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श्री मत्स्य अवतार कथा (मछली अवतार की कहानी)

Matsya Avatar Katha (Fish Avatar Story)

भाग 5 - Part 5

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श्री मत्स्य अवतार कथा

सप्तर्षि और राजर्षि मनु बड़ी एकाग्रता और प्रेमसे भगवान्‌की मधुर वाणी सुन रहे थे। प्रलयके कारण मनकी चञ्चलताके लिये और कोई स्थान तो था ही नहीं,उनकी वृत्तियोंके एकमात्र आश्रय थे भगवान् या । भगवानकी वाणी वास्तवमें जब कोई आधार नहीं | रहता, किसीका भरोसा नहीं रहता, तब भगवान्‌का विश्वास और भगवान्‌का चिन्तन सचाईके साथ होता है।। जब भगवान् चुप हो गये, तब सप्तर्षियोंने बारी बारीसे भगवान्‌की प्रार्थना की। मरीचिने कहा- 'भगवन्! | जिसने तुम्हारे चरणकमलोंके मकरन्द-रसका आस्वादन नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ ही बीत गया। उसके सारे मनोरथ निष्फल हुए और जीवनका पवित्र लक्ष्य हमे प्राप्त नहीं हुआ। मुझपर आपने बड़ी कृपा की, मेरा ऋषि जीवन सफल हुआ। मैं आपके चरणोंमें कोटि कोटि प्रणाम करता हूँ।'

अत्रिने रुंधे कण्ठसे, गद्गद वाणीसे, सिर झुकाकर, अति बाँधकर प्रार्थना की- 'प्रभो बिना तुम्हारी कुपके तुम्हारी प्राप्ति नहीं हो सकती। जीवमें इतनी शनि कहाँ है कि अपने बल-पौरुषसे तुम्हें प्राप्त कर सके। उसमें इतना ज्ञान कहाँ है कि वह तुम्हारे बारे में कुछ सोच-समझ सके। परंतु तुम इतने दयालु हो कि अपने आपको जरा भी नहीं छिपाते, जीवकी जरा-सी पुकार सुनकर उसके पास दौड़ आते हो और उसे अपने गले लगाकर कृतकृत्य करते हो मुझपर तुमने अपार कृपा की है। मैं तुम्हारा तो हूँ ही। पुनः पुनः तुम्हारे करोंमें अपने-आपको समर्पित करता हूँ।'

अङ्गिराने कहा- 'प्रभो यह सारी सृष्टि आपकी है। मैं आपका हूँ। सारी सृष्टिके स्वामी आप जिसके अपने हो गये हैं, उसे कमी किस बातकी है? मैं तो इसी भावसे फूला नहीं समाता कि मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान् मेरे हैं। बस और मुझे क्या चाहिये? आपकी पावन स्मृति निरन्तर बनी रहे।'

पुलस्त्यने कहा- 'भगवन्। आप ही शिव हैं, आप ही ब्रह्मा है, आप ही विष्णु हैं। चाहे जो नाम रखा जाय, चाहे जो भी रूप हो, सब आप ही हैं। आपका यह भाव मेरे मानसपटलपर अत रहे और मैं आपके | और नामोंका गायन करके मस्त रहूँ आपको कृपाका अनुभव करता रहूँ। मैं आपके चरणोंमें बार बार साष्टाङ्ग दण्डवत् करता हूँ।"

पुलहने कहा- 'भगवन् जिसे लोग प्रकृति और पुरुषसे परे परब्रह्मका आश्रय पुरुषोत्तम कहते हैं, वह । आप ही हैं। आप हमारे आत्माके भी आत्मा हैं मैं ।निरन्तर आपके भजनमें लगा रहूँ, यही एकमात्र अभिलाषा है। मैं आपके शरणागत हूँ। आपके कर कमलोंकी छत्रछायाका इच्छुक हूँ। दया करो! दया करो!!"

क्रतुने कहा- 'भगवन्! इस संसारमें जितने कर्म हो रहे हैं, ये सब यज्ञ हैं। संसार आपका एक यज्ञचक्र है। जिन्होंने इसके रहस्यको जान लिया है, वे यज्ञरूप हो गये हैं; क्योंकि विश्वके अ यह अङ्ग है। ऐसी कोई वस्तु नहीं, ऐसा कोई कर्म नहीं, जो आपसे सम्बद्ध न हो। इस बातको न जानकर लोग भटकते हैं, दु:ख उठाते हैं। मैं आपकी इच्छाका यन्त्र हूँ । आपके संकेतपर नाचनेवाली कठपुतली हूँ। आप इसी तरह अपनाये रखें। मैं आपके चरणोंमें नतमस्तक हूँ।'

वसिष्ठने कहा- 'भगवन्! आप जगत्के अन्तरात्मा हैं। ज्ञानस्वरूप हैं। अपने अत्यन्त आत्मीय हैं और आत्मा ही हैं। आप सब कुछ जानते हैं। आपसे क्या कहना और क्या सुनना है? कहा-सुना तो दूसरोंसे जाता है। अपने आपसे ही क्या कहें और क्या सुनें? मैं अपने आत्मस्वरूप भगवान्को अभेदभावसे प्रणाम करता हूँ।'

मनु महाराजने बड़े प्रेमसे हाथ जोड़कर कहा 'भगवन्! आपकी कृपासे सम्पूर्ण जॉकी औषधि वनस्पतियोंके वीजोंकी रक्षा हुई। अब शीघ्र ही इस प्रलयका अन्त कीजिये और इन जीवोंको इनकी उन्नतिकी और अग्रसर कीजिये। आपने मुझपर अपार कृपा की, मेरे लिये अवतार धारण किया और ज्ञानपूर्ण उपदेश सुनाकर सारे जीवोंको कृतार्थ किया। यद्यपि इस समय इनकी वृत्तियों लोग हैं, ये सुन नहीं सकते, फिर भी आपकी वाणीका प्रभाव इनपर पड़ेगा ही और जगतमें जानेपर भी कभी-न-कभी इनके हृदयमें इन उपदेशोंकी स्मृति होगी तथा ये अपना कल्याण कर सकेंगे। आपके साथ रहने और आपके उपदेश सुननेके कारण प्रलयका इतना लंबा समय क्षणभरकी भाँति व्यतीत हो गया। अब थोड़ा ही समय है। आपकी मधुर वाणी सुनते-सुनते और आपको अनूप रूपराशि, मोहिनी छवि देखते-देखते ही यह समय बीते और निरन्तर ही इसकी स्मृति बनी रहे ऐसी कृपा कीजिये।' इन सबकी बातों को सुनकर भगवान् कहा 'मेरे प्रति आपलोगोंका अहेतुक प्रेम सर्वथा प्रशंसनीय है।

मैं तो अपना काम ही करता रहता हूँ दुनियाभरकोझंझट अपने सिरपर ले रखी है। आपलोगों के प्रेमकी जितनी परवा करनी चाहिये, नहीं कर पाता। मैं निश्चिन्त होनेपर भी इस बात के लिये चिन्तित रहता हूँ कि कहीं मेरे प्रेमियोंको कोई कष्ट न पहुँच जाय। आपलोगोंके बलपर ही मैं भगवान् बना हुआ हूँ। आपलोग मेरे हृदय हैं। मैं आपलोगोंका हृदय हूँ। आप मेरे अतिरिक्त दूसरी किसी वस्तुका चिन्तन नहीं करते परंतु मुझसे ऐसा नहीं हो पाता, इसके लिये मैं आपलोगोंका ऋणी हूँ और यह ऋण वहन करनेमें मुझे बड़ा आनन्द आता है। मैं उऋण हो ही कब सकता हूँ? इसी नाते आपलोग मेरा स्मरण किया करें, आपलोगोंके पवित्र हृदयोंमें स्थान पाकर मैं कृतकृत्य हो जाता हूँ।'

" यद्यपि लोग मुझे समदर्शी कहते हैं और मैं हूँ भी वैसा ही, परंतु जो अपने धन, जन, शरीर, प्राण और सर्वस्वकी चिन्ता छोड़कर केवल मेरे ही भरोसे मेरे चिन्तनमें लगे रहते हैं, उन्हें मैं कदापि नहीं छोड़ सकता। अग्रिके पास जो जाते हैं, उन्हींकी ठंडक दूर होती है जो कल्पवृक्षको छायामें जाते है, उन्हींकी अभिलाषा पूर्ण होती है। जो अपने आपको मेरे प्रति समर्पित कर देते हैं, मैं भी अपने-आपको उनके प्रति समर्पित कर देता हूँ। जो मुझे जिस भावसे भजता है, मैं भी उसी भावसे उसे भजता हूँ।'

इतना कहते-कहते भगवान् मानो आवेशमें आ गये। यद्यपि भगवान्‌को कभी आवेश नहीं होता, न हो सकता है; परंतु भक्तोंके कल्याणके लिये उन्हें आवेशकी भी लीला करनी पड़ती है। उन्होंने कहा 'मैं आपसे सत्य कहता हूँ; शपथपूर्वक कहता हूँ कि मैं आपलोगोंके बिना जीवित नहीं रह सकता। मेरा जीवन आपलोगोंके अधीन है। मेरी सत्ता आपलोगोंके हाथमें है आपलोग मेरे आत्मा हैं। मुझे भगवान्के भगवान् हैं। मैं आपलोगोंके पीछे-पीछे इसलिये भटकता फिरता हूँ कि कहीं-कहीं आपलोगों के चरणोंकी भूलि मिल जाय! और उसे सिरपर लगाकर मैं पवित्र हो जाऊँ। आपके ही बलपर मुझमें संसारको धारण करनेकी शक्ति है। मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि एक दिन सारे संसारका उद्धार होगा। सम्पूर्ण जीवोंको मेरे पास आना होगा। मुझसे एक होना होगा। 'आना होगा, निश्चय आना होगा। मेरे पास आये बिना उनकी यात्रा समाप्त नहीं हो सकती। आखिरवे अपने घर आये बिना मार्गमें कबतक भटकते रहेंगे। मैंने इसलिये उन्हें स्वतन्त्र किया कि अपनी विद्या बुद्धिसे अपना हित सोचकर वे उसे पावें, परंतु उन्होंने उस विद्या बुद्धिका दुरुपयोग किया। विषयोंके लिये वाया। उन्हें कदापि शान्ति नहीं मिल सकती। परंतु इतनेपर भी उन्हें में छोड़ नहीं सकता। वे मेरे अपने हैं। कहीं अपने लोगों को भी छोड़ा जा सकता है? रोगी दवा न लेना चाहे तो क्या उसे दवा नहीं दी जायगी? मैं इन्हें बलात् अपने पास खींचूँगा। यदि वे मुझे छोड़कर धनसे प्रेम करेंगे तो उनका धन नष्ट हो जायगा। यदि मुझे भुलाकर स्त्री, पुत्र, शरीरके चिन्तनमें लग जायेंगे तो उन्हें अशान्ति और उद्वेगका शिकार होना पड़ेगा। यदि वे मेरी उपेक्षा करके संसारकी किसी वस्तुको चाहेंगे तो प्राप्ति और अप्रासि दोनों ही हालतोंमें वह जलायेगी। पानेपर सफलताका गर्व होगा, और पानेकी कामना होगी; न पानेपर अड़चन डालनेवाले के प्रति क्रोध होगा, जलेंगे, मरेंगे, नष्ट होंगे।'

"मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता है कि मेरे पास रहने में मेरी उपासना करनेमें और मेरी संनिधिका अनुभव करनेमें ही जीवोंका कल्याण है। क्या नन्हा सा बच्चा अपनी माँको छोड़कर कभी सुखी हो सकता है ? जीवो! आओ! आओ! आओ! दौड़ आओ! मैं तुम्हें अपने हृदयसे लगानेके लिये कबसे पुकार रहा हूँ। क्षण-क्षण तुम्हारी बाट देख रहा हूँ। मेरे प्यारे बच्चो ! आओ, मेरी गोदमें बैठ जाओ! मैं तुम्हारे सिरपर अपना हाथ फेरूँ ! तुम्हें चूम लूँ। और फिर कभी एक क्षणके लिये भी न छोड़ें। किसीकी परवा मत करो। संसारके धर्म-कर्म छोड़कर मेरे पास दौड़ आओ। मैं तुम्हारा अपना हूँ, मैं तुम्हारा अपना हूँ!'

मत्स्यभगवान् और बहुत-सी बातें कहते रहे। मानो प्रकृतिस्थ होकर अब उन्होंने कहा- 'अब प्रलयका समय बीतनेपर आया। हयग्रीव दैत्यने वेद चुरा लिये हैं। उनका उद्धार करनेके लिये मैं उसके पास जाता हूँ। बिना वेदके सृष्टि कैसे हो सकेगी? ब्रह्माके लिये पहले उन्हींकी आवश्यकता है।'

मत्स्यभगवान्ने प्रस्थान किया!

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