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बावन बाबा की मार्मिक कथा
बावन बाबा की अधबुत कहानी - Full Story of बावन बाबा (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [बावन बाबा]- भक्तमाल


काशीसे उत्तर चलकर कुछ दूरके पश्चात् श्रीगङ्गाजी पश्चिमको ओर बही हैं। यहींपर सबसे लंबा गङ्गाजीका पश्चिममुख प्रवाह है। पश्चिमवाहिनी धाराके मोड़पर बलुआ नामक बाजार है गङ्गाजीके उत्तर तटपर । बाजारसे दो-तीन फर्लांगपर कुछ पेड़ोंके झुरमुट हैं, एक नाला है, छोटा-सा जंगल-जैसा बन गया है। बड़ा सुरम्य स्थान है। यहाँसे लगभग दो मीलपर कैथी नामका ग्राम है। वहाँके एक ब्राह्मणकुलके आजन्म ब्रह्मचारी, तपस्वी, विरक्त महापुरुषने इस स्थानपर भगवान् शङ्करका मन्दिर बनवाया और कुटी बनाकर भजन करते हुए जीवन व्यतीत किया।

श्रीब्रह्मचारीजी महाराज सिद्ध संत थे। उनकी उस प्रदेशमें बड़ी ख्याति थी। अपने गाँवके ही एक क्षत्रियबालकको उन्होंने दीक्षा दी थी। यह बालक आकारसे वामन था, अतः सब लोग इसे बावन कहा करते थे। गुरुके शरीर छूट जानेपर भी बावनजी उसी कुटीपर भजन करते हुए रहे। अनेक बार उन्होंने तीर्थयात्राएँ की र्थी; किंतु उनका चित्त अपने गुरुदेवकी समाधिके समीप पहुँचकर ही प्रसन्न होता था ।

कांग्रेसका सत्याग्रह आन्दोलन चल रहा था। अंग्रेज सरकार दमनपर उतारू थी। कांग्रेस गैरकानूनी संस्था घोषित कर दी गयी थी। स्वयंसेवकोंने जेलखानोंको भर दिया था। सरकारी कर्मचारी अब स्वयंसेवकोंको गिरफ्तार नहीं करते थे। वे स्वयंसेवकोंको आश्रय देनेवालेको गिरफ्तार करते और उनकी सम्पत्ति जब्त होती थी। भयके कारण कोई भी कांग्रेस-कार्यकर्ताओंको अपनेयहाँ टिकाना नहीं चाहता था। छिपकर सहायता देनेवाले | तो बहुत थे, पर रहा कहाँ जाय? बावनजीने स्वयं आमन्त्रित किया शिबिर-मन्त्रीको। अपनी कुटिया और मन्दिरको शिबिरके उपयोगके लिये दे दिया इन्होंने वे कह रहे थे- 'मेरे पास है क्या जो पुलिसवाले ले। जायँगे। मैं जेल जानेको पहलेसे तैयार बैठा हूँ।'

मन्त्रीने कहा- 'हमलोग सत्याग्रह करके गाँजा भाँग बंद करा रहे हैं, आप इन दोनोंका सेवन करते हैं। अतएव यहाँ शिबिर कैसे बनाया जा सकता है?'

बावनजीने उसी समय वहीं बैठे-बैठे गाँजेकी चिलम गङ्गाजीमें फेंक दी और बोले—'मैंने चिलम ही फेंक दी। अब गाँजा तो क्या, तम्बाकू भी नहीं पीऊँगा; भाँग और ठंढाई - सब आजसे छूट गयी। तुम निश्चिन्त यहाँ आ जाओ।'

उस समय बावनजीकी अवस्था लगभग पैंसठ-सत्तर वर्षकी होगी। सारे शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। उनके यहाँ भीड़ रहती थी। गाँजेकी चिलम ठंडी हो नहीं होती थी। वे स्वयं कहते थे—'मैं मजेसे पचास साठ चिलम रोज फूँकता था। भाँगका एक छटाँक गोला नित्य लिया करता था।' नशेका इतना अधिक जो सेवन।करता रहा हो, वह वृद्धावस्थामें एक क्षणमें सब छोड़ दे, यह बड़े ही दृढ सङ्कल्पकी बात थी। लोग धीरे-धीरे नशा छोड़नेकी बात करते हैं, बीमार हो जानेका भय बतलाते हैं. कोई अन्य सहारा लेते हैं नशा छोड़नेके लिये, पर बावनजीने यह कुछ नहीं किया। एक दिनमें उन्होंने अपने यहाँसे गँजेड़ी-भँगेड़ी लोगोंके समूहको भगा दिया। उनके स्वास्थ्यपर तनिक भी असर नहीं पड़ा।

बड़े सरल, प्रसन्नमुख और सोधे थे बावनजी। फसलके कटनेके दिनोंमें गाँवोंमें जाकर अत्र माँग लाते और फिर उनका वह भण्डार प्रत्येक आगत अतिथिके लिये खुला रहता। कांग्रेस-शिबिर जितने दिन वहाँ रहा, बावनजीके भण्डारका अन्न ही स्वयंसेवकोंके उपयोगमें आया।

भगवान् शङ्कर और गुरुदेवकी चरण पादुकाकी नित्य पूजा, गङ्गाजीका स्नान और गङ्गाजलका पान तथा गङ्गातटपर विचरते हुए आनेवाले साधु-संतोंका यथाशक्य स्वागत-सत्कार- यही उनका जीवन-क्रम रहा अन्ततक । ऐसे आदर्श, निःस्पृह जीवन अपनेमें ही धन्य एवं पूर्ण होते हैं।



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