अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



मिट्टी कुम्हारसे कहने लगी कि तू मुझे क्यों रौंदता है, एक दिन ऐसा होगा जब मैं तुझे रौंदूंगी यानी मरनेपर शरीरको मिट्टी में मिला दूँगी।


भगवत्सेवामें जो अनुकूल पड़े, उसीका चिन्तन करना और जो भगवत्तत्त्वोंमें विघातक हों, उनका सर्वथा त्याग करना।


इस दुनियामें इन्द्रियोंको बाँधनेके लिये जैसी मजबूत साँकल चाहिये वैसी मजबूत साँकल पशुओंको बाँधनेके लिये भी नहीं चाहिये।


प्रेमभक्तिमें गद्गद होकर एकान्तहृदयसे जिस तरह परमात्माकी प्रार्थना करते हो, प्रार्थनाके बाद उसी तरह कठिन से-कठिन कर्तव्यके पालनमें लग जाओ और उसे पूरा करो, नहीं तो तुम्हारी पूजा व्यर्थ है।


ईश्वर-प्रेमका परिचय वाणीसे नहीं मिलता, कार्य चाहिये। केवल स्तुति-प्रार्थनासे नहीं, परंतु अनेक दुःख सहकर / सब प्रकारके स्वार्थको तिलांजलि देकर ही इस प्रेमका परिचय देना पड़ता है।


अंदर हरि, बाहर हरि, हरिने ही अपने अंदर बंद कर रखा है।


यदि किसीके पास धन आये तो उसे तुरंत भगवत्प्रीत्यर्थ लोकसेवाके काममें लगाना आरम्भ कर देना चाहिये। धनकी सार्थकता और सफलता इसीमें है। भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये व्यय किया हुआ धन भगवान्‌की प्रसन्नताका तथा भगवत्प्राप्तिका कारण होता है।


सदा सत्पुरुषोंकी संगतिमें रहना।


सज्जनोंको दूसरोंके दोषोंके भीतर भी धर्मका आभास दृष्टिगोचर होता है।


सांसारिक क्रियाओंका सम्पादन करते समय दो बातें सदा स्मरण रखो - प्रथम ईश्वर और द्वितीय मृत्यु।


इन्द्रियोंका नियमन नहीं, मुखमें नाम नहीं, ऐसा जीवन तो भोजनके साथ मक्खी निगल जाना है। ऐसा भोजन क्या कभी सुख दे सकता है।


प्रेम तो निष्काम-निर्विषय ही होता है और उसका एकमात्र भाजन परमात्मा है। ऐसा प्रेम भक्तोंके ही भाग्यमें होता है।


मेरा राम मेरे रोम-रोममें रम रहा है। मत समझ कि मेरा स्वामी मुझसे दूर है।


जिस घरमें नित्य हरि-कीर्तन होता है, वहाँ कलियुग प्रवेश नहीं कर सकता।


इस संसारमें कितने ही मनुष्य असत्य-अध्ययनके कारण सत्यानाशमें मिल जाते हैं। वे परमात्माकी तनिक भी परवा नहीं करते और इसलिये कि वे नम्र होनेकी अपेक्षा बड़े होनेकी कोशिश करते हैं। वे कल्पनामें अविवेककी ओर ढल जाते हैं।


नाम- जैसा और कोई साधन नहीं है। नामसे भव बन्धन कट जाते हैं।


यदि तुम्हारे पास धन हो तो भी उसपर गर्व न करो; बलशाली मित्रोंपर गर्व न करो, परंतु गर्व करो उस परमात्मापर जो तुम्हें सब कुछ देता है और जो तुम्हें स्वयं अपना बना लेना चाहता है।


सात्त्विक साधकमें बाहरी दिखावेका भाव तनिक भी नहीं रहता।


रास्ता खुला है, सत्य चमक रहा है, जो तुम्हें बुला रहा है, वही तुम्हारी प्रार्थना भी सुन रहा है, फिर शंकाका और वक्त गँवानेका क्या काम ? यह या तो तुम्हारा मोह है अथवा आलसी स्वभाव है।


सांसारिक भोगोंसे प्राप्त होनेपर जो उन्हें लेता ही नहीं, वह पूरा मनुष्य है। जो लेता है; परंतु लेकर सच्चे पात्रोंको दे देता है वह भी सच्चा है, पर वह आधा मनुष्य है; परंतु जो मनुष्य दान लेता है, पर किसीको देता नहीं, वह तो मक्खीचूस ही नहीं, मधुमक्षिका-जैसा भी नहीं है; क्योंकि ऐसा करनेमें वह अपना कुछ भी हित या कल्याण नहीं करता।


भगवान्‌का चिन्तन करना, उनका नाम लेना, उनके रूपमें तन्मय हो जाना ही मेरा तप है, यही मेरा योग, यही मेरा यज्ञ, यही मेरा ज्ञान, यही मेरा जप-ध्यान, यही मेरा कुलाचार और यही मेरा सर्वस्व हैं।


जिस आदमीकी ईश्वरके नाममें रुचि है, भगवान्‌में जिसकी लगन लग गयी है, उसका संसार-विकार अवश्य दूर होगा। उसपर भगवान्‌की कृपा अवश्य अवश्य होगी।


इन कानोंसे तेरा नाम और गुण सुनूँगा। इन पैरोंसे तीर्थोंके ही रास्ते चलूँगा। यह नश्वर देह किस काम आवेगी।


भगवन् ! मेरे प्रेमका तार मत तोड़ो। आपकी कृपा होनेपर मैं ऐसा दीन-हीन न रहूँगा। पेट भरनेपर क्या संसार कहना पड़ता है कि मेरा पेट भरा ? तृप्ति चेहरेसे ही मालूम हो जाती है, चेहरेकी प्रसन्नता ही उसकी पहचान है।


श्रीगंगाजी पापोंको क्षय कर देती हैं। चन्द्रमा तापको शमन करनेमें समर्थ है और कल्पवृक्ष दैन्यको नष्ट कर देता है, किंतु संत महापुरुष तो पाप, ताप और दैन्य इन सभीको नष्ट करनेमें समर्थ होते हैं।


एक ओरसे वैराग्यकी धूनी रमाकर चित्तसे विषयोंका त्याग करना और दूसरी ओरसे हरि-चिन्तनका आनन्द लेना, इस प्रकार वैराग्य और अभ्यास दोनों अस्त्र-शस्त्रोंकी मारसे मनोदुर्गदलन करना होता है।


यह सब नाशवान् है, गोपालको स्मरण कर, वही हित है।


- भोग्य वस्तुओंमें वासनाका उदय न होना ही वैराग्यकी अवधि है, चित्तमें अहंकारका सर्वथा उदय न होना ही बोधकी अवधि है और लीन हुई वृत्तियोंका पुनः उत्पन्न न होना ही उपरामताकी अवधि है।


प्रेम अन्धा है- यह कौन कहता है? असलमें प्रेमके अतिरिक्त अन्य सभी अन्धे हैं। प्रेम ही एक ऐसा अमोघ बाण है जिसका लक्ष्य कभी व्यर्थ नहीं जाता ! उसका निशाना सदा ही ठीक लक्ष्यपर बैठता है। ‘अपना' कहीं भी छिपा हो, प्रेम उसे वहीं खोज निकालेगा।


ध्यान करनेवाला न शरीरको हिलावे, न किसी तरफ देखे।


संसारके समस्त राग-द्वेषको मिटाकर मनुष्य प्रभु प्रेम और हृदयकी सच्ची प्रार्थनाकी साधना करे।


तुम्हारे लिये जीव तड़फ रहा है। हृदय अकुला रहा है। चित्त तुम्हारे चरणोंमें लगा है। तुम्हारे बिना अब रहा नहीं जाता।


बाल-बच्चोंके लिये जमीन-जायदाद रख जानेवाले माँ-बाप क्या कम हैं? दुर्लभ हैं वे ही जो अपनी संततिके लिये भगवद्भक्तिकी सम्पत्ति छोड़ जाते हैं।


ईश्वर अपने भक्तसे बार-बार कहता है कि तू दुनियासे विमुख हो जा और मेरी ओर आ । और कुछ चाहे जितना करता रह, पर याद रख, बिना मेरी ओर आये तुझे सच्ची शान्ति और सुख मिलनेका ही नहीं। इसलिये पूछता हूँ-कबतक तू मुझसे भागता फिरेगा, कबतक मुझसे विमुख रहेगा।


जो मोल लेकर गंदी मदिरा पान करता है, वहीं उसके नशेमें चूर होकर नाचता-गाता है, तब जिसने भगवत्प्रेमकी दिव्य मदिराका सेवन किया हो, वह कैसे चुपचाप बैठ सकता है।


मनुष्य-देह बार-बार नहीं मिलेगी, इसलिये इसको पाकर भगवान्‌का भजन, सेवन और सुकृतका सौदा कर लो।


जलमें डूबा बच जाता है पर विषयोंमें डूबा नहीं बचता।


केवल एकान्त ही आधी समाधि है।


जिसने अपना अभिमानका बोझ हलका कर लिया है, वही पार उतर सकता है। जिसने बोझ बढ़ा लिया है, वह तो डूबेगा ही।


हर्षके साथ शोक और भय इस प्रकार लगे हैं जिस प्रकार प्रकाशके संग छाया। सच्चा सुखी वही है, जिसकी दृष्टिमें हर्ष - शोक दोनों समान हैं।


विवेकरहित वैराग्य हठवादिताका पागलपन है और केवल शाब्दिक ज्ञानसे तो मनुष्य स्वयं ही घबड़ा उठता है। इसलिये जिसमें विवेक और वैराग्य दोनों हैं, वही पुरुष भाग्यवान् साधु है।


मनुष्योंके द्वारा जितना व्यवहार होता है, सब ब्रह्मकी सत्तासे होता है; किंतु अज्ञानवश वे उस बातको नहीं जानते। वास्तवमें घड़ा आदि सब मिट्टी ही तो हैं। पर हम घड़ेको मिट्टी से भिन्न समझते हैं। यही तो अज्ञान है।


संतोंके वचनोंको सत्य मानकर नारायणकी शरणमें जाओ।


धन्य हैं श्रीगुरुदेव, जिन्होंने अखण्ड नाम-स्मरण करा दिया।


आलसी मत बनो। पढ़ते-लिखते रहो या प्रार्थना करते रहो; ध्यान करते रहो अथवा जनसाधारणके कल्याणके लिये कुछ करते रहा करो।


सबसे बड़ी और वास्तवमें एकमात्र बाधा यह है कि हमने विषय और वासनाओंको पूर्णतः जीत नहीं लिया है और न हम उस पूर्णताके पथमें प्रवेश करना चाहते हैं, जिसपर संत हमारे पूर्व चले हैं और जब एक छोटी भी विपत्ति आती है, हम बहुत शीघ्र निराश हो जाते हैं और मनुष्यकी सहानुभूतिमूलक सहायताकी अपेक्षा करने लगते है।


जैसे मुसाफिर राह चलते, रास्तेमें किसी एक जगहपर मिल जाते हैं, फिर थोड़ी देर विश्राम करनेके बाद अपनी-अपनी राह चले जाते हैं, वही हाल हमारे सांसारिक सम्बन्धोंका है। पहले प्रारब्धवश दो आदमी मिलते हैं, फिर प्रारब्धवश ही दोनों बिछुड़ जाते हैं। जो मनुष्य सांसारिक सम्बन्धोंके इस मिथ्या रूपको अच्छी तरह समझ लेता है, उसे कोई दुःख नहीं सता सकता।


ईश्वर हैं - इस बातका जिसे ठीक बोध हो गया वह फिर सांसारिक मायामें नहीं पड़ता।


भक्तिका रहस्य जानना हो तो आओ, श्रीवृन्दावन लीलाका आश्रय करो।


घरमें रोशनी करते ही जैसे युगान्तरका अँधेरा एक ही साथ नाश हो जाता है, वैसे ही भगवान्‌की तनिक सी कृपा दृष्टिसे हजारों जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं।


त्यागीको अपनी वृत्ति सदा स्वतन्त्र रखनी चाहिये। भिक्षा माँगकर खाना ही उसके लिये परम भूषण है।


जगदीशसे मिलनेके लिये स्थिरचित्त दरकार है।


जो तुम्हारे साथ बुराई करे उसको तो बालूपर लिखो और जो भलाई करें उसको पत्थरपर।


आत्मज्ञानका सम्पादन करना और आत्मकेन्द्रमें स्थिर रहना मनुष्यमात्रका प्रधान कर्तव्य है।


मुमुक्षुको गुरु ढूँढ़ना नहीं पड़ता, गुरु ही ऐसे शिष्योंको जो कृतार्थ होनेयोग्य हुए हो, ढूँढ़ा करते हैं।


सत्य - प्रेमसे जिसका अन्तःकरण भरा हुआ हो, ऐसा मनुष्य किसी कलामें निपुण न होनेपर भी बहुत बड़ी देश सेवा कर सकता है।


ईश्वरमें भक्ति और अटूट निष्ठा करके संसारका सब काम करनेमें जीव संसार- बन्धनमें नहीं पड़ता।


अनेक योनियोंमें भटकनेके बाद यह नर-नारायणकी जोडी मिली है। नर-तनु-जैसा ठाँव मिला है, नारायणम अपने चित्तका भाव लगा।


हे गोपिकारमण! अब मुझे अपना रूप दिखाओ, जिसमें मैं अपना मस्तक आपके चरणोंपर रखूँ । तुम्हारा श्रीमुख देखूँगा। तुम्हें आलिंगन करूँगा, तुम्हारे ऊपरसे राई-नोन उतारूंगा। तुम पूछोगे तब अपनी सब बात कहूँगा। एकान्तमें बैठकर तुमसे सुखकी बातें करूँगा।


संत वही है जिसे कोई भी विषय मलिन नहीं कर पाता, बल्कि मलिनता भी जिसे छूकर पवित्र हो जाती है।