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श्री मत्स्य अवतार कथा (मछली अवतार की कहानी)

Matsya Avatar Katha (Fish Avatar Story)

भाग 4 - Part 4

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श्री मत्स्य अवतार कथा

भगवान्‌की लीलाका रहस्य कठिन से कठिन और सरल-से-सरल है। कठिन इसलिये कि सम्पूर्ण वेद, शास्त्र, पुराण उनका वर्णन करते-करते हार गये, उन्हें ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गये, अन्तमें 'नेति नेति' कहकर चुप हो गये। भगवान्‌का रहस्य उतना ही दुर्बोध बना रहा, जितना कि उनके वर्णन करनेके पहले था। स्वयं भगवान् ने अपनी लीलाका सहस्र-सहस्र मुखसे वर्णन करनेके लिये शेषनागका रूप धारण किया। न जानें वे कबसे वर्णन कर रहे हैं और न जाने कबतक करते रहेंगे? परंतु न लीलाके रहस्यका पार पा सके हैं और न तो पानेकी सम्भावना ही है। कारण, 'भगवान् अनन्त हैं, उनकी लीला अनन्त है, उनका रहस्य अनन्त है। जब अन्त है ही नहीं, तब वे स्वयं अन्त कैसे पा सकते हैं? सरल इसलिये कि वे इतने कृपालु हैं कि उन्हें कभी ग्वाल-बालोंके साथ नाचना पड़ताहै, ग्वालिनोंके घर माखन चोरीकी लीला करनी पड़ती। है और रस्सीसे बंधकर रोना पड़ता है। छोटे-छोटे राक्षसोंको मारनेके लिये उन अजन्मा भगवान्‌को जन्म लेना पड़ता है, जिनके संकल्पमात्रसे सारी सृष्टिका संहार हो सकता है। यह दयाकी बात इतनी सरल है कि कोई भी सहृदय व्यक्ति उनकी दयाका स्मरण करके रोये बिना नहीं रह सकता।'

प्रलयकी अपार जल-राशिमें एक छोटी-सी नौकापर सप्तर्षि और आदिराज मनु सम्पूर्ण ओषधियोंका तथा समस्त जीवोंका बीज तत्व लेकर बैठे हुए हैं। कौन कह सकता है कि यदि भगवान् इनके रक्षक न होते तो ये लोग उन कठोर तरंगाघातोंसे टकराकर चूर-चूर न हो गये होते! परंतु आड़में छिपकर भगवान् इनकी व्याकुलता देख रहे थे और अन्तमें इनके प्रगाढ़ प्रेमके कारण वे प्रकट हो गये। आज परम दयालु भगवान् मत्स्यके रूपमें प्रकट हुए हैं। उनके लिये शरीरोंका भेद कोई भेद नहीं। सब समान हैं, सबके आत्मा वही हैं; परंतु हमारे लिये हमारी दृष्टिसे वे मछली बनकर आते हैं और हमारी रक्षा करते हैं, यह कम कृतज्ञताकी बात नहीं है। उनकी इस लीलाका रहस्य हमारे लिये इतना सरल होना चाहिये कि इसकी निरन्तर स्मृति बनी रहे कि उन्होंने ही हमें बचा रखा है।

उनके सामने एक दस हजार योजनके बड़े भारी मत्स्यके रूपमें भगवान् प्रकट हुए और उनका बड़ा लम्बा सॉंग ऊपर निकल आया। तुरंत वासुकि नाग भी प्रकट हुए और वह नौका उन्हींके द्वारा भगवान्के सींगमें बाँध दी गयी। भगवान्ने, जिनका शरीर सोनेकी भाँति चमक रहा था, मुसकराते हुए कहा- ऋषियो! मैं आ गया हूँ नाव भी मेरे सौंगमें बाँध दी गयी है। अब नावपर तरंगोंका उतना असर नहीं पड़ेगा। अब शान्तिसे प्रलयका समय बिता दिया जाय।' उन लोगोंने कहा- 'भगवन्! ये शरीर चाहे स्वर्गमें हों या नरकमें शान्त आश्रममें हों या प्रलयके उत्ताल तरंगोंपर हमें इसकी जरा भी चिन्ता नहीं केवल आप हमारे साथ हों। आप आ गये, हमारा कल्याण हो गया।'

मनु महाराजने हाथ जोड़कर कहा-'भगवन्! आपकी मधुर वाणी सुनने की बड़ी अभिलाषा हो रही है। जबतक हमलोग आपकी सन्निधिमें हैं तबतक आप हमें धर्म-कर्मके रहस्य समझावें आपके बिना आपकेस्वरूप, लीला आदिका रहस्य कौन समझा सकता है ?" मनुकी इस जिज्ञासाभरी प्रार्थनाको सुनकर भगवान्ने उन्हें अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों प्रकारके पुरुषार्थोंके लक्षण, स्वरूप और साधन बतलाये। उन्हीं उपदेशोंका संग्रह मत्स्यमहापुराणके नामसे प्रसिद्ध है। स्वाध्याय प्रेमियोंको उसका अध्ययन करना चाहिये। संक्षेपमें उसका सार संग्रह इस प्रकार किया जा सकता है

भगवान्ने कहा-अच्छा, मैं तुम्हें धर्मका सार सुनाता हूँ। सावधानीसे श्रवण करो। यहाँ मैं उस ज्ञानकी चर्चा नहीं करता, जो एक अनन्त आनन्दस्वरूप त्रिविध भेद -शून्य है; क्योंकि उसमें बन्ध-मोक्ष, जीव-ईश्वर आदिके भेद है नहीं, वह केवल पारमार्थिक सत्य है और अनुभवगम्य तथा अनिर्वचनीय है। यहाँ तो केवल व्यावहारिक दृष्टिसे विचार करना है, जहाँ धर्म-अधर्म, बन्ध-मोक्ष आदिके भेद विभेद हैं, इस दृष्टिसे यह जो जगत् चल रहा है, यह अनादिकालसे ऐसा ही चलता आया है और अपरिमित कालतक चलता रहेगा। सृष्टिके बाद प्रलय, प्रलयके बाद सृष्टि यही इसका क्रम है, जब प्रलय हो जाता है, सारे जीव तमोगुणकी घोर निद्राके अधीन हो जाते हैं, तब मैं प्रकृतिको क्षुब्ध करता हूँ, जीवोंको जगाता है और इसलिये जगाता हूँ कि वे स्वतन्त्रतापूर्वक अपने कल्याणका मार्ग निश्चय करें तथा आगे बढ़ें। ब्रह्मा, विष्णु एवं शिवके रूपमें तथा अन्यान्य विभूतियों, संत-महात्माओं और अवतारोंके रूपमें प्रकट होकर उन्हें सन्मार्ग बताता हूँ। जो लोग पूर्व संस्कारके अनुसार पशु-पक्षी अथवा कीट-पतंग अथवा और किन्हीं जन्तुओंके रूपमें पैदा होते हैं, उन्हें क्रमशः आगे बढ़ाता हूँ और जो मनुष्ययोनिमें होते हैं उन्हें तमोगुणसे रजोगुण तथा रजोगुणसे सत्वगुणमें ले जाकर भगवत्प्रेम अथवा मोक्षका अधिकारी बना देता हूँ।

जिन लोगोंके जीवनमें प्रमाद, आलस्य और निद्राकी अधिकता है, उन्हें अर्थ, धर्म आदि किसी भी पुरुषार्थकी प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि वे संसारकी सम्पत्ति, शरीर, पुत्र एवं यश आदिके लोभसे भी किसी काममें लग जायें और रजोगुणकी प्रवृत्ति उनके जीवन में आ जाय तो बहुत सम्भव है कि वे सत्त्वगुणमें भी पहुँच जायें। परंतु आचर्य है कि कई लोग पशुओंसे भी गयी बीती हालत में पड़े रहते हैं और अपने 'अमूल्य जीवनको नष्ट करते रहते हैं। शास्त्रोंमें उनके लियेअर्थशास्त्रका विधान है। वे भौतिक उन्नतिमें लगकर अपना कल्याण कर सकते हैं। जिनकी प्रवृत्ति रजोगुणी है, जो लोभ, प्रवृत्ति, बड़े बड़े कारवार, अशान्ति, ईर्ष्या और स्पर्धा में पड़े हुए हैं, उन्हें वहीं नहीं पड़े रहना चाहिये। उन्हें धर्मशास्त्र के अनुसार अपनी प्रवृत्तियोंको सात्त्विक बनाना चाहिये। रजोगुण अच्छा है, परंतु सत्वगुण उससे भी अच्छा है। धर्म- बुद्धिरहित कर्मके पचड़ोंमें पड़कर लोग स्वार्थी हो जाते हैं और अपने जीवनका लक्ष्य ही भुला देते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिये। प्रत्येक काम धैर्यके साथ करना चाहिये और करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि इससे अधिक-से-अधिक लोगोंकी सच्ची भलाई हो रही है या नहीं ? जहाँतक हो सके, पूरी शक्ति लगाकर काम, क्रोध, लोभसे बचें और अपने शरीर तथा सम्पत्तिका उपयोग विश्वभगवानकी सेवामें करें।

कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनकी दृष्टि इस दृश्यमान जगत्में इतने जोरसे लग जाती है और संकुचित होने लगती है कि वे सारे संसारकी भलाईको उपेक्षा करके केवल अपने शरीरके ही पालन पोषण और ऐशो आराममें भूल जाते हैं। उनके सामने परलोककी बात रखी जाती है। जीवन बहुत विशाल है, जीवन मरणके चक्करमें कई बार स्वर्ग और नरकोंमें भी जाना पड़ता है। यदि उनकी ओरसे दृष्टि हटा ली जाय तो इस जीवनके कुछ दिन सम्भव है, सुखसे बीत जायें; परंतु आगे चलकर पछताना ही पड़ेगा। अतः संचयशील प्राणी परलोकके लिये भी पुण्यसंचय करते हैं। पुरुषार्थो में जिसे 'काम' कहा गया है उसका अर्थ स्त्री पुरुषोंका संयोग नहीं है। उसका अर्थ है 'पारलौकिक सुखकी प्राप्ति'। जब पारलौकिक सुखकी दृष्टिसे यज्ञ, दान, तप, उपासना आदि किये जाते हैं, तब उन्हें 'काम' नामक पुरुषार्थका साधन कहा जाता है। धर्म लौकिक और पारलौकिक दोनों सुखोंका मूल है और धर्मके बिना अर्थ या काम कोई भी नहीं मिलते।

चाहे लौकिक दृष्टिसे हो या पारलौकिक दृष्टिसे, धर्म होना चाहिये। धर्म स्वयं पुरुषार्थ है, इससे सब कुछ मिल सकता है। निष्काम भावसे किया जाय तो अन्तःकरणकी शुद्धि होती है और ज्ञान या भक्ति प्राप्त हो जाती है। यदि धर्म धर्मके लिये ही न हो तो लौकिक सुखकी अपेक्षा पारलौकिक सुखकी दृष्टि अधिक उत्तमहै। कारण लौकिक सुख इसी स्थूल देहपर अवलम्बित है और हाड़- चाम मांस-मल-मूत्रका पुलिंदा है। यह दो-चार दिनकी चीज है और इतना घृणित है कि इसके लिये हो कर्म करना अथवा इसीको सुख पहुँचाना कभी जीवनका उद्देश्य हो नहीं सकता। पारलौकिक सुखको दृष्टि सर्वोत्तम न होते हुए भी इसकी अपेक्षा उत्तम है: क्योंकि वह सूक्ष्म शरीरसे सम्बन्ध रखती हैं, जो कि आत्मा या जीवसे अधिक निकट है। पारलौकिक दृष्टि जीवके स्वरूपकी जिज्ञासा पैदा करती है, अनेक लोकोंके सम्बन्धर्मे कुतूहल उत्पन्न करती है और उनके बनानेवाले, उनके स्वामी और फल देनेवालेपर विश्वास करानेवाली होती है।

परंतु जीवके कल्याणको दृष्टिसे इतना ही पर्याप्त नहीं है। उसमें जो आनन्दको एक अतृस लालसा है, सर्वदा जीवित रहनेकी भावना है और सबका ज्ञान प्राप्त कर लेनेको जिज्ञासा है, वह इतनेसे ही पूर्ण नहीं होती। उसके लिये तो अनन्त आनन्द, अनन्त ज्ञान और अनन्त सत्यकी आवश्यकता है और वह केवल मैं ही हूँ। जबतक जीव मेरे पास नहीं आता तबतक उसे सच्चा सुख, सच्ची शान्ति, सच्चा ज्ञान और सच्ची अमरता नहीं प्राप्त हो सकती; क्योंकि इनका आधार मैं ही हूँ। स्वयं परब्रह्म मेरा एक अंश है।

सबसे बढ़कर आश्चर्यकी बात तो यह है कि ये जीव मेरे अंदर ही हैं। मैं भी उनके अंदर व्याप्त हूँ, परंतु उन्हें मेरा पता नहीं है। जैसे एक प्यासा आदमी अमृतके समुद्रमें डूब उतरा रहा हो, पर उसे पता न हो कि मैं अमृतके समुद्र हूँ। वह समझ रहा हो कि मैं एक घोर मरुस्थलमें इधर-उधर भटक रहा हूँ। तब जैसी परिस्थिति होती है, वैसी ही परिस्थिति इन जीवोंकी है। ये इन विषयोंके मोहमें इस प्रकार फँस गये हैं कि मेरी और दृष्टि ही नहीं डालते इसीका नाम है 'भ्रान्ति'। इसीको कहते हैं भूल । जीवोंके दुःखका मूल यह भूल ही है। इस भूलको मिटानेके लिये जिस शास्त्रका वर्णन किया गया है, उसे 'मोक्षशास्त्र' कहते हैं और इस भूलका मिट जाना ही 'मोक्ष' है।

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