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श्री मत्स्य अवतार कथा (मछली अवतार की कहानी)

Matsya Avatar Katha (Fish Avatar Story)

भाग 3 - Part 3

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श्री मत्स्य अवतार- कथा

शास्त्रोंमें चार प्रकारके प्रलयोंका वर्णन आता है। जैसे आत्यन्तिक, प्राकृतिक, नैमित्तिक और नित्य । इनमें आत्यन्तिक प्रलय तो केवल ज्ञानके द्वारा ही होता है। जब जीव और ईश्वरकी उपाधिका बाध कर देनेपर केवल एकमात्र चित् सत्ता अवशिष्ट रह जाती है, फिर संसार, पुनर्जन्म, बन्ध, मोक्ष आदि द्वन्द्वोंका अभाव अनुभव हो जाता है। यह आत्मकृपा, गुरुकृपा, शास्त्रकृपा तथा ईश्वरकृपाके अधीन है। बिना इनके ज्ञान नहीं होता और ज्ञानके बिना यह अनुभूति नहीं होती। कर्मके द्वारा मलनाश, उपासनाके द्वारा विक्षेपनाश और ज्ञानके द्वारा आवरण भंग होनेपर यह स्वयंप्रकाश वस्तुस्थिति प्राप्त होती है। इसे ही 'आत्यन्तिक प्रलय' कहा गया है।

'प्राकृतिक प्रलय' उसे कहते हैं, जिसमें दो अपराध काल बीत जानेपर ब्रह्माको आयु पूरी हो जाती है। पृथ्वी जलमें, जल अग्निमें अग्नि वायुमें, वायु आकाशमें, आकाश अहंकारमें, त्रिविध अहंकार महत्तत्त्वमें और महत्तत्त्व प्रकृतिमें लीन हो जाता है। प्रकृति अपनी शक्तियोंको समेटकर अपने स्वरूपमें सो जाती है, किसी प्रकारका क्षोभ नहीं होता। सत्त्व, रज, तम तीनों गुण साम्यावस्थाको प्राप्त हो जाते हैं। शिव और विष्णु अपनी | लीलाओंको बंद करके अपने निर्गुण स्वरूपमें छिप जाते हैं। हिरण्यगर्भके साथ देवयान मार्गसे गये हुए उपासक मुक्त हो जाते हैं। इसे कहीं-कहीं 'महाप्रलय' भी कहा गया है।

नैमित्तिक प्रलयके पूर्व संक्षेपमें नित्य प्रलय समझ लेना चाहिये। सम्पूर्ण प्राकृतिक वस्तुएँ क्षण-क्षणमें बदल रही हैं। एकका नाश, दूसरेको उत्पत्तिः यही इस जगत्की प्रक्रिया है। एक अक्षरका प्रलय हो जानेपर दूसरे अक्षरका उच्चारण होता है, एक वृत्तिका प्रलय हो जानेपर दूसरी वृत्तिका जन्म होता है: अर्थात् संसारमें नित्य प्रलय हो रहा है। सब कुछ प्रलयरूप ही है।बहुत से लोग ऐसा मानते हैं कि इस संसारका अनुभव तभी होता है जब मनोवृत्तियाँ रहती हैं। बिना मनोवृतियोंके संसारका अनुभव नहीं हो सकता सुषुप्ति में जब मनोवृत्तियाँ नहीं रहतीं, हमें संसारका बोध नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि यह जगत् । मूलक है। इसकी उत्पत्ति स्थिति और प्रलय | मनोवृत्तियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयपर निर्भर है। इसीसे नित्य जब सुपुति वृतियोंका प्रलय हो जाता है, तब जगत्का प्रलय भी हो जाता है। इसे 'नित्य प्रलय' कहते हैं।

जैसे जीवको सुषुतिको नित्य प्रलय कहते हैं वैसे ही ब्रह्माकी सुषुप्तिको 'नैमित्तिक प्रलय' कहते हैं। मनुष्योंके तीन सौ साठ दिनकी अर्थात् एक वर्षकी देवताओंकी एक दिन-रात होती है। इस प्रकारके तीन सौ साठ दिन-रातका देवताओंका एक वर्ष होता है। ऐसे एक हजार वर्षोंके मनुष्योंके चार युग होते हैं. और एक हजार चतुर्युगका ब्रह्माका एक दिन होता हैं और इतनी ही बड़ी रात होती है। इसी रातमें ब्रह्मा सोते हैं और उनकी मनोवृत्तिके साथ उनकी सृष्टि भी विलीन हो जाती है।

इसी नैमित्तिक प्रलयका अवसर उपस्थित था। मत्स्यभगवान्के अन्तर्धान हो जानेके पश्चात् महाराज मनु भगवान्‌को रूपमाधुरीका मन-ही-मन आस्वादन करते हुए अपने आश्रमपर चले आये और निरन्तर भगवान्‌के आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे।

तीनों लोकका प्रलय सामने था। मनोवृत्ति स्वयं ही इनकी ओर नहीं जाती थी। जब सब क्षणभङ्गुर हैं, सब मृत्युके मुँहमें पड़कर पिसे जा रहे हैं। किसोका कोई ठिकाना नहीं, न जाने कब नष्ट हो जायें। पानीके बुलबुलेकी तरह न जाने कब बिला जायें। मृत्यु दुखके भयानक चक्करमें निरन्तर पिस ही रहे हैं. न जाने कब इनका अस्तित्व उठ जाय। इनके चिन्तनमें, इनकी प्रतीक्षामें अपना अमूल्य समय क्यों खोया जाय? यह सोचकर इनको ओरसे मन हटाकर वे परमात्मा | मन लगाये हुए थे या यों कहना चाहिये कि परमात्माके अनन्त आनन्दस्वरूपकी दिव्य सुधा-धारामें उनका मन स्वयं ही गोते लगा रहा था। जिसने एक बार उन्हें देखा। आँखोंकी बात तो दूर रही केवल बुद्धिके द्वारा |उनके अनन्त दिव्य गुण, सौन्दर्य, माधुर्यकी कल्पना कर ली. वह एक क्षणके लिये भी उन्हें छोड़कर विषयोंका चिन्तन नहीं कर सकता। हाँ, महाराज मनु भगवान्के चिन्तनमें तन्मय हो गये, उन्हें मालूम ही नहीं हुआ कि जगत्में क्या हो रहा है?

इधर संस्ारमें बहुत वर्षोंतक एक बूंद भी वर्षा नहीं हुई। सूर्य अनेक रूप धारण करके मानो आग बरसाने लगे और उनकी तेज किरणोंसे अनेकानेक मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष जलकर खाक होने लगे। थोड़े ही दिनोंमें यह सूखी पृथ्वी जीव-जन्तु, घर और वृक्षोंसे रहित होकर जलते हुए तवेके समान तपने लगी। रुद्रभगवान्‌की साँससे ऐसी प्रखर लपटें निकलीं जिनसे पाताल भस्म हो गया और क्रमशः पृथ्वी तथा स्वर्ग भी राखके ढेर हो गये। बहुत से लोगोंने भागकर जनलोकमें शरण ली, पर वहाँ भी इतनी आँच पहुँच रही थी कि वे लोग निरापद नहीं रह सके। अन्तमें महलौकमें जाना पड़ा। उस अग्नि काण्डके प्रतिक्रियास्वरूप संवर्तक नामके मेघ अपने दल-बादलके साथ प्रकट हुए और पातालसे लेकर स्वर्गतक जलसे भर गया।

महाराज मनु जिस सुधासागर में डूबे हुए थे, वहाँतक पहुँचनेको शक्ति उस प्रलयकी आगमें नहीं थी जिसे भगवान्ने अपना लिया है, जो भगवान्का हो गया है, स्वयं मृत्यु भी उसका बाल बाँका नहीं कर सकती। महाराज मनु अपने संकल्पसे सम्पूर्ण जीवों और ओषधियोंके बीज एकत्रित करके भगवान्के ध्यानमें मग्न थे। परंतु जब चारों ओर जल ही जल हो गया और ये अगले क्षणमें ही अपनेको दुबा हुआ समझते थे कि एक बड़ी विशाल नाव आती हुई दीख पड़ी।

इस प्रलयकालके जलको देखकर उनके मनमें तनिक भी चिन्ता या घबराहट हुई हो, ऐसी बात नहीं। जगत्‌की परिस्थितियोंसे केवल वही लोग घबराते हैं, जिन्हें भगवान्‌का विश्वास नहीं है जिन्हें भगवान्‌का विश्वास प्राप्त हो गया है, जिन्होंने अपने-आपको उनके हाथों सौंप दिया है, वे मृत्युके मुँहमें भी उनके मधुर स्पर्शका अनुभव करते हैं। साँपको जब कि वह लपलपाती हुई जीभसे काटने दौड़ता है, अपने प्रियतमका हुत समझते हैं और बड़े प्रेमसे उसका स्वागत करतेहैं और उस बायको, जिसके नखाघातसे शरीर क्षत विक्षत हो गया है, जिसकी बड़ी-बड़ी दाडे क्रूरताके साथ खून पीनेमें लगी हैं, अपने प्रियतमके पास शीघ्रातिशीघ्र पहुँचानेवाला अपना हितैषी समझते हैं। प्रलयके जलको देखकर मनु महाराजके मनमें भी ऐसी ही भावना हुई थी। वे जलकी निकटताके साथ ही भगवान्‌की निकटताका भी अनुभव कर रहे थे। आखिर नाव आ ही गयी। सप्तर्षियोंका स्थान डूब चुका था और वे भी उसी नावपर सवार थे। उन्होंने ओषधियोंके बीजके साथ मनु महाराजको नावपर बैठा लिया और उनकी नाव प्रलयकी अपार जलराशिकी उत्ताल तरंगोंपर नाचने लगी। पानीकी एक लहरसे वह नाव सैकड़ों योजन] दूर चली जाती और फिर क्षणभरमें ही उससे भी दूर दीखती। कभी लहरोंके कारण जल हट जाने से वह पातालमें पहुँच जाती और कभी उनके उछलने के साथ स्वर्गमें चली जाती। वे भगवानूपर विश्वास रखनेवाले महर्षि और राजर्षि ही ऐसे थे, जो ऐसे अवसरपर भी शान्तिके साथ भगवानकी लीला देख रहे थे। यदि कोई नास्तिक होता, अविश्वासी होता तो उसकी मनोवृत्तियाँ चाहे जितनी भी दृढ़ रहत अपने अन्तःकरणपर उसका चाहे जितना भी संयम होता; अन्तमें वह घबराकर अवश्य मर जाता या विवश होकर उसे अपनेको भगवान्‌के भरोसे छोड़ देना पड़ता। ऐसे अवसरोंपर बड़े बड़े नास्तिकोंको आस्तिक होते देखा गया है।

उन लोगोंके मनमें कोई बात थी तो केवल यही कि अबतक भगवान् नहीं आये। कहीं कोई चीज चमक जाती, कहीं कोई लहर उठती तो ऐसा मालूम होता कि भगवान् आ गये। उस अनन्त जलराशिकी प्रतिपल होनेवाली घोर गर्जनामें वे भगवानके आगमनकी आहटका अनुभव करते। कभी-कभी ऐसा भाव उठता कि सम्भव है भगवान् हमारे आस-पास ही कहीं छिपे हों और हमारी प्रत्येक गतिविधिका निरीक्षण कर रहे हो। भगवान् हमारे पास ही हैं, यह ध्यान आते हो उन लोगोंका मन विहल हो गया। उनके हृदयकी विलक्षण दशा हो गयी। आँखें आँसू भर गय सारा शरीर पुलकित हो गया। अञ्जलि बांधकर एक स्वरसे वे प्रार्थना करने लगे

'भगवन्। हम सब न जाने कबसे तुम्हारी प्रतीक्षाकर रहे हैं। हमारा हृदय तुम्हारे लिये तड़प रहा है। हमारी आँखें तुम्हारे दर्शनके लिये ललक रही है। हमारे हाथ तुम्हारा स्पर्श प्राप्त करनेके लिये और हमारा चिन अपने सिरपर तुम्हारे करकमलोकी छत्रछाया प्राप्त करनेके लिये न जाने कबसे मचल रहा है। तुम आते क्यों नहीं? क्या हमारे हृदयकी दशा तुमसे छिपी है नाथ आओ, शीघ्र आओ !! हम प्रलयसे भयभीत नहीं होते। अनन्तकालतक मृत्युका आलिङ्गन किये रह सकते हैं। हमें उसकी याद भी नहीं पड़ेगी, परंतु तुम आओ!

'क्या हमारा हृदय कलुषित है? क्या तुम कहीं यहीं हो? हम तुम्हें पहचाननेमें असमर्थ हैं? अवश्य यही बात है पर हम तुम्हें पहचानने योग्य कब हो सकते हैं? तुम्हीं कृपा करके अपनी पहचान करा दो, तभी सम्भव है, अन्यथा हम तुम्हें नहीं पहचान सकते। परंतु तुम छिपे क्यों हो? यह आंख मिचौनी क्यों खेल रहे हो? हम चाहे जैसे हैं, तुम्हारे तो हैं नह अपने लोगोंसे पर्दा कैसा? आओ, अब एक क्षणका विलम्ब भी असह्य है।'

प्रार्थना करते करते वे लोग इतने व्याकुल हो गये कि उन्हें एक क्षण कल्पके समान मालूम पड़ने लगा। व्याकुलताकी हद हो गयी। वे केवल से रहे थे। ठीक इसी समय मत्स्यभगवान् प्रकट हुए।

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