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वे महात्मा फिर नहीं मिले

मेरी उम्र लगभग ८ या ९ वर्षकी थी। उस समय गाँवमें कोई अस्पताल नहीं था और न कोई वैद्य या चिकित्सक ही था। दो माहसे मैं मलेरिया बुखारसे पीड़ित था। शरीर पूर्णरूपेण जीर्ण हो चुका था। घरकी आर्थिक स्थिति भी अतिदयनीय थी। दीपावलीकी बात है, दो या तीन दिन पूर्व शामके ४ बजे त्यौहारके कारण मेरी माँ अपने कच्चे घरौंदेको गोबरसे लीप रही थी। घरमें जितने भी ओढ़नेके वस्त्र थे, मेरे ऊपर पड़े थे। इतनेपर भी ठण्ड रुकनेका नाम नहीं ले रही थी। बुखार बहुत था। माँ रोती- रोती आँगन गोबरसे लीप रही थी और साथ ही मेरे स्वस्थ होनेकी प्रार्थना परमात्मासे कर रही थी। थोड़ी देर बाद घरपर एक महात्मा आये, बोले- माँ ! कुछ अन्न दो। मैंने रजाईसे मुँह खोला, देखा एक साधु हैं, जिनकी लम्बी जटाएँ एवं दाढ़ी, तनपर कोई वस्त्र नहीं, मात्र निचले भागमें मृगछाला पहने हुए थे। एक हाथमें तूमा कमण्डलु, गलेमें रुद्राक्षकी माला तथा जनेऊ धारण किये थे। मेरी माँसे साधु महाराजने पूछा- माई ! क्यों रोती हो? माँने मेरी बीमारीके सम्बन्ध विस्तृत रूपसे रोते-रोते बता दिया। साधु महाराजने मेरी ओर देखा, मुसकराये और माँसे बोले ताम्रपात्र है ? हाँ है महाराज - माँने उत्तर दिया। महात्माने कहा- एक लोटा जल भरो और लोहेकी छलनी लाओ। माँने दोनों वस्तुएँ उपलब्ध करा दीं। साधु महाराज एक पैरपर खड़े हो गये, जनेऊको एक हाथसे पकड़ा, मन-ही-मन कुछ गुनगुनायें और छलनीमें लोटेका पानी डाल दिया। छलनीसे एक बूँद पानी नीचे नहीं गिरा - यह सब मैं अपनी आँखोंसे देख रहा था । पुनः छलनीसे जलको लोटेमें डालकर माँसे बोले- माई ! इस जलको पूरे घरमें छिड़क दो। फिर मेरी तरफ देखा और मुसकराकर माँसे बोले- माई! अब इसको मामूली सिरदर्द भी नहीं होगा। मेरी माँ जलको छिड़कने चली गयी। जब माँ कुछ अन्न लेकर आयी, तबतक महात्माजी जा चुके थे मात्र ३० घरका हमारा गाँव था । माँने सब जगह तलाशा, परंतु महात्माजी नहीं मिले। उस दिनसे आजतक; ६१ वर्षका हूँ, कभी बीमार नहीं हुआ हूँ। परमात्माने मेरी माँकी प्रार्थनाको सुन लिया। वे कितने दयालु हैं, कितने कृपालु हैं। वे निःस्वार्थ कितना प्यार करते हैं।

[ श्री एम० एल० श्रीवासजी ]



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ve mahaatma phir naheen mile

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[ shree ema0 ela0 shreevaasajee ]

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