोज नहीं करनी पड़ती।


अमावस्याके घोर अन्धकारमें काले पत्थरपर बैठी चींटीकी भाँति ईश्वर मानवहृदयमें गूढरूपसे विद्यमान है।


संसारमें वैराग्यरूपी सौभाग्यका पात्र, प्रसन्नचित्त, विषयोंकी आशासे रहित और यथाप्राप्त प्रारब्धफल भोगनेवाला पुरुष इसी जन्ममें कृतार्थ हो जाता है।


जीवन कमलपर जलकी बूंदके समान अत्यन्त चंचल है, जल्दी चेतो और भवसागरसे पार होनेके लिये क्षणभरके लिये साधु-संग करो, यही भवसमुद्रकी नाव है।


विश्वासके चार लक्षण हैं-सब चीजोंमें ईश्वरको देखना, सारे काम ईश्वरकी ओर नजर रखकर ही करना, हर एक दुःख-सुखमें उसका हाथ देखना और हर हालतमें हाथ पसारना तो उस सर्वशक्तिमान्के आगे ही।


पहले मनमें केवल दुर्गुणके विचार आते हैं, तब उसकी दृढ़ कल्पना हो जाती है; तत्पश्चात् उसमें सुखानुभूति होने लगती है।


सुन्दर, सुललित स्वरयुक्त धाराप्रवाह वाणी और बढ़िया व्याख्यान देनेकी युक्ति- ये सब मनुष्यको संसारी भोगोंकी ही प्राप्ति करा सकते हैं। इनके द्वारा मुक्ति अर्थात् प्रभु पादपद्मोंकी प्राप्ति नहीं हो सकती।


जो मनुष्य आत्मनिरीक्षण न करके अपनेको सदा निर्दोष मानता है, अपने दोषोंकी ओर देखता ही नहीं, वह अहंकारी ही बना रह जाता है।


किसी जंगली हिरनको फँसानेके लिये पालतू हिरनकी आवश्यकता होती है, इसी प्रकार भगवान् नारायण भी भक्तोंके द्वारा ही संसारासक्त जीवोंका उद्धार करते हैं।