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श्री मत्स्य अवतार कथा (मछली अवतार की कहानी)

Matsya Avatar Katha (Fish Avatar Story)

भाग 2 - Part 2

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श्री मत्स्य अवतार-कथा

यह निश्चय है कि जिन्होंने अपने मनोरञ्जन अथवा जीवोंके कल्याणके लिये अपने संकल्पसे इस सृष्टिकी रचना की है, जिनकी दया दृष्टिसे जीवित होकर यह स्थित है और जिनके संकेतसे यह उन्हींमें समा जायगी; वही भगवान् इसके स्वामी हैं और वे एक एक अणु, एक-एक परमाणु तथा एक-एक घटनाको उसके तहमें रहकर देखा करते हैं। वे भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करते हैं, परंतु साथ ही ध्यान रखते हैं कि इस अभिलाषाको पूर्ण करनेसे कहीं उनका कुछ अनिष्ट तो नहीं हो जायगा !

महाराज मनुकी तपस्या इसलिये चल रही है कि 'प्रलयके समय सृष्टिकी रक्षाका भार मुझपर हो। मैं सारी ओषधियोंको बचाऊँ।' यह इच्छा बड़ी अच्छी है। इसके मूलमें दया है, सम्पूर्ण प्राणियोंकी कल्याणकामना है, परंतु यही इच्छा यदि किसी साधारण प्राणीके हृदयमेंहो और उसके पूर्ण हो जानेपर उसके मनमें पर्यट हो जाय कि 'मैंने इनकी रक्षा की है. मैंने इन्हें बचाया तो वह भगवान् विमुख होकर पतनकी ओर जा सकता है। यद्यपि यह बात मनुपर लागू नहीं है, फिर भी जगत् के लोगोंपर इसका प्रकट हो जाना | आवश्यक है। मानो इसी भावसे भगवान्ने एक अदभुत लीला रची।

एक दिन वैवस्वत मनु कृतमाला नदीमें स्नान करके वर्पण कर रहे थे। एकाएक उनकी अञ्जलिमें एक नन्ही सी मछली आ गयी। महाराजने उसे फिर नदीमें छोड़ दिया। परंतु एक ही क्षणमें वे आश्चर्यचकित हो गये, जब वह मछली मनुष्य भाषामें कहने लगी कि 'राजन्! मैं बहुत ही निर्बल और गरीब हूँ। दुनियामें मेरा कोई सहायक नहीं है। मेरे पास बल नहीं है। और आप जानते ही हैं कि हमारी जातिमें बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियोंको खा जाती हैं। आप बड़े है दयालु हैं। आपकी करुणाशीलता प्रसिद्ध है। क्या आप मेरी रक्षा कर सकते हैं? क्या आप इस छोटी-सी गरीब और निर्बल मछलीकी रक्षा कर सकते हैं?" यह बात सुनकर मनुका कोमल हृदय दयासे भर गया और उन्होंने शीघ्रता से उठाकर मछलीको अपने कमण्डलुमें रख लिया। नित्यकृत्य करनेके पश्चात् उसे लेकर अपने स्थानपर आये और पूर्ववत् तपस्यामें लग गये।

दूसरे दिन प्रातःकाल देखते हैं तो वह मछली बढ़कर इतनी बड़ी हो गयी है कि कमण्डलुमें नहीं अँटती वैवस्वत मनुको देखते ही महलीने गिड़गिड़ाकर कहा- 'महाराज! मैं बड़े कष्टमें हूँ। मेरा शरीर इसमें नहीं अँटता कमण्डलुकी संकीर्णतासे मेरा शरीर छिल रहा है। मुझे पानीकी बड़ी आवश्यकता है। कहीं ऐसे स्थानमें रखिये, जहाँ मेरी रक्षा हो सके। आपने मेरी रक्षाका भार लिया है। आप बड़े उपकारी हैं। अवश्य मेरी रक्षा करेंगे।'

मछलीको बात सुनकर महाराज मनुने उसे एक छोटे से तालाब में रख दिया और अपने दूसरे कामोंमें लग गये। कुछ ही समय बाद वह मछली इतनी बड़ी हो गयी कि उसे रहनेके लिये तालाब में भी जगह न रही। बाहरसे चील-कौए मँडराने लगे और उसका शरीर धूपसे जलने लगा। मनु महाराजके सामने आते मछलीने बड़े कर स्वासे फिर निवेदन किया'भगवन् में जलवासी जन्तु हूँ। परंतु इस तालाब में मैं । सुखी नहीं हूँ। आप देखते ही हैं. धूप और पशु पक्षियोंके आक्रमणके भयसे मैं जमीनमें गड़ी जा रही हूँ। मेरा शरीर सिकुड़ा हुआ है। आपके रक्षाकालमें मुझे इतना कष्ट तो नहीं होना चाहिये। मुझे कहीं इससे बड़े | जलाशय में रखिये।'

मनु महाराजने मछलीकी यह बात भी बड़े ध्यानसे सुनी और उसे एक बहुत बड़े जलाशय में रख दिया। किंतु वहाँ भी मछलीकी यही गति हुई। अन्तमें जब उसे ले जाकर समुद्रमें छोड़ने लगे तब उसने कहा 'समुद्रमें बड़े भयंकर जीव रहते हैं। आप यहाँ मुझे छोड़कर चले जायेंगे तो बहुत सम्भव है कि वे हमें कष्ट पहुँचायें और मार डालें।' उस मछलीकी बातोंमें बड़ी मधुरता थी। मनु महाराजके मनमें अभिलाषा होती कि इसकी बात सुनता ही रहूँ। जब वे साम्राज्यका त्याग करके जंगलमें रहनेवाले विरक्त एवं ज्ञानवान् महात्मा उस मछलीकी सुन्दरताको देखते, तब उनकी आँखें एकटक लगी ही रह जातीं। उनके हाथ उस दिव्य महलीका स्पर्श करनेके लिये लालायित रहते थे। जबसे उन्हें यह मछली मिली थी, दूसरे कामोंमें उनका मन नहीं लगता था। नियम-निष्ठाके कारण तपस्या करने बैठते, परंतु उनका मन मछलीके पास ही रहता। वास्तवमें भगवान्की सुन्दरता ऐसी ही है जो वस्तु सुन्दर से सुन्दर एवं मधुर-से-मधुर है, उसे भगवान्की मधुरता एवं सुन्दरताका लेशमात्र भी नहीं कहा जा सकता।

आज मछलीको यह बात सुनकर मनु महाराज विचलित हो गये। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा 'भगवन्! आप कौन हैं? आप कोई देवता हैं, ऋषि है या और कोई हैं? मछली के वेशमें मुझसे क्यों खेल रहे हैं। आपकी सुन्दरता और मधुरता देखकर एक और तो मैं मोहित हो रहा हूँ, दूसरी ओर आपका यह विनोदभरा खेल मुझे चकित कर रहा है। प्रभो। अब अधिक न छकाइये। आप स्वयं भगवान् हैं। मैं आपको पहचान गया! आप गो-ब्राह्मण, देवता-साधु, और सम्पूर्ण संसारकी रक्षाके लिये अनेकों प्रकारके | शरीर धारण किया करते हैं; इस बार आपने एक जलचर मत्स्यका शरीर धारण किया है। मत्स्यरूपधारी | प्रभो हम साधारण जीव मायके चक्कर पड़े हुए।हैं हमारी दृष्टि विषयोंतक ही सीमित है हम आपको कैसे पहचान सकते हैं। आप शरणागतोंके रक्षक हैं, संसार सागरसे पार जानेवालोंके लिये नौकास्वरूप हैं। आपके सभी अवतार प्राणियोंके कल्याणके लिये ही होते हैं। अवश्य यह मत्स्यलीला भी इसीलिये रची होगी। भगवन्! इस लीलाका क्या रहस्य है? मेरे मनमें इस बातकी बड़ी जिज्ञासा हो रही है। प्रभो! आप ही मेरे माँ-बाप हैं। आप ही गुरु हैं, आप ही सखा हैं, आप ही मेरे आत्मा हैं और आप ही सब कुछ हैं। आपके चरणोंमें आ जानेके पश्चात् कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता, सब कुछ प्राप्त हो जाता है। आज आपने अपने परम दयालु स्वभावके कारण स्वयं ही आकर मुझे अपनाया है। आपकी कृपा धन्य है, आपका कृपापात्र मैं धन्य हूँ आपके चरणों में मैं शतशः प्रणाम करता हूँ।' इतना कहते-कहते महाराज मनु भगवान्‌के चरणोंमें लोट गये।

इसके पहले मनु महाराज एक साधारण मछली समझते थे और उसकी जिम्मेवारी अपने ऊपर लिये हुए थे। जब उसकी सुन्दरता एवं मधुरतासे इनका चित्त बरबस खिंच जाता, तब ये तपस्यामें कुछ विघ्न-सा अनुभव करते। बार-बार चेष्टा करके उसकी स्मृतिको भुलाना चाहते, परंतु सफल नहीं होते। इस बातकी उन्हें कुछ-कुछ चिन्ता भी थी। अब उन्हें साक्षात् भगवान् जान लेनेपर चिन्ता तो मिट ही गयी, इन्हें बड़ा आनन्द हुआ। 'स्वयं भगवान् मत्स्यरूपमें मेरे पास आये और मैंने उनके दर्शन, स्पर्श आदि प्राप्त किये, इससे बढ़कर मेरा सौभाग्य क्या होगा ?' यह सब सोचते-सोचते महाराज मनु गद्गद हो गये। उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो वे भगवत्कृपाके अनन्त समुद्रमें डूब उतरा रहे हो। नीचे-ऊपर, अगल-बगल और अपने शरीरके रंग-रंग, रोम-रोममें उन्होंने भगवत्कृपाकी धारा प्रवाहित होते देखी। उनके शरीर, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि एवं आत्मा-सब कुछ भगवत्कृपामें सराबोर थे। बहुत समयतक ऐसी ही स्थिति रही। ऐसे अवसरपर समय लापता हो जाता है।

कुछ देर बाद उन्हें स्मरण आया कि 'जिन भगवान के संकल्पसे सारे जगत्को उत्पत्ति, स्थिति एवं लय होते हैं, जो सारे जगत्के आधार हैं, जो निरन्तर सम्पूर्ण जगत्के कल्याणमें लगे रहते हैं, उनकी रक्षाकीजिम्मेवारी मैंने ली. यह मेरे अभिमानका फल है। मैं कितना क्षुद्र है कि भगवान्‌की रक्षापर विश्वास न करके अपने बलपर जीवों एवं ओषधियोंके बीजकी रक्षा करनी चाही, किंतु यह मेरी भूल थी। अब मैं समझ गया कि मुझमें रक्षा करनेकी शक्ति नहीं है। रक्षा तो केवल भगवान् ही कर सकते हैं। वे ही सबके प्रेरक हैं, वे ही सबके हृदयके संचालक हैं। जो कुछ होता है. उनकी प्रेरणासे ही होता है। ऐसी स्थितिमें वे जो कुछ कराना चाहें, करायें; एक यन्त्रकी भाँति अभिमान और कामना छोड़कर करना चाहिये। जहाँ अपना व्यक्तित्व आया, वहाँ पतन हुआ मैं अपनी मूढतासे, अभिमानसे पतनकी ओर बढ़ रहा था, परंतु भगवान्ने मुझे बचा लिया। हमारे प्रभु कितने दयालु है!' यही सब सोचते-सोचते मनु महाराज तल्लीन हो रहे थे कि इतनेमें मेघगम्भीर ध्वनिसे हँसते हुए मत्स्य भगवान्ने उनकी तल्लीनता भंग की। भगवान्ने कहा 'राजन्! आपका अन्तःकरण शुद्ध है, जीवोंपर दया करनेके कारण आपके चित्तके मल धुल गये हैं। जिसके हृदयमें दुःखी प्राणियोंके प्रति दया नहीं है, उसका कभी उद्धार नहीं हो सकता। वह मुझे कभी पहचान नहीं सकता। या यों कहिये कि उसके सामने मैं कभी प्रकट नहीं हो सकता। आप मुझे पहचान गये, मैं अनन्त हूँ। मेरे अवतारका कोई कारण नहीं हुआ करता। मैं भक्तोंकी भलाईके लिये अपनी इच्छासे समय-समयपर स्वयं ही अवतीर्ण हुआ करता हूँ। सारा संसार मेरे अंदर है, यह प्रकृति मेरा एक अंश है; परंतु मुझ अनन्तमें अंशकी कल्पना भी नहीं हो सकती। यह सब मेरी लीला है। यह सब मैं ही हूँ। इसीसे चाहे किसी भी शरीर में मैं प्रकट हो सकता हूँ। किसी समय, किसी स्थानपर और किसी भी वस्तु के रूपमें मुझे पहचाना जा सकता है और वास्तवमें मैं वहीं रहता है; परंतु जब लोग मुझे नहीं पहचान पाते, तब मैं अपने आपको स्वयं प्रकट करता हूँ और किसी भी रूपमें प्रकट करता हूँ। मेरे लिये मनुष्य और मछलीके शरीरमें भेद नहीं है। मैं ही सब हूँ। जिसने सब रूपोंमें मुझे पहचान लिया, उसने मेरी लीलाका रहस्य समझ लिया। कहींसे मुझे हटाया नहीं जा सकता, चाहे जिस रूपमें मेरे अस्तित्वका विश्वास किया जा सकता है। अब प्रलयका समयनिकट है। मैंने आपको रक्षाका भार सौंपा। मैं स्वयं आपके साथ रहूँगा। प्रलयके समय जब तीनों लोक जलमग्र होने लगेंगे, तब सप्तर्षियोंके साथ एक नौकापर बैठ जाना। मैं स्वयं मत्स्यरूपसे आऊँगा, तब उस नौकाको मेरी सींगसे बाँधकर जीवों और सारी ओषधियोंके बीजोंकी रक्षा करना।' भगवान् मत्स्य अन्तर्धान हो गये !

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